मंगलवार, 20 सितंबर 2022

मदनमोहन भगवान श्रीकृष्ण

 रासलीला में स्त्री और पुरुष के मिलन की कथा नहीं है, बल्कि जीव-ब्रह्म के मिलन का वर्णन है। 'गोपी' शब्द सुनने से प्रायः लोगों को स्त्री का शरीर दिखाई देता है।   गोपियों का आकार कुछ स्त्री जैसा दिखाई देता है, किन्तु उनमें स्त्रीत्व नहीं है। आचार्यों ने 'गोपी' शब्द के अनेक अर्थ किए हैं।  जिसके शरीर में कृष्ण का स्वरूप गुप्त हैं, जिसके हृदय में श्रीकृष्ण को छोड़ कुछ नहीं है जो भगवद्-स्वरूप को ही अपने हृदय में रखता है उसे गोपी कहते हैं।

 साधारण मनुष्य अपने मन में संसार को रखता है। मन में जो संसार है, वही रुलाता है, वहीं सताता है। तुम संसार में भले रहो, किन्तु संसार को अपने मन में मत रखो। संत लोग संसार में रहते हैं, किन्तु संसार उनके मन में नहीं आता। संत जन अपने मन में परमात्मा का स्वरूप स्थिर करते हैं। गोपी ने मन से सर्वस्व त्याग कर दिया है और मन में परमात्मा का स्वरूप स्थिर कर लिया है। न तो गोपी नाम की कोई स्त्री, न कोई पुरुष और न कोई स्त्री- पुरुषोत्तर है। परमात्मा के दर्शन की, मिलन की तीव्र इच्छा ही गोपी है। भागवत में ही 'गोपी' शब्द का अर्थ परमात्मा को प्राप्त करने की तीव्र इच्छा बताया गया है। इस जीव को प्रभु के दर्शन की इच्छा ही नहीं होती। मनुष्य का मन ऐसा मैला है कि इसे संसार सरस लगता है। मनुष्य का मन संसार में उलझा हुआ है। इसे यह इच्छा नहीं होती कि मुझे भगवान् का दर्शन हो अथवा मुझे परमात्मा से मिलना है। प्रभु मिलन की तीव्र भावना ही गोपी है।

 जो प्रत्येक इन्द्रिय से भक्तिरस का पान करता है। भक्ति अलौकिक दिव्य रस है। जो आँख से भक्ति करे, कान से भक्ति करे, मन से भक्ति करे, जीभ से भक्ति करे, जो अपनी प्रत्येक इन्द्रिय को भक्तिरस में डुबो दे उसे गोपी कहते हैं। जब प्रत्येक इन्द्रिय से भक्ति फूटती हैं, तब देहाभिमान छूटता है।  इन्द्रियों को भक्तिरस से पुष्ट करना है। वासना का विनाश करने के बाद प्रेम-मार्ग में प्रवेश मिलता है। प्रेम और मोह दोनों का आकार समान है, किन्तु दोनों में बहुत अन्तर है। मोह में सुख भोगने की इच्छा होती है, किन्तु प्रेम मार्ग में प्रियतम के लिए सर्वसुख का त्याग करना पड़ता है। मोह प्रेम माँगता है और प्रेम प्रेम देता है। प्रेम सारी वासनाओं को नष्टकर, प्रतिकूल सारे विषयों में से इन्द्रियों को हटाकर अनुकूल परमात्मा के प्रति अपने भावों को मोड़ता है। 

रासलीला में स्त्री और पुरुष के मिलन की कथा नहीं है। न तो गोपी कोई स्त्री है और न श्रीकृष्ण कोई पुरुष श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम परमात्मा हैं, गोपी शुद्ध जीव है और रासलीला शुद्ध जीव तथा ईश्वर के मिलने की कथा है। यही भागवत का फल है। भागवत में वर्णन आता है, गोपियों के शरीर ने प्रभु का स्पर्श किया ही नहीं, जब शरीर का विचार किया जाता है, जब शरीर का स्पर्श होता है तभी काम पैदा होता है। 

