शुक्रवार, 10 दिसंबर 2021

नारी

 नाराजगी में देवताओं ने एक आदमी को अभिशाप दिया कि आज से तेरी छाया खो जाएगी। धूप में भी चलेगा तो तेरी छाया नहीं बनेगी। वह आदमी अपने मन में बहुत हंसा कि छाया से मेरा क्या बिगड़ जाएगा। और देवता कैसे नासमझ हैं, अभिशाप भी दे रहे हैं तो छाया के खोने का दे रहे हैं। वह समझ ही न सका कि छाया के खोने से क्या नुकसान हो सकता है? आप भी नहीं समझ सकेंगे कि छाया के खोने से क्या नुकसान है? लेकिन जैसे ही वह आदमी अपने गांव में आया उसे पता चला कि बहुत नुकसान हो गया, जिस आदमी ने भी देखा कि धूप में उसकी छाया नहीं बन रही है वही आदमी उससे भयभीत हो गया।

गांव में खबर फैल गई कि वह आदमी कुछ गड़बड़ हो गया है, उसकी छाया नहीं बनती, ऐसा कभी भी नहीं हुआ था कि किसी आदमी की छाया न बने। उसके घर के लोगों ने द्वार बंद कर लिए, उसके मित्रों ने मुंह मोड़ लिया। उसकी पत्नी ने उसे पति मानने से इनकार कर दिया, उसके बच्चे भी उसे इनकार करने लगे। गांव में उसका जीना मुश्किल हो गया। और गांव के लोगों ने कहा कि तुम गांव के बाहर निकल जाओ। ऐसी बीमारी कभी किसी को नहीं हुई है आज तक कि उसकी छाया खो जाए। पता नहीं तुम कैसे अभाग्य के लक्षण हो। उस आदमी को वह गांव छोड़ देना पड़ा।

क्या ऐसा हो सकता है कि किसी आदमी की छाया खो जाए? लेकिन जब नारियों के संबंध में मैं सोचता हूं तो मुझे पता चलता है कि उनके संबंध में मामला बिलकुल उलटा हो गया है। वे सिर्फ छाया रह गई हैं और उनकी आत्मा खो गई हैं।

नारी सिर्फ पुरुष की छाया रह गई है, उसके पास अपनी कोई आत्मा नहीं हैं।  स्त्रियों में मां मिलती है, बहन मिलती है, बेटी मिलती है नारी कहीं भी नहीं मिलती। मां है, पत्नी है, बेटी है, बहन है लेकिन नारी, नारी कहीं भी नहीं है। स्त्री का कोई भी अस्तित्व है तो पुरुष से संबंधित होकर है, अपने में उसका कोई भी अस्तित्व नहीं है। अपनी उसकी कोई हैसियत नहीं है। अपना उसका कोई व्यक्तित्व नहीं है।

हिंदुस्तान में भी स्त्री को हम संपत्ति मानते रहे हैं। नारी संपत्ति, स्त्री संपत्ति शब्द का हम प्रयोग करते हैं। कन्या का दान कर देते हैं, जैसे कि कोई वस्तु किसी को दान में दी जा रही हो। स्त्री के व्यक्तित्व का अंगीकार ही नहीं हो सका। और इस बात में कि स्त्री सिर्फ छाया है, मनुष्य-जाति को जितने दुख दिए हैं उतने किसी और बात ने नहीं दिए हैं। क्योंकि जिस स्त्री के पास आत्मा ही न हो, वह स्त्री न तो स्वयं के लिए आनंद बन सकती है और न किसी और के लिए। जिसकी आत्मा ही खो गई हो वह एक दुख का ढेर होगी और उसके व्यक्तित्व के चारों तरफ दुख की किरणें ही फैलती रहेंगी, दुख का अंधेरा ही फैलता रहेगा।

परिवार एक आनंद का फूल नहीं बन पाया क्योंकि जिसकी आत्मा के खिलने से वह आनंद बन सकता था उसके पास आत्मा ही नहीं है। परिवार एक संस्था है मृत और मरी हुई क्योंकि नारी है केंद्र और नारी के पास कोई व्यक्तित्व नहीं है। मनुष्य-जाति बहुत से दुर्भाग्य में से गुजरती रही है, उसमें सबसे बड़ा दुर्भाग्य, बड़े से बड़ा दुर्भाग्य नारी की स्थिति है। किन्होंने यह स्थिति नारी की बना दी है? कौन है जिम्मेवार? इस संबंध में खोजबीन करने से बहुत अजीब नतीजे हाथ में आते हैं। संतों से पूछिए, महात्माओं से पूछिए, वे कहेंगे, नारी--ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी। उनमें वे गिनती करते हैं।

