सोमवार, 19 सितंबर 2022

परमप्रेम 1

 परमात्मा श्रीकृष्ण परम प्रेमस्वरूप हैं। प्रेम और परम प्रेम में अन्तर है। श्रीकृष्ण सभी जीवों से प्रेम करते हैं। जब परमात्मा प्रेम करते हैं, तब इस जीव की पात्रता का भी विचार नहीं करते। इस जगत् में अनेक जीव ऐसे हैं, जो परमात्मा का अनादर करते हैं कि ईश्वर कहाँ हैं? मैं ईश्वर को नहीं मानता। फिर भी परमात्मा सबको मानते हैं। यह पृथ्वी परमात्मा की है । मानव पृथ्वी के आधार पर स्थित है। परमात्मा पवन सभी को देते हैं। परमात्मा सभी को प्रकाश देते हैं। परमात्मा ही अन्न-जल देते हैं। फिर भी जीव अभिमान में आकर बोलता है कि मैं ईश्वर को नहीं मानता। कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि मैं ईश्वर को मानता हूँ; किन्तु एक आसन पर तीन घण्टे बैठकर मुझे भगवान् की भक्ति करने की फुरसत नहीं है। जिसे चौबीस घण्टे में केवल तीन-चार घण्टे एक आसन बैठकर भगवान् की भक्ति करने की फुरसत नहीं है वह ईश्वर को माने या न माने दोनों समान ही हैं। "मैं ईश्वर को मानता हूँ।" यह कहने से कोई लाभ नहीं। तुम भगवान् के लिए कितना समय देते हो, उसी का महत्त्व है। जो भगवान् के लिए तीन-चार घण्टे का भी समय नहीं देता, वह भगवान् को ठीक तरह से मानने वाला नहीं कहा जा सकता।

प्रेम और परम प्रेम में दूसरा भी अन्तर है। जो प्रेम थोड़ा-सा भी स्वार्थ लेकर किया जाता है। वह साधारण प्रेम कहलाता है। जो प्रेम किसी बदले की भावना छोड़कर निःस्वार्थ भाव से किया जाता है, उसे परम प्रेम कहते हैं। परमात्मा बिना किसी स्वार्थ के जीव से प्रेम करता है। लक्ष्मीपति परमात्मा किसी से पैसा नहीं माँगते, वह केवल प्रेम चाहते हैं। यह जीव अनेक बार परमात्मा को पैसा देता है किन्तु प्रेम नहीं देता। मनुष्य स्त्री के साथ प्रेम करता है, किसी पुरुष के साथ प्रेम करता है, किसी कपड़े से प्रेम करता है। उसे परमात्मा को साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करने में संकोच होता है, लज्जा आती है। उसे कपड़ा गन्दा होने की चिन्ता होती है। मनुष्य जितनी सावधानी कपड़ा सम्हालने में करता है उतनी वह अपने दिल की नहीं करता। उसे कपड़े में दाग लगने की तो चिन्ता होती है, किन्तु अपने मन को दाग लगने की चिन्ता नहीं होती। थोड़ा-सा अपने अन्तर की ओर देखो, मन को बारंबार देखो तो पता लगे कि मन में कितने दाग लगे हुए हैं? यदि कपड़े में दाग लगेगा तो वह बाजार से दूसरा खरीदा जा सकता है; किन्तु यदि मन खराब हो जाएगा, तो वह बाजार से दूसरा नहीं मिलेगा।

शरीर एक दिन गलित हो जाएगा। इस संसार में जिसकी उत्पत्ति होती है, उसका क्षय भी होता है। जिसका क्षय होता है, उसे शरीर कहते हैं। " शीर्यते इति शरीरम् " किसी के मरण से ईश्वर की सृष्टि में कोई अन्तर नहीं पड़ता। मरने पर पंच महाभूत में मिल जाते हैं। जीवात्मा मरने के बाद केवल मन को साथ लेकर जाता है, शरीर छोड़ने पर मन ही साथ में आता है। हमारा यह तन पूर्व जन्म का मन लेकर आता है। जो मन मरने के बाद भी साथ जाने वाला है, उसे अधिक सावधानी से सम्हालना चाहिए।

