गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 32

  चरण-स्पर्श और गुरु-सेवा


श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परंतप।

सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते।। 33।।


हे अर्जुन, सांसारिक वस्तुओं से सिद्ध होने वाले यज्ञ से ज्ञानरूप यज्ञ सब प्रकार श्रेष्ठ है, क्योंकि हे पार्थ, संपूर्ण यावन्मात्र कर्म ज्ञान में शेष होते हैं, अर्थात ज्ञान उनकी पराकाष्ठा है।



मन मांगता रहता है संसार को; वासनाएं दौड़ती रहती हैं वस्तुओं की तरफ; शरीर आतुर होता है शरीरों के लिए; आकांक्षाएं विक्षिप्त रहती हैं पूर्ति के लिए--ऐसे एक यज्ञ तो जीवन में चलता ही रहता है। यह यज्ञ चिता जैसा है। आग तो जलती है, लपटें तो वही होती हैं। जो हवन की वेदी से उठती हैं लपटें, वे वे ही होती हैं, जो लपटें चिता की अग्नि में उठती हैं। लपटों में भेद नहीं होता। लेकिन चिता और हवन में तो जमीन-आसमान का भेद है।


हमारा जीवन भी आग की लपट है। लेकिन वासनाएं जलती हैं उसमें; उन लपटों में आकांक्षाएं, इच्छाएं जलती हैं। गीला ईंधन जलता है इच्छा का, और सब धुआं-धुआं हो जाता है। ऐसे आग में जलते हुए जीवन को भी यज्ञ कहा जा सकता है, लेकिन अज्ञान का, अज्ञान की लपटों में जलता हुआ।

इस अज्ञान की लपटों में जलते हुए, कभी-कभी मन थकता भी है, बेचैन भी होता है, निराश भी, हताश भी। हताशा में, बेचैनी में कभी-कभी प्रभु की तरफ भी मुड़ता है। दौड़ते-दौड़ते इच्छाओं के साथ, कभी-कभी प्रार्थना करने का मन भी हो आता है। दौड़ते-दौड़ते वासनाओं के साथ, कभी-कभी प्रभु की सन्निधि में आंख बंद कर ध्यान में डूब जाने की कामना भी जन्म लेती है। बाजार की भीड़-भाड़ से हटकर कभी मंदिर के एकांत, मस्जिद के एकांत कोने में भी डूब जाने का खयाल उठता है।

लेकिन वासनाओं से थका हुआ आदमी मंदिर में बैठकर पुनः वासनाओं की मांग शुरू कर देता है। बाजार से थका आदमी मंदिर में बैठकर पुनः बाजार का विचार शुरू कर देता है। क्योंकि बाजार से वह थका है, जागा नहीं; वासना से थका है, जागा नहीं। इच्छाओं से मुक्त नहीं हुआ, रिक्त नहीं हुआ; केवल इच्छाओं से विश्राम के लिए मंदिर चला आया है। उस विश्राम में फिर इच्छाएं ताजी हो जाती हैं।

प्रार्थना में जुड़े हुए हाथ भी संसार की ही मांग करते हैं! यज्ञ की वेदी के आस-पास घूमता हुआ साधक भी, याचक भी पत्नी मांगता है, पुत्र मांगता है, गौएं मांगता है, धन मांगता है; यश, राज्य, साम्राज्य मांगता है!

असल में जिसके चित्त में संसार है, उसकी प्रार्थना में संसार ही होगा। जिसके चित्त में वासनाओं का जाल है, उसके प्रार्थना के स्वर भी उन्हीं वासनाओं के धुएं को पकड़कर कुरूप हो जाते हैं।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, असली यज्ञ तो ज्ञान यज्ञ है। श्रेष्ठतम तो ज्ञान यज्ञ है। और ज्ञान यज्ञ का अर्थ हुआ, जिसमें कोई सांसारिक मांग नहीं है, जिसमें कोई सांसारिक आकांक्षा नहीं है।

यहां एक बात और समझ लेनी जरूरी है कि जब कहते हैं, सांसारिक मांग नहीं, तो अनेक बार मन में खयाल उठता है, तो गैर-सांसारिक मांग तो हो सकती है न! जब कहते हैं, संसार की वस्तुओं की कोई चाह नहीं, तो खयाल उठ सकता है कि मोक्ष की वस्तुओं की चाह तो हो सकती है न! नहीं मांगते संसार को, नहीं मांगते धन को, नहीं मांगते वस्तुओं को; मांगते हैं शांति को, आनंद को। छोड़ें, इन्हें भी नहीं मांगते। मांगते हैं प्रभु के दर्शन को, मुक्ति को, ज्ञान को।