संत कहते हैं कि नारी नर्क का द्वार है।

कोई पूछे इन संत को कि पैदा कहां से हुए थे? नौ महीने किसके पेट में रहे थे? खून किसका दौड़ता है तुम्हारी नसों में, हड्डियां किससे बनी हैं, मांस किससे पाया है? अब तक ऐसा तो उपाय नहीं हो सका कि संत पुरुषों के पेट में रह कर पैदा हो सकेगा। लेकिन जिस स्त्री से मांस-मज्जा बनती है, हड्डी बनती है, जिसके खून से जीवन चलता है। नौ महीने तक जिसके शरीर का हिस्सा होकर आदमी रहता है उसी स्त्री के छूने से वह अपवित्र हो जाता है। और स्त्री के अतिरिक्त तुम्हारे पास है क्या तुम्हारे शरीर में जो अपवित्र हो गए? और स्त्रियां ही भीड़ लगा कर पूजा करेंगी कि संत बहुत बड़ा संत है, स्त्री के छूने से अपवित्र हो जाता है।

मूढ़ता की भी कोई सीमा होती है, जहालत की भी कोई हद्द होती है। किन्होंने स्त्री को अपमानित किया है और उसके व्यक्तित्व से आत्मा छीन ली है? उन लोगों ने स्त्री को अपमानित किया है और उसकी आत्मा का हनन किया है, जो लोग इस जीवन, इस जगत, इस धरती के विरोध में हैं। और उनका, उनके विरोध में एक संगति है, जो लोग भी मानते हैं कि असली जीवन मरने के बाद शुरू होता है, जो लोग मानते हैं कि असली जीवन मोक्ष में शुरू होता है, स्वर्ग में शुरू होता है, जो लोग भी मानते हैं कि यह पृथ्वी पापपूर्ण है, यह जीवन असार है। जो लोग भी मानते हैं, यह जीवन निंदित है, कंडेम है, यह जीवन जीने के योग्य नहीं है। ऐसे सारे लोग नारी को गाली देंगे, क्योंकि इस जीवन को जो निंदित करते हैं वे नारी को भी निंदित करेंगे, क्योंकि यह जीवन नारी से ही निकलता और विकसित होता और प्रभावित होता है।

इस जीवन का द्वार नारी है और इसलिए नारी नर्क का द्वार है क्योंकि इस जीवन को कुछ लोग नर्क मानते हैं। जिन लोगों ने इस जीवन की निंदा की है उन लोगों ने स्त्री को भी अपमानित किया है। दुनिया में मुश्किल से कोई धर्म होगा जिसने स्त्री को कोई भी इज्जत दी हो। 

यह तथ्य समझ लेना जरूरी है, तो ही नारी के जीवन में आने वाले भविष्य में कोई क्रांति हो सकती है और नारी को आत्मा मिल सकती है। जब तक पृथ्वी का जीवन भी स्वीकार योग्य नहीं बनता, जब तक यह जीवन भी अहोभाग्य नहीं बनता, जब तक इस जीवन को भी आनंद और इस जीवन को भी परमात्मा का प्रसाद मानने की क्षमता पैदा नहीं होती, तब तक नारी की आत्मा को वापस लौटाना मुश्किल है।

जब तक परलोक महत्वपूर्ण रहेगा नारी अपमानित रहेगी। जब तक परलोक श्रेष्ठ रहेगा तब तक नारी श्रेष्ठ नहीं हो सकती। परलोकवाद में और नारी के व्यक्तित्व में बुनियादी संघर्ष चल रहा और इसलिए परलोकवादी जो संत, साधु, महात्मा हैं वे नारी के जन्मजात दुश्मन हैं। उनको लगता है कि नारी ही मनुष्य को उलझाती है, जन्म देती है, प्रेम में डालती है, वासना में बांधती है, और यह सारा का सारा जीवन का जो उपक्रम है नारी चलाती है, नारी केंद्र है। यह बात थोड़ी दूर तक सच है कि जीवन के केंद्र पर नारी है, लेकिन यह बात गलत है कि जीवन असार है। यह बात गलत है कि जीवन त्याज्य है। यह बात गलत है कि इस जीवन को लात मारने से कोई बड़ा जीवन उपलब्ध होता है। बड़ा जीवन उपलब्ध होता है इसी जीवन को ठीक से जीने से। बड़ा जीवन उपलब्ध होता है इसी जीवन की सम्यक अनुभूति से। बड़ा जीवन उपलब्ध होता है इसी जीवन को सीढ़ी बनाने से।

