सोमवार, 19 सितंबर 2022

परमप्रेम 2

 यशोदामाता ने दूध उतारकर रख लिया है। अग्नि बुझाकर उन्होंने फिर चूल्हे पर दूध रख दिया है। वहाँ से वापस आने पर यशोदामाता ने देखा कि लाला ने मटकी फोड़ दी है सारा दही दुलक गया है और लाला यहाँ नहीं है। माता ने यह सोचा कि लाला कहाँ गया? उन्होंने घर में नजर दौड़ाकर देखा तो लाला घर में ओखली पर चढ़कर मक्खन उतार रहा है और उसे ग्वाल-बाल मित्रों तथा बन्दरों को खिला रहा है। माता को बड़ा दुःख यह हुआ कि मेरे लाला को चोरी करने की आदत पड़ गई है। जो वह माँगे, वह देने को तैयार हूँ। मैंने देने से मना ही कब किया है? घर में बहुत माखन है। उसके मित्रों को भी दूँगी; किन्तु इसे चोरी करने की आदत पड़ गई है। आज मुझे उसका व्यवहार ठीक नहीं लगा है, कुछ क्रोध भी पैदा हो गया है। यशोदामाता ने हाथ में सोटी पकड़ ली है। ग्वाल-बालों ने माता को देखकर कहा कि कन्हैया ! कन्हैया ! तेरी माता आ गई है। लाला तुरन्त कूदकर वहाँ से भागने लगता है। यशोदा माता लाला के पीछे-पीछे दौड़ पड़ती हैं और कहती हैं, "तू बहुत शरारती हो गया है। तू भागकर कहाँ जाएगा! आज मैं तुझे सजा अवश्य दूँगी।" यशोदाजी कन्हैया के पीछे-पीछे दौड़ती हैं, किन्तु वह हाथ नहीं आता। इससे हमें उपदेश मिलता है कि लाला को पकड़ना हो तो सोटी फेंक कर दौड़ो। जो हाथ में सोटी लेकर दौड़ता है, वह लाला को पकड़ ही नहीं सकता। सोटी अर्थात् अभिमान हाथ में सोटी लेकर कोई कितना भी दौड़े, उसके हाथ में कृष्ण आ ही नहीं सकता। इसलिए अभिमान छोड़कर भगवान् के पीछे दौड़ो। यशोदाजी में यहं एक सूक्ष्म अभिमान है कि लाला मेरा बेटा है, मैं उसकी माता हूँ। यशोदामाता दौड़ते-दौड़ते थक गई हैं। कन्हैया हाथ में नहीं आता। इस पर महापुरुषों ने अनेक भाव प्रकट किये हैं। वे कहते हैं कि यशोदा के दौड़ने पर भी कन्हैया क्यों हाथ में नहीं आता? माता की यह भूल है कि लाला की पीठ पर नजर रखकर दौड़ती है। उन्हें लाला का मुँह नहीं दिखाई देता। उनकी नजर लाला की पीठ पर है। अर्थात् जो भगवान् की पीठ पर नजर रखकर दौड़ता है, वह उसे नहीं पकड़ सकता। ईश्वर को वह पकड़ सकता है, जो श्रीकृष्ण के चरण अथवा मुखारविन्द पर नजर रखकर सामने को दौड़ता है। भगवान् की पीठ में अधर्म है और उनके हृदय में धर्म है।

