गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 6 भाग 19

  दुखों में अचलायमान


यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।

यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।। 22।।


और परमेश्वर की प्राप्तिरूप जिस लाभ को प्राप्त होकर, उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता है, और भगवत्प्राप्ति रूप जिस अवस्था में स्थित हुआ योगी बड़े भारी दुख से भी चलायमान नहीं होता है।


प्रभु को पाने की कामना पूरी हो जाए, तो फिर और कोई कामना पूरी करने को शेष नहीं रह जाती है। प्रभु में प्रतिष्ठा मिल जाए, तो फिर किसी और प्रतिष्ठा का कोई प्रश्न नहीं है। मिल जाए प्रभु, तो फिर न मिलने को कुछ बचता है, न पाने को कुछ बचता है।

कृष्ण इस सूत्र में कहते हैं कि जिसने प्रभु को


उपलब्ध करने का लाभ पा लिया, उसे परम लाभ मिल गया। वैसा परम लाभ को उपलब्ध व्यक्ति, महान से महान दुख से अविचलित गुजर जाता है।

इसे थोड़ा समझें। असल में हम दुख से विचलित ही इसीलिए होते हैं कि हमें आनंद का कोई अनुभव नहीं है। हम दुख से विचलित ही इसीलिए होते हैं कि हमें आनंद का कोई अनुभव नहीं है। यदि हमें आनंद का अनुभव हो, तो दुख से हम विचलित होंगे ही नहीं। असल में जैसे हम जीते हैं, हम दुख में ही जीते हैं।


लेकिन एक तो साधारण दुख है, जिसके हम आदी हो गए हैं। जब हम पर कोई असाधारण दुख आता है, जिसके हम आदी नहीं हैं, तो हम विचलित होते हैं।

ध्यान रहे, हम साधारणतः दुख में ही जीते हैं। लेकिन साधारण दुख में जीते हैं, इसलिए कोई विचलित होने का कारण नहीं आता। जब असाधारण दुख आता है, तो चित्त कंपित होता है और हम विचलित हो जाते हैं।

अगर विज्ञान पूरी तरह सफल हो गया--जो कि संभव नहीं दिखाई पड़ता--मान लें, अगर विज्ञान किसी दिन पूरी तरह सफल हो गया, तो भी आपको दुख से छुटकारा नहीं दिला पाएगा। हां, इतना ही कर पाएगा कि आपके ऊपर अति दुख न आने पाएं। दुख सामान्य रह जाएं; कुनकुने रह जाएं, उबलते हुए न हों।

कुनकुने दुख धीरे-धीरे हमारी आदत बन जाते हैं। इसलिए उनसे हमें कोई ज्यादा पीड़ा और परेशानी नहीं होती। विशेष दुख आते हैं, तो हम पीड़ित होते हैं। इसलिए मैं कहता हूं कि भीतर हमें आनंद का कोई अनुभव नहीं है, इसलिए विशेष दुख हमें पीड़ित करते हैं।

फिर अगर विशेष दुख रोज-रोज आने लगें, तो वे भी हमें पीड़ित नहीं करते। हम उनके भी आदी हो जाते हैं। और जिसे विशेष दुख नहीं आए हैं, उसे साधारण दुख भी आ जाए, तो भी पीड़ित करता है। दुख के प्रति हमारी संवेदनशीलता, दुख के आने पर धीमी होती चली जाती है।

युद्ध के मैदान पर जाता है सैनिक, तो जब तक नहीं पहुंचा है युद्ध के मैदान पर, तब तक बहुत पीड़ित, चिंतित और परेशान रहता है। लेकिन मनोवैज्ञानिक हैरान हैं कि युद्ध के मैदान पर पहुंचने के एक-दो दिन के बाद उसकी सब पीड़ा, सब चिंता विदा हो जाती है! क्या, हो क्या जाता है?