लेकिन अब तक दुनिया का कोई धर्म जीवन को अंगीकार नहीं कर पाया। दुनिया के सारे धर्म लाइफ निगेटिव हैं। वह जीवन का निषेध करते हैं, लाइफ अफरमेटिव नहीं है। और जब तक पृथ्वी पर लाइफ अफरमेशन का, जीवन स्वीकार को धर्म पैदा नहीं होता, तब तक नारी को आत्मा नहीं मिल सकती। जीवन का जब तक निषेध चलेगा नारी सम्मानित नहीं हो सकती। जीवन के निषेध करने वाले लोगों ने नारी को अपमानित किया है और उसके व्यक्तित्व को दीनऱ्हीन कर दिया है। इसलिए पहली क्रांति नारी को करनी है तथाकथित धार्मिक लोगों, धर्मगुरुओं, धर्मों के खिलाफ। पहली क्रांति धर्मों के खिलाफ, और वह इस आधार पर कि इस जीवन की स्वीकृति होनी चाहिए, इस जीवन की धन्यता होनी चाहिए, इस जीवन का आनंद होना चाहिए, इस जीवन की दुश्मनी नहीं, शत्रुता नहीं, लेकिन इस जीवन की धन्यता को स्वीकार करने के लिए हमें जीवन की सारी वैल्यूज, सारे सिद्धांत, सारे आधार बदल देने होंगे। क्योंकि अब तक हम मानते हैं जो जीवन को छोड़ देता है वह आदमी श्रेष्ठ है, जो आदमी जीता है वह आदमी नहीं।

और जीवन को छोड़ने का मतलब क्या होता है? संन्यासी जो भागते हैं, कहते हैं, घर छोड़ कर आ गए हैं; अगर उनके घर में बहुत गौर करो तो घर का मतलब होगा स्त्री। घर का मतलब वैसे स्त्री ही होता है। वह स्त्री को छोड़ कर भागने वाला संन्यासी इतना आदृत हुआ है। वह क्यों आदृत हुआ है? स्त्री को छोड़ते ही लगता है, एक आदमी जीवन का विरोधी हो गया। लेकिन जीवन को छोड़ने की इन लंबी परंपराओं ने जीवन के सारी जड़ों को विषाक्त कर दिया है। जीवन से सारा आनंद, सारा रस, सारा सौंदर्य छीन लिया है। जीवन को एक उदासी और एक दुख की कालिमा दे दी है। जीवन से सारी मुस्कुराहट छीन ली है।

धर्म एक नृत्य करता हुआ धर्म नहीं रह गया, धर्म एक गीत गाता हुआ धर्म नहीं रह गया। धर्म उदास, चेहरे लटके हुए लोगों का, भागे हुए लोगों का एक लंबी कतार हो गई। ये सारी की सारी कतारें स्त्री के विरोध में हैं। इस देश में चूंकि जीवन विरोधी चिंतकों का बहुत प्रभाव रहा है, और जीवन के विरोध में कुछ लोग क्यों हो जाते हैं?


एक लोमड़ी एक बगीचे से गुजरती है। अंगूरों के गुच्छे लगे हैं। वह छलांग लगाती उन गुच्छों को पाने के लिए, लेकिन गुच्छे दूर हैं और हाथ उसके नहीं पहुंच पाते। बहुत कोशिश करती है, तभी चारों तरफ देखती है कि कुछ खरगोश एक झाड़ी में से झांक कर देख रहे हैं। फिर वह खड़ी हो जाती है और शान से रास्ते पर वापस लौटने लगती है। वे खरगोश उससे पूछते हैं, देवी, अंगूर कैसे थे? वह देवी कहती है, अंगूर, अंगूर खट्टे थे, खाने योग्य नहीं थे, इसलिए मैंने छोड़ दिए। लोमड़ी यह नहीं कहती कि पाए नहीं जा सके, लोमड़ी यह नहीं कहती मेरी छलांग छोटी थी, लोमड़ी यह नहीं कहती कि अंगूर मुझे मिल ही नहीं सके, चखने का सवाल नहीं उठा। लेकिन अहंकार भीतर से कहता है कि नहीं, अंगूर तो मैं पा लेती लेकिन वे खट्टे थे इसलिए छोड़ दिए हैं।

