मंगलवार, 20 सितंबर 2022

रासलीला 2

 श्रीकृष्ण बालकों के साथ भोजन करते हैं। उस समय सबने बछड़े चरने के लिए छोड़े हैं। ब्रह्माजी बछड़ों को उठाकर ब्रह्मलोक में ले गए। भोजन के बाद बालकों ने देखा कि बछड़े नहीं हैं। उन्होंने लाला से कहा कि कन्हैया, बछड़े दिखाई नहीं देते। लाला ने कहा कि तुम भोजन करो। मैं बछड़ों को खोजकर ले आता हूँ। कन्हैया बछड़े खोजने निकल पड़ता है। उसी समय ब्रह्माजी ने उन बालकों को भी उठा लिया और उन्हें ब्रह्मलोक में ले गए। लाला को मालूम हो गया कि यह बुड्ढा आज अकारण ही मेरे पीछे पड़ गया है। यह बात लाला को पसन्द नहीं आई। इसलिए उसने एक ही समय सभी बछड़ों और ग्वालबालों का स्वरूप अचानक प्रकट कर दिया। 

कमरी भी श्रीकृष्ण हो गई, लकड़ी भी श्रीकृष्ण हो गई। जिसका जो स्वभाव था, वह श्रीकृष्ण हो गया। जिसका स्वभाव उताबलापन था, भगवान् भी उसी तरह उताबले हो गए। श्रीकृष्ण इसके स्वभाव के अनुसार उनका स्वरूप धारणकर घर लौट आए हैं। सबेरे गए हुए बालक. शाम को घर लौट आए हैं और वे दौड़ते-दौड़ते अपनी दादी माँ के पास गए हैं। दादी माँ ने बालकों को गोद में लेकर छाती से लगा लिया है। अत्यंत आनन्द-आनन्द पैदा हो गया है। इस प्रकार आज ये वृद्ध गोपियाँ बालकों से न मिलकर सीधे परमात्मा श्रीकृष्ण से मिलती हैं, जब कि उनके बालक ब्रह्मलोक में हैं। इन वृद्ध गोपियों को श्रीकृष्ण मिलन की तीव्र भावना थी इसलिए बालकों के स्वरूप में श्रीकृष्ण उनके घर आए हैं, वृद्ध गोपियों से मिलते हैं तथा एक-एक का मनोरथ सफल करते हैं।

आज गोकुल के एक-एक घर में आनन्द समुद्र बह रहा है। आज तक गोपियाँ आनन्द लेने के लिए यशोदाजी के घर जाती थीं, किन्तु आज प्रत्येक गोपी के घर परमानन्द प्रकट हुआ है। आज गायों को भी अत्यंत आनन्द हुआ हैं उनके बछड़े ब्रह्मलोक में हैं और बछड़ों के स्वरूप में श्रीकृष्ण ही घर आए हैं। यह गायों के साथ रासलीला है। यह जीव और ईश्वर का मिलन है। गायों को अत्यंत आनन्द हो रहा है। ग्वाल गायों को रोकने के लिए जाते हैं लेकिन उन्हें अपने बछड़ों के प्रति ऐसा अलौकिक प्रेम जागा हैं कि वे दौड़ती-दौड़ती बछड़ों के पास चली जाती हैं। यह देखकर ग्वालों को आश्चर्य होता है। इस प्रकार गायों को ब्रह्म-सम्बन्ध प्राप्त हो गया है। इस समय कमरी श्रीकृष्ण, डण्डा श्रीकृष्ण, गोप बालक श्रीकृष्ण, बछड़े श्रीकृष्ण, यानी सभी श्रीकृष्ण- श्रीकृष्ण बनकर परस्पर क्रीड़ा कर रहे हैं।

