गुरुवार, 7 जुलाई 2022

देवदूत

इसी क्षण एक चमत्कार हुआ। पश्चिम दिशा उज्वल प्रकाश से भर गई। गम्भीर, मेघगर्जन-ध्वनि सुन राम ने भीत होकर मन-ही-मन कहा- यह अनभ्र वज्रगर्जन कैसा? यह बिना ही दामिनी के प्रकाश कैसा?

सहसा देवसारथि मातलि ने राम के सम्मुख आकर कहा- "दाशरथि राम की जय हो, मैं मातलि, देवेन्द्र का सूत, देवेन्द्र का सन्देश लेकर आपकी सेवा में उपस्थित हूं। दाशरथि प्रसन्न हों, देवकुल आपके अनुकूल है। हेमवती उमा भी आप पर सदय हैं। वे सब आपकी जय के अभिलाषी हैं। देवेन्द्र ने इसी कारण मुझे भेजा है । "

 राम ने खड़े होकर कहा- 

“आपके आगमन से तथा देवेन्द्र के और अम्ब उमा के अनुग्रह से सम्पन्न होकर मैं कृतार्थ हुआ। आपको बहुत कष्ट हुआ होगा । देवदूत के बैठाने योग्य मेरे पास स्वर्णासन नहीं है, तथापि मुझ दास पर अनुग्रह कर इस आसन पर बैठिए । मैं अर्घ्यपाद्य निवेदन करता हूं।"

इतना कह राम ने अपने हाथ से कलश उठाकर, मातलि को अर्घ्य पाद्य से सत्कृत कर, आसन पर बैठाया, मधुपर्क दिया, तब देवेन्द्र की कुशल पूछी और कहा -

 "मुझ दास को देवेन्द्र की क्या आज्ञा है?"

स्वस्थ होकर मातलि ने कहा-

 “स्वस्ति रामभद्र, यह तो तुम्हें ज्ञात है कि देव, आदित्य और आर्यों के चार शत्रुकुल थे, जिनमें तिमिरध्वज शम्बर का देवमित्र दिवोदास ने तुम्हारे यशस्वी पिता दशरथ की सहायता से निरन्तर चालीस वर्ष युद्ध कर, उसके सौ दुर्गों का दलन कर हनन किया। इसके अनन्तर दुर्जय वर्चिन को, उसकी एक लाख दानव सैन्य का हनन कर देवपुत्र सुदास ने समूल नाश कर डाला। इसके बाद महाविक्रमशाली भेद सुदास का शरणागत हो गया। अब रह गया है केवल यह रावण, जो अपने को जगदीश्वर महिदेव, जगज्जयी कहता है। तुम जानते हो, इसके दुरन्त पुत्र मेघनाद ने देवेन्द्र को बन्दी कर उनसे पृथ्वी के नरपतियों के सम्मुख दासकर्म कराया था। तभी से देवेन्द्र संतप्त हैं। जब तक यह दुरात्मा मेघनाद नहीं मरता, तब तक देवलोक में देवता और देव दुःखित हैं और जब तक जगज्जयी रावण जीवित हैं, आर्य, आदित्य, देव, देवर्षि, ब्रह्मर्षि सभी का अस्तित्व खतरे में है। तो यही विचार, तुम्हारा संकट देख, देवेन्द्र धूर्जटि के सान्निध्य में कैलास शिखर पर गए थे और वहां प्रसन्नतामयी अम्ब उमा को प्रसन्न कर, नागपाशयुक्त तूणीर और नागदमन धनुष, जिससे कुमार कार्तिक ने स्वर्गजयी तारक का वध किया था, तुम्हारे लिए मांग लाए हैं। साथ ही इन्द्र ने रौद्रतेजपूर्ण यह अभेद्य ढाल और विकराल खड्ग भी दिया है। सो राघव, तुम इन दिव्यास्त्रों को ग्रहण कर, इन दुरन्त राक्षसों का समूल विध्वंस कर दो। इस समय रावण हततेज है। अतः यही समय है, जब रावण सपरिवार मारा जा सकता है। अब उसके सब विषदन्त झड़ चुके हैं। यह दुराचारी मेघनाद शेष है, सो आज तुम इन दिव्यास्त्रों से उसका वध करो। इन महास्त्रों के कारण ही वह रावणि अदृश्य रहकर चहुंमुखी बाण-वर्षा करता है, नागपाश में दुर्जय शत्रु को भी बांध लेता है। अब यही कौशल तुम भी कर सकोगे। परन्तु राघव, दिव्य उमा का तुम्हें एक गुप्त संकेत है। उमा ने कहा है कि रावणि का निरस्त्र ही वध सम्भव है। दिव्यास्त्रों के रहते उसका वध नहीं होगा। सो हे परंतप, जैसे बने, आज तुम उसका निरस्त्र वध करो। यह रहस्य मत भूलो। इसके अतिरिक्त रावण से तुम बिना रथ के युद्ध नहीं कर सकते थे, सो देवेन्द्र की आज्ञा से इस दिव्य रथ सहित संग्राम की समाप्ति तक मैं तुम्हारी सेवा में उपस्थित हूं। अब तुम प्रसन्न होकर देवों का प्रिय करो।”

राम ने कहा-

“देवेन्द्र और अम्ब के प्रति मैं अज्ञ कैसे कृतज्ञता प्रकट करूं?”

 राम ने धनुष हाथ में लेकर देखा और फिर शोकपूरित स्वर में कहा, 

"मैंने वैदेही-स्वयंवर में अपने बाहुबल से हर-धनु भंग किया था। किन्तु आज मैं इस धनुष को खींचने में भी असमर्थ हूं।"

 इस समय लक्ष्मण और विभीषण वहां आ पहुंचे। राघवेन्द्र ने उनसे देवदूत के आगमन का समाचार कहा, देवेन्द्र और हेमवती के संदेश- संकेत कहे। फिर वह दिव्य धनुष उन्हें दिखाया। उसे खींचने की अपनी असामर्थ्य पर खिन्न हुए। इस पर वीर-दर्प से सौमित्र ने धनुष हाथ में ले, क्षण-भर ही में उसे खींच टंकारा, जिससे दसों दिशाएं ध्वनित हो गईं। राम ने भाई को हृदय से लगाकर कहा-

 “भाई, तू ही अब डूबते रघुवंश का सहारा है। किन्तु इस राक्षसपुरी में अकेले राक्षसराज विभीषण ही हमारी नौका के खिवैया हैं। न जाने आज सूर्य उदय होने पर भूतल पर कौन-सा दृश्य देखेंगे।"


आचार्य चतुरसेन शास्त्री





रावण को सलाह

 महा रणनीति-विशारद, वृद्ध दैत्यपति माल्यवान् श्वेतश्मश्रु, श्वेत परिधान में धीरे धीरे सभा-भवन में आकर राक्षसेन्द्र रावण के सम्मुख खड़ा हुआ । हठात् मातामह को सम्मुख देख रक्षेन्द्र आसन से उठ खड़ा हुआ। उसने वृद्ध दैत्यराज को बद्धाञ्जलि प्रणाम किया।