 परमात्मा का स्वरूप आनन्दमय है। निराकार आनन्द निराकार श्रीकृष्ण के रूप में प्रकट हुआ है। हमारे शरीर में माँस-रुधिर है। ठाकुरजी का स्वरूप आनन्दमय है। जीव को जो शरीर मिलता है, वह पूर्वजन्म की वासना के अनुसार ही मिलता है। परमात्मा अपनी इच्छा से शरीर धारण करते हैं।

भगवान् की तरह गोपियों का स्वरूप भी अलौकिक, अप्राकृतिक और दिव्य है। गोपियों का शरीर भगवान् का सतत ध्यान करने से भगवान् की तरह गोपियों का स्वरूप भी अलौकिक, अप्राकृतिक और दिव्य है। गोपियों का पंच-भौतिक शरीर श्रीकृष्ण-वियोग में भस्म हो गया है। वियोग बहुत बड़ी अग्नि है ।  गोपियों ने परमात्मा का अलौकिक दिव्य स्वरूप प्राप्त किया है । गोपियों को श्रीकृष्ण के दर्शन के बाद प्रेम जगा है। प्रेम का आरम्भ द्वैत से होता है किन्तु प्रेम की समाप्ति अद्वैत में होती है। आरम्भ में प्रेमी और प्रियतम दोनों अलग होते हैं, किन्तु अतिशय प्रेम बढ़ने पर ये दोनों अलग नहीं रह सकते और मिट कर एक हो जाते हैं। प्रेम का अर्थ है 'मैं' मिटाकर 'तू' हो जाना। साधारण प्रेम में 'मैं' और 'तू' दोनों अलग है। अतिशय प्रेम बढ़ने पर 'मैं' अलग नहीं रह सकता, वह 'तू' में मिल जाता है। गोपियाँ अब श्रीकृष्ण से अलग नहीं रह सकतीं। गोपियों का प्रेम अन्तिम कक्षा में पहुँच गया है। रासलीला में गोपी और श्रीकृष्ण एक हो गए हैं।  

रासलीला की कथा सुनने के पहले तीन सिद्धान्त ध्यान में रखने चाहिए। प्रथम यह कि यह रमण शरीर के साथ नहीं है, दूसरा यह शुद्ध जीव-ईश्वर की दिव्य लीला है और तीसरा यह कि इसमें स्त्री-पुरुष के मिलन की इच्छा नहीं है। गोपी में स्त्रीत्त्व है ही नहीं। 

 बाहर से जो शरीर दिखाई दे रहा है उसे स्थूल शरीर कहते हैं। अन्दर सूक्ष्म शरीर है जिसमें पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच प्राण, मन और बुद्धि ये सत्रह तत्व होते हैं। सूक्ष्म शरीर में मन के अन्दर अनेक जन्मों की जो वासनाएँ होती हैं, उन्हीं के कारण उसे शरीर कहा गया है।  जिस मन में कोई वासना नहीं होती वह शांत हो जाता है। मन वासना से ही जीता है। बिना संकल्प के मन नहीं जी सकता। हमारे जैसे साधारण मनुष्य यह कथा कहने के योग्य नहीं हैं और हमारे जैसे साधारण मनुष्य यह कथा सुनने योग्य भी नहीं हैं। यह सर्वोच्च भाव है। मन के पूर्ण निष्काम होने के बाद अब गोपियाँ परमात्मा से अलग नहीं रह सकतीं। यह शुद्ध मिलन की कथा है। गोपियाँ ऋषिरूपा हैं।

यदि काम का विषय कोई स्त्री या पुरुष हो तो वह पतन करता है और यदि परमात्मा उसका विषय हो तो जीव निष्काम बन जाता है।  निष्काम परमात्मा को अर्पण किए गए काम से विकार उत्पन्न नहीं होता। काम के सकाम होने पर विकार-वासना जागृत होती है और उसे निष्काम में रखने पर विकार वासना का विनाश होता है। सकाम का स्मरण करने पर काम जागृत होता है, किन्तु निष्काम का चिन्तन करने पर निष्काम बना जा सकता है।