जब रोज गिरते देखता है बम को अपने किनारे, रोज अपने मित्रों को दफनाए जाते देखता है, रोज आदमियों को मरते देखता है, सड़क पर लाशों से गुजरता है--दो-चार दिन में संवेदनशीलता क्षीण हो जाती है। फिर वह जो युद्ध पर जाने से डर रहा था, वह वहीं बैठकर--पास में हवाई जहाज दुश्मन के उड़ते रहते हैं, बमबारी करते रहते हैं--वह नीचे बैठकर ताश खेलता रहता है।

अगर आपको निरंतर दुख में रखा जाए, तो आप उस दुख के लिए आदी हो जाते हैं; फिर उसका आपको पता नहीं चलता। हम एक खास स्तर पर दुख के आदी हो गए हैं, और इसीलिए बहुत अड़चन होती है।

जब पहली दफा पश्चिम के लोगों को पता चलता है हमारी गरीबी का, तो उन्हें भरोसा नहीं आता कि इतनी गरीबी को हम सह कैसे लेते होंगे! बगावत क्यों नहीं कर देते! आग क्यों नहीं लगा डालते! दुनिया को मिटा क्यों नहीं डालते! उन्हें खयाल भी नहीं कि हम गरीबी के लंबे आदी हैं! गरीबी से हमें कोई विशेष पीड़ा नहीं होती। सच तो यह है कि गरीब को गरीबी से कभी पीड़ा नहीं होती, पड़ोस में कोई अमीर हो जाता है, तो पीड़ा शुरू होती है। गरीबी की तो आदत होती है। लाखों वर्ष तक हमारा शूद्र बिलकुल ही पशु के तल पर जीया है। आदी हो गया था। सपने भी छोड़ दिए थे उसने; वह दुख के लिए राजी हो गया था।

हम सब दुखी हैं, लेकिन सब एक-एक दुख की सीमा तक राजी हो गए हैं। तो वहां तक तो हमें कोई दुख चलायमान नहीं करता। लेकिन विशेष दुख आ जाता है, जिसके लिए हम आदी नहीं हैं, तो हम कंपित हो जाते हैं, तो हम पीड़ित हो जाते हैं; तो हमारे भीतर कुछ टूटता है, बिखरता है।

लेकिन जो व्यक्ति आनंद के अनुभव को उपलब्ध हो जाए, उसे फिर बड़े से बड़ा दुख विचलित नहीं करता, क्योंकि भीतर गहरे में वह आनंद में जीता ही है। दुख बाहर ही आते हैं फिर, भीतर तक प्रवेश नहीं कर पाते। दुख बाहर घूमते हैं और चले जाते हैं, जैसे हवा के झोंके आए हों। या आप रास्ते से गुजरते हों और वर्षा पड़ गई हो, तो आप कोई मिट्टी के पुतले नहीं हैं, आप उस वर्षा को झेलकर घर आ जाते हैं। आप भीतर जानते हैं, कुछ गल नहीं जाएगा। लेकिन उसी रास्ते पर अगर मिट्टी के पुतले भी चल रहे हों, तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे।

भीतर आनंद की वर्षा हो रही हो सतत, तो बाहर कितना ही बड़ा दुख आ जाए, बाहर ही रहता है, भीतर प्रवेश नहीं कर पाता। ध्यान रखें, दुख भीतर तभी प्रवेश करता है, जब भीतर दुख मौजूद हो। और समान समान को आकर्षित करता है। भीतर दुख मौजूद हो, तो बाहर के दुख को भीतर खींचता है। भीतर आनंद मौजूद हो, तो बाहर के दुख को वापस लौटा देता है, उसे निमंत्रण भी नहीं देता।

कृष्ण कहते हैं, जिसने पा लिया परम लाभ, प्रभु को अनुभव किया जिसने, फिर बड़े से बड़ा दुख उसे चलायमान नहीं करता है।