ऐसा नहीं है कि जगत् से घृणा करो; किन्तु यहाँ किसी जीव से अधिक प्रेम भी न करो। इस संसार में केवल परमात्मा ही प्रेम करने योग्य है। परमात्मा से प्रेम करो। कदाचित् आप यह शंका करेंगे कि महाराज आप प्रतिदिन परमात्मा से प्रेम करने को तो कहते हैं, किन्तु प्रभु में तो प्रेम होता ही नहीं। आप भगवान् में प्रेम होने का कोई उपाय बताइए। आप जरा विचार तो कीजिए कि अपने घर के लोगों से कैसे प्रेम करते हैं? पति ऐसा समझता है कि पत्नी मुझे सुख देती है और पत्नी ऐसी कल्पना करती है कि पति के कारण ही सुखी हूँ। घर के लोग मुझे सुख देते हैं, ऐसा समझने से प्रेम होता है। आज से आप ऐसा निश्चय कीजिए कि प्रभु ने ही मुझे सुख दिया है। न कोई स्त्री सुख देती है, न कोई पुरुष सुख देता है। यहाँ सब अपने किये गये कर्म का फल भोगने के लिए इकट्ठा हुए हैं। कर्म का सम्बन्ध पूरा होते ही सुख देने वाला ही दुःख का कारण बनता है।

व्यवहार में यह देखा गया है कि जिससे अधिक सुख मिलता है, वही रुलाता है। सुख तो परमात्मा देता है। आपको यदि थोड़ा ठंडा पानी मिले तो विचार करो कि यह किसने दिया है? किसी मनुष्य में पानी पैदा करने की शक्ति नहीं है। पानी तो परमात्मा देता है। यदि पानी मिले, तो भगवान् का एहसान मानना कि उसने पानी दिया। यदि आप बारंबार अपने मन में विचार करेंगे कि मैं परमात्मा की कृपा से सुखी हूँ, तो ही प्रभु में प्रेम उत्पन्न होगा। जो यह समझता है कि मैं अपने कर्म से सुखी हूँ, वह अभिमानी है। ऐसा विचार करो कि भगवान् मुझे सुख देते हैं; प्रभु की 'कृपा से मुझे धन मिला है और जो मान या धन आपको मिला है क्या वह किसी योग्यता से मिला है ? इसके लिए अपनी दृष्टि अन्दर की ओर मोड़ो और विचार करो कि क्या मैं इसके योग्य हूँ?

मैंने आज तक कितना पाप किया है? विचार करो कि मैंने मन से बहुत पाप किया है, आँख से बहुत पाप किया है। फिर भी प्रभु ने मुझे बहुत कम सजा दी है। प्रभु ने मुझे बहुत सुख दिया है। परमात्मा मनुष्य की योग्यता से अधिक मान या आदर देते हैं, सुख देते हैं। परमात्मा अत्यन्त उदार हैं। अहेतुकी प्रेम करना प्रभु का स्वभाव है। परमात्मा प्रेम किये बिना रह ही नहीं सकता। वह नास्तिकों से भी प्रेम करता है। वैष्णव जन अपने प्रेम द्वारा ही भगवान् को अपने वश में करते हैं। इसलिए प्रेम-बल ही सबसे श्रेष्ठ बल है। जब द्रव्य-बल, बुद्धि-बल, -बल, शरीर-ब ज्ञान-बल इन सबकी हार हो जाती है, तब प्रेम की जीत होती है। जहाँ अतिशय प्रेम है, वहाँ मनुष्य हार स्वीकार कर लेता है। प्रेम के सब नियम भिन्न हैं। प्रेम में अति मान मिलना अपमान जैसा लगता है। प्रेमी को अति मान नहीं सुहाता। इसीलिए वह कह पड़ता है कि मैं तो घर का हूँ। मैं क्या कोई पराया हूँ? मुझे इतना आदर क्यों देते हो? प्रेम में अति मान ही अपमान जैसा लगता है। इसीलिए वह कह पड़ता है कि मुझे अपना समझकर ही ऐसा कहा जाता है। प्रेम में अपमान भी मान है, आदर है। प्रेम के अनेक तत्त्व काफी भिन्न हैं।प्रेम में हार ही जीत है और जीत ही हार है। यानी मेरे प्रियतम की जीत ही मेरी जीत है और उसकी हार ही मेरी हार है। जहाँ अतिशय प्रेम है, वहाँ जीव भी हार पसन्द करता है। कल्पना करो कि कोई माता कथा सुनने के लिए जाने वाली है। उसके घर में तीन-चार वर्ष का बालक है। माता की ऐसी इच्छा है कि बालक घर में ही खेले उसे यहीं छोड़ मैं कथा सुनने जाऊँ। माता बालक को समझाती है, उसे खिलौना देती है, मिठाई देती है, पैसा देती है और कहती है कि बेटा ! तू घर में ही खेलना। लेकिन बालक पैसा फेंक देता है। उसे पैसा भी नहीं चाहिए, खिलौना भी नहीं चाहिए। उसे तो उसकी माता चाहिए। उसे माता को छोड़ कोई चीज पसन्द नहीं आती। बालक का सम्पूर्ण प्रेम माता में होता है। यदि बालक अपनी माता की साड़ी पकड़कर खूब रोने लगे तो क्या उसकी माता उसे रोता हुआ छोड़कर कथा में जाएगी। वास्तव में माता अपने बालक का प्रेम देखकर विह्वल हो जाएगी। यदि उससे कोई पूछे कि तुम कथा में क्यों नहीं आई? तो वह जवाब देगी कि बच्चे ने मुझे रोक लिया। क्या छोटा बालक माता को रोक सकता है? माता में तो बालक से अधिक शक्ति है; किन्तु बालक में प्रेम अधिक है। बालक का प्रेम देखकर माता दुर्बल बन जाती है कि बेटा! तेरी इच्छा नहीं है, तो मैं कथा में नहीं जाती ।