वृद्ध दैत्यपति ने कहा- “पुत्र, जो राजा समयानुकूल शत्रु से सन्धि विग्रह करता है, वही चिरकाल तक पृथ्वी पर राज्य कर सकता है। जिसकी शक्ति का ह्रास हो रहा हो अथवा शत्रु के समान ही जिसका बल हो, उसे यथाशीघ्र शत्रु से सन्धि कर लेनी चाहिए। समतुल्यबल शत्रु की कदापि अवहेलना नहीं करनी चाहिए। शत्रु से अपनी शक्ति बढ़ी हुई हो तभी विग्रह करना चाहिए। इसके विपरीत करने से अपना ही सर्वनाश होता है। राम के पक्ष में वे सभी देव, गन्धर्व, यक्ष और ऋषि हैं, जो तुझसे दलित हो चुके हैं। वे सभी राम की जय और तेरा पराभव चाहते हैं। इससे पुत्र, तू इस झगड़े की जड़ सीता को श्री राम को लौटा दे। विषयों में आसक्ति होने से तेरा यश-तेज धूमिल हो रहा है और शत्रु मिलकर तेरा अनिष्ट करना चाहते हैं। तू परंतप महिदेव है, पर मैं लंका में भावी अनिष्ट के लक्षण देखकर ही तेरे पास आया हूं।"

वृद्ध मातामह के ये वचन सुन रावण ने गुस्से से भौंहें चढ़ा तथा आंखें निकालकर कहा-

 "मातामह, आपने व्यर्थ ही यहां आने का कष्ट किया, आपने शत्रु का समर्थन करते हुए जो-जो मेरे लिए अहितकर अप्रिय शब्द कहे हैं, वे मेरे कानों ने सुने ही नहीं है कौन यह कृपण राम! पिता के द्वारा निष्कासित, वन-वन भटकने वाला? कौन उसे समर्थ कहता है? एक वानरों का जो उसे सहारा मिल गया है, क्या इसी से? मैं सम्पूर्ण पृथ्वी का विजेता, राक्षसों का स्वामी, महिदेव, सम्पूर्ण शक्तियों से सम्पन्न हूं। देव-दैत्य सभी मुझसे भय खाते हैं, तो इस क्षुद्र मानव की मुझसे क्या समता है? आपके वचनों से तो ऐसा प्रतीत होता है कि आप भी दुरात्मा विभीषण की भांति उस भिखारी राम से मिल गए हैं। मेरा प्रताप और यश आपको सह्य नहीं है, तभी तो आप मुझे हतोत्साह करके युद्धविरत किया चाहते हैं। पर नीतिशास्त्रवेत्ता कोई भी विज्ञ सिंहासनस्थ पुरुष को प्रोत्साहन की बजाय ऐसे अप्रिय वचन नहीं कहता। मैंने अपने पराक्रम से उस शत्रु की पत्नी का धर्म से हरण किया है। अब क्या मैं उस विपन्न राम से डरकर उसे छोड़ दूं? यही आप मुझसे कहने आए हैं! परन्तु मैंने किसी के  समक्ष झुकना सीखा ही नहीं, ऐसा मेरा स्वभाव है। अतः भले ही मेरे शरीर के दो खण्ड हो जाएं, मैं अपने निश्चय से नहीं हट सकता। राम ने जो संयोगवश हमारी उपेक्षा और असावधानी का लाभ उठाकर समुद्र पर पुल बांध लिया, इसी से आप इतने भयभीत हो गए? पर मैं महिदेव पौलस्त्य रावण आज प्रतिज्ञा करता हूं कि राम समुद्र पार आकर जीता नहीं लौटेगा। आप देखते रहिए, कुछ ही दिनों में मैं लाखों वानरों से रक्षित राम को लक्ष्मण और सुग्रीव सहित मार डालूंगा। फिर तो बस इस कुलद्रोही विभीषण को दण्ड देना ही शेष रह जाएगा।"

रावण के ये वचन सुन वृद्ध दैत्य सिर झुकाए चुपचाप बहुत देर तक खड़ा रहा। फिर- 

'हे रक्षपति, तेरी जय हो !' 

इतना कह, धीरे-धीरे सभा भवन से चला गया। रावण भी कुछ देर तक विमूढ़-सा बैठा रहा। फिर उसने लंका की रक्षा-योजना बनाई। पूर्व द्वार की रक्षा का भार प्रहस्त को, दक्षिण द्वार महापाश्र्व और महोदर को, पश्चिम द्वार मेघनाद को सौंपा और उत्तर स्वयं अपने हाथ में लिया। महाबली विरूपाक्ष को नगर का मध्य भाग दिया। सम्पूर्ण रक्षित सैन्य का स्वामी कुम्भकर्ण को बनाया। इस प्रकार लंका की सुरक्षा का प्रबन्ध कर, सब योजनाओं पर विचार-विमर्श कर वह अन्त: पुर में चला गया।

आचार्य चतुरसेन शास्त्री




प्रजनन-विज्ञान

 जीवन और शरीर एवं मनुष्य विश्व की सबसे बड़ी इकाई है। कोई देव उससे बड़ा नहीं। मनुष्य ही सबसे बड़ा देव हैं और उसे अपनी ही पूजा-अर्चना करनी चाहिए। उपनिषदों में इस तत्त्व की व्याख्या इस प्रकार की गई है-

देवराज इन्द्र और देवराज विरोचन दोनों ही प्रजापति के पास आत्म-जिज्ञासा के लिए गए और प्रजापति ने उन्हें ही गुह्योपदेश दिया। इन्द्र ने शंकाएं कीं, परन्तु विरोचन अशंक भाव से चला गया और उसने असुरजनों में आत्मपूजा का प्रसार किया। यही कारण है कि मिस्र के प्राचीन असुर राजाओं ने अपने मृत शरीरों को सजाकर बड़े-बड़े पिरामिडों में स्थापित किया, जिनका आश्चर्यजनक और रहस्यपूर्ण विवरण पुरातत्त्ववेत्ताओं ने भूगर्भ से प्राप्त किया है। आत्मपूजन का यह विचार वास्तव में मूल रूप में सबसे पहले रावण ने ही प्रसारित किया था और उसके आदि उद्गाता देवाधिदेव रुद्र थे।

दूसरा प्रश्न जो इसी आत्मपूजन से सम्बन्धित है और उपनिषद् में वर्णित है, ईश्वर या देवता के तत्त्व को स्वीकार न करके इस प्रजनन-विधान को यज्ञ कहा है। प्रजनन की घटना को जो इतना महत्त्व उस युग में दिया गया, यह एक अज्ञानमूलक जंगली प्रथा थी या विज्ञान का उच्च अंग था, इस सम्बन्ध में हम अपनी कोई राय प्रकट न कर केवल तथ्य पर ही प्रकाश डालते हैं।