ज्ञानी पुरुष आत्म-स्वरूप में रमण करते हैं, बिहार करते हैं। वेदान्त का विवर्तवाद और वैष्णवाचार्यों का ब्रह्म परिणामवाद इन दोनों का उद्भव इस लीला से हुआ है। भागवत में इन दोनों वादों का समन्वय किया गया है। वेदान्त का ऐसा कहना है कि ब्रह्म तत्व सत्य है, सभी में ब्रह्म ही सत्य है, माया के कारण यह संसार चित्र-विचित्र दिखाई देता है। प्रभु के सहारे यह संसार दृष्टिगोचर होता है। सिनेमा के पर्दे पर अनेक चित्र दिखाई देते हैं। कभी उस पर जोरदार बरसात दिखाई देती है, कभी समुद्र उछलता है। चित्र में यह भले दिखाई दे, किन्तु पर्दे का एक सूत भी भीगता नहीं। ब्रह्म एक सच्चा आधार है। सहारा है। ब्रह्म में माया के कारण यह संसार चित्र-विचित्र रूप में दिखाई देता है।  लकड़ी और बछड़ा दिखाई देते हैं, किन्तु वे श्रीकृष्ण हैं उन्हें छोड़ कुछ दूसरे नहीं। माया के कारण विविधता दिखाई देती है। इस प्रकार की अनेकता और विविधता ही अविद्या है। इसलिए ज्ञानी महापुरुष इसे माया का भँवर मानते हैं। वैष्णवाचार्यों का कथन है कि यह जगत् ब्रह्म का परिणाम है अर्थात् ब्रह्म ही एक प्रकार से जगत् है । ब्रह्म ही अनेक स्वरूप धारण करता है और वही सर्वत्र दिखाई देता है। श्रीकृष्ण ही अनेक रूपों में दर्शन देते हैं।

यह लीला एक वर्ष तक चलती रही। किसी को भी वास्तविक बात खबर न पड़ी। श्रीकृष्ण अनेक बछड़ों के स्वरूप में, अनेक ग्वाल-बालों के स्वरूप में स्वयं अपने स्वरूप के साथ क्रीड़ा करते रहे। महान् योगी अपने ही आत्म - स्वरूप आत्मरति में ही लीन रहते हैं। ब्रह्माजी ने विचार किया कि ग्वाले बहुत दुःखी हुए होंगे, रोते होंगे, उन्हें देखने के लिए वे गोकुल में आए। उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि एक भी बालक कम नहीं हुआ है, सभी दिखाई दे रहे हैं। अब ब्रह्माजी विचार में पड़ गए कि मैंने जिन्हें ब्रह्मलोक में रखा है, वे सच्चे हैं अथवा जो सामने दिखाई दे रहे हैं वे सच्चे हैं?

उस समय लाला ने एक और चमत्कार दिखाया। वे ब्रह्माजी का स्वरूप धारणकर उनकी गद्दी पर जा बैठे और उनके सेवकों से कहा, 

"अब मैं अन्दर आराम कर रहा हूँ। आजकल एक भूत जैसा नकली ब्रह्मा उत्पन्न हुआ है। वह कदाचित् आधे घण्टे बाद यहाँ आएगा। तुम उसके लिए मुझसे पूछे बिना ही बाहर ही छड़ी से अच्छी तरह से उसकी पूजा करना।"

 श्रीकृष्ण ब्रह्मा होकर उनकी गद्दी पर बैठे हैं और आराम कर रहे हैं। ब्रह्मा विचार करते-करते गोकुल से ब्रह्मलोक में आते हैं। यहाँ आने पर उनके नौकर ही उन्हें मारने लगते हैं। इससे ब्रह्मा को बहुत बुरा लगता है। उन्होंने अपने नौकरों से कहा

 "अरे! तुम्हें कुछ होश है। तुम मेरे नौकर हो और मेरा ही अपमान कर रहे हो! मैं ब्रह्मलोक का राजा हूँ।"

 नौकर कहते हैं

 "तुम किसके राजा? हमारे राजा तो अन्दर आराम कर रहे हैं। तू भूत जैसा कहाँ से यहाँ आया है? हम लोग तुझे अन्दर नहीं जाने देंगे।" 