मान लो कि वह बालक अब बड़ा होकर चौबीस-पच्चीस वर्ष का जवान हो गया। उसकी शादी भी हो गई और उसकी पत्नी घर में आ गई। तब यदि माता कथा में जाने को तैयार हुई और वह विवाहित युवक उसे रोकना चाहता हो, तो क्या माता उसका कहना मानेगी? माता साफ शब्दों में कह देगी कि तू आज कथा में जाने से रोकेगा, तो भी मैं जाऊँगी। मुझे अपनी देह का, अपनी आत्मा का कल्याण करना है। विवाहित युवक माता को कथा में जाने से कितना ही रोके, किन्तु वह अवश्य जाएगी। अब यदि लड़का माता से कहे कि मैं छोटा था तो कथा में जाने से जब तुझे रोकता था, तब तू नहीं जाती थी। इस समय मैं पैसा कमाता हूँ और कथा में जाने से तुझे रोकता हूँ, फिर भी तू कथा में क्यों जाती है? माता बड़ी सरलता से उत्तर देगी कि जब तू छोटा था, तब तेरा सम्पूर्ण प्रेम मुझ में ही था। अब तेरी पत्नी आ गई है और तेरा पहले जैसा प्रेम मुझ में नहीं है।

आज लड़कों की शादी होती है। उसके बाद वे माता-पिता का प्रेम और उनका उपकार भूलने ही लगते हैं। बालक बाल्यावस्था में माता के आधीन था। इसलिए माता भी उसके आधीन रहती थी और बालक जो कहता था उसे वह करती थी। लड़के के बड़ा होने पर माता उसके अधीन नहीं रहती । पुत्र का प्रेम कम होते ही माता का प्रेम भी कम हो जाता है। जीव और ईश्वर का सम्बन्ध पिता-पुत्र जैसा है, माता-पुत्र जैसा है। परमात्मा सबकी माता है। वही सबका पिता है। उस परमात्मा से प्रेम करो, सतत प्रभु स्मरण की आदत डालो, भगवान् का नाम जप करो, प्रतिपल भगवान् के उपकारों का स्मरण करो कि उसकी मुझ पर बड़ी कृपा है। जो परमात्मा के उपकारों का स्मरण करता है, प्रतिपल भगवान् की मुझ पर कृपा है ऐसा सोचता रहता है वही भक्ति कर सकता है। उसे ही प्रभु के प्रति प्रेम जगता है। कोई भी जीव प्रेम किये बिना रह ही नहीं सकता। जीव प्रेम तो करता है किन्तु जगत् के साथ प्रेम करता है। वह परमात्मा से प्रेम नहीं करता। जीव पैसे से भी प्रेम करता है। कितने ऐसे सुधरे हुए लोग भी हैं, जो अपनी चप्पल से भी बहुत प्रेम करते हैं। वे चप्पल पहनकर घर में फिरते हैं और चप्पल पहनकर रसोई घर में भी जाते हैं। वे ऐसा समझते हैं कि हम सभ्य हैं। जो चमड़े से अधिक प्रेम करे, उसे सुधरा हुआ कहें या बिगड़ा हुआ कहें ? मन्दिर की तरह ही अपना रसोईघर पवित्र रखना चाहिए ।