प्रजनन-विज्ञान चराचर प्राणियों में नर-नारी के मिथुन-संयोग से उत्पन्न होता है। इसलिए प्राचीन काल से प्रजा की वृद्धि, मैथुनी सृष्टि के महत्त्व पर प्रमुख पुरुषों का ध्यान गया और उन्होंने इस घटना को अत्यन्त चमत्कारिक और आश्चर्यजनक पाया कि किस प्रकार नर-नारी के संयोग से गर्भ स्थापित होकर एक नवीन प्राणी का जन्म होता है। और स्वाभाविक रूप से उस काल से पुरुषों का ध्यान नर-नारी के गुह्य प्रजनन-इन्द्रियों के महत्त्व की ओर गया। उन्होंने प्रजनन-इन्द्रियों को विश्व के सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और शक्तिशाली तत्त्व के रूप में स्वीकार करके पूजित किया। कहा जाता है कि प्रजनन-विज्ञान को एक धार्मिक रूप देने का कार्य सबसे प्रथम रुद्र ने किया और उन्होंने एक हज़ार अध्याय के 'काम विज्ञान - शास्त्र' का निर्माण किया। उन्होंने जननांग को सब कारणों का कारक कहकर पूजित किया। जिसका परिणाम यह हुआ कि लिंग-पूजन की वृत्ति प्राचीन जातियों में स्थान पा गई। हम यहां पर थोड़ा और गहराई से वैज्ञानिक विश्लेषण करेंगे। जीवित प्राणी का यह अनिवार्य लक्षण है कि वह अपनी परिस्थिति में जितने रासायनिक उपादान पाये, सबको अपने जटिल सादृश्य में परिणत कर दे। यह परिणयन-पाचन करना और विसर्जन करना इन दो क्रियाओं के रूप में, अनवरत चलता रहा है। विसर्जन देर में और पाचन जल्दी होता है। परन्तु जिस तरह आयतन बढ़ता है, उसी तरह ऊपरी तल, जो आहार पहुंचाने का साधन है, अनुपात से नहीं बढ़ता। एक हद तक बढ़कर रुक जाता है। इसलिए वृद्धि अपरिमित नहीं होती। चींटी से हाथी तक व कीटाणु से किसी भी महाकाय जन्तु तक पहुंचकर व्यक्तित्व की अभिवृद्धि रुक जाती है। बाहरी तल और आयतन में शरीर के भीतर एक ऐसा अनिवार्य अनुपात है कि जिसके भंग होने से वृद्धि रुक जाती है और तब व्यक्तिगत ह्रास और वृद्धि का अनुपात समान हो जाता है। बड़े शरीरों वाले सभी जीवों को ऐसी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। परन्तु सूक्ष्म देहधारी जीव, जिन्हें सेल कहते हैं, उनके सामने यह कठिनाई नहीं आती। जहां उनकी बाढ़ रुकती है, वहां वे बीच से फटकर दो हो जाते हैं। इस तरह वहां आयतन नहीं बढ़ता। आयतन बढ़ने के बदले उनकी संख्या बढ़ जाती है। एक से दो, दो से चार, चार से आठ। इस प्रकार उनकी अनन्त संख्या हो जाती है। इस वृद्धि में ह्रास नहीं होता। प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण है और निरन्तर बढ़ने वाला है। इस प्रकार ये सेलों वाले सूक्ष्म जीवाणु 'एकोऽहं बहुस्याम्' के सिद्धान्त को चरितार्थ करते हैं और इसी में ‘पूर्णमदः पूर्णमिदम्' की घटना घटित होती है। परन्तु ज्यों-ज्यों शरीर में स्थूलता आती है, यह भेदज उत्पत्ति कठिन होते होते समाप्त हो जाती है। षट्पद या अष्टपद प्राणी इस तरह कट-कटकर नहीं बढ़ सकते। यहां प्रकृति अंकुरण से काम लेती है, जिसमें सारा शरीर ज्यों का त्यों रहता है। उसका केवल एक छोटा-सा अंश कटा-सा रहता है और धीरे-धीरे दूसरे शरीर का जब अच्छा-सा पूर्ण रूप तैयार हो जाता है, तब वह अंश अपने पैदा करने वाले बड़े शरीर से बिलकुल अलग हो जाता है और उसका व्यक्तित्व आगे बढ़ने लगता है। ऐसा अंकुरण मूंगों में और कुछ विशेष प्रकार के कीड़ों में और थोड़े-से रीढ़वाले क्षुद्र जन्तुओं में होता है। परन्तु अस्थि-पिंजर की जटिलता बढ़ने पर अंकुरण प्राणियों की बाढ़ भी रुक जाती है और यह वृद्धि छोटे-छोटे उत्पादों तक पहुंच पहुंचकर समाप्त हो जाती है।

इसके बाद ही जन्तुओं में मैथुन का आरम्भ होता है। मैथुन का अर्थ है जोड़ा। दो अकेली सेलें जुड़कर एक सेल बन जाती हैं। इनमें से एक सेल लिंग अथवा शुक्र होती है, दूसरी योनि अथवा डिम्ब । इस क्रिया के लिए दो व्यक्तियों के शरीर से एक-एक जनक और जननी सेलें निकलकर परस्पर मिलकर एक सेल बनती हैं। वही नए व्यक्ति का मूल रूप है। नई सेल भेदन- रीति से संख्या वृद्धि करती करती असंख्य सजातीय सेलें बनाकर नए स्थूल शरीर का ढांचा तैयार करती हैं। भेदन और अंकुरण वाली वृद्धि में नर-नारी का कोई भेद नहीं होता। परन्तु बड़े शरीर में, चाहे चल हो या अचल, यह भेद अनिवार्य हो जाता है कि नर का वीर्याणु हो और नारी का डिम्बाणु । वीर्याणु का रूप भी लिंगाकार होता है और डिम्ब की अनुरूपता योनि-पीठिका से मिलती-जुलती रहती है। चराचर प्राणियों में इस प्रकार वृद्धि की विधि में लिंग और योनि व्यापक हैं।उस अत्यन्त प्राचीन काल में इसी गुह्य वैज्ञानिक और दार्शनिक प्रजनन-आधार पर नर-नारी की गुह्रोन्द्रियों का पूजन प्रारम्भ हुआ, जिसका आरम्भ रुद्र से हुआ। इसलिए लिंगोपासना की विधि में संसार की सभी प्राचीन जातियों ने रुद्र या शिव को सम्मिलित किया और रुद्र के व्यक्तित्व को नृवंशों की समष्टि में आरोपित कर लिंग पूजन को शिवलिंगार्चना का रूप दिया। लिंग का धार्मिक अर्थ किया गया 'लयनाल्लिङ्गमुच्यते', अर्थात् लय या प्रलय होता है, इससे उसे लिंग कहा गया है।

कुछ अल्पायु वाले छोटे-छोटे शरीरों में मैथुनी वृद्धि में कुछ कठिनाई होती है। एक नन्ही-सी जननी एक बार में थोड़े ही से डिम्ब उपजाती है। यदि जनकों की आवश्यकता न पड़े तो दूनी शक्ति वृद्धि में लग जाती है। इसलिए, जहां विभाजन या अंकुरण के लिए शरीर अधिक जटिल है और मैथुनी विधि के सुभीते नहीं हैं, वहां 'प्रथा - जनन' की विधि काम आती है। इसमें शुक्र या लिंग-जीवाणु के बिना ही काम चल जाता है। ये डिम्ब ज्यों ही प्रौढ़ता को पहुंचते हैं त्यों ही शरीर की रचना होने लगती है। मधुमक्खी का नर इसी प्रथा जनन विधि से उत्पन्न होता है। उसके माता-पिता नहीं हैं परन्तु रानी मक्खी वीर्यरहित अण्डों से ही पैदा होती है। इस प्रकार जननक्रिया के हिसाब से चार प्रकार के प्राणी संसार में हैं- भेदज, अंकुरज, मैथुनज और अनादितः अण्डज । अब विश्वसृष्टि के नियमन में मैथुनी क्रिया प्रकृति में अपने आप उपजी या किसी ईश्वर या प्रकृति का इसमें हाथ है, यह विचारणीय है। रुद्र और रावण ने किसी दैवी कर्ता को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने मनुष्य को ही अपनी सृष्टि का कर्ता-धर्त्ता माना और अपने को ही ईश्वर कहा। लाखों-करोड़ों वर्षों में विकसित होकर अयोनिज से योनिज सृष्टि हुई है। मनुष्य वृद्धि की यह कल्पना है कि उसने जगत् की प्रवृत्ति काम-वासना की ओर देखकर, समस्त प्राणियों को काममोहित पाकर लिंग-योनि की उपासना की नींव डाली।