इस प्रकार लाला की परीक्षा करने वाले बूढ़े ब्रह्मा की ही परीक्षा हो गई। मार पड़ने पर ही अक्ल आती है। मार न पड़े तो बुद्धि नहीं आती यह एक सिद्धांत है। ब्रह्माजी ने आँखें बन्दकर ज्यों ही ध्यान लगाया तो, उन्हें विश्वास हो गया कि मेरी गद्दी पर कृष्ण कन्हैयालालजी विराजमान हैं। यह बस श्रीकृष्ण की लीला है। वास्तव में श्रीकृष्ण देव नहीं हैं, सर्व देवों के देव हैं, परमात्मा हैं। ब्रह्माजी को पश्चाताप होने लगता है कि मैंने भूल की है, परमात्मा का अपमान किया है। क्या अब मैं उनके पास जाकर क्षमा माँगू? ब्रह्माजी जिस समय क्षमा माँगने आए, उस समय अनेक बछड़े और अनेक ग्वाल-बालों में श्रीकृष्ण का जो स्वरूप था वह एक ही क्षण में अन्तर्धान हो गया। अकेले श्रीकृष्ण रह गए और ऐसा नाटक किया मानों उन्हें डर लग रहा है। उस समय श्रीकृष्ण रोते जा रहे हैं, बड़ों और मित्रों को ढूंढ रहे हैं और कहते हैं, मधुमंगला मनसुखा श्रीदामा तुम सब मुझे छोड़कर कहाँ चले गए? मुझे अकेले बहुत डर लग रहा है। ब्रह्माजी ने उन्हें देखकर हाथ जोड़े और कहा, महाराज किसी को तुम्हारे जैसा नाटक करना नहीं आएगा, मैं तुम्हारे चरणों में पड़कर क्षमा माँगने आया तो मुझे आप ऐसा स्वरूप दिखा रहे हैं?


रोना यह माया का धर्म है श्रीकृष्ण में माया का यह धर्म भले ही दिखाई दे, किन्तु श्रीराम श्रीकृष्ण माया रहित शुद्ध ब्रह्म हैं, आनन्दमय हैं। जिस प्रकार सूर्य के पास अन्धकार नहीं जा सकता उसी प्रकार ब्रह्मा के पास माया नहीं जा सकती, उसे स्पर्श नहीं कर सकती। यह तो प्रभु ने ऐसा नाटक किया है कि आज आनन्द रोता हुआ दिखाई देता है। कदाचित् श्रीराम- श्रीकृष्ण रोएँ, किन्तु वे अपने स्वरूप में स्थिर होकर ही लीला करते हैं। जिस प्रकार किसी नाटक में कोई राजा भिखारी का वेश धारणकर भीख माँगने जाए और भीख न मिलने पर नाटक करे कि मुझे कुछ नहीं मिला और रोने लगे किन्तु अन्दर से उसे पता है कि मैं राजा हूँ। उसी प्रकार परमात्मा श्रीराम-श्रीकृष्ण आनन्दमय हैं। भले ही वे रोते हुए दिखाई दें।

रामायण में वर्णन आता है। जब रावण सीताजी को हरण करके ले गया, तब श्रीराम सीताजी को खोजने निकल पड़ते हैं। जब लंका में रामजी का स्मरण कर सीताजी रोती हैं, तब रामचन्द्रजी ऐसा नाटक करते हैं कि सीता के वियोग से मुझे बहुत दुःख है। यदि कभी भक्त भगवान् के वियोग में रोने लगे, तब भगवान् कभी-कभी ऐसी लीला करते हैं कि मुझे भक्त का वियोग सहन नहीं होता। श्रीसीताजी के वियोग में रामजी को रोते देखकर लक्ष्मणजी समझाते हैं, 

"बड़े भाई,आप रोएँ नहीं, सीताजी मिलेंगी।"

 रामजी कहते हैं कि मेरी सीता कहाँ है? वृक्ष से पूछते हैं कि सीता कहाँ है? श्रीराम जिस समय दंडकारण्य से होकर गुजर रहे थे उसम समय भगवान् शंकर सतीजी के साथ उसी मार्ग में आ जाते हैं और उन्हें श्रीराम-लक्ष्मण के दर्शन होते हैं। शिवजी वृक्ष की ओट में खड़े हैं, प्रेम से उनका दर्शन करते हैं, शरीर में रोमाँच का अनुभव करते हैं। उन्होंने अपने दोनों हाथ जोड़ लिए हैं। यह कैसा नाटक है! मनुष्य जैसी लीला हो रही है। आज आनन्द रोता- रोता जा रहा है।