सूतजी सावधान करते हुए कहते हैं, कोई भी जीव प्रेम किये बिना नहीं रह सकता। लेकिन मनुष्य भगवान् से प्रेम नहीं करता। यह जीव जगत् से प्रेम करके ही दुःखी हुआ है। जगत् के साथ वैर मत करो, परन्तु उससे अधिक प्रेम भी मत करो। यह जगत् अधिक प्रेम करने योग्य नहीं है। तुमसे जो मिले, उसे 'जय श्रीकृष्ण' कहो, हाथ जोड़ो, दो मधुर शब्द कहो, किन्तु यदि तुमसे कोई न मिले, तो ऐसा न सोचो कि वे भाई दो-तीन महीनों से क्यों नहीं मिले? कोई मिले तो अच्छा, न मिले तो अधिक अच्छा! यह सोचो कि मुझे परमात्मा से मिलना है, परमात्मा से एकाकार होना है; जगत् के साथ विवेक पूर्वक प्रेम करो। उससे अधिक प्रेम मत करो। जिसका संयोग तुम्हें अधिक सुख देता है, उसका वियोग बहुत रुलाएगा। संसार का संयोग वियोग के ही लिए होता है। संयोग में जितना सुख है, उससे हजार गुना दुःख वियोग में है। एक दिन ऐसा आएगा जिस दिन तुम उसे छोड़ दोगे अथवा वह तुम्हें छोड़कर चला जाएगा। यह सोचकर कि एक दिन वियोग होने ही वाला है, यह याद रखते हुए विवेक पूर्वक प्रेम करो। यदि शरीर से प्रेम करो, तो उसे काम कहेंगे, धन से प्रेम करो, तो उसे लोभ कहेंगे। मनुष्य का प्रेम अनेक स्थानों पर बिखरा हुआ है। इस बिखरे हुए प्रेम को इधर-उधर से बटोर कर परमात्मा को अर्पित कर दो। सर्व शक्तिमान परमात्मा प्रेम-परतंत्र, प्रेमाधीन बन जाता है।

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।

 पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥

जब तक ईश्वर के साथ पूर्ण प्रेम न करो, तो वह प्रेम अधूरा है, अपूर्ण है। जो परमात्मा से प्रेम करता है, उसे परमात्मा पूर्ण बनाता है। फिर भी भगवान् परिपूर्ण ही रहता है। परमात्मा की तरह प्रेम करने वाला संसार में कोई नहीं है, न कोई हो सकेगा। भगवान् गोप-बालकों का स्वरूप धारण करते हैं और गोपियों को आत्म-स्वरूप का दान करते हैं। वे अत्यन्त उदार हैं। जब तक जीव भगवान् से प्रेम न करे, तब तक वह माया के बन्धन में पड़ा रहता है। जब जीव परमात्मा को प्रेम-बन्धन से बाँधता है, तभी यह जीव माया के बन्धन से मुक्त होता है। जब गोपियों का प्रेम बढ़ने लगता है, तब वे बालकृष्णलाल का नाम माखनचोर रख देती हैं। उन्हें 'माखनचोर-माखनचोर' कहकर बुलाती हैं। यशोदामाता को ऐसा पुकारना अच्छा नहीं लगता। वे कहतीं हैं कि मेरे बालक का नाम चोर रखती हैं। कन्हैया अपने घर का माखन नहीं खाता, वे गोपियों के घर का मक्खन खाने जाता है। इसीलिए तो वे सब उन्हें माखन चोर कहती हैं। लाला मुझ से कहता है कि मुझे अपने घर का माखन पसन्द नहीं। लाला को घर का माखन पसन्द न होने का कारण क्या है? घर का काम नौकर करता है। इसलिए नौकर का काम नौकर जैसा ही होता है। माता प्रेम से रसोई बनाती है। इसलिए उसके स्वाद में बहुत फर्क पड़ जाता है। माता के परोसने और नौकर के परोसने में काफी फर्क पड़ जाता है। घर में नौकर काम करते हैं। इसलिए लाला को माखन नहीं भाता है इसलिए यशोदा माता ने आज यह निश्चय किया है कि आज मैं अपने हाथ से दधि-मन्थन करूँगी और अपने हाथ से स्वादिष्ट माखन निकालूँगी। उसे अपने लाला को मना-मनाकर खिलाऊँगी। जब वह पेट भरकर माखन खालेगा, तब उसे दूसरे के घर का माखन खाने की इच्छा नहीं होगी। यशोदा में शुद्ध भक्ति का स्वरूप है। शुद्ध भक्ति भगवान् को बाँध लेती है। वस्त्र वासना का प्रतीक है। सूत्री वस्त्र रेशमी वस्त्र की अपेक्षा अधिक मुलायम होता है। जीव वासना का बिल्कुल नाश नहीं कर सकता। वह पहले वासना को मुलायम बनाता है। इसलिए यदि तुम्हें भक्ति मार्ग में आगे बढ़ना हो तो सुख भोगने की वासना मत रखना। तुम दूसरे को सुखी करने और सुखी देखने की इच्छा करना, अपनी वासना को मुलायम बनाना। जिसे दूसरे को सुख देने की वासना होती हैं, वही भक्ति कर सकता है और वह कभी दुःखी नहीं हो सकता। यशोदा ने रेशमी साड़ी धारण की है। उनके कान में कुण्डल हैं। वह भक्ति का शृंगार है। यशोदा माता भक्ति- रूपिणी है। साँख्य और योग रूपी कुण्डल भक्ति का श्रृंगार है। ये दोनों भक्ति के साधक हैं। साँख्य शास्त्र जड़-चेतन का विभाग करता है। जो जड़-चेतन का विभाग करता है। जो जड़-चेतन का अच्छी तरह विभाग कर सकता है, वही भक्ति कर सकता है। मैं इस शरीर से पृथक् हूँ। मैं यह शरीर नहीं हूँ। यह शरीर पंच महाभूत (क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर) अथवा पाँच तत्त्वों से बना है। शरीर से आत्मा भिन्न है, पृथक है। आत्मा परमात्मा का अंश है। शरीर जड़ है, आत्मा चेतन है। यही समझना साँख्य शास्त्र है। योग शास्त्र का काम मन को एकाग्र करना है। जब भगवत के स्वरूप और उनके नाम में आँख और मन एकाग्र होंगे, तो भक्ति होगी। भक्ति करने का अर्थ है भगवान की मूर्ति में परमात्मा के मंत्र में मन को पिरो देना । तभी भक्ति सिद्ध होती है। यशोदामाता दधि-मंथन करते समय लाला को देखती हैं। माता की नजर श्रीकृष्ण में है।  हमें भी ऐसी आदत डालनी चाहिए। घर में चाहे जो भी काम करो अपनी नजर भगवान् में स्थिर करो। जो अपनी आँखें भगवान् में रखता है, उसे भगवान दिव्य भक्ति देते हैं। आँखें भगवद्-स्वरूप में स्थिर करो। यशोदा माता जो काम करती हैं, वह लाला के लिए करती हैं। घर का प्रत्येक काम भगवान् के लिए करना ही भक्ति है।