तो एक बात और समझ लेनी जरूरी है। सांसारिक मांग तो सांसारिक होती ही है; मांग ही सांसारिक होती है। वासनाएं सांसारिक हैं, यह तो ठीक है। लेकिन वासना मात्र सांसारिक है, यह भी स्मरण रख लें।

शांति की कोई मांग नहीं होती; अशांति से मुक्ति होती है और शांति परिणाम होती है। शांति के लिए मांगा नहीं जा सकता; सिर्फ अशांति को छोड़ा जा सकता है, और शांति मिलती है। और जो शांति को मांगता है, वह कभी शांत नहीं होता, क्योंकि उसकी शांति की मांग सिर्फ एक और अशांति का जन्म होती है।

इसलिए साधारणतया अशांत आदमी इतना अशांत नहीं होता, जितना शांति की चेष्टा में लगा हुआ आदमी अशांत हो जाता है! अशांत तो होता ही है और यह शांति की चेष्टा और अशांत करती है। यह भी मांग है। यह भी इच्छा है। यह भी वासना है।

मोक्ष मांगा नहीं जा सकता। क्योंकि जब तक मोक्ष की मांग है, जब तक मांग है, तब तक बंधन है। और बंधन और मोक्ष का मिलन कैसे! मोक्ष मांगा नहीं जा सकता; क्योंकि मांग ही बंधन है। हां, बंधन न रहे, तो जो रह जाता है, वह मोक्ष है।

हम परमात्मा को चाह नहीं सकते; क्योंकि चाह ही तो परमात्मा और हमारे बीच बाधा है। ऐसा नहीं कि धन की चाह बाधा है; चाह ही--डिजायर एज सच। ऐसा नहीं कि इस चीज की चाह बाधा है और उस चीज की चाह बाधा नहीं है; चाह ही बाधा है। क्योंकि चाह ही तनाव है, चाह ही असंतोष है। चाह ही, जो नहीं है, उसकी कामना है। जो है, उसमें तृप्ति नहीं। चाह मात्र बाधा है।

अगर ठीक से कहें, तो सांसारिक चाह कहना ठीक नहीं, चाह का नाम संसार है। वासना संसार है; सांसारिक वासना कहना ठीक नहीं।

लेकिन हम भाषा में भूलें करते हैं। सामान्य करते हैं, तब तो कठिनाई नहीं आती; चल जाता है। लेकिन जब इतने सूक्ष्म और नाजुक मसलों में भूलें होती हैं, तो कठिनाई हो जाती है। भूलें भाषा में हैं। भूलें भाषा में हैं, क्योंकि अज्ञानी भाषा निर्मित करता है। और ज्ञानी की अब तक कोई भाषा नहीं है। उसको भी अज्ञानी की भाषा का ही उपयोग करना पड़ता है।

ज्ञानी की भाषा हो भी नहीं सकती, क्योंकि ज्ञान मौन है; मुखर नहीं, मूक है। ज्ञान के पास जबान नहीं है; ज्ञान साइलेंस है, शून्य है। ज्ञान के पास शब्द नहीं हैं। शब्द उठने तक की भी तो अशांति ज्ञान में नहीं है। इसलिए अज्ञानी की भाषा ही ज्ञानी को उपयोग करनी पड़ती है। और फिर भूलें होती हैं।

अब जैसे यह भूल निरंतर हो जाती है। हम कहते हैं, संसार की चीजों को मत चाहो। कहना चाहिए, चाहो ही मत, क्योंकि चाह का नाम ही संसार है। हम कहते हैं, मन को शांत करो। ठीक नहीं है कहना। क्योंकि शांत मन जैसी कोई चीज होती नहीं। अशांति का नाम मन है। जब तक अशांति है, तब तक मन है; जब अशांति नहीं, तो मन भी नहीं।

शांत मन जैसी कोई चीज होती नहीं; साइलेंट माइंड जैसी कोई चीज होती नहीं। जहां शांति हुई, वहां मन तिरोहित हुआ। अशांत मन है, ऐसा कहना ठीक नहीं; अशांति का नाम मन है।

ऐसा समझें, तूफान आया है लहरों में सागर की। फिर हम कहते हैं, तूफान शांत हो गया। जब तूफान शांत हो जाता है, तो क्या सागर के तट पर खोजने से शांत तूफान मिल सकेगा? हम कहते हैं, तूफान शांत हो गया। तो पूछा जा सकता है, शांत तूफान कहां है? शांत तूफान होता ही नहीं। तूफान का नाम ही अशांति है। शांत तूफान! मतलब, तूफान मर गया; अब तूफान नहीं है। शांत मन का अर्थ, मन मर गया; अब मन नहीं है।

