सोमवार, 19 सितंबर 2022

प्रेम बन्धन

 सूरदासजी महाराज के जीवन में एक घटना घटी थी। वे जन्म से अन्धे नहीं थे। जब उन्होंने आँख से पाप होते देखा तब यह जानकर कि आँख भक्ति में विघ्न डालती है, उन्होंने उसे फोड़ डाला था कि मुझे अब जगत् को नहीं देखना है, बल्कि सतत श्रीकृष्ण का दर्शन करना है, सतत भक्ति करनी है। सूरदासजी वृन्दावन में रहते थे। उनके इष्टदेव बालकृष्णलाल थे। वे सारे दिन शुद्ध भाव से ध्यान करते थे, जप करते थे और कीर्तन करते थे। उनके चरित्र में लिखा है कि जब वे बड़े प्रेम से कृष्ण-कीर्तन करते, तब बालकृष्णलाल उनके सामने बैठकर कीर्तन सुना करते थे। उनके कीर्तन में भगवान् को बहुत आनन्द आता था। सूरदासजी का ऐसा नियम था कि किसी मनुष्य से भीख न माँगे। जब वे कहते कि लाला मुझे बहुत भूख लगी है। मैं किसी मनुष्य से नहीं माँगूँगा। वे बालकृष्णलाल को अपना मालिक मानकर कहते कि मेरा कपड़ा बहुत फट गया है। श्रीकृष्ण किसी न किसी को प्रेरणा प्रदान करते और किसी से सूरदास को वह वस्तु मिल जाती। एकबार सूरदासजी कहीं जा रहे थे। उनके रास्ते में एक बड़ा गड्ढा मिला। वे उसमें जा गिरे। गड्ढा बड़ा होने के कारण वे उससे बाहर न निकल सके। वे कुछ घबरा गये कि क्या करें? बालकृष्ण को दया आ गई। बालकृष्णलाल वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने सूरदासजी का हाथ पकड़ लिया। सूरदासजी को मालूम दिया कि किसी ने हाथ पकड़ा है। वे पूछ बैठे कि तुम कौन हो? बालकृष्णलाल ने कहा, 

"मैं नन्दबाबा के गाँव के एक ग्वाले का पुत्र हूँ। मैं गायों को लेकर इस ओर आया था। यहाँ आपको गड्ढे में पड़ा देखकर आपको निकालने के लिए चला आया।" 

सूरदासजी विचार में पड़ गए कि वह किस ग्वाले का लड़का है? किसे मेरी इतनी चिन्ता है? यह कोई दूसरा ग्वाला नहीं है। यह तो मेरा बालकृष्ण हैं वे उस लाला को पकड़ने के लिए आगे बढ़े। उनकी आँख से तो दिखाई नहीं देता था। बालकृष्णलाल आगे भाग गए। तब सूरदास ने कहा 

हाथ छुड़ाऐ जात हौ, निबल जानि के मोहि ।

हिरदय ते जो जाउ तौ, सबल कहौं मैं तोहि ॥

 तुम बलवान हो, मैं निर्बल हूँ, तुम सिन्धु हो, मैं बिन्दु हूँ। तुम अंशी हो मैं अंश हूँ। तुम सर्वज्ञ हो, मैं अल्पज्ञ हूँ, तुम ईश्वर हो, मैं जीव हूँ। तुमको सर्वशक्तिमान मानते हैं, किन्तु मैं तुमको सर्व शक्तिमान तब मानूँगा, जब तुम मेरे हृदय से बाहर निकल सको। सूरदासजी ने प्रभु को प्रेम से अपने हृदय में बाँध रखा है। परमात्मा प्रेम का बन्धन नहीं तोड़ सकते। सर्वतंत्र स्वतंत्र परमात्मा प्रेम-परतंत्र हैं। जहाँ अतिशय प्रेम, वहाँ परमात्मा अपनी हार मान लेते हैं।

भ्रमर को कमल से अतिशय प्रेम होता है। वह भ्रमर कमल के मकरन्द में लीन होता है। संध्याकाल सूर्य अस्त होने पर कमल मुँद जाता है। भ्रमरकाल की पंखुरियों में बन्द होकर सबेरा होने की प्रतीक्षा करता है। और अन्त में घुट कर मर जाता है। लकड़ी को छेदने वाला समर्थ भ्रमर कमल को तोड़ नहीं सकता। क्योंकि उसे कमल से प्रेम है। परमात्मा भी प्रेम-बन्धन नहीं तोड़ सकता। इसीलिए परमात्मा से प्रेम करो। यदि प्रभु प्रेम न हो सके, तो भगवान् का नाम-जप करो। जब पाप कम होता है, तब प्रभु में प्रेम जागृत होता है। जो श्रीकृष्ण के साथ प्रेम करता है, उसे श्रीकृष्ण श्रीकृष्ण बना देते हैं। यदि तुम किसी धनवान की खुशामद करो, तो वह धनवान तुमको क्या देगा? यदि बहुत उदार होगा, तो तुम्हें दस हजार देगा, बीस हजार देगा। अति उदार होगा, तो तुम्हें अठन्नी का पचास प्रतिशत का हिस्सेदार बना देगा। क्या कोई तुम्हें अपना सोलहों आना भाग देगा? मानो कोई उदार हुआ, तो आधी सम्पत्ति देगा। उससे अधिक तो क्या देगा? कोई तुमको अपनी सोलहों आने सम्पत्ति देने को तैयार नहीं हो सकता। केवल श्रीकृष्ण ही सोलह आना दे सकते हैं।






कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

  मौन के उस पार अध्याय 1 : खोया हुआ मन सचिन को यह एहसास सबसे पहले उसकी चुप्पी से हुआ। वह पहले भी कम बोलता था, पर अब उसकी ख़ामोशी में वि...