कुछ लोग ऐसा समझते हैं कि मन्दिर में जाकर काम करना ही भक्ति है। वास्तव में तुम्हारे घर के मालिक परमात्मा हैं यदि घर में जो काम करो, वह भगवान् को ध्यान में रखकर करो और भगवान् के लिए करो, तो यह भी भक्ति है। जब बाजार में साग-सब्जी लेने जाओ, तो भगवान् को याद करना कि मैं यहाँ भगवान् के लिए आया हूँ। अपने घर में कोई काम करो तो उसे भगवान् के लिए करो। कुछ लोग ऐसा समझते हैं कि स्नान तो शरीर को स्वच्छ करने के लिए किया जाता है। अरे, यह शरीर तो मल-मूत्र से भरा हुआ है। एक-दो बार क्या अनेक बार धोने या स्नान करने पर भी यह स्वच्छ नहीं हो सकता। अनेक लोग शरीर पर खूब साबुन घिसते हैं। क्या बहुत साबुन रगड़ने पर शरीर का रंग बदल जाएगा? एकाध बार साबुन लगाना तो ठीक है। स्नान सेवा करने के लिए है। ऐसा भाव रखो कि मुझे स्नान करके भगवान् की सेवा में जाना है। अधिक क्या कहें? कोई भी काम हो, वह भगवान् के लिए करो।

गोपियों का श्रृंगार करना भी भक्ति है। यदि शृंगार करने में कोई मानसिक विकार हो, वासना हो, तो वह आसक्ति कहा जाएगा। यदि परमात्मा को प्रसन्न करने के विचार से श्रृंगार किया जाए तो वह भी भक्ति है। यह सोचना कि मुझे ठाकुरजी के सामने बैठना है। यदि मेरा कपड़ा गन्दा होगा तो मेरे भगवान् को पसन्द नहीं पड़ेगा। मैं भगवान् का हूँ। तुम्हें अच्छा और स्वच्छ कपड़ा पहिनकर भगवान् की सेवा करनी है, परमात्मा का ध्यान करो, प्रेम से कीर्तन करो। तुमको इस प्रकार देखकर भगवान् प्रसन्न होंगे।