 गोपियाँ ऋषिरूपा हैं। उन्होंने निश्चय किया है कि श्रीकृष्ण को काम अर्पित करूँगी। तुम यह इच्छा रखो कि भगवान् से मिलना है। विचार करो कि तुम्हें किसी मनुष्य से मिलने पर सुख मिलता है, तो यदि भगवान् से मिलो तो कैसा आनन्द प्राप्त होगा! जो एक बार परमात्मा से मिलता है वह उससे अलग नहीं हो सकता। वह परमात्मा के साथ एकाकार हो जाता है। ऋषिरूपा गोपियाँ काम को श्रीकृष्ण को अर्पण करती हैं। बड़े-बड़े ऋषि गोपी बनकर आए हैं। गोपियाँ चार-पाँच वर्ष की थीं, तभी से उनकी इच्छा है कि श्रीकृष्ण उनके पति हों। इसके लिए गोपियों ने उन दिनों में कात्यायनी व्रत किया था। 

ऋषिरूपा गोपियों के लिए भागवत में कुमारिका शब्द प्रयोग किया गया है। संस्कृत भाषा में चार-पाँच वर्ष की कन्या को कुमारिका कहा गया है। पाँच वर्ष पूरा होने पर छठा वर्ष लगते ही कन्या कुमारिका नहीं कही जा सकती। ये गोप कन्यायें चार-पाँच वर्ष की हैं और आशा रखती हैं कि श्रीकृष्ण पति होकर मिलें। चार-पाँच वर्ष की कन्या को भला क्या खबर पड़े कि पति क्या और पत्नी क्या? श्रीकृष्ण पतिरूप में मिलें ऐसी अपेक्षा रखने का अर्थ यह है कि मेरा सम्बन्ध किसी जीव से न हो। मुझे परमात्मा से मिलना है और परमात्मा के साथ एकाकार बनना है।  वे चार-पाँच वर्ष की कन्याएँ है। ये अपना वस्त्र यमुनाजी के किनारे रखती हैं और नग्न स्नान करती हैं। नग्न स्नान करने वाला तीर्थदेव का अपमान करता है और उसे पाप लगता है। भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ पहुँचते हैं, उनके वस्त्र उठाकर कदम्ब वृक्ष पर रख देते हैं और कहते हैं तुम बाहर आओ और अपने वस्त्र पहनकर ले जाओ। कुछ लोगों को इस लीला में अश्लीलता दिखाई देती है। वास्तव में यह लीला शुद्ध है। ध्यान में रखकर विचार करने पर पता लगेगा कि वहाँ श्रीकृष्ण गोपियों की नग्न काया देखने नहीं आए हैं। यमुनाजी के जल में श्रीकृष्ण जलस्वरूप बनकर निवास करते हैं, गोपियों से मिले ही हैं। गोपियों पर वासना का पर्दा पड़ा होने के कारण मिलन का अनुभव नहीं होता था। यह समस्त जगत् भगवान् में स्थित है। जगत् का आधार परमात्मा हैं। इसलिए वह सबमें सम्मिलित हैं। यदि ईश्वर एक से मिले और दूसरे से न मिले तो उसे सर्वव्यापक कौन माने? सर्वव्यापक तो सबका आधार होता है। वे भगवान् सबसे मिले ही हैं। जीव और ईश्वर तो साथ ही होते हैं। ईश्वर जीव को देखता है, किन्तु जीव ईश्वर को देख नहीं सकता। जीव और ईश्वर के बीच एक परदा है। परमात्मा सबसे मिले हुए हैं और वह मिला हुआ भगवान् ही मिलता है। तत्त्व दृष्टि से विचार करने पर परमात्मा सबसे मिला हुआ दिखाई देता है। वासना रूपी अज्ञान अथवा माया का पर्दा होने के कारण जीव को ईश्वर का अनुभव नहीं होता। शरीर को वस्त्र और आत्मा को वासना ढँकती है। जिस प्रकार सामान्य बादल सूर्य को ढँकता है। उसी प्रकार वासना परमात्मा को ढँकती है। परमात्मा सर्वत्र है, किन्तु उसका दर्शन नहीं होता। प्रभु ने वस्त्रहरण द्वारा वासना का पर्दा दूर किया है।और गोपियों से कहा है, 