 यदि भक्ति धर्मानुकूल हो, तो भगवान् हाथ में आते हैं। अधर्म के सामने दौड़ने से अनेक लोग भक्ति तो करते हैं, किन्तु धर्म का पालन ठीक तरह नहीं करते। वे ऐसा समझते हैं कि हम भक्ति करते हैं, सेवा करते हैं। इसलिए हमें धर्म का पालन करने की कोई आवश्यकता नहीं। तुम भक्ति करो, सेवा करो । यह बहुत अच्छी बात है, किन्तु धर्म को मत छोड़ो। धर्म का भक्ति के साथ कोई विरोध नहीं है। अपने धर्म का ठीक-ठीक पालन करते हुए भक्ति करो। मनुष्य आकाश से सीधे धरती पर नहीं उतर आया है। उसका किसी कुल में, किसी जाति में जन्म हुआ है। जन्म से ही कुल धर्म और जाति के साथ सम्बन्ध जुड़ गया है। यह समझकर धर्म को छोड़ना नहीं चाहिए। धर्म के छोड़ देने पर भक्ति सफल नहीं होती और भक्ति में विघ्न आते हैं। धर्म को कभी मत छोड़ना। जब तक देह में चेतना है, तब तक धर्म का पालन करना चाहिए। कुछ लोग ऐसा समझते हैं कि हम ध्यान क्षेत्र में आगे बढ़ गए हैं। अब हमें धर्म का पालन करने की आवश्यकता नहीं। भागवत में विशेष रूप से आज्ञा दी गई है कि जिसे देह का ज्ञान है, उसे धर्म की आवश्यकता है। जो देहातीत अवस्था में है या जिसे देह का ज्ञान नहीं है, उसके लिए कोई धर्म नहीं है।

श्रीकृष्ण भागते जा रहे हैं। वे माता के हाथ में नहीं आते। यशोदामाता चिढ़ गई हैं। उन्हें अब थोड़ा क्रोध भी आ गया है। वे दौड़ती-दौड़ती थक गई हैं। इसलिए वे रास्ते में एक जगह बैठ जाती हैं और सोटी हाथ से दूर फेंक देती हैं। लाला तो यही चाहता था कि माता सोटी फेंक दे और उसके हाथ में आ जाऊँ। अब श्रीकृष्ण माता के पास जाते हैं। यशोदामाता यह समझ जाती हैं कि मेरे सोटी फेंक देने से लाला को यह विश्वास हो गया है कि अब माता मुझे नहीं मारेगी। इसीलिए कन्हैया पास आता है। लेकिन कन्हैया कहता है कि माता! तेरा ऐसा सोचना ठीक नहीं है। मैं तेरा अभिमान उतर जाने के कारण तेरे पास आया हूँ। अब यशोदा माता की नजर श्रीकृष्ण के मुँह पर है, पीठ पर नहीं है। कन्हैया पास आ जाता है। मुँह पर नजर रखकर जहाँ यशोदाजी थोड़ा दौड़ती हैं कि कृष्ण हाथ में आ जाता है। यशोदाजी ने कहा कि लाला ! तू बहुत शरारत करता है। आज मैं तुझे सजा देने वाली हूँ। यह सुनकर लाला ने तुरन्त कहा कि माता ! अब मैं ऐसा कभी नहीं करूँगा। आज तू मुझे छोड़ दे। माता ने कहा, "आज मैं बिल्कुल मानने वाली नहीं हूँ। तूने जिस ओखली पर चढ़कर चोरी की है, उसी से आज तुझे बाँधूंगी। यशोदामाता कृष्ण को पकड़कर घर ले गयीं और उसे ओखली में बाँधने की तैयारी कर रही हैं। इससे कृष्ण के ग्वाल-बाल मित्र दुःखी हो गए हैं। आज बाल-मण्डल का अध्यक्ष पकड़ा गया है। इसीलिए सारी बाल- मण्डली रो पड़ी।

बालक यशोदामाता का वन्दन करते हैं और समझाते हैं कि माता, लाला ने हमारे लिये चोरी की है। माँ मुझे आज घर पर कुछ खाने को नहीं मिला। इसलिये मैंने लाला से बार-बार कहा कि मुझे भूख लगी है। इसके कारण लाला ने मेरे लिये चोरी की। तुम्हें जो सजा करनी हो, मुझे करो। लाला को मत बाँधो । अब इसे छोड़ दो। यह सुनकर यशोदामाता को आश्चर्य होता है बालकों का यह कैसा प्रेम है। वह बालकों को धमकाती है कि तुम अपने घर चले जाओ। मेरे सामने तुम वकालत करने चले हो ! यहाँ से निकल जाओ यशोदामाता ने अब तक किसी बालक से घर चले जाने को नहीं कहा था। वे ऐसा मानती थीं कि गाँव के सब बालक मेरे ही हैं। आज वे क्रोध में हैं। इसीलिए उन्होंने बालकों से घर जाने को कहा। बालक भागकर अपने घर गये और वहाँ जाकर गोपियों से कहा कि आज यशोदामाता बहुत चिढ़ गई हैं। लाला ने मटकी फोड़ डाली है। इसलिए उन्होंने लाला को बाँध रखा है। तुम जाओ और यशोदा माता को समझाओ कि लाला को बाँधे नहीं।