जो लोग जीवन के रस को उपलब्ध नहीं कर पाते, वे बजाय यह कहने के कि हमें जीवन जीने की कला नहीं आती, यही कहना पसंद करते हैं कि जीवन असार है, जीवन खट्टा है, जीवन पाने योग्य नहीं है। जितने लोग जीवन को पाने में, जीवन के सत्य को अनुभव करने में असमर्थ हो जाते हैं, वे सारे लोग जीवन विरोधी हो जाते हैं। और इन जीवन विरोधी लोगों ने सारे लोगों के चित्त को विकृत करने, परवर्ट करने का काम किया है। 

जब तक हम मरना सिखाते रहेंगे और जब तक धर्म स्युसाइडल होगा, आत्मघाती होगा तब तक नारी का सम्मान नहीं हो सकता है। जिस दिन जीवन को जीने की कला बनेगा धर्म, जिस दिन हम जीवन के जीने को ही जीवन के जीने की ठीक विधि को ही, जीवन को जीने की कला और आर्ट को ही धर्म कहेंगे उस दिन नारी सम्मानपूर्ण रीति से ही स्वीकृत हो सकती है। लेकिन कोई पूछ सकता है कि हिंदुस्तान में जहां धर्म का इतना प्रभाव है नारी अपमानित हुई, तो पश्चिम में, यूरोप में, अमेरिका में, जहां धर्म का इतना प्रभाव नहीं है वहां नारी की क्या स्थिति है? वहां भी नारी अपमानित है लेकिन दूसरे ढंग से।

हिंदुस्तान में नारी का एक ही उपयोग है, जिसको स्वर्ग या मोक्ष जाना हो, वह नारी को छोड़ कर भागे। ऐसा निगेटिव उपयोग है। नारी का एक ही उपयोग है और वह यह कि जिसको मोक्ष जाना हो नारी को छोड़ कर भागे। हिंदुस्तान ने नारी को छोड़ कर आदर दिया है। ठीक इससे दूसरी एक्सट्रीम पश्चिम में पैदा हुई है। और वह यह है कि नारी का एक ही उपयोग है कि उसका भोग किया जाए। वहां भी नारी को आत्मा नहीं मिल सकी है। यहां नारी का उपयोग है कि उसका त्याग किया जाए और पश्चिम में उसका उपयोग है कि भोग किया जाए। लेकिन नारी न त्याग के लिए बनी है और न नारी भोग के लिए बनी है। नारी का अपना कोई अस्तित्व भी है त्याग और भोग से पृथक, उसकी अपनी कोई गरिमा भी है, अपनी कोई आत्मा भी है।

पश्चिम एक अति पर है कि नारी भोग्य है। उसे भोग लेना है और फेंक देना है, इससे ज्यादा उसका कोई उपयोग नहीं। पश्चिम में भी नारी की आत्मा नहीं उठ पाई है ऊपर। पश्चिम में नारी का उपयोग भी एक शोषण है और पूरब में भी शोषण है। इसलिए दुनिया में कहीं भी नारी नहीं पैदा हो पाई है। नारी को आत्मा का विकास करने का कोई मौका नहीं मिल पाया है। एक तरफ धर्मगुरुओं ने नारी को अपमानित किया है, दूसरी तरफ धर्म के विरोधी लोगों ने नारी को दूसरी दिशा से अपमानित किया है। लेकिन ऐसा मालूम पड़ता है कि पुरुष नारी को अपमानित करने को तत्पर है वह उसको अंगीकार और स्वीकार नहीं करना चाहता।

और बड़ी हैरानी की बात है, बाप अपनी बेटी से कहता है कि मैं तुझे प्रेम करता हूं। पति अपनी पत्नी से कहता है कि मैं तुझे प्रेम करता हूं। बेटे अपनी मां से कहते हैं कि हम तुझे प्रेम करते हैं। लेकिन यह प्रेम बड़ा अजीब है पुरुषों का कि नारी को व्यक्तित्व नहीं दे पाया हजारों साल के प्रेम के बाद भी। यह प्रेम कैसा है कि दूसरे व्यक्ति को आत्मा नहीं दे पाता? यह प्रेम कैसा है कि दूसरे की गर्दन जकड़ लेता है लेकिन उसको मुक्त नहीं कर पाता? जो प्रेम बांधता है, वह प्रेम नहीं है। जो प्रेम मुक्त करता है, वही प्रेम है। प्रेम अगर मुक्त न कर सके, तो फिर प्रेम में और घृणा में अंतर क्या है?