मीराबाई के चरित्र में लिखा है कि वह सुन्दर श्रृंगार करती और गोपालजी के सम्मुख कीर्तन करती - 'गोपालजी की नजर मुझ पर पड़ने वाली है। इसलिए मैं श्रृंगार करती हूँ।' उनका भाव ऐसा था । यदि शृंगार के पीछे शुद्ध भाव हो तो श्रृंगार भी भक्ति है। प्रायः ऐसा होता है कि लोग जब बाहर निकलते हैं, तब अच्छा कपड़ा पहनते हैं, किन्तु कुछ लोग ऐसे होते हैं, कि जब घर के अन्दर ठाकुरजी की पूजा करने बैठते हैं, तब फटा कम्बल पहनकर बैठते हैं अथवा साधारण कपड़ा पहनते हैं और सोचते हैं कि यहाँ कौन देखने वाला है? तुम जगत् को अच्छा कपड़ा दिखाते हो और भगवान् को साधारण कपड़ा दिखाते हो। क्या यह भगवान् को पसन्द आएगा? तुम यदि भगवान् को अच्छा कपड़ा पहनकर प्रेम से पूजोगे, तो भगवान् की तुम पर नजर पड़ेगी। केवल तन को ही नहीं, अपने मन को भी सजाना है, मन को शुद्ध और सुन्दर बनाना है। कपड़े की अपेक्षा हृदय का शृंगार अधिक महत्वपूर्ण है। श्रृंगार में यदि कोई शुद्ध भाव है तो वह भक्ति ही है। व्यवहार और भक्ति दोनों भिन्न नहीं है। अपने व्यवहार को भक्तिमय बनाओ। यशोदा मैया दधि-मन्थन करते समय अपने लाला को निहार लिया करती हैं। इस पर थोड़ा विचार करें तो यह संसार भी एक मटकी (दुग्ध पात्र) जैसा ही है। इसमें माया ने विषय रूपी दही भरा है। जिस प्रकार दही में खट्टापन होता है, उसी प्रकार संसार के विषयों में अधिक खट्टापन होता है, अधिक कड़वाहट होती है, मीठापन बहुत ही कम होता है। दही का मन्थन करने से मक्खन निकलता है। दही में भले ही खट्टापन हो; वह मक्खन मधुर होता है। तुम विषयों का मन्थन विवेक पूर्वक करो और प्रेमरूपी मक्खन निकालकर परमात्मा को अर्पित करो। यशोदा श्री सम्पन्न हैं। उन्होंने कभी ऐसी मेहनत नहीं की थी, किन्तु आज अपने लाला के लिए वह मेहनत कर रही हैं। इसीलिए उसे  पसीना छूट रहा है । फिर भी उनके हृदय में श्रीकृष्ण प्रेम भरा पड़ा है। वह सोच रही हैं कि आज लाला के लिए मक्खन निकाल रही हूँ। आज मैं लाला को मना-मनाकर अपने हाथ से निकाला हुआ मक्खन खिलाऊँगी, जिससे वह फिर दूसरी जगह मक्खन खाने न जाए। माता यशोदा थक गई हैं, प्रेम में हृदय गद्गद हो गया है, द्रवीभूत हो उठा है। इसीलिए उसे अपनी थकावट का पता नहीं लगता। यदि तुम प्रेम से काम करो, परमात्मा प्रसन्न करने की भावना से काम करो, श्रीकृष्ण में नजर रखकर काम करो, थकावट होने पर भी उसकी खबर नहीं पड़ेगी, पता नहीं लगेगा। प्रेम एक ऐसी ही शक्ति है। प्रेम में भले ही थक जाए किन्तु उस थकावट का पता नहीं लगता। श्रीकृष्ण के प्रेम में माता यशोदा का हृदय पिघल गया है। धम-धम-धम की जो मधर ध्वनि होती हैं, वह दधि-मन्थन की धमधमाहट है। यशोदा मैया प्रेम से श्रीकृष्णलीला का वर्णन करती हैं कि मेरे लाला का जब से जन्म हुआ, तभी से इस गाँव की शोभा बढ़ी है। मेरा लाल सारे गाँव को प्राणों से भी प्यारा लगता है। श्रीकृष्ण की एक-एक लीला का स्मरण करते-करते माता के शरीर में रोमाँच हो उठता है, आँखें गीली हो जाती हैं। यशोदा माता दधि-मन्थन में तन्मय हो गई हैं। उनकी बहुत इच्छा है कि कन्हैया के जागने से पहले मक्खन निकाल लें। इसका कारण यह कि वह जागने के बाद काम नहीं करने देता। हर रोज का नियम तो यह था कि यशोदा माता के मंगल गीत गाने पर श्रीबालकृष्णलाल जागते थे। कई बार ऐसा भी होता था कि कन्हैयालाल बिछौने पर जागते, किन्तु माता की गोद में फिर सो जाते। यशोदा मैया लाला को समझातीं कि बेटा ! अब सूर्योदय का समय हो गया है। तुझे तेरी गायें बुला रही हैं। इस प्रकार जब यशोदा माता बहुत प्रेम से जगातीं, तब कन्हैया जागता है। आज यशोदा माता की ऐसी इच्छा है कि जल्दी-जल्दी मन्थन करूँ, तो मक्खन निकले। उसे निकाल कर रख लूँ। इसके बाद लाला को जगाऊँगी, लेकिन आज लाला को जगाने की कोई जरूरत पड़ी नहीं। बालकृष्णलाल जाग उठे हैं और जगकर घुटनों से चलते हुए पीछे से माता की साड़ी खींचने लगे हैं। माता को आश्चर्य हुआ कि यह कौन आया ? माता ने मुड़कर देखा तो बालकृष्ण नजर आए। निद्रा से जागने के बाद तो कन्हैया की शोभा कुछ और ही होती है। बालकृष्णलाल के बाल रेशम की तरह नरम हैं बाल उनके गाल पर आ गए हैं। लाला की आँखों में केवल प्रेम भरा है। वे प्रेम से अपनी माता को देख रहे हैं कि वह मेरे लिये कितना दुःख सहन कर रही है। आज लाला से यह न देखा गया। वे बोले, माँ तू मेरे लिए कितना दुःख सहन करती है। लाला को आज सहन नहीं हुआ। वे बोल पड़ा, माँ, मुझे भूख लगी है! माता का हृदय प्रेम से पिघल उठा। इसीलिए लाला को आज भूख लगी है। माता ने मटकी में नजर दौड़ाई, तो थोड़ा मक्खन ऊपर आया देखा । माता को अब ऐसा लगा कि यदि दस-पन्द्रह मिनट और दधि-मन्थन करूँ तो अच्छी तरह मक्खन निकलेगा। माता ने लाला से कहा, बेटा, तू बैठ! मैं मक्खन निकाल लूँ तो तुझे खिलाऊँ। माता पुनः दधि-मन्थन आरम्भ कर देती है, किन्तु लाला को जरा भी भूख सहन नहीं होती। उसे खूब भूख लगी है। फिर तो कन्हैया वहाँ से उठा और मथानी पकड़ कर रोने लगा। माता को उस पर दया आ गई। माता ने दही मथना बन्द कर दिया है और बालकृष्णलाल को अपनी गोदी में उठा लिया है। माता अपने हृदय का प्रेम-रस अर्पित कर रही है।