फिर चलायमान होने की कोई वजह नहीं रह गई। फिर हालत ऐसी ही हो गई कि जिसे यह पता चल गया कि मेरे पास अनंत खजाना है, उसकी अगर एक कौड़ी गिर जाए, तो क्या दुख, क्या पीड़ा! जिसे पता चल जाए, अनंत खजाना मेरे पास है, उसके करोड़ रुपए भी खो जाएं, तो कौन-सी पीड़ा है, कौन-सा दुख है! अनंत में कुछ कम नहीं होगा।

जिसे पता चल जाए कि मेरे भीतर जो है, वह कभी नहीं मरता, तो छोटी-मोटी बीमारी की तो बात अलग, मौत खुद भी द्वार पर आकर खड़ी हो जाए, तो विचलित होने का कोई कारण नहीं है। मौत से हम विचलित होते हैं, क्योंकि हम जानते हैं, मैं मरूंगा। मौत से हम विचलित होते हैं, क्योंकि हम जानते हैं कि बीमारी इतनी तकलीफ दे गई; मौत कितनी तकलीफ न दे जाएगी! मौत से हम विचलित होते हैं, क्योंकि भीतर अमृत का हमें कोई अनुभव नहीं है।

यदि अमृत का अनुभव है, तो मौत स्पर्श भी नहीं कर पाएगी। वह बाहर ही बाहर घूम सकती है, भीतर प्रवेश नहीं कर सकती।

हमारे भीतर वही प्रवेश करता है, जो हमारे भीतर पहले से मौजूद है। जीवन के इस नियम को बहुत गौर से समझ लेना जरूरी है। हमारे भीतर वही प्रवेश करता है, जो हमारे भीतर मौजूद है, अन्यथा हमारे भीतर प्रवेश नहीं हो सकता। अगर आप दुखी हैं, तो दुख प्रवेश कर सकता है। अगर आनंदित हैं, तो आनंद प्रवेश कर सकता है। अगर अज्ञानी हैं, तो अज्ञान प्रवेश कर सकता है। अगर ज्ञानी हैं, तो ज्ञान प्रवेश कर सकता है। समान ही समान को खींचता है, असमान को हटाता है।

तो अगर आपको बार-बार दुख प्रवेश कर जाता हो, तो समझ लेना कि आपके भीतर दुख की गहरी पर्त है, जो उसे बुला लेती है, निमंत्रण दे देती है। अगर आप उदास आदमी हैं, तो आपको चारों तरफ से उदासी पकड़ेगी और आपकी तरफ दौड़ेगी। आप गङ्ढा बन जाएंगे, और उदासी आपकी तरफ नदियां बनकर यात्रा करने लगेगी। अगर आप आनंदित हैं, तो चारों तरफ से आनंद की धाराएं आपके भीतर प्रवेश करने लगेंगी।

जो आपके भीतर प्रवेश करता है, वह खबर देता है कि कौन आपके भीतर बैठा है, जो उसे आकर्षित कर रहा है। जिसने आनंद को जाना प्रभु को पा लेने के, उसे कोई दुख विचलित नहीं करेगा।

कितने दुख हैं जीवन में? कितने दुख हैं? हम उनकी थोड़ी-सी मोटी गिनती कर लें, तो खयाल में आ जाए।

प्रिय के बिछुड़ने का दुख है। प्रियजन के बिछुड़ने का दुख है। लेकिन जो प्रभु को मिल गया, वह प्रियतम को मिल गया। अब कोई प्रियजन के बिछुड़ने का दुख नहीं रह जाता। अब मिलन शाश्वत है। अब तो हम उस प्यारे को मिल गए, जिसकी झलक हमने सब प्रियजनों में देखी थी, लेकिन जिसे हम किसी में पा न सके थे। जिसे हमने सब प्रियजनों में खोजना चाहा था, और खाली और रिक्त हाथ वापस लौट आए थे। जिसे हमने जब भी किसी को प्रेम किया था, तो उसमें बहुत गहरे में हमने परमात्मा को ही तलाशा था।

