सोमवार, 12 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 2 भाग 40


श्री भगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।। ५५।।


उसके उपरांत श्री कृष्ण भगवान बोले: हे अर्जुन, जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित संपूर्ण कामनाओं को त्याग देता है, उस काल में आत्मा से ही आत्मा में संतुष्ट हुआ,
स्थिर प्रज्ञा वाला कहा जाता है।






स्वरूप से संतुष्ट--टु बी कंटेंट विद वनसेल्फ--इसे पहला स्थितप्रज्ञ का लक्षण कृष्ण कहते हैं। हम कभी भी स्वयं से संतुष्ट नहीं हैं। अगर हमारा कोई भी लक्षण कहा जा सके, तो वह है, स्वयं से असंतुष्ट। हमारे जीवन की पूरी धारा ही स्वयं से असंतुष्ट होने की धारा है। अकेले में हमें कोई छोड़ दे, तो अच्छा नहीं लगता, क्योंकि अकेले में हम अपने ही साथ रह जाते हैं। हमें कोई दूसरा चाहिए, कंपनी चाहिए, साथ चाहिए। तभी हमें अच्छा लगता है, जब कोई और हो।

और बड़े मजे की बात है कि दो आदमियों को साथ होकर अच्छा लगता है और इन दोनों आदमियों को ही अकेले में बुरा लगता है। जो अपने साथ ही आनंदित नहीं है, वह दूसरे को आनंद दे पाएगा? और जो अपने को भी इस योग्य नहीं मानता कि खुद को आनंद दे पाए, वह दूसरे को आनंद कैसे दे पा सकता है? करीब-करीब हमारी हालत ऐसी है कि जैसे भिखारी रास्ते पर मिल जाएं और एक-दूसरे के सामने भिक्षा-पात्र फैला दें। दोनों भिखारी!


हम सब स्वयं से बिलकुल राजी नहीं हैं। एक क्षण अकेलापन भारी हो जाता है। जितना हम अपने से ऊब जाते हैं, उतना हम किसी से नहीं ऊबते। रेडियो खोलो, अखबार उठाओ, मित्र के पास जाओ, होटल में जाओ, सिनेमा में जाओ, नाच देखो, मंदिर में जाओ--कहीं न कहीं जाओ, अपने साथ मत रहो। अपने साथ बड़ा...।

कृष्ण पहला सूत्र देते हैं, स्वयं से संतुष्ट, स्वयं से तृप्त। स्वभावतः, जो अपने से तृप्त नहीं है, उसकी चेतना सदा दूसरे की तरफ बहती रहेगी, उसकी चेतना सदा दूसरे की तरफ कंपती रहेगी। असल में जहां हमारा संतोष है, वहीं हमारी चेतना की ज्योति ढल जाती है। मिलता है वहां या नहीं, यह दूसरी बात है। लेकिन जहां हमें संतोष दिखाई पड़ता है, हमारे प्राणों की धारा उसी तरफ बहने लगती है।

तो हम चौबीस घंटे बहते रहते हैं यहां-वहां। एक जगह को छोड़कर--अपने में होने को छोड़कर--हमारा होना सब तरफ डांवाडोल होता है। फिर जिसके पास भी बैठ जाते हैं, थोड़ी देर में वह भी उबा देता है। मित्र से भी ऊब जाते हैं, प्रेमी से भी ऊब जाते हैं, क्लब से भी ऊब जाते हैं, खेल से भी ऊब जाते हैं, ताश से भी ऊब जाते हैं। तो फिर विषय बदलने पड़ते हैं। फिर दौड़ शुरू होती है--जल्दी बदलो--नए सेंसेशन की, नई संवेदना की। सब पुराना पड़ता जाता है--नया लाओ, नया लाओ, नया लाओ। उसमें हम दौड़ते चले जाते हैं।

लेकिन कभी यह नहीं देखते कि जब मैं अपने से ही असंतुष्ट हूं, तो मैं कहां संतुष्ट हो सकूंगा? जब मैं भीतर ही बीमार हूं, तो मैं किसी के भी साथ होकर कैसे स्वस्थ हो सकूंगा? जब दुख मेरे भीतर ही है, तब किसी और का सुख मुझे कैसे भर पाएगा?

