गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 2 भाग 39

  अर्जुन उवाच

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत ब्रजेत किम्।। ५४।।

इस प्रकार भगवान के वचनों को सुनकर अर्जुन ने पूछा:
हे केशव, समाधि में स्थित स्थिर प्रज्ञा वाले पुरुष का क्या लक्षण है और स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है, कैसे चलता है?

अर्जुन पहली बार, अब तक अर्जुन का जो वर्तुल- व्यक्तित्व था, उससे उठकर प्रश्न पूछ रहा है। पहली बार। अब तक जो भी उसने पूछा था, वह पुराना आदमी पूछ रहा था, वह पुराना अर्जुन पूछ रहा था। पहली बार उसके प्रश्न ने कृष्ण को छूने की कोशिश की है--पहली बार। इस वचन से पहली बार वह कृष्ण के निकट आ रहा है। पहली बार अर्जुन अर्जुन की तरह नहीं पूछ रहा है, पहली बार अर्जुन कृष्ण के निकट होकर पूछ रहा है। पहली बार कृष्ण अर्जुन के भीतर प्रविष्ट हुए प्रतीत होते हैं।
यह सवाल गहरा है। वह पूछता है, स्थितप्रज्ञ किसे कहते हैं? किसे कहते हैं, जिसकी प्रज्ञा स्थिर हो गई? वह कौन है? वह कौन है जिसके ज्ञान की ज्योति थिर हो गई? वह कौन है जिसकी चेतना का दीया अकंप है? वह कौन है जिसे समाधिस्थ कहते हैं? उसकी भाषा क्या है? वह उठता कैसे है? वह चलता कैसे है? वह बोलता कैसे है? उसका होना क्या है? उसका व्यवहार क्या है? उसे हम कैसे पहचानें?
दो बातें वह पूछ रहा है। एक तो वह यह पूछ रहा है, प्रज्ञा का स्थिर हो जाना, स्थित हो जाना, ठहर जाना क्या है? लेकिन वह घटना तो बहुत आंतरिक है। वह घटना तो शायद स्वयं पर ही घटेगी, तभी पता चलेगा। वह शायद कृष्ण भी नहीं बता पाएंगे कि क्या है। इसलिए अर्जुन तत्काल--और इसमें अर्जुन बहुत ही बुद्धिमानी का सबूत देता है। एक बहुत इंटेलिजेंट, बहुत ही विचार का, विवेक का सबूत देता है। प्रश्न के पहले हिस्से में पूछता है कि प्रज्ञा का थिर हो जाना क्या है कृष्ण? लेकिन जैसे किसी अनजान मार्ग से उसको भी एहसास होता है कि प्रश्न शायद अति-प्रश्न है, शायद प्रश्न का उत्तर नहीं हो सकता है। क्योंकि घटना इतनी आंतरिक है कि शायद बाहर से न बताई जा सके।
इसलिए ठीक प्रश्न के दूसरे हिस्से में वह यह पूछता है कि बताएं यह भी कि बोलता कैसे है वह, जिसकी प्रज्ञा थिर हो गई? जो समाधि को उपलब्ध हुआ, समाधिस्थ है, वह बोलता कैसे? डोलता कैसे? चलता कैसे? उठता कैसे? उसका व्यवहार क्या है? इस दूसरे प्रश्न में वह यह पूछता है कि बाहर से भी अगर हम जानना चाहें, तो वह कैसा है? भीतर से जानना चाहें, तो क्या है? वह घटना क्या है?  जिसको समाधिस्थ कहते हैं, वह घटना क्या है? यह भीतर से। लेकिन अगर यह न भी हो सके, तो जब किसी व्यक्ति में वैसी घटना घट जाती है, तो उसके बाहर क्या-क्या फलित होता है? उस घटना के चारों तरफ जो परिणाम होते हैं, वे क्या हैं?
यह प्रश्न पहला प्रश्न है, जिसने कृष्ण को आनंदित किया होगा। यह पहला प्रश्न है, जिसने कृष्ण के हृदय को पुलकित कर दिया होगा। अब तक के जो भी प्रश्न थे, अत्यंत रोगग्रस्त चित्त से उठे प्रश्न थे। अब तक जो प्रश्न थे, वे अर्जुन के जस्टीफिकेशन के लिए थे। वह जो चाहता था, उसके ही समर्थन के लिए थे। अब तक जो प्रश्न थे, उनमें अर्जुन ने चाहा था कि कृष्ण, वह जैसा है, वैसे ही अर्जुन के लिए कोई कंसोलेशन, कोई सांत्वना बन जाएं।
अब यह पहला प्रश्न है, जिससे अर्जुन उस मोह को छोड़ता है कि मैं जैसा हूं, वैसे के लिए सांत्वना हो। यह पहला प्रश्न है जिससे वह पूछता है कि चलो, अब मैं उसको ही जानूं, जैसे आदमी के लिए तुम कहते हो, जैसे आदमी को तुम चाहते हो। जिस मनुष्य के आस-पास तुम्हारे इशारे हैं, अब मैं उसको ही जानने के लिए आतुर हूं। छोडूं उसे, जो अब तक मैंने पकड़ रखा था।