और इसीलिए तो सभी प्रेमी फ्रस्ट्रेट होते हैं, क्योंकि अंत में मिलता है आदमी, परमात्मा तो मिलता नहीं। खोजते परमात्मा को ही हैं। इसलिए जब भी कोई किसी के प्रेम में गिरता है, तो वह उसके भीतर किसी दिव्यता की खोज है। लेकिन फिर हाथ में तो हड्डी, मांस, चमड़ी के कुछ और आता नहीं, कोई दिव्यता तो हाथ में आती नहीं। फिर विषाद घेर लेता है।

जो प्रभु को पा लिया, उसके लिए अब मिलन का कोई प्रश्न न रहा, परम मिलन हो गया। अब उसके हाथ किसी के आलिंगन को नहीं फैलेंगे, और या फैलेंगे भी, तो सभी के आलिंगन में उसे परमात्मा का ही आलिंगन होगा। और कोई अगर उससे बिछुड़कर जा रहा है, तो उसका कुछ भी नहीं बिछुड़ेगा। क्योंकि जो परम मिलन हो गया है, उस परम मिलन के आगे अब किसी बिछुड़न का कोई अर्थ नहीं है।

अपयश का दुख है जीवन में, अपमान का दुख है जीवन में। लेकिन जिसे प्रभु ने सम्मानित कर दिया, अब उसे अपमान छू सकेगा? जिसे स्वयं प्रभु ने अपने मंदिर में प्रवेश दिया और जिसे स्वयं प्रभु ने अपने निकट बिठा लिया--यह सिर्फ मैं काव्य की भाषा में बोल रहा हूं, प्रभु कोई व्यक्ति नहीं है--जो प्रभु के अनुभव को उपलब्ध हुआ, अब कौन-सा अपमान उसके लिए अर्थपूर्ण रह जाएगा? जो बड़े से बड़ा मान संभव था, वह हो गया।

जिसे प्रभु की जरा-सी भी झलक मिल जाए, उसके जीवन में चलायमान होने का कोई भी कारण नहीं है। लेकिन हमें कोई झलक नहीं है, इसलिए छोटी-सी चीज चलायमान कर जाती है। सच तो यह है कि हम चलायमान ही रहते हैं। जैसा मैंने कहा, हम दुखी ही रहते हैं। सामान्य धक्के हम झेलते रहते हैं, आदी हो जाते हैं। असामान्य धक्के आते हैं, हम दिक्कत में पड़ जाते हैं।

और इसीलिए हम असामान्य धक्कों को अपने से रोके रखते हैं, भुलाए रखते हैं। भुलाए रखते हैं कि मौत है। भुलाए रखते हैं कि प्रिय बिछुड़ जाएगा। भुलाए रखते हैं कि सब सफलताएं अंत में असफलताओं की राख सिद्ध होती हैं। भुलाए रखते हैं कि सब सिंहासन आखिर में कब्रों की सीढ़ियां बन जाते हैं। सबको भुलाए रखते हैं। और इस तरह जीते हैं भुलावे में कि जैसे कहीं कोई दुख नहीं है।

लेकिन हम कितनी देर अपने को भुलावा दे सकते हैं! दुख आएगा ही। दुख जीवन का स्वरूप है। अगर आप आनंद को नहीं उपलब्ध कर लेते हैं, तो दुख आपको कंपाता ही रहेगा।

कृष्ण ठीक कहते हैं, परम लाभ हो जाता है उसे। फिर बड़े से बड़ा दुख चलायमान नहीं कर सकता है।

वही कसौटी है। वही कसौटी है कि जब बड़े से बड़ा दुख कंपन न लाए, तो ही जानना कि वह आदमी प्रभु के दर्शन को उपलब्ध हुआ।


यह अनुभव हो, तो फिर कोई कंपन जीवन के किसी भी दुख का नहीं होता है।

हमें तो सब चीजें हिला जाती हैं। हमारे पीछे तो कोई ऐसी चीज नहीं है, जिस पर हम बिना हिले खड़े हो जाएं। कोई ऐसा स्तंभ नहीं है, जिस पर हम बिना हिले खड़े हो जाएं।


(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल


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