ईसाई धर्म के प्रचार से पूर्व पाश्चात्य देशों की प्रायः सभी जातियों में किसी न किसी रूप में लिंग-पूजा की प्रथा प्रचलित थी। रोम और यूनान दोनों देशों में क्रमशः प्रियेपस और फल्लुस के नाम से लिंग-पूजा होती थी। फूल्लुस फलेश का बिगड़ा रूप है। लिंग-पूजा इन दोनों राष्ट्रों के प्राचीन धर्म का प्रधान धर्म-चिह्न था। वृषभ की मूर्ति लिंग के साथ पूज्य थी। पूजन विधि हिन्दुओं की भांति धूप-दीप आदि द्वारा होती थी। मिस्र देश में तो 'हर' और 'ईशि:' की उपासना उनके धर्म का प्रधान अंग था। इन तीनों देशों में फाल्गुन मास में, वसन्तोत्सव के रूप में लिंग पूजा प्रतिवर्ष समारोह से हुआ करती थी। मिस्र में ‘ओसिरि:' नाम के देवता इथिओपिया के चन्द्रशैल से निकलती हुई नील नदी के अधिष्ठाता माने गए थे। प्लुटार्क का कहना है कि उस समय मिस्र में प्रचलित लिंग पूजा सारे पच्छिम में प्रचलित थी।

प्राचीन चीन और जापान के साहित्य में भी लिंग पूजा का उल्लेख है। अमेरिका में मिली प्राचीन मूर्तियों से प्रमाणित है कि अमेरिका के आदि निवासी लिंग पूजक थे। ईसाइयों के पुराने अहृदनामें में लिखा है कि रैहीवोयम के पुत्र आशा ने अपनी माता को लिंग के सामने बलि देने से रोका था। पीछे उस लिंग-मूर्ति को तोड़-फोड़ दिया गया था। यहूदियों का देवता बैल फेगो लिंग-मूर्ति ही था। उसका एक गुप्त मन्त्र था, जिसकी दीक्षा यहूदी ही ले सकते थे। मौयावी और मारिना निवासी यहूदियों के उपास्य देव लिंग की स्थापना फेगगी शैल पर हुई थी। इनकी उपासना-विधि मिस्रवासियों से मिलती-जुलती थी। पहाड़ पर, जंगल में, बड़े वृक्ष के नीचे यहूदियों ने लिंग और बछड़े की मूर्ति स्थापित की थी। उसे वे बाल नाम से पूजते थे। वेदी के सामने धूप देते और लिंग के सामने वाले वृषभ 'नन्दी' को हर अमावस्या को पूजा चढ़ाते थे। मिस्र के ओसिरिस के लिंग के सामने भी बैल रहता था।

 अरब में मुहम्मद के प्रादुर्भाव से पूर्व 'लात' नाम से लिंग पूजन होता था। इसी से में पच्छिमी लोगों ने सोमनाथ के लिंग को भी 'लात' कहा है। 'लात' की मूर्तियां दोनों जगह  बहुत विशाल और रत्न-जटित थीं। कहते हैं कि वह लिंग पचास पोरसा ऊंचा एक ही पत्थर का था। संभव है, इस विराटकाय लिंग के 'लात' नाम पर ही विजय स्तम्भों को 'लाट' का नाम दिया गया जैसे कुतुब की लाट। यह भी सम्भव है कि ये विजय स्तम्भ उसी देवता 'लात' के प्रतीक हों। कोपकार रिचर्डसन का कहना है कि 'लात' अल्लाह की सबसे बड़ी पुत्री का नाम था और उसका चिह्न व मूर्ति लिंग की आकृति की थी। पाठकों को यह न भूलना चाहिए कि अल्लाह, इलाही, इलोई प्राचीन वरुणदेव के ही नाम हैं।

मक्का के काबे में जो लिंग है, उसका भविष्य पुराणकार मक्केश्वर के नाम से उल्लेख करता है। यह एक काले पत्थर का लिंग है, जिसे मुसलमान संगे-असवद कहते हैं। पहले इसराइली और यहूदी इसकी पूजा करते थे। मुहम्मद के जीवन काल में इसकी पूजा पण्डों के चार कुल करते थे। फ्रांस में भी प्राचीन काल में लिंग पूजा का प्रचलन था। वहां के गिरजों और म्यूजियमों में लिंग के पत्थर स्मारक की भांति रखे हैं। पाश्चात्य देशों में लिंगची एक सम्प्रदाय ही था, जिसे फालिसिज्म कहते थे। भारत में भी दक्षिण में लिंगायत सम्प्रदाय है।

इजिप्ट-मेसिफ और अशीरिस प्रान्त - वासी नन्दी पर बैठे हुए, त्रिशूलहस्त और व्याघ्र चर्मधारी शिव-मूर्ति की पूजा बेलपत्र से तथा अभिषेक दूध से करते थे। बेबीलोन में एक हज़ार दो सौ फीट का एक महालिंग था। ब्राजील प्रदेश में अत्यन्त प्राचीन अनेक शिवलिंग है। इटली में अनेक ईसाई शिवलिंग पूजते हैं। स्कॉटलैण्ड के ग्लासगो नगर में एक सुवर्णाच्छादित शिवलिंग है, जिसकी पूजा होती है। फीज़ियन्स में 'एटिव्स' व निनवा में ‘एषीर' नाम के शिवलिंग हैं। यहूदियों के देश में भी बहुत से प्राचीन शिवलिंग हैं। अफरीदिस्तान, काबुल, बलख, बुखारा आदि स्थानों में अनेक शिवलिंग हैं, जिन्हें वहां के लोग पंचशेर और पंचवीर नामों से पुकारते हैं।

इण्डोचाइना के 'अनाम' में अनेक शिवालय हैं। प्राचीन काल में इस देश को चम्पा कहते थे। वहां के प्राचीन राजा शिवपूजक थे। वहां संस्कृत में अनेक शिलालेख, अनेक शिवमूर्तियां तथा लिंग मिले हैं। कम्बोडिया में, जिसका प्राचीन नाम 'काम्बोज' है तथा जावा, सुमात्रा आदि द्वीपों में भी अनगिनत शिवलिंग मिले हैं। वहां के लोग लिंग-पूजन करते थे। भारत-चीन (इण्डोचीन ) श्रीक्षेत्र (मध्य बर्मा), हंसावली (दक्षिण बर्मा), द्वारावती (स्याम), मलयद्वीप आदि सर्वत्र शिवलिंग और शिवमूर्तियां पाई जाती हैं।