गोपियाँ यह खबर पाते ही दौड़ी-दौड़ी यशोदा माता के पास जाती हैं और उनको समझाती हैं कि माता, तू यह क्या करती है? हमने अनेक देवों की मनौती मानी अनेक व्रत किये, तब हमें यह बालक मिला है। मैं घर की गरीब हूँ। तेरा कन्हैया मेरे घर आता है, कभी मटकी भी फोड़ देता है, तब मैं इसे कभी धमकाती हूँ, किन्तु कभी इसे बाँधने का विचार नहीं किया है। माता ! क्या तुमको इस पर दया नहीं आती? तुम इसे बाँधना मत। मेरे बालक घर पर जाकर रो रहे हैं। इस कारण आज कोई मेरे घर पानी भी नहीं पीता है। सभी को कन्हैया दुलारा है। आज तुमको यह क्या हो गया है? तुम इतनी निष्ठुर क्यों बन गई हो? आज गोपियों की ये बातें माता को नहीं सुहाती। वे कहती हैं कि मैंने अपनी आँखों से देखा है कि इसे चोरी करने की आदत पड़ गई है। यह किसी की परवाह नहीं करता। तुम लोग इसको बहुत लाड़-प्यार करती हो, इसे सिर पर चढ़ा रही हो। क्या यह उसे समझता है? यह मेरा लड़का है। मुझे जैसा उचित लगेगा वैसा करूंगी। यशोदा माता ये बातें कहकर कन्हैया को बाँधने का प्रयत्न करती हैं। वे जिस डोरी से उन्हें बाँधने जाती हैं, वह एक अंगुल छोटी हो जाती है।


 महापुरुषों ने वर्णन किया है कि श्रीकृष्ण के कोमल गात को स्पर्श करते ही डोरी में दया आ गई है। वह सोचती है कि कन्हैया अत्यन्त कोमल है। उसे बाँधने पर कष्ट होगा। तात्पर्य यह है कि जो ब्रह्म - संस्पर्श करता है, उसका स्वभाव सुधरता है आज डोरी भगवान् का स्पर्श करती है और दो अंगुल छोटी हो जाती है, इस प्रकार जीव और ईश्वर में दो अंगुल का अन्तर है। यदि जीव निर्माही और निर्मानी बने, तो ही ईश्वर को बाँध सकता है। माता उस डोरी के साथ दूसरी डोरी जोड़ती है, लपेटती है और उससे फ़िर कृष्ण को बाँधने जाती है, लेकिन वह डोरी भी दो अँगुल छोटी पड़ती है। गोपियों ने माता से कहा, "यह तेरा कन्हैया है। इसके भाग्य में बन्धन लिखा ही नहीं है। यह हम सबको बन्धन से छुड़ाने आया है। इसको कोई बाँध नहीं सकता। यह सुनकर कन्हैया धीरे-धीरे मन में हँसने लगता है। इससे यशोदामाता चिढ़कर बोलती हैं,

 "तू चार-पाँच वर्ष का बालक मुझे दाँत दिखाता है? तू समझता क्या है? आज मैं तुझे बाँधने ही वाली हूँ। चाहे जो भी हो। घर की सारी डोरियाँ इकट्ठी करूंगी, लेकिन तुझे जरूर बाँधूंगी।"

माता यशोदा दूसरी डोरी जोड़ती है और बालकृष्णलाल को जहाँ बाँधने के लिए जाती है, वहाँ डोरी दो अँगुल छोटी हो जाती है। इस पर महापुरुषों ने कहा है,