अगर एक पति अपनी पत्नी को प्रेम करता है, तो इस प्रेम का एक ही अर्थ होगा कि पहले इसे आत्मा, इसे व्यक्तित्व, इसकी अपनी इनडिपेंडेंट इंडिविजुअलिटी पैदा करने में सहयोगी बने। और जब यह एक व्यक्ति होगी, तभी प्रेम का कोई अर्थ है। हम जिसे प्रेम करते हैं उसे व्यक्ति बनाना चाहते हैं। लेकिन पुरुष ने आज तक नारी को व्यक्ति नहीं बनने दिया है, बल्कि वह व्यक्ति न बन जाए इसकी सारी कोशिश की है। हजारों वर्ष तक नारी को शिक्षा नहीं मिलने दी, क्योंकि शिक्षा एक व्यक्तित्व देती है। तो शिक्षा को रोक रखा कि नारी को शिक्षा की कोई जरूरत नहीं है।

नारी को शिक्षा वर्जित रखी हजारों साल तक, क्योंकि शिक्षा जैसे ही मिलेगी, नारी में विचार पैदा होंगे। विचार विद्रोह लाते हैं, विद्रोह व्यक्तित्व लाता है। नारी को अशिक्षित रखने की साजिश जारी रही। फिर किसी भांति नारी ने अगर थोड़ी-बहुत शिक्षा लेनी शुरू की, तो एक नई साजिश शुरू हुई कि नारी को ठीक पुरुष जैसी शिक्षा दे दो। नारी को पुरुष जैसी शिक्षा देने से भी नारी की आत्मा प्रकट नहीं होती। वह नंबर दो का पुरुष बन जाती है, कार्बनकापी बन जाती है। अब सारी दुनिया में नारी को शिक्षा देने के लिए पुरुष मजबूरन राजी हुआ है। लेकिन उस राजी में एक नई साजिश शुरू हुई कि जो पुरुष की शिक्षा है वही नारी को दे दो।

नारी के पास अपना व्यक्तित्व है पुरुष से बहुत भिन्न, बहुत अलग आयाम, बहुत अलग डायमेंशन है उसके व्यक्तित्व का। उसके मनस्य का बहुत अलग रूप है। उसके मनस्य की दिशा बहुत भिन्न है वह ठीक पुरुष जैसी नहीं है। और यही तो कारण है कि पुरुष और उसमें जो भेद है, जो भिन्नता है, वही उनके बीच आकर्षण का कारण है। वे बिलकुल दो उलटे ध्रुव हैं। और जिस दिन स्त्री को या तो शिक्षा मत दो, तब वह गुलाम बन जाती है, तब वह पंगु हो जाती है और अगर मजबूरी में शिक्षा देनी पड़े, तो उसे ठीक पुरुषों जैसी शिक्षा दे दो ताकि वह नंबर दो का पुरुष बन जाए, कार्बनकापी हो जाए और व्यर्थ हो जाए।

हिंदुस्तान में नारी दास है, पश्चिम में नारी कार्बनकापी है और कार्बनकापी की भी अपनी कोई आत्मा नहीं होती। स्त्री को खतम करने के लिए एक उपाय यह था कि शिक्षा मत दो, दूसरा उपाय यह है कि वही शिक्षा दे दो जो तुम पुरुष को दे रहे हो। तब वह पुरुष जैसी क्लर्क बन जाएगी, पुरुष जैसी पाइलट बन जाएगी, पुरुष जैसी फौज का जवान बन जाएगी, वह सब बन जाएगी लेकिन एक बात पक्की है कि पुरुष जैसा होने में वह स्त्री नहीं रह जाएगी, नारी नहीं रह जाएगी। और आज पश्चिम में यह दुर्घटना दिखाई पड़नी शुरू हो गई है।