इस प्रश्न से अर्जुन की वास्तविक जिज्ञासा शुरू होती है। अब तक अर्जुन जिज्ञासा नहीं कर रहा था। अब तक अर्जुन कृष्ण को ऐसी जगह नहीं रख रहा था, जहां से उनसे उसे कुछ सीखना, जानना है। अब तक अर्जुन कृष्ण का उपयोग एक जस्टीफिकेशन, एक रेशनलाइजेशन, एक युक्तियुक्त हो सके उसका अपना ही खयाल, उसके लिए कर रहा था।
इसे समझ लेना उचित है, तो आगे-आगे समझ और स्पष्ट हो सकेगी।
हम अक्सर जब प्रश्न पूछते हैं, तो जरूरी नहीं कि वह प्रश्न जिज्ञासा से आता हो। सौ में निन्यानबे मौके पर प्रश्न जिज्ञासा से नहीं आता। सौ में निन्यानबे मौके पर प्रश्न सिर्फ किसी कनफर्मेशन के लिए, किसी दूसरे के प्रमाण को अपने साथ जोड़ लेने के लिए आता है।
अर्जुन अभी ऐसे बोलता रहा, इस प्रश्न के पहले तक, जैसे उसे पता है कि क्या ठीक है, क्या गलत है! चाहता था इतना कि कृष्ण और हामी भर दें, गवाह बन जाएं, तो कल वह जगत को कह सके कि मैं ही नहीं भागा था, कृष्ण ने भी कहा था। मैंने ही युद्ध नहीं छोड़ा था, कृष्ण से पूछो! दायित्व बांटना चाहता था।
ध्यान रहे, जो दायित्व बांटना चाहता है, उसके भीतर कंपन है। पक्का उसको भी नहीं है, इसीलिए तो दूसरे का सहारा चाहता है। लेकिन यह बताना भी नहीं चाहता कि मुझे पता नहीं है। यह अहंकार भी नहीं छोड़ना चाहता कि मुझे पता नहीं है।
अर्जुन पूरे समय ऐसे बोल रहा है कि जैसे उसे भलीभांति पता है। धर्म क्या है, अधर्म क्या है! श्रेयस क्या है, अश्रेयस क्या है! जगत का किससे लाभ होगा, किससे नहीं होगा! मरेगा कोई, नहीं मरेगा! सब उसे पता है। पता बिलकुल नहीं है; लेकिन अहंकार कहता है, पता है। इसी अहंकार में वह एक टेक कृष्ण की भी लगवा लेना चाहता था। तुम भी बन जाओ उस लंगड़े की बैसाखी, यही वह चाहता था।
कृष्ण जैसे लोग किसी की बैसाखी नहीं बनते। क्योंकि किसी लंगड़े की बैसाखी बनना, उसको लंगड़ा बनाए रखने के लिए व्यवस्था है। कृष्ण जैसे लोग तो सब बैसाखियां छीन लेते हैं। वे लंगड़े को पैर देना चाहते हैं, बैसाखी नहीं देना चाहते। इसलिए कृष्ण ने अभी इस बीच उसकी सब बैसाखियां छीन लीं, जो उसके पास थीं, वे भी।
अब वह पहली दफा, पहली बार कृष्ण से जिज्ञासा कर रहा है, जिसमें अपने लिए समर्थन नहीं मांग रहा है। अब वह उन्हीं से पूछ रहा है कि समाधिस्थ कौन है कृष्ण? किसे हम कहते हैं कि उसकी प्रज्ञा ठहर गई? और जब किसी की प्रज्ञा ठहर जाती है, तो उसका आचरण क्या है? और जब किसी के अंतस में ज्योति ठहर जाती है, तो उसके बाहर के आचरण पर क्या परिणाम होते हैं? मुझे उस संबंध में बताएं। अब वह पहली बार हंबल है, पहली बार विनीत है।
और जहां विनय है, वहीं जिज्ञासा है। और जहां विनय है, वहां ज्ञान का द्वार खुलता है। जहां अपने अज्ञान का बोध है, वहीं से मनुष्य ज्ञान की तरफ यात्रा शुरू करता है। इस वचन में कृष्ण ज्ञानी और अर्जुन अज्ञानी, ऐसी अर्जुन की प्रतीति पहली बार स्पष्ट है। इसके पहले अर्जुन भी ज्ञानी है। कृष्ण भी होंगे, नंबर दो के। नंबर एक वह खुद था अब तक। बड़ा कठिन है, दूसरे आदमी को नंबर एक रखना बड़ा कठिन है।



अभी जो भी प्रश्न पूछे जा रहे थे कृष्ण से, कृष्ण भी समझते हैं कि उनमें अर्जुन अभी तक नंबर एक है। इस पूरे बीच उसके नंबर एक को गिराने की उन्होंने सब तरफ से कोशिश की है। और उसको चाहा है कि वह समझे कि स्थिति क्या है! व्यर्थ ही अपने को नंबर एक न माने। क्योंकि नंबर एक को केवल वही उपलब्ध होता है, जिसको अपने नंबर एक होने का कोई पता नहीं रह जाता। वह हो जाता है। जिसको पता रहता है, वह कभी नहीं हो पाता। पहली दफे अर्जुन विनम्र हुआ है। 
    अब वह पूछता है कि बताओ कृष्ण! और इस पूछने में बड़ी विनम्रता है।
(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

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