श्रीराम आनन्दमय हैं, श्रीकृष्ण आनन्दमय हैं। शिवजी महाराज वृक्ष की ओट में खड़े होकर वंदन करते हैं। वे सोचते हैं कि यदि मैं सामने जाकर वंदन करूँ, तो भगवान् की लीला में विघ्न पड़ेगा। सतीजी ने पूछा कि आप किसे वंदन करते हैं। शिवजी ने कहा,

 "ये परमात्मा हैं। मैं इनको वंदन करता हूँ।"

 सतीजी ने कहा,

 "यह तो रोते-रोते जा रहे हैं। क्या आनन्द कभी इस प्रकार रोयेगा? यह तो राजा दशरथ के पुत्र हैं।" 

शिवजी ने कहा, 

"ये राम हैं, परमात्मा हैं, मेरे इष्ट देव हैं। ये राम सर्वमय हैं। ये अंदर से आनन्दमय हैं, सावधान हैं। यह तो लीला कर रहे हैं।"

 सतीजी को इस बात पर विश्वास नहीं होता। वे कहती हैं कि मैं इनकी परीक्षा लूँगी। शिवजी ने परीक्षा लेने की अनुमति दी। सतीजी परीक्षा लेने निकल पड़ीं। रामचन्द्रजी जिस मार्ग से आने वाले हैं, उसी मार्ग पर वे सीता का रूप धारण कर खड़ी हो गई हैं। सतीजी ने सोचा कि राम जब सीता का स्वरूप देखेंगे, तब एकदम प्रसन्न हो जाएँगे। सतीजी को सामने खड़ी देखकर राम ने वह रास्ता छोड़ दिया और दूसरा रास्ता पकड़ लिया। सतीजी ने यह समझा कि राम स्त्री - वियोग में बहुत व्याकुल हैं, बहुत दुःखी हैं। इसलिए उन्होंने मुझे नहीं देखा है। अतः वे फिर रामजी के रास्ते में चलकर आगे खड़ी हो जाती हैं। यह भी पुकारकर कहा कि मैं तो यहाँ खड़ी हूँ। आप क्यों रो रहे हैं? श्रीराम इस बात को अनसुनी कर देते हैं और वे रास्ता छोड़कर दूसरा रास्ता पकड़ लेते हैं। सतीजी को आश्चर्य होता है कि अभी उनकी नजर ठीक तरह मुझ पर नहीं पड़ी है। मैं उनके पास जाकर खड़ी रहूँ तो वे प्रसन्न होंगे। सीताजी के रूप में सतीजी रामचन्द्रजी के पास जाकर खड़ी हों गईं। उन्हें देखकर श्रीराम अपना मस्तक धरती पर झुकाकर वन्दन करते हैं और कहते हैं,

 "दशरथ पुत्र राम आपको वन्दन करता है। माँ, तुम अकेले ही जंगल में क्यों घूम रही हो? भगवान् शंकर कहाँ हैं?"

 अब सतीजी को विश्वास हो गया, 

"भले ही ये रो रहे हैं, किन्तु अन्दर से बहुत सावधान हैं, आनन्द में हैं। इनको माया का स्पर्श नहीं है।"

 जो परमात्मा का सेवा-स्मरण करे, उसे माया का स्पर्श नहीं होता। फिर स्वयं परमात्मा को श्रीराम को, श्रीकृष्ण को माया कैसे स्पर्श कर सकती है?