माता जिस समय अपने बालक को दूध पिलाती है माता और पुत्र दोनों एक हो जाते हैं। यशोदा माता और बालकृष्णलाला दोनों एक हो गए हैं। यही यशोदाजी की ब्रह्म सम्बन्धी कथा है। माता बालकृष्णलाल को गोद में लेकर बैठी है। वह अपने लाला को हृदय का प्रेम रस अर्पित कर रही है, तन्मय बन गई है। उसी समय माता ने देखा कि चूल्हे पर रखा हुआ दूध उफन रहा है। जब जीव का ब्रह्म से सम्बन्ध होता है, तभी दूध में उफान आता हैं।

यदि शान्ति से विचार करें, तो ज्ञात होगा कि यह लीला हर घर में होती है। तुम सबेरे चार बजे उठे, स्नान किया, पवित्र आसन पर बैठे और ऐसा संकल्प किया कि ध्यान के साथ जप करते हुए मैं तन्मय हो जाऊँगा, मुझे भगवान् के दर्शन होंगे, मुझे परमात्मा से मन पूर्वक मिलना है। परमात्मा से मिलने की भावना रखते हुए ध्यान के साथ जप करने के कारण तुम्हारी तन्मयता थोड़ी बढ़ेगी, लेकिन जीव जब परमात्मा से मिलता है, तभी दूध में उफान आता है।