पूरब में स्त्री स्त्री नहीं है सिर्फ दासी है। वह जो स्त्रियां लिखती हैं न प्रेम-पत्र, तो नीचे लिखती हैं--आपकी दासी। और जिसको लिखती हैं वे बड़े प्रसन्न होते हैं पति परमेश्वर वगैरह जो होते हैं। और उनको खयाल भी नहीं आता कि जिसको हमने दासी लिखने को मजबूर कर दिया है, जो हमारे सामने मुकाबले पर खड़ी नहीं रह गई है, उससे प्रेम पाने का आनंद कभी भी नहीं मिल सकता। प्रेम पाने का आनंद उनके साथ है जो समकक्ष हैं, उनके साथ कभी नहीं है जो हमसे नीचे हैं। क्योंकि जो हमसे नीचे हैं उनसे प्रेम डिमांड किया जा सकता है, मांगा जा सकता है लिया जा सकता है। और ध्यान रहे, प्रेम मांग कर कभी भी नहीं मिलता है। प्रेम मिलता है तो बिना मांगे मिलता है। प्रेम मांग कर कभी नहीं मिलता।

और प्रेम देने के लिए मजबूर कभी नहीं किया जा सकता। लेकिन स्त्री को आज तक यही समझाया गया है कि वह प्रेम दे, पति परमेश्वर है उसको प्रेम देना ही चाहिए। प्रेम कोई कर्तव्य नहीं है कि करना चाहिए। जो प्रेम करना पड़ता है, वह तत्काल प्रेम नहीं रह जाता, तत्क्षण प्रेम नहीं रह जाता। इसलिए जहां गुलामी है वहां प्रेम कभी भी नहीं हो सकता। गुलाम कभी प्रेम नहीं करते। गुलाम भयभीत होते हैं, प्रेम नहीं करते। पत्नियां भयभीत हैं पतियों से, और पत्नियां जब तक भयभीत हैं तब तक उनसे प्रेम नहीं मिल सकता।

और जब पत्नियों से प्रेम नहीं मिलता, तो पुरुष खोजता है प्रेम को कहीं और। वेश्याओं में खोजता है, बाजारों में खोजता है। और उसे पता नहीं कि जब पत्नी से प्रेम नहीं मिलता तो वेश्या से कैसे प्रेम मिल सकता है? हालांकि उसकी बुद्धि वही है। वह पत्नी में और वेश्या में बुनियादी फर्क नहीं मानता है। पत्नी स्थाई वेश्या है, जिसको सदा के लिए खरीद लाया है।

बिना प्रेम के जिसे खरीद लाया गया है उसमें और एक रात के लिए स्त्री को खरीदने में बुनियादी फर्क नहीं है। फर्क सिर्फ डिग्री का है, मात्रा का है, एक रात के लिए खरीदा है कि पूरी जिंदगी के लिए खरीदा है। जब तक पुरुष बिना प्रेम के एक स्त्री को घर में बांध लाता है, तब तक प्रेम की कोई संभावना नहीं है। और फिर जिंदगी भर कोशिश करो कि हम प्रेम करते हैं। वह दिखावा रहेगा, बातचीत रहेगी, ऊपर से कहेंगे कि हम प्रेम करते हैं। प्रेम के पत्र भी लिखे जाएंगे, भीतर कहीं भी प्रेम नहीं होगा।

पूछें पति अपने मनों से कभी अपनी पत्नियों को प्रेम किया है? पूछें पत्नियां अपने मन से कभी प्रेम किया है? जिनको हम कहते हैं कि हम प्रेम करते हैं। कि वह सब बातचीत हो गई है। अगर हमने प्रेम किया होगा तो घरों की ऐसी स्थिति होती जैसी आज है, चौबीस घंटे कलह की, संघर्ष की, वैमनस्य की? घरों का यह रूप होता, यह कुरूपता, यह अग्लीनेस होती घरों में? यह परिवारों की हालत होती? क्या आज हर आदमी परिवार से भाग जाने को आतुर होता है।

 घर वह पत्नी रास्ता देख रही है। पति और पत्नियों के बीच संबंध प्रेम के अतिरिक्त और कुछ भी होगा, प्रेम का नहीं। प्रेम की बातचीत निपट बातचीत है। और बातचीत से भरने की कोशिश चलती है, लेकिन बातचीत से जिंदगी नहीं भरती।