"यह तुम्हारा आखिरी जन्म है। तुम शरद पूर्णिमा की रात्रि को मिलना। फिर तुम्हें जन्म लेने का अवसर नहीं आयगा ।'

गोपियों की संख्या अधिक है, किन्तु उनमें सबको रास में प्रवेश नहीं मिला है। जिसका अन्तिम जन्म है, जिसकी वासना का पर्दा प्रभु ने दूर किया है और जिस जीव को  परमात्मा ने अपनाया है, वही जीव रास में जाता है। यह लीला दिव्य है, मधुर है।

रासलीला श्रीकृष्ण का काम विजय है। ब्रह्मादि देवों का पराभव करने से कामदेव का अभिमान बहुत बढ़ गया है। वह अपने को ईश्वर समझने लगा हैं काम का नाम ही महारथी है। अनेक देवों और ऋषियों को मारने से जिस कामदेव का अभिमान बढ़ गया है, वह श्रीकृष्ण से युद्ध करने आया है । कामदेव कहता है कि मैं इस बात को भूला नहीं हूँ, यह मुझे याद है कि आपने रामावतार में मुझे हराया है। रामावतार में कामदेव ने अनेक बार ऐसा अवसर उपस्थित किया है, जिससे रामजी की आँख में अथवा उनके मन में विकार उत्पन्न हो, किन्तु वे तो निष्काम हैं, कामदेव ने कहा कि

 रामावतार में मेरी हार तो हुई, किन्तु मेरे मन में सन्देह रह गया है। रामावतार में आपक नियम था कि किसी स्त्री का स्पर्श न करूँगा, प्रत्येक स्त्री में मातृभाव रखूँगा। आपने मर्यादा में रहकर मुझें हराया। वास्तव में मर्यादा का बन्धन ईश्वर के लिए नहीं है। वह जीव के लिए है। आपको सब ईश्वर मानते हैं। इसलिए आपको बन्धन में रहने की क्या आवश्यकता है?

 श्रीकृष्ण ने कहा कि भाई, तेरी क्या इच्छा है?

 कामदेव ने कहा,

 "मेरी इच्छा हैं कि शरद ऋतु हो, पूर्णिमा हो, मध्यरात्रि का समय हो उस समय किसी स्त्री को स्पर्श न कर उसमें मातृ भाव रखने की मर्यादा आप न रखिये। उस समय आप स्त्रियों के साथ क्रीड़ा कीजिए और मैं आकाश में रहकर बाण मारूँ। यदि आपके मन में विकार पैदा हो, तो मैं ईश्वर होऊँगा । उस समय आप निष्काम रूप ईश्वर नहीं माने जाएँगे। काम की मार खाने वाला जीव है और जो काम की मार नहीं खाता, वह ईश्वर है।"

प्रभु ने कहा कि मैं यह शर्त मानने को तैयार हूँ। प्रभु इसीलिए शरद पूर्णिमा की मध्य रात्रि को गोपियों के साथ क्रीड़ा करते हैं। कामदेव आकाश में खड़ा है और श्रीकृष्ण को बाण मारता है। श्रीकृष्ण के चरण में गंगाजी है, और भगवान् शिवजी के माथे पर भी गंगाजी हैं। शिवजी और श्रीकृष्ण ज्ञान - स्वरूप हैं। उनका काम क्या बिगाड़ सकता है? काम अनेक प्रयत्न करने पर भी श्रीकृष्ण को अपने आधीन नहीं बना सका। इसलिए उसे विश्वास हो गया कि श्रीकृष्ण भगवान् हैं। वह अब श्रीकृष्ण की शरण में आया है। श्रीकृष्ण ने मदन का पराभव किया। इसलिए उनका नाम मदनमोहन पड़ गया। मदन का अर्थ है काम। अर्थात् काम से ही काम का नाश करना। महापुरुष लौकिक काम को अलौकिक काम से मारते हैं। मुझे किसी मनुष्य से नहीं मिलना है, केवल परमात्मा से मिलना है और उनके साथ एकाकार होना है ।


श्री डोंगरेजी महाराज 

हरिओम सिगंल 




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