  श्रीकृष्ण जहाँ विराजते हैं, वहाँ ऐश्वर्य शक्ति सेवा उपस्थित होती है। ऐश्वर्य शक्ति और वात्सल्य भक्ति का झगड़ा शुरू हो गया है । यशोदाजी में वात्सल्य भाव है। इसीलिए वे कहती हैं कि यह मेरा बालक है। इसे चोरी करने की आदत पड़ गई है। इसकी आदत मैं नहीं सुधारूं तो कौन सुधारेगा ? मुझे इसकी आदत सुधारनी है। ऐश्वर्य शक्ति कहती है किं यह मेरा पति है मेरे पतिदेव को कोई बाँधे, तो मुझ से सहन नहीं होंगा। मैं देखती हूँ कि ये कैसे बाँधती हैं? ऐश्वर्य शक्ति डोरी में प्रवेश कर उसे छोटा कर देती है।  माता थक गई हैं। उसे देख बालकृष्णलाल को दया आ गई। अल्पशक्ति होने पर भी दुराग्रही है और ईश्वर अनन्त शक्तिमान होने पर भी अनाग्रही है। इस जीव में शक्ति तो कम है; किन्तु वह अपना ही उल्लू सीधा करना चाहता है। दुराचारी हमेशा दुःखी होता है। माता का यह दुराग्रह था कि चाहे जो हो, मुझे तो लाला को बाँधना ही है। बालकृष्णलाल आज माता के दुराग्रह पर सहमत हैं। इस पर ऐश्वर्य शक्ति से कहा है कि मेरी माता मुझे बाँधना चाहती है, तू डोरी को क्यों छोटा कर देती है? इस समय मैं तेरा मालिक नहीं हूँ, बल्कि यशोदा माता का बालक हूँ। मैं प्रेम-रस लेने और प्रेम-रस देने के लिए बालक हुआ हूँ। तू द्वारका चली जा । जब मैं द्वारका आऊँगा, तब तेरा मालिक होकर आऊँगा । श्रीकृष्ण द्वारका में तो राजाधिराज हैं, किन्तु गोकुल में बालक हैं। इस समय लाला को दया आ गई है।

परमात्मा ने बन्धन स्वीकार किया है। जब ईश्वर बन्धन में आता है, तब जीव बन्धन से मुक्त होता है। लाला ने यशोदाजी से कहा "माता, तू मुझे छोड़ दे।"

 इस पर माता इन्कार कर देती है। उसके हृदय में तो प्रेम है कि मुझे कोई बाँधने की इच्छा नहीं; लेकिन क्या करूँ? लाला को चोरी करने की आदत पड़ गई है। वह मुझे छुड़ानी है। यशोदाजी ने विचार किया कि मैं जब रसोई घर में रसोई बनाने जाऊँगी, तो लाला को छोडूंगी उसे खिलाऊँगी। फिर बालक सब भूल जाएगा। लाला को बाँध कर वे रसोई बनाने गईं। उनका तन तो रसोई बनाने में लगा है; किन्तु मन श्रीकृष्ण में लगा है। है। वह रसोई बनाते-बनाते बारंबार कृष्ण को देखती हैं। लाला के ग्वालबाल मित्र आते हैं और वे उन्हें छुड़ाने का प्रयत्न करते हैं; किन्तु यशोदा माता ने गाँठ इतनी मजबूत बाँध वह किसी से खुली नहीं। कोई बालक लाला के कन्धे पर हाथ रखता है, कोई उनके माथे पर हाथ फिराता है। वे पूछते हैं कि लाला, क्या तेरे पेट में दर्द होता है? तुझे क्या कोई तकलीफ होती. है ? लाला ने सोचा कि यदि मैं मित्रों से यह कहूँगा कि मुझे तकलीफ हो रही है, तो ये रोने लगेंगे। मित्रों का प्रेम विशुद्ध है। लाला ने कहा,

 "मुझे कोई तकलीफ नहीं है। तुम मेरी जरा भी चिन्ता मत करो। मैं तो झूठा झूठा रो रहा था। मैं आनन्द से हूँ। मेरी माता ने मुझे बाँध कर अच्छा ही किया है। आज तो मुझे बैलगाड़ी का खेल खेलना ही था ।"

लाला को खेल पसन्द है। कन्हैया ऐसा खेल करता है, जिसे देखकर ग्वाल बाल रीझ उठते हैं, मक्खन-मिश्री खाते लाला अपने मित्रों का बड़ा ध्यान रखता था।

श्री डोंगरेजी महाराज 

हरिओम सिगंल 





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...