बेबीलोनिया, मिस्र, चीन और भारत में प्राप्त शिवलिंगों को यदि ध्यान से देखा जाए तो यौन उपासना के एक अविश्वसनीय तथ्य का रहस्योद्घाटन होगा। मसीह से पूर्व से लेकर ईस्वी सन् से बहुत बाद तक भी ऐसा प्रतीत होता है कि स्त्री-पुरुष की स्वतन्त्र और मिथुन-रूप में पूजा होती रही है। इन सभी देशों में ऐसे देवताओं की पूजा प्रचलित थी, जिनके सम्बन्ध में कहा जाता है कि उनमें स्त्री और पुरुष दोनों का समान प्रतिनिधित्व था। बाइबिल में आदम, जो पृथ्वी पर आनेवाला प्रथम व्यक्ति है, स्त्री-पुरुष का समान  प्रतिनिधित्व लेकर आया। उसमें स्त्री-पुरुष दोनों ही की रचनात्मक शक्ति थी। गाज़ी में एक प्राचीन सिक्का प्राप्त हुआ है। उस पर मुद्रा अंकित है, जिससे पता चलता है कि देवता 'अश्वात' की दो आकृतियां थीं। इस प्रकार के देवताओं को, जिनमें स्त्री पुरुष दोनों तत्त्व निहित रहते थे, आत्मतुष्ट कहा जाता है। यूनान के 'अपोलो' तथा 'डायना' के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उनमें स्त्री-पुरुष दोनों का समान प्रतिनिधित्व था। बेबीलोन वाले यह विश्वास रखते थे कि सबसे प्रथम जो पुरुष उत्पन्न हुआ, उसके दो सिर थे - एक स्त्री का, दूसरा पुरुष का। शरीर में भी दोनों लिंगों की इंद्रियां अंकित थीं। शैव हिन्दू शिव का एक रूप अर्धनारीश्वर मानते हैं। एलोरा की गुहा में अर्धनारीश्वर की एक भव्य मूर्ति है। वैसे भी शरीर का बायां अंग स्त्री का माना जाता है। हिन्दू पत्नियां अर्धाङ्गिनी कहाती हैं। अनेक देशों के पुरातन साहित्य में कहा गया है कि पहले स्त्री-पुरुष जुड़े हुए थे, पीछे पृथक्-पृथक् हुए। 'प्लेटो' भी इसी धारणा पर विश्वास करते थे। अनेक दार्शनिक बारहवीं शताब्दी तक यही धारणा रखते थे। नृत्य में हाथों की उंगलियों की भाव-भंगिमा और मुद्राओं से विभिन्न यौन संकेत में निकलते थे। प्राचीन काल में मिस्र में हाथों को रचनात्मक शक्ति का प्रतीक माना जाता था। तर्जनी से यदि सामने की ओर संकेत कर शेष उंगलियों को मोड़ लिया जाए तो उससे पुरुष लिंग का संकेत होता था। भारतीय नृत्य में हाथ के दोनों अंगूठों को आपस में मिलाकर दोनों हाथों की तर्जनी को मिलाती हुई उंगलियों को सीध में तान देने से योनि का संकेत होता है। यदि दोनों हाथों की हथेलियों को परस्पर मिलाकर, दोनों तर्जनियों को संयुक्त रूप में खड़ा कर दिया जाए, और शेष उंगलियां परस्पर आबद्ध होकर झुकी रहें, तो वे संभोग की भाव-व्यंजना का बोध कराती हैं।

शिव के साथ जहां लिंग पूजन का एकीकरण हुआ, वहां शिव के साथ सर्प- धारण की भी बात है। प्रसिद्ध है कि शिव सर्प को धारण करते हैं। प्राचीन शिव के भित्ति चित्रों में सांप को अपनी पूंछ निगलते दिखाया गया है, इसका यह अर्थ है कि वह अपने-आप में पूर्ण इकाई है। यूनान के पुराने मठों में जीवित सर्प रखे जाते थे, जिनकी रक्षा की व्यवस्था मन्दिर की देवदासियों के ज़िम्मे होती थी। इन देवदासियों को नागकन्या कहते थे। खासकर ‘अपोलो' के मन्दिर में सर्प पाले जाते थे, जहां स्त्रियां नंगी होकर उन्हें खाना खिलाती थीं। गेहुंअन सर्प मिस्र के पुराने शिलाचित्रों में अंकित पाया गया है। बेबीलोन में देवी इस्तार के पूजक सर्प की भी पूजा करते थे। भारत में 'नाग पंचमी' के दिन सर्प की पूजा बहुत दिन से प्रचलित है। अत्यन्त प्राचीन काल में मिस्र, यूनान, भारत, चीन, और जापान के लोग कमल और कुमुदिनी के फूलों को इसलिए महत्त्व देते थे कि कमल फूलों में स्त्री-पुरुष दोनों का ही प्रतिनिधित्व माना जाता था। कली में स्त्री- भाव और फूल में पुरुष भाव माना जाता था। इन फूलों से मन्दिर का भी शृंगार होता था। भूमध्यसागर के अनेक देशों के प्राचीन निवासी प्राचीन काल से डायन-योजन के भय से गले में लिंग के आकार का तावीज़ बांधते हैं। भारत में भी ऐसे तावीज़ बांधे जाते हैं। बेबीलोनिया और प्राचीन फ्रांस में लिंग और योनि के आकार की रोटियां बनाकर खास उत्सव के समय देवी पूजा करके खाई जाती थीं। मैक्सिको और मध्य-उत्तर अमेरिका में भी लिंग-पूजा प्रचलित थी। प्रसिद्ध लेखक ब्रुसेनवर्क लिखता है कि प्लोलमी फिखाड़े लफस के समय एक वृहत् लिंग की स्थापना की गई थी, जिसकी लम्बाई 390 फीट थी। यह लिंग ऊपर से स्वर्णमण्डित था। हिरोपोलिस में वीनस के मन्दिर के सामने दो सौ फीट ऊंचा एक पत्थर का लिंग स्थापित था।

रुद्र के साथ नन्दी का सम्बन्ध बताया गया है। नन्दी को एक बैल के रूप में शिव का वाहन कहा गया है। हम बता चुके हैं कि वैदिक साहित्य में रुद्र को एक सांड़ के समान शक्तिशाली बताया गया है। आश्वलायन गृह्यसूत्रों में एक शुलगव यज्ञ का उल्लेख है, जिसमें एक चितकबरे बैल को मारकर "रुद्राय महादेवाय जुष्टो वर्धस्वहराय, कृपया, शर्वाय, शिवाय, भवाय, महादेवायो ग्राय, पशुपतये रुद्राय, शङ्करायेशानायाशनये स्वाहा” - इस प्रकार मन्त्रों से उसकी पूंछ, चाम, सिर और पैर की आहुति देने का उल्लेख है। वैभाकद्फिसेस के सिक्कों पर महेश्वर की मूर्ति और नन्दी बैल की मूर्ति चिह्नित मिली है। इसका राज्य-काल संभवतः ईसा की पहली शताब्दी माना जाता है। मिस्र में, जहां शिव का स्थान माना गया है, बैल-पूजा अत्यन्त प्राचीन काल में लिंग पूजा ही के समान मानी गई श्री । रोमन जूलियस सीज़र ने लिखा है कि मिस्र में एक देवता असीरन' माना जाता था, जिसकी आकृति सांड़ की-सी थी। इसे उत्पादन का द्योतक माना जाता था। ‘एपिस' नामक सांड़ के पूजन का उल्लेख मिस्र के प्राचीनतम इतिहास में है। इस बैल में पूजनीय होने के लिए कुछ खास चिह्न होने आवश्यक थे, जैसे पद का काला रंग, माथे पर उभरा हुआ सफेद चौकोर चिह्न, पीठ पर गरुड़-जैसा चिह्न । इन चिह्नोंवाला बैल ज्यों ही कहीं मिल जाता था, वह तुरन्त पिंजरे में बन्द कर दिया जाता था। उसे अच्छा भोजन और सोने को नर्म बिछौना दिया जाता था। पीने के लिए पानी भी पवित्र कुएं से पहुंचाया जाता था। लोग उसे एकान्त में रखते थे। केवल उत्सवों के समय में ही बाहर निकालते थे । मन्त्रों द्वारा उसकी स्तुति, आराधना होती थी। और लगातार सात दिन तक उसका जन्मोत्सव मनाया जाता था। बाहर से आया कोई दर्शक उसका दर्शन किए बिना वापस न जा सकता था। जब उसकी मृत्यू होती थी, तो उसे सुगन्धित लेपों से अत्यंत धूमधाम से दफनाया जाता था। वैदिक पणि लोग, जो यूरोप में फणिश कहाते हैं और इबरानी जाति के पूर्वज हैं, वे भी लिंगपूजक थे। वे बालेश्वर लिंग की पूजा करते थे। बाइबिल में इसे 'शिउन' कहा गया है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में जो लिंग मिले हैं, वे तमाम थोथी दार्शनिक बातों को खत्म कर देते हैं। वे वास्तव में शिश्न की आकृतियां हैं।