चाह के छूटने का अर्थ, संसार गया; अब नहीं है। जहां चाह नहीं, वहां परमात्मा है। जहां चाह है, वहां संसार है। इसलिए परमात्मा की चाह नहीं हो सकती। और अनचाहा संसार नहीं हो सकता। ये दो बातें नहीं हो सकतीं।

कृष्ण कहते हैं, ज्ञान यज्ञ...।

अज्ञान का यज्ञ चल रहा है। पूरा जीवन अज्ञान यज्ञ है। फिर इस अज्ञान से ऊबे, थके, घबड़ाए हुए लोग विश्राम के लिए, विराम के लिए, धर्म, पूजा, प्रार्थना, ध्यान, उपासना में आते हैं। लेकिन मांगें उनकी साथ चली आती हैं। चित्त उनका साथ चला आता है।

एक आदमी दूकान से उठा और मंदिर में गया। जूते बाहर छोड़ देता, मन को भीतर ले जाता। जूते भीतर ले जाए, तो बहुत हर्ज नहीं, मन को बाहर छोड़ जाए। जूते से मंदिर अपवित्र नहीं होगा। जूते में ऐसा कुछ भी अपवित्र नहीं है। मन? मगर जूते बाहर छोड़ जाता है और मन भीतर ले जाता है। घर से चलता है, तो स्नान कर लेता है।

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जूते आप ले जाना! घर से चलता है, स्नान कर लेता है, शरीर धो लेता है। मन? मन वैसे का वैसा बासा, पसीने की बदबू से भरा, दिनभर की वासनाओं की गंध से पूरी तरह लबालब, दिनभर के धूल कणों से बुरी तरह आच्छादित! उसी गंदे मन को लेकर मंदिर में प्रवेश कर जाता है।

फिर जब हाथ जोड़ता है, तो हाथ तो धुले होते हैं, लेकिन जुड़े हुए हाथों के पीछे मन गैर-धुला होता है। आंखें तो परमात्मा को देखने के लिए उठती हैं, लेकिन भीतर से मन परमात्मा को देखने के लिए नहीं उठता। वह फिर वस्तुओं की कामना और वासना लौट आती है। हाथ जुड़ते हैं परमात्मा से कुछ मांगने के लिए। और जब भी हाथ कुछ मांगने के लिए जुड़ते हैं, तभी प्रार्थना का अंत हो जाता है। मांग और प्रार्थना का कोई मेल नहीं है।

फिर प्रार्थना क्या है? प्रार्थना सिर्फ धन्यवाद है, मांग नहीं; डिमांड नहीं, थैंक्स गिविंग; सिर्फ धन्यवाद। जो मिला है, वह इतना काफी है; उसके लिए मंदिर धन्यवाद देने जाना चाहिए।

धार्मिक आदमी वही है, जो मंदिर धन्यवाद देने जाता है। अधार्मिक? अधार्मिक वह नहीं, जो मंदिर नहीं जाता; वह तो अधार्मिक है ही। अधार्मिक असली वह है, जो मंदिर मांगने जाता है।

कृष्ण कहते हैं, ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठतम है, अर्जुन!

ज्ञान यज्ञ का अर्थ है, वासना के धुएं से मुक्त; जहां चेतना निर्धूम ज्योति की तरह जलती है। निर्धूम ज्योति। धुआं बिलकुल नहीं; सिर्फ चेतना की ज्योति रह जाती। ऐसी ज्ञान की ज्योति जब जलती है व्यक्ति में, तो वासना का कोई भी धुआं कहीं नहीं होता; कोई मांग नहीं होती। परम तृप्ति होती है, वही होने में, जो हैं। वही, जो है, उसके साथ पूरा तालमेल, सामंजस्य होता है। इस ज्ञान यज्ञ के लिए कृष्ण ने बहुत-सी विधियां कही हैं।

अंत में वे कहते हैं, यह सर्वश्रेष्ठ है अर्जुन! छोड़ वासनाओं को, छोड़ भविष्य को, छोड़ सपनों को, छोड़ अंततः अपने को। ऐसे जी, जैसे प्रभु तेरे भीतर से जीता। ऐसे जी, जैसे चारों ओर प्रभु ही जीता। ऐसे कर, जैसे प्रभु ही करवाता। ऐसे कर, जैसे प्रत्येक करने के पीछे प्रभु ही फल को लेने हाथ फैलाकर खड़ा है। तब ज्ञान यज्ञ घटित होता है। और ज्ञान यज्ञ परम मुक्ति है, दि अल्टिमेट फ्रीडम।