और तब एक बेचैनी शुरू होती है और वह बेचैनी सारे जीवन को रुग्ण कर देती है। प्रेम के बिना कोई भी आदमी अधूरा रह जाता है। स्त्रियां भी और पुरुष भी और सारी मनुष्य-जाति अधूरी है। उसके भीतर कुछ कमी है जो पूरी नहीं हो पाती, जीवन भर दौड़ कर भी प्रेम नहीं मिल पाता। प्रेम नहीं मिल सकता है इस भांति। प्रेम मिलता है समकक्ष से, और जब तक स्त्री पुरुष के समकक्ष नहीं होती तब तक स्त्री से प्रेम नहीं मिल सकता है। और अच्छा होगा कि स्त्रियां यह कह दें कि जब तक हम दासी हैं तब हमसे प्रेम लिया जा सकता है, लेकिन हम दे नहीं सकते। और यह उचित होगा।

लेकिन पति परमात्मा बहुत प्रसन्न होते हैं यह जान कर कि पत्नी उनकी दासी। और उन्हें कभी खयाल नहीं कि जिसको आपने दासी बना लिया, उससे मनुष्यता खो गई है, वह मनुष्य नहीं रहा। पूरब की हालत है दासियों की और पश्चिम की हालत, पश्चिम की हालत और भी बदतर हो गई है। पश्चिम की स्त्री और भी खिलवाड़ का साधन हो गई है। जब दिल आए स्त्री को बदला जा सकता है।

ओशो रजनीश




मंगलवार, 7 दिसंबर 2021

मेरी बहू मेरी बेटी


  • "मेरी बेटी "
 एक बेटी मेरे घर में भी आई है, 
सिर के पीछे उछाले गये चावलों को,

माँ के आँचल में छोड़कर, 
पाँव के अँगूठे से चावल का कलश लुढ़का कर, 
महावर रचे पैरों से, महालक्ष्मी का रूप लिये, 
बहू का नाम धरा लाई है.

एक बेटी मेरे घर में भी आई है.

माँ ने सजा धजा कर बड़े अरमानों से,
 दामाद के साथ गठजोड़े में बाँध विदा किया, 
उसी गठजोड़े में मेरे बेटे के साथ बँधी, 
आँखो में सपनों का संसार लिये सजल नयन आई है.

एक बेटी मेरे घर भी आई है.

किताबों की अलमारी अपने भीतर संजोये, 
गुड्डे गुड़ियों का संसार छोड़ कर, 
जीवन का नया अध्याय पढ़ने और जीने,
 माँ की गृहस्थी छोड़, अपनी नई बनाने, 
बेटी से माँ का रूप धरने आई है.

एक बेटी मेरे घर भी आई है.

माँ के घर में उसकी हँसी गूँजती होगी, 
दीवार में लगी तस्वीरों में, 
माँ उसका चेहरा पढ़ती होगी, 
यहाँ उसकी चूड़ियाँ बजती हैं,
 घर के आँगन में उसने रंगोली सजाई है.

एक बेटी मेरे घर में भी आई है.

शायद उसने माँ के घर की रसोई नहीं देखी,
 यहाँ रसोई में खड़ी वो डरी डरी सी घबराई है,
 मझसे पुछ पुछ कर खाना बनाती है
मेरे बेटे को मनुहार से खिलाकर,
 प्रशंसा सुन खिलखिलाई है.

एक बेटी मेरे घर में भी आई है.

अपनी ननद की चीज़ें देखकर,
 उसे अपनी सभी बातें याद आईहैं,
 सँभालती है, करीने से रखती है, 
जैसे अपना बचपन दोबारा जीती है, 
बरबस ही आँखें छलछला आई हैं.

एक बेटी मेरे घर में भी आई है.

मुझे बेटी की याद आने पर "मैं हूँ ना",
 कहकर तसल्ली देती है, 
उसे फ़ोन करके मिलने आने को कहती है, 
अपने मायके से फ़ोन आने पर आँखें चमक उठती हैं
 मिलने जाने के लिये तैयार होकर आई है.

एक बेटी मेरे घर में भी आई है.

उसके लिये भी आसान नहीं था,
 पिता का आँगन छोड़ना,
 पर मेरे बेटे के साथ अपने सपने सजाने आई है,
 मैं खुश हूँ, एक बेटी जाकर अपना घर बसा रही,
 एक यहाँ अपना संसार बसाने आई है.

एक बेटी मेरे घर में भी आई है.






कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...