ब्रह्माजी ने निश्चय किया है कि श्रीकृष्ण भले ही रोयें, किन्तु ये परमात्मा हैं। ब्रह्माजी को यह विश्वास हो गया। हंस पर विराजे हुए ब्रह्माजी नीचे उतरते हैं और 'कृष्ण कन्हैयालाल की जय' कहकर श्रीकृष्ण के चरणों में वंदना करते हैं। 

आपका श्रीअंग मेघ जैसा श्याम है। आपने पीला पीताम्बर धारण किया है और आपके गले में अर्थात् चणोठी (गुजराती शब्द) ब्रह्माण्ड का आकार गुँजा जैसा है श्रीकृष्ण अनंत कोटि ब्रह्माण्ड के नायक हैं। उन्होंने ब्रह्माजी को बताया है तुम तो एक ही ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा हो, ऐसे-ऐसे अनेक ब्रह्माण्ड मेरे श्रीअंग में विलास करते हैं। वे अनंत कोटि ब्रह्माण्ड के नायक हैं इसलिए उन्होंने गले में गुंजा की माला धारण की है, उनके मस्तक पर मोर पिच्छ का मुकुट है। 

माता के पेट में निवास करने वाला बालक यदि अज्ञान में उसे लात भी मारे, तो वह उसे क्षमा करती है। इसी प्रकार आप मुझे क्षमा कीजिए। मैं आपकी लीला से विमोहित हो गया था । आपकी लीला का पार भला कौन पा सकता है? 

श्रीकृष्ण की लीला ही उनकी बहुत बड़ी कृपा है। श्रीकृष्ण आनन्द में हैं। इसलिए उन्हें सुख भोगने की इच्छा होती ही नहीं। श्रीकृष्ण को कोई भी स्वार्थ नहीं होता । परमात्मा जो कोई काम करता है, वह हमारे लिए करता है। यह जीव ईश्वर का है। परमात्मा का होते हुए भी यह जीव अपने को भूल गया है। यह जीव ऐसा मानता है कि मैं ही जगत् हूँ, मैं किसी स्त्री का हूँ, मैं किसी पुरुष का हूँ। जीव का जगत् से जो सम्बन्ध है, वह कच्चा है, केवल श्री परमात्मा, श्रीकृष्ण के साथ ही स्थापित होने वाला सम्बन्ध सच्चा है। यह जीव भगवान् का होने पर भी संसार में उलझ गया है। जीव के आकर्षण के लिये ही परमात्मा लीला करते हैं।  श्रीकृष्ण-लीला में ऐसी दिव्य शक्ति है कि उनकी कथा सुनते ही अनायास हमारा मन संसार को भूल जाता है। मुक्ति मन को मिलती है, आत्मा को नहीं मिलती। आत्मा परमात्मा का अंश है। 

आत्मस्वरूप के सम्बन्ध में सन्तों में थोड़ा मतभेद है। अनेक सन्त ऐसा मानते हैं कि आत्मा और परमात्मा दोनों एक ही हैं। आत्मा-परमात्मा के स्वरूप में जो भेद दिखाई देता है वह सच्चा नहीं है, वह अज्ञान से पैदा हुआ है। अनेक साधु-सन्त ऐसा मानते हैं कि यह जीव ईश्वर का अंश है, परमात्मा अंशी है। ज्ञानी पुरुषों का कथन है कि परमात्मा का स्वरूप ऐसा दिव्य है कि उसमें से थोड़ा भी अंश अलग नहीं हो सकता।

अनेक लोगों को व्यवहार में यह अनुभव होता है कि ठाकुरजी ने मुझपर बड़ी कृपा की है, मुझे किसी तरह की चिन्ता नहीं है। क्योंकि दो लड़के काम-धन्धे में लग गए हैं। दो लड़कों के लिए दो बंगले अलग बनवा दिये हैं। उनमें झगड़ा होगा ही नहीं। मुझे कोई परेशानी नहीं है, कोई बन्धन नहीं है। अब मैं स्वतंत्र हूँ। अब मैं कितनी भक्ति करूँ, उतनी कम है। अब मुझे भक्ति करने के लिए गंगा तट पर जाना है। मनुष्य जितना बोलने में होशियार है, उतना व्यवहार में होशियार नहीं है। वह कहता है कि मुझे कोई झंझट नहीं है। एक पुत्री बाकी है। इसकी शादी हो जाए, तो मैं तुरन्त गंगा तट पर भजन करने चला जाऊँगा। वहीं अपना शरीरान्त करना है। क्या अभी आप गंगा तट पर नहीं गए? यह सुनकर कोई वृद्ध पुरुष उत्तर देता है, "मुझे तो सब कुछ छोड़ना है; किन्तु ये लड़के जाने नहीं देते। ये घर में रहने के लिए ही जिद करते हैं और कहते हैं कि घर में भी भक्ति होती है।