अज्ञान बंधन है, ज्ञान मुक्ति है। अज्ञान रुग्णता है, ज्ञान स्वास्थ्य है।

यह स्वास्थ्य शब्द बहुत अदभुत है। दुनिया की किसी भाषा में उसका ठीक-ठीक अनुवाद नहीं है। अंग्रेजी में हेल्थ है; और-और पश्चिम की सभी भाषाओं में हेल्थ से मिलते-जुलते शब्द हैं। हेल्थ का मतलब होता है, हीलिंग, घाव का भरना। शारीरिक शब्द है; गहरे नहीं जाता। स्वास्थ्य बहुत गहरा शब्द है। उसका अर्थ हेल्थ ही नहीं होता; हेल्थ तो होता ही है, घाव का भरना तो होता ही है। स्वास्थ्य का अर्थ है, स्वयं में स्थित हो जाना, टु बी इन वनसेल्फ। आध्यात्मिक बीमारी से संबंधित है स्वास्थ्य।

स्वास्थ्य का अर्थ है, स्वयं में ठहर जाना। इंचभर भी न हिलना, पलकभर भी न कंपना। जरा-सा भी कंपन न रह जाए भीतर। कंपन, वेवरिंग, जरा भी न रह जाए। बस, तब स्वास्थ्य फलित होता है! वेवरिंग क्यों है, कंपन क्यों है, कभी आपने खयाल किया?

जितनी तेज इच्छा होती है, उतना कंपन हो जाता है भीतर। इच्छा नहीं होती, कंपन खो जाता है। इच्छा ही कंपन है। आप कंपते कब हैं? दीया जलता है। कंपता कब है? जब हवा का झोंका लगता है। हवा का झोंका न लगे, तो दीया निष्कंप हो जाता, ठहर जाता, स्वस्थ हो जाता। अपनी जगह हो जाता। जहां होना चाहिए, वहां हो जाता। हवा के धक्के लगते हैं, तो ज्योति वहां हट जाती, जहां नहीं होना चाहिए। जगह से च्युत हो जाती; रुग्ण हो जाती; कंपित हो जाती। और जब कंपित होती है, तो बुझने का, मौत का डर पैदा हो जाता है। जोर की हवा आती, तो ज्योति बुझने-बुझने को, मरने-मरने को होने लगती है।

ठीक ऐसे ही इच्छाओं की तीव्र हवाओं में, वासना के तीव्र ज्वर में कंपती है चेतना, कंपित होती है। और जब वासना बहुत जोर से कंपाती है, तो मौत का डर पैदा होता है।

इसलिए यह भी खयाल में ले लें, जो वासना से मुक्त हुआ, वह मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। जो दीए की लौ हवा के धक्कों से मुक्त हुई, उसे क्या मौत का डर? मौत का डर खो गया।

लेकिन जब तूफान की हवा बहती है, तो दीया कंपता और डरता है कि मरा, मरा। लौट-लौटकर आता है अपनी जगह पर; हवा धक्के दे-देकर अपनी जगह से च्युत कर देती है। ठीक ऐसा हमारी अज्ञान की अवस्था में चित्त होता है। दीए की ज्योति वासना की वायुओं में जोर से कंपती है। कंपती ही रहती है; कभी ठहर नहीं पाती। एक कंपन छूटता, तो दूसरा कंपन शुरू होता है। एक वासना हटती, तो दूसरा झोंका वासना का आता है। कहीं कोई विराम नहीं, कहीं कोई विश्राम नहीं। बस, यह दीए का कंपन, और पूरे वक्त मौत का डर।

जितना वासनाग्रस्त आदमी, उतना मौत से भयभीत। जितना वासनामुक्त आदमी, उतना मौत से निर्भय, अभय। वासना ही भय है मृत्यु में। जितनी वासना का कंपन, उतना आत्मिक रोग, उतनी ही आध्यात्मिक रुग्णता। क्योंकि कंपन रोग है। कंपने का अर्थ ही है, स्थिति में नहीं है; कोई भी धका जाता।

कृष्ण कहते हैं, ज्ञान यज्ञ परम मुक्ति है; क्योंकि ज्ञान परम स्वास्थ्य है। कैसे होगा उपलब्ध? वासना से जो मुक्त जो जाता-- मांग से, चाह से--वह ज्ञान की अग्नि में से गुजरकर खालिस सोना हो जाता है। यह परम यज्ञ कृष्ण ने अर्जुन को इस सूत्र में कहा।


(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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