इसीलिए यशोदामाता ने लाला को धरती पर उतार दिया और दूध उतारने गईं। लाला को अभी तृप्ति नहीं हुई है। माता जल्दी से दूध उतारने जा रही है। लाला को यह बात पसन्द नहीं आई कि मेरी माता मुझे छोड़कर दूध उतारने जाए! उसने मेरे लिए अनेक वर्षों तक जंगल में रहकर, पेड़ों के पत्ते खाकर भक्ति की थी किन्तु अब? जीव का एक स्वभाव है कि उसे जो मिलता है, उसकी उपेक्षा करता है। माता ने भी यही सोचा कि कन्हैया कहाँ जाने वाला है? मैं उसे बाद में दूध पिलाऊँगी ! पहले इस दूध को अग्नि में गिरने से बचा लूँ। इसीलिए यशोदामाता लाला को धरती पर उतारकर दूध उतारने गईं। लाला से यह सहन नहीं हो सका। जो भगवत् सेवा और स्मरण छोड़कर लौकिक सुधारने जाता है, भगवान् उसका लौकिक अधिक बिगाड़ देते हैं।

आप सब वैष्णव हैं, प्रभु के प्यारे हैं। इसलिए भगवान् में अधिक विश्वास रखिए। भगवान् को आपके लौकिक-अलौकिक की अधिक चिन्ता है। जो परमात्मा से प्रेम करता है और परमात्मा के सेवा स्मरण में रहता है, उसके लौकिक की चिन्ता भगवान् को अधिक होती है। आप जिस देव की पूजा करते हैं और जिस देव का नाम-जप करते हैं, उस देव को आपकी सभी चिन्ता होती है। माता जब लाला को छोड़कर दूध उतारने गई तो इससे लाला को बहुत बुरा लगा। उनके मन में यह बात आई कि माता मेरी कीमत एक दो लीटर दूध से भी कम समझती है। वह उफनता दूध उतारने गई है। यशोदा ने एक-दो सेर दूध बचाया होगा; किन्तु लाला ने विचार किया आज मैं एक मन दही का नुकसान करूंगा। माता को भी यह याद रहेगा कि मैं लाला को छोड़ दूध उतारने गई तो उसने इतना बड़ा नुकसान कर दिया। उसी समय लाला को क्रोध आ गया। वहाँ एक चटनी पीसने वाला पत्थर पड़ा था। लाला ने उसे उठा लिया दही की मटकी पर दे मारा। उससे दही भरी मटकी फूट गई। संसार की आसक्ति ही मटकी है। जो भगवत् स्वरूप में आसक्ति होती हैं, उसे भक्ति कहते हैं। विषयासक्ति भक्ति का विनाश करती है। श्रीकृष्ण एक-एक घर में जाकर मटकी इसलिए फोड़ते थे कि मेरी शरण में आया हुआ जीव मेरी अपेक्षा दूसरे से अधिक प्रेम करे, तो वह मुझ से कैसे सहन होगा? भगवान् विषयासक्ति का विनाश करते हैं। प्रायः ऐसा देखा गया है कि यह जीव संसार को ठीक करने जाता है। वह यह भी समझता है कि संसार को ठीक करके भगवान् की भक्ति करूँगा। आश्चर्य है कि अब तक न किसी का संसार व्यवस्थित हुआ है न होगा। संसार तो क्षण - प्रति क्षण बदलता है, किन्तु परमात्मा का स्वरूप एक सा स्थिर रहता है। संसार को व्यवस्थित करने के बाद भक्ति करने की कल्पना ही गलत है। इसलिए भगवान् मटकी फोड़ देते हैं। संसार की आसक्ति तोड़ देते हैं।

उसी समय वहाँ ग्वाल-बाल मित्र आ जाते हैं। उन्होंने लाला से पूछा कि कन्हैया ! आज किसके घर चोरी करने जाना है? लाला को इस समय क्रोध चढ़ा है। उन्होंने क्रोध में ही कह दिया कि मुझे आज अपने ही घर में चोरी करनी है।

बालकृष्णलाल ग्वाल-बालों की पीठ पर चढ़कर मक्खन उतारते हैं और ग्वाल-बाल मित्रों को मक्खन देते हैं। श्रीकृष्ण जिस घर में चोरी करते हैं, उस घर के झरोखों के पास बन्दर एकत्र हो जाते हैं। उस समय भगवान् को यह बात याद आती है कि ये मेरे रामावतार के भक्त हैं। रामावतार में मैं तपस्वी था। उस समय मैं इन बन्दरों को कुछ खिला न सका। ये सब पेड़ के पत्ते खा-खाकर मेरे लिए युद्ध करते थे। इसलिए वे उन बन्दरों को कृष्णावतार में मक्खन खिलाते हैं। 


 

श्री डोंगरेजी महाराज

हरिओम सिगंल 





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...