आचार्य चतुरसेन शास्त्री 




बुधवार, 6 जुलाई 2022

कैकेयी का स्त्री - हठ

 सुन्दरी रानी कैकेयी ने यही किया । मलिन वस्त्र पहिन, बाल बिखेर, निराभरण हो, जाकर कोप भवन में भूमि पर लेट गई ।

राजा दशरथ प्रसन्न थे। क्षरण-क्षरण पर वे आदेश दे रहे थे । वशिष्ठ, वामदेव, विश्वामित्र आदि ऋषि अभिषेक-सामग्री जुटा रहे थे। राज-प्रासाद की पौर पर दुन्दुभी बज रही थी । रनवास में अन्न-वस्त्र धन रत्न दान किया जा रहा था। अभ्यागतों, अतिथियों तथा ऋषियों से राजद्वार पटा पड़ा था । सुमन्त्र सब का यथोचित सत्कार कर रहे थे। इसी समय राजा को संदेश मिला कि देवी कैकेयी कोप भवन में चली गई हैं।

देवी कैकेयी का राज महालय अति भव्य था । उसमें सभी प्रकार के सुख-साधन उपस्थित थे, वह भवन स्वर्ग के समान प्रकाशवान् था । सब ऋतुओं के अनुकूल सभी भांति की सुख-सामग्री उस विलास कक्ष में थी। परन्तु राजा ने आकर देखा, महल सूना पड़ा है। पुष्पाधार भूमि पर लुढ़क रहे हैं। गन्ध-द्रव्य धूप दानों में नहीं जल रहे हैं, मंगल-कलश इधर-उधर लुढ़क रहे हैं । वस्त्रसज्जा सब अस्तव्यस्त छितराई पड़ी है । वह स्वर्गीय भवन नरक-तुल्य हो रहा है। दासियों ने भयभीत मुद्रा से संकेत द्वारा राजा को बताया कि देवी कोप भवन में पड़ी है ।

राजा ने वहां जा कोप भवन में पड़ी रानी को देखा और दुखी होकर कहा – 

“प्रिये, किसने तेरा अहित किया, तुझे क्या , दुःख है ? क्या मैं तेरा कुछ प्रिय कर तुझे प्रसन्न कर सकता हूं ? तूने यह अपनी ऐसी दुर्दशा क्यों कर रखी है ? कह—मैं तुझे प्रसन्न करने के लिए क्या करूं ?" 

इतना कह राजा उंगलियों से उसके केशपाश सम्भालने लगा ।

फिर उसने कहा—“तू तो मेरी सर्वस्व है । मैं तुझे ऐसे दीन वेश में इस प्रकार भूमि पर लोटते नहीं देख सकता हूँ । मैने तो सदा तेरा हित किया - सदा तेरी प्रसन्नता का ध्यान रखा। अब भी तेरे लिए मै सब कुछ करने को तैयार हूं । तू कुछ कह । "

तब रानी कैकेयी ने कहा – 

“देव, मुझे किसी ने न क्रोधित किया है, न अपमानित । मैं आपसे केवल अपना प्राप्तव्य मांगना चाहती हूं। मेरे हृदय में कुछ मनोरथ है, संकल्प है । मेरी कुछ अभिलाषा है, मैं चाहती हूं कि वह पूर्ण हो । पर मैं इस प्रकार नहीं कह सकती। मैं चाहती हूँ, आप वचन दें - प्रतिज्ञा करें । मै तभी अपने मनोरथ कहूं । "

रानी के ये वचन सुन, राजा ने हँस कर उसके बाल सहलाते हुए कहा - 

"तू तो जानती ही है कि तू मुझे कितनी प्रिय है। राम के बाद कोई मेरा प्रिय हो सकता है तो वह तू ही है, अतः मैं राम की शपथ खाकर कहता हूं कि तू अपना मनोरथ कह, मै उसे अवश्य पूर्ण करूंगा। मेरी इस प्रतिज्ञा के साक्षी सूर्य, चन्द्र, देव, ऋषि, पितृगण हैं । रघुवंशी कभी अपनी प्रतिज्ञा से नहीं टलते हैं, सो तू जान ।"

कैकेयी राजा के ये वचन सुन कर बोली - 

"आप प्रतापी इक्ष्वाकु वंश के शिरोमणि नरपति हैं, और आपका वचन भंग है । ऐसा ही आपने कहा है, तो मैं आपको स्मरण दिलाती हूँ कि आपने मेरे साथ यह शर्त करके विवाह किया था कि मेरा ही पुत्र आपकी गद्दी का उत्तराधिकारी होगा। इसके अतिरिक्त देवासुर संग्राम में आपने जो मुझे वचन दिए थे, वे भी आपके पास धरोहर हैं । अतः अब इस प्रकार आप अपने वचन से उऋण हो जाएँ कि मेरा पुत्र भरत राजा हो और राम आज ही वन जायँ, और वहां चौदह वर्ष बनवासियों का जीवन व्यतीत करें ।" 

राजा दशरथ कैकेयी के ये वचन सुनते ही मूर्छित होकर धरती पर गिर गए। फिर चेतना आने पर भी धिक्कार - धिक्कार उच्चारण करते हुए फिर मूर्छित हो गए । परन्तु चैतन्य होकर फिर बोले -

 "अरी कुलनाशिनी, तूने यह क्या किया ? तू मेरे मनोरथो को फूलते-फलते देख उसे समूल नष्ट कर रही है। अरी, राम ने तो अपनी माता से भी अधिक सदा तेरी सेवा की है। मैने तेरे वचन पर विश्वास किया, यह मेरा ही दोष है। देख - मै दीन को भांति तेरे चरण पर गिरकर तुझसे भीख मांगता हूँ, कि तू इस भयानक निश्चय को बदल दे ।"