यह बात सत्य है कि घर में भक्ति होती है, लेकिन घर में रहकर सतत भक्ति नहीं होती।घर में रहने पर बालक बालिकाओं की भी भक्ति करनी पड़ती है। घर में सारे दिन भगवान् की घर भक्ति करना अशक्य है। वृद्ध कहता है कि लड़कों के इनकार करने के कारण मैं कहीं बाहर भक्ति करने नहीं जाता। वास्तव में उसे घर छोड़ने की इच्छा नहीं है किन्तु लड़कों को व्यर्थ अपयश देता है। जब यमराज के यहाँ से धर-पकड़ का वारण्ट आएगा, तब क्या उसे किसी प्रकार रोका जा सकेगा? या यह कहा जाएगा कि लड़के जाने नहीं देते। उस समय तो यमदूत धक्का मारकर ले जाएँगे। एक दिन सब कुछ छोड़ना ही पड़ेगा। जब विवश होकर छोड़ना पड़ता है, तो बड़ी तकलीफ होती है और मनुष्य सोच समझकर छोड़ दे तो बड़ा सुख मिलता है। उसके बिना कोई काम रुका नहीं है, न किसी ने उसे बाँध रखा है। फिर भी वह अपने अज्ञान के कारण स्वयं बँधा हुआ है। आत्मा को किसी प्रकार का बन्धन नहीं है। बन्धन तो मन को है।

श्रीकृष्ण-लीला में ऐसी दिव्य शक्ति है कि सांसारिक विषयों में फँसा हुआ मन अनायास ही संसार को भूल जाता है। इस जगत् में रहकर किसी न किसी निमित्त से इसे भूलना है और परमात्मा के स्मरण में तन्मय होना है। यही श्रीकृष्ण लीला का रहस्य है। श्रीकृष्ण की लीला अमृत है। मनुष्य स्वर्ग का अमृत पीने से अमर नहीं बनता। उल्टे स्वर्ग का अमृत पीने से विकार-वासना की वृद्धि होती है। यदि कृष्ण कथामृत का पान करे और प्रभु में प्रेम जगे, तो धीरे-धीरे मनुष्य की वासना विनष्ट होती जाती है। स्वर्ग का अमृत पीने से पुण्य का नाश होता है; किन्तु कथामृत - पान से पापों का विनाश होता है। स्वर्ग का अमृत थोड़े समय के लिए सुख-शान्ति देता है; किन्तु कुछ समय पश्चात् मन अशान्त बन जाता है। तुम जितने समय तक कथा सुनते हो, उतने समय तक संसार को भूल जाते हो । भगवान् की लीला में ऐसी दिव्य शक्ति है। योगीजन जगत् को भूलने के लिए प्राणायाम, प्रत्याहार करते हैं। कृष्ण-लीला ऐसी मधुर है कि इसमें अनायास ही यह जीव जगत् को भूल जाता है। इससे प्रभु में प्रेम जगता है और परमात्मा के दर्शन स्मरण में तन्मयता उत्पन्न होती है। 

श्रीकृष्ण की कृपा से ही श्रीकृष्ण-लीला का रहस्य ध्यान में आता है। भगवान् की सारी लीला बड़ी अटपटी है। उसमें अनेक बार ब्रह्मादिक देवता भी भ्रम में पड़ जाते हैं। प्रभुजी ने ब्रह्मा का मोह दूर कर दिया। ब्रह्माजी बालकों और बछड़ों को ब्रह्मलोक से धरती पर ले आए हैं। वे सब मानो ऊँघ में से जाग गए हैं। 

श्री डोंगरेजी महाराज 

हरिओम सिगंल 




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