हां, थोड़ी देर के लिए धोखा हो सकता है। लोग मरघट ले जाते हैं किसी को, कंधे पर रखकर उसकी अर्थी को, तो रास्ते में कंधा बदल लेते हैं। एक कंधा दुखने लगता है, तो दूसरे कंधे पर अर्थी कर लेते हैं। लेकिन अर्थी का वजन कम होता है? नहीं, दुखा हुआ कंधा थोड़ी राहत पा लेता है। नए कंधे पर थोड़ी देर भ्रम होता है कि ठीक है। फिर दूसरा कंधा दुखने लगता है। सिर्फ वजन के ट्रांसफर से कुछ अंतर पड़ता है? नहीं कोई अंतर पड़ता। अपने पर वजन है, तो कंधे बदलने से कुछ न होगा। और भीतर दुख है, तो साथी बदलने से कुछ न होगा। और भीतर दुख है, तो जगह बदलने से कुछ न होगा।

दूसरे में संतोष खोजना ही प्रज्ञा की अस्थिरता है, स्वयं में संतोष पा लेना ही प्रज्ञा की स्थिरता है। लेकिन स्वयं में संतोष वही पा सकता है, जो--दूसरे में संतोष नहीं मिलता है--इस सत्य को अनुभव करता है। जब तक यह भ्रम बना रहता है कि मिल जाएगा--इसमें नहीं मिलता तो दूसरे में मिल जाएगा, दूसरे में नहीं मिलता तो तीसरे में मिल जाएगा--जब तक यह भ्रम बना रहेगा, तब तक जन्मों-जन्मों तक प्रज्ञा अस्थिर रहेगी। जब तक यह इलूजन, जब तक यह भ्रम पीछा करेगा कि कोई बात नहीं, इस स्त्री में सुख नहीं मिला, दूसरी में मिल सकता है; इस पुरुष में सुख नहीं मिला, दूसरे में मिल सकता है; इस मकान में सुख नहीं मिला, दूसरे में मिल सकता है; इस कार में सुख नहीं मिला, दूसरी कार में मिल सकता है--जब तक यह भ्रम बना रहेगा कि बदलाहट में मिल सकता है, तब तक प्रज्ञा डोलती ही रहेगी, कंपित होती ही रहेगी। यह विषयों की आकांक्षा, यह भ्रामक दूर के ढोल का सुहावनापन, यह चित्त को कंपाता ही रहेगा।

लेकिन आदमी बहुत अदभुत है। अगर उसका सबसे अदभुत कोई रहस्य है, तो वह यही है कि वह अपने को धोखा देने में अनंत रूप से समर्थ है। इनफिनिट उसकी सामर्थ्य है धोखा देने की। एक चीज से धोखा टूट जाए, टूट ही नहीं पाता कि उसके पहले वह अपने धोखे का दूसरा इंतजाम कर लेता है।

बर्नार्ड शा ने कहीं कहा है, कि कैसा मजेदार है मन! एक जगह भ्रम के तंबू उखड़ नहीं पाते कि मन तत्काल दूसरी जगह खूंटियां गाड़कर इंतजाम शुरू कर देता है। सच तो यह है कि मन इतना होशियार है कि इसके पहले कि एक जगह से तंबू उखड़ें, वह दूसरी जगह खूंटियां गाड़ चुका होता है।

और हम सब इसको समझ लेते हैं। अगर पत्नी देखती है कि पति थोड़ी कम उत्सुकता ले रहा है, तो वह किसी बहुत गहरे इंसटिंक्टिव आधार पर समझ जाती है कि खूंटियां किसी और स्त्री पर गड़नी शुरू हो गई होंगी। तत्काल! तत्काल कोई उसे गहरे में बता जाता है, कहीं खूंटियां और गड़नी शुरू हो गई हैं। और सौ में निन्यानबे मौके पर बात सही होती है। सही इसलिए होती है कि सौ में निन्यानबे मौके पर आदमी स्थितप्रज्ञ नहीं हो जाता। और मन बिना खूंटियां गाड़े जी नहीं सकता।

हां, एक मौके पर गलत होती है। कभी किसी बुद्ध के मौके पर गलत हो जाती है। यशोधरा ने भी सोची होगी पहली बात तो यही कि कुछ गड़बड़ है। जरूर कोई दूसरी स्त्री बीच में आ गई, अन्यथा भाग कैसे सकते थे!