राजा की ऐसी कातरोक्ति सुन कर रानी ने प्रचण्ड क्रोध करके कहा

 - "महाराज, आपको यदि वचन देकर उनका पालन करने में दुख होता है, तो जाने दीजिए । पर अब तुम पृथ्वी पर धर्मात्मा और सत्यवादी नहीं कहलाओगे। अब तुम्ही सोच लो कि कैसे इस लज्जा के भार को सहन करोगे ? अरे, इससे तो तुम्हारा पवित्र रघुकुल ही कलंकित हो जायगा । तुम्हारे ही कुल मे ऐसे बहुत राजा हुए है जिन्होने प्राण देकर भी वचन का पालन किया है। सो राजन्, यदि तुम्हें यश प्रिय नहीं है और तुम अपने वचन से मुकरना ही चाहते हो तो तुम ऐसा ही करो। परन्तु मैं और मेरे पुत्र तुम्हारे दास बन कर नहीं रहेंगे। मैं तो आज ही विषपान कर प्राण दूंगी और मेरा समर्थ भाई तुमसे मेरा भरपूर शुल्क लेगा । मै भरत की शपथ करके कहती हूं कि मैं किसी भांति और दूसरे उपाय से संतुष्ट नहीं हो सकती । सो तुम समझ लो ।”

ऐसे कठोर और निर्मम वचन सुन राजा दशरथ अनेक विधि विलाप करने लगे । उन्होंने कहा 

"दूर देश से जो राजा आए हैं, - वे क्या कहेंगे। अब मैं कैसे उन्हें मुंह दिखा सकता हूँ। अरी कुछ तो सोच, कुल की प्रतिष्ठा और राम की ओर देख राम पर तेरा इतना विराग क्यो है ?"

परन्तु जैसे सूखा काड मोड़ा नहीं जा सकता, उसी प्रकार कैकेयी पर इन बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उसने कहा

 "महाराज, आप धर्मात्मा और दृढ़प्रतिज्ञ है । सारा संसार आज तक आपको सत्यप्रतिज्ञ समझता है, सो आप उस प्रतिज्ञा को भंग करके कलंकित होना चाहते हैं ।”

यह सुन राजा घायल हाथी की भांति भूमि पर गिर गए। वे अनुनय करके कहने लगे – 

“लोग कहेंगे, स्त्री के कहने से पुत्र को बन भेज दिया | हाय, मै पुत्र-रहित ही क्या बुरा था । अरी रानी, कुछ तो विचार कर, अयोध्या की ओर देख, इस वंश की ओर देख, तू राम ही को राजा होने दे। वशिष्ठ, वामदेव सभी की यही सम्मति है, और प्रजा भी यही चाहती है। भरत भी यही पसंद करेगा, तू हठ न कर ।"

परन्तु रानी ने नहीं माना । महल के बाहर बन्दी- भाट यशोगान कर रहे थे, वाद्य बज रहे थे, गली और सड़कों पर चन्दन, केसर छिड़का जा रहा था। ध्वजा-पताकाएँ फहरा रही थीं, और भूमि मे पड़े कराहते हुए राजा से रानी कह रही थी - 

"राजन्, तुम्हारा गौरव, यश, प्रतिष्ठा, मान, बड़ाई सब इसी मे है कि सत्य का पालन करो। राम को आज ही बन भेजो और भरत को अभी राज्य दो ।"

आचार्य चतुरसेन शास्त्री



मन्थरा का कूट तर्क

 देखते ही देखते यह समाचार अयोध्या में व्याप गया। नगर जन हर्षोन्मत्त हो गए। अयोध्या मे मंगल वाद्य बजने लगे । राज मार्ग सज गए । नगर भवनों पर वदनवार - कलश- पताकाएं सुशोभित हो गईं, पुष्पमालाओं-तोरणों से समस्त गृह सम्पन्न हो गए । मंगल-गान, वेणुवाद्य, शंख आदि बजने लगे । राज मार्ग दर्शकों से भर गया। वीरांगनाएँ नृत्य करने लगीं। विविध होम - पूजा और बाल- अनुष्ठान होने लगे । सुरभित-सुगन्धित पदार्थों की गन्ध से दिशाएँ महक उठीं। हर मुंह मे राम के राज्याभिषेक की चर्चा थी । नगर-नागर राम की धीरता वीरता धर्म भीरुता, उत्साह, उदारता, सहृदयता, पितृभक्ति, विद्या-निपुणता आदि की चर्चा करने लगे ।

भोर मे राज्याभिषेक की तैयारी और उत्सव की शोभा को कैकैयी के सतखण्डे हरम की छत से दासी मन्थरा ने देखा । उसने देखा—पुरवासी आनन्द-कोलाहल कर रहे है। द्वार-द्वार पर ध्वजा पताकाएँ, पुष्प-मालाएँ सुशोभित है, दर्शकों की भीड़ और चहल पहल राजद्वार तक बढ़ गई है। राजद्वार पर विविध वाद्य बज रहे है । उसने नीचे आ राम की धाय से, जो पीले वस्त्रों से सुशोभित थी, पूछा-

 "अरी, आज अयोध्या में यह कैसा उत्सव है ? बड़ी रानी कौशल्या आज क्यों अन्न, वस्त्र, स्वर्ण, रत्न लुटा रही हैं। राजद्वार पर यह भीड़-भाड कैसा है ?"

 तब राम की घाय ने बताया -

" अरी मूर्खे, तू इतना भी नहीं जानती ? सुना नहीं ? तूने, आज राम का राज्याभिषेक हो रहा है । "

दासी से यह सूचना सुन विकलांगी दासी मंथरा क्रोध से थर-थर कांपने लगी । वह कैकेयी की पित्रालय की पुरानी दासी थी । कैकेयी को उसने गोद खिलाया था, दूध पिलाया था । शुल्क की बात वह जानती थी । मानव जाति की स्त्री-स्वाधीनता से वह परिज्ञात थी । मानवों की कुल-मर्यादा, पुरुष प्रधानता, स्त्री- दासत्व, इन सब से उसे घृणा थी । वह बड़ी बुद्धिमती और तीखे स्वभाव की वृद्धा थी। रानी के मुंह लगी थी । वह दशरथ के विश्वासघात और वचन भंग को देख अग्नि के समान भभक गई । उसने मन मे कहा - भरत शत्रुघ्न को ननिहार भेज कर राजा ने यह अच्छी युक्ति निकाली है । वह अब अपने वचन को पूरा निवाहना नहीं चाहता। वह तीव्र गति से रानी कैकेयी के शयनागार में पहुॅची, रानी कैकेयी अभी सो ही रही । वहां जाकर उसने रानी से कहा -

 "अरी रानी, क्या आज तेरी निद्रा भंग न होगी ? क्या तू नहीं जानती कि तेरा भविष्य आज अन्ध कार मे डूब रहा है ? तेरे ऊपर घोर संकट आनेवाला है । तेरे पाप का उदय हुआ है । उसका फल तुझे शीघ्र ही मिलने वाला है । राजा मीठी-मीठी बाते बना जाता है, तुझे पुष्पहार, भूषण, रत्न मिल जाते हैं, तो तू समझती है- राजा तेरा ही है । पर मैं कहती हूँ अरी, अज्ञानी, तेरे साथ छल हो रहा है। कोरी प्रवंचना, धोखा, अरी रानी, तू धोखा खायगी ।”

मंथरा दासी की ऐसी कटु व्यंगोक्ति सुन कर रानी कैकेयी हँस दी । उसने हँसकर कहा -

 "अम्ब, आज क्या बात है, भोर ही में तू बक-भक कर रही है, किसने तुझे क्रुद्ध किया है, बोल । तेरा मुंह क्यों सूख रहा है, क्या कोई अमंगल हुआ है ?"

कैकेयी की ऐसी मीठी वाणी सुनकर उसने कहा- 

"अमंगल और कैसा होता है भला । आज राम को युवराज अभिषेक हो रहा , और तू बेखबर सो रही है । तू समझती है, राजा तुझे बहुत प्यार करता है, पर आज तो वह कौशल्या को राज्यलक्ष्मी प्रदान कर रहा है। अब समझी मैं, इसीलिए उसने भरत को ननिहाल भेज दिया था। सोच तो, यदि राम राजा बन गया तो तेरा क्या हाल होगा ? हाय, हाय, मैं तो इसी सोच में मरी जाती हूँ । पर तू भी तो कुछ अपना बुरा भला सोच, अपने पुत्र के हित के लिए अब भी सचेत हो - समय रहते सचेत हो ।”

धात्री के ये वचन सुन कर कैकेयी ने कहा – 

“अम्ब, राम को यौवराज्य मिल रहा है, तो तू दुख क्यों करती है ? इसमें दुःख और शोक की क्या बात है भला, मैं तो राम और भरत मे भेद नहीं समझती । राम और भरत मेरे दो नेत्र हैं। राम का राज्याभिषेक हो रहा है तो मै प्रसन्न हूं - यह तो शुभ समाचार है । ले, यह रत्नहार, ये सब आभूषण, मैं तुझे पुरस्कार में देती हूं।"

 यह कहकर उसने प्रसन्नता से अपने सब रत्नाभूषण उतार कर मंथरा पर फेक दिए । परन्तु कैकेयी के इस व्यवहार से मन्थरा और भी जलभुन गई । उसने वे गहने पटक दिए, और तमक कर बोली

 "अरी मूढ, तेरी यह कुबुद्धि मुझे तनिक भी नहीं सुहाती । तू दुःख स्थान पर सुख मना रही है, सौत का पुत्र राजा बने और तेरा पुत्र दास । इसकी तू खुशी मनाए, ऐसी तेरी बुद्धि है। अरी, यह राम-राज्य को सूचना नहीं है, हमलोगो की मृत्यु की सूचना है । आज राम राजा बनेगा और कौशल्या राजमाता बनेगी। तब तुम, दासी की भांति हाथ बांध उसके सम्मुख जाओगी । भरत राम का दास होगा। सीता रानी बनेगी और भरत की स्त्री माण्डवी उसकी दासी । यह सब तू अपनी आंखों से देख सकेगी ? तुझे छोड़ और कौन बुद्धिमती स्त्री ऐसे अवसर पर प्रसन्न हो सकती है ।"

वास्तव में कैकेयी राम को पुत्रवत् प्यार करती थी, उसके मन में तुच्छता का भान भी न था । वह अपनी शुल्क की बात भी भूल गई थी। राजा का प्यार तथा अयोध्या का वैभव उसे प्रिय था । उसने बूढ़ी धाय मन्थरा के ऐसे वचन सुन नर्मी से कहा

 “धातृमातः, तू स्नेह से ऐसा कहती है । परन्तु राम तो सर्वथा यौवराज्य के योग्य है । वह धर्मात्मा है, उदार, सत्यवादी और प्रजापालक है। वह मुझे ही अपनी माता समझता है, फिर भला भरत और राम में अंतर क्या है ? राम को राज्य मिलना भरत ही को राज्य मिलने जैसा है।"

रानी के ये वचन सुनकर मन्थरा ने कहा – 

“ठीक ही है । अभी तू नहीं समझेगी। पर जब राम का पुत्र गद्दी का अधिकारी होगा और भरत और उसके पुत्रों को कोई स्थान न मिलेगा तब सब कुछ तेरी समझ में आ जायगा । अभी तो तुझे मेरी बातें बुरी लग रही हैं, और सौत की उन्नति देखकर तू मुझे पुरस्कार दे रही है, पर यह भी तो तू सोच, कि भरत को क्यो मामा के यहां भेज दिया गया। देश-देश के राजाओं को तो न्योता गया - पर तेरे पिता, भाई और पुत्रों को नहीं बुलाया गया। पर जब यह सब अपने और अपने पुत्र के सर्वनाश का षड़यन्त्र देख कर भी तेरी आंखें नहीं खुलतीं तो मुझे क्या ? जब राम राजा हो जायगा और तू भरत को ले एक कोने मे दासी की भांति पड़ी रहेगी अथवा जब सौत कौशल्या के सम्मुख तुझे हाथ बांध कर खड़ा होना पड़ेगा, तब तुझे पता लगेगा कि मैंने तेरे हित की ही बात कही थी । " 

मन्थरा के इस विष-वमन से कैकेयी का मन पलट गया । धीरे-धीरे उसे उसकी सभी बातें ठीक प्रतीत होने लगीं। उसने धीरे कहा -"तो अम्ब, तू क्या कहती है, कि भरत का हित किस बात में है । मैं क्या करूं ?”

"बस, राम वन को जाय और भरत सिंहासन पर बैठे, यही तू कर । इसी में तेरा और भरत का तथा उसकी संतान का हित है।अरी, इन आर्यों के परिवारो में माताओं की क्या मर्यादा है | ये तो पितृ मूलक परिवार हैं। राम के राजा होते ही तेरा और तेरे पुत्र भरत के वंश का तो कहीं पता ही नहीं लगेगा। क्या इसी लिए तेरे पिता ने इस बूढ़े कामुक राजा को दो सौतों पर तुझे दिया था ? क्या तेरे प्रतापी पिता की कुछ मर्यादा ही नहीं है ? क्या तू नहीं जानती कि समूचा ही पच्छिमी उत्तरी पंजाब और सुदूर पूर्व प्रदेशो में तेरे पिता और उनके सम्बधियो के राज्य फैले है ? आर्यावर्त का यह कंटक ही तेरे पिता के सार्वभौम होने मे बाकी है । ज्यो ही कौशल की मुख्य गद्दी पर तेरा पुत्र बैठेगा तो आर्यावर्त मे फिर तेरे ही पिता के और पुत्र के वंश का डंका बजेगा । तेरे पुत्र का कुल कितना समृद्ध और लोकविश्रुत होगा, यह तो तनिक विचार ।”

"तो अम्ब, अब तू ही उपाय कर । जिसमें मेरे पुत्र भरत को कौशल का राज्य मिले और राम बन जाय । बता, अब कैसे हम सफल- मनोरथ होंगे ।"

मन्थरा ने कहा – 

“इसमें क्या है । राजा ने यही वचन देकर तुझे व्याहा था कि तेरा ही पुत्र राज्य का उत्तराधिकारी होगा। सो राजा को यदि अपने वचन की चिन्ता नहीं है, तो युधाजित् तेरा भाई आनव - नरेश खड्गहस्त है। इन मानवों को हम समझ लेंगे । किसकी सामर्थ्य है जो तेरे वीर भाई से लोहा ले सके। फिर अभी तो राजा का वचन और तेरा प्यार है। सो तू वस्त्राभरण अलंकार त्याग, कोप भवन में जा, मौन हो भूमि में पड़ी रह । इस बूढ़े कामुक राजा की क्या मजाल जो वह तेरे कोप को सहन करे । फिर तू खुल्लम खल्ला उसके वचन भंग का भण्डाफोड़ कर दे । राजा अपने को सत्यप्रतिज्ञ समझता है । वचन भंग का लांच्छन सहन नहीं करेगा । यदि करेगा तो उसके सिर पर युधाजिद का खड्