इसलिए बुद्ध जब बारह साल बाद घर लौटे, तो यशोधरा बहुत नाराज थी, बड़ी क्रुद्ध थी। क्योंकि वह यह सोच ही नहीं सकती कि मन ने कहीं खूंटियां ही न गाड़ी हों, खूंटियां ही उखाड़ दी हों सब तरफ से। और फिर भी बड़े मजे की बात है कि एक स्त्री को इसमें ही ज्यादा सुख मिलेगा कि कोई किसी दूसरी स्त्री पर खूंटियां गाड़ ले। इसमें ही ज्यादा पीड़ा होगी कि अब खूंटियां गाड़ी ही नहीं हैं। क्योंकि यह बिलकुल समझ के बाहर मामला हो जाता है।

कृष्ण से अर्जुन ने जो बात पूछी है, उसके लिए पहला उत्तर बहुत ही गहरा है, मौलिक है, आधारभूत है। जब तक चित्त सोचता है कि कहीं और सुख मिल सकता है, तब तक चित्त स्वयं से असंतुष्ट है। जब तक चित्त स्वयं से असंतुष्ट है, तब तक दूसरे की आकांक्षा, दूसरे की अभीप्सा उसकी चेतना को कंपित करती रहेगी, दूसरा उसे खींचता रहेगा। और उसके दीए की लौ दूसरे की तरफ दौड़ती रहेगी, तो थिर नहीं हो सकती। जैसे ही--दूसरे में सुख नहीं है--इसका बोध स्पष्ट हो जाता है, जैसे ही दूसरे पर खूंटियां गाड़ना मन बंद कर देता है, वैसे ही सहज चेतना अपने में थिर हो जाती है। स्थितप्रज्ञ की घटना घट जाती है।

बायरन ने शादी की। मुश्किल से शादी की। कोई साठ स्त्रियों से उसके संबंध थे। हमें लगेगा, कैसा पुरुष था! लेकिन अगर हमें लगता है, तो हम धोखा दे रहे हैं। असल में ऐसा पुरुष खोजना कठिन है जो साठ स्त्रियों से भी तृप्त हो जाए। यह दूसरी बात है कि समाज का भय है, हिम्मत नहीं जुटती, व्यवस्था है, कानून है, और फिर उपद्रव हैं बहुत।

लेकिन बायरन को एक स्त्री ने मजबूर कर दिया शादी के लिए। उसने कहा, पहले शादी, फिर कुछ और। पहले शादी, अन्यथा हाथ भी मत छूना। शादी की। चर्च में घंटियां बज रही हैं, मोमबत्तियां जली हैं, मित्र विदा हो रहे हैं, शादी करके बायरन उतर रहा है सीढ़ियों पर अपनी नव-वधू का हाथ हाथ में लिए हुए। और तभी सड़क से एक स्त्री जाती हुई दिखाई पड़ती है। और उसका हाथ छूट गया। और उसकी पत्नी ने चौंककर देखा, और बायरन वहां नहीं है। शरीर से ही है, मन उसका उस स्त्री के पीछे चला गया है।
उसकी पत्नी ने कहा, क्या कर रहे हैं आप? बायरन ने कहा, अरे, तुम हो? लेकिन जैसे ही तुम्हारा हाथ मेरे हाथ में आया, तुम मेरे लिए अचानक व्यर्थ हो गई हो। मेरा मन एक क्षण को उस स्त्री के पीछे चला गया। और मैं कामना करने लगा कि काश! वह स्त्री मिल जाए।

ईमानदार आदमी है। नहीं तो पहले ही दिन विवाहित स्त्री से इतनी हिम्मत बहुत मुश्किल है कहने की। साठ साल के बाद भी मुश्किल पड़ती है कहना। पहला दिन, पहला दिन भी नहीं, अभी सीढ़ियां ही उतर रहा है चर्च की। वह स्त्री तो चौंककर खड़ी हो गई। लेकिन बायरन ने कहा कि जो सच है वही मैंने तुमसे कहा है।

ऐसा ही है सच हम सब के बाबत। कभी आपने सोचा है कि जिस कार के लिए आप दीवाने थे और कई रात नहीं सोए थे, वह पोर्च में आकर खड़ी हो गई है। फिर! फिर कल दूसरी कोई कार सड़क पर चमकती हुई निकलती है और उसकी चमक आंखों में समा जाती है। फिर वही पीड़ा है। जिस मकान के लिए आप दीवाने थे कि पता नहीं उसके भीतर पहुंचकर कौन-से स्वर्ग में प्रवेश हो जाएगा। उसमें प्रवेश हो गया है। और प्रवेश होते ही मकान भूल गया और कोई स्वर्ग नहीं मिला। और फिर स्वर्ग कहीं और दिखाई पड़ने लगा। मृग-मरीचिका है। सदा सुख कहीं और है और चित्त दौड़ता रहता है।

कृष्ण कहते हैं, जब सुख यहीं है भीतर, अपने में, तभी प्रज्ञा की स्थिरता उपलब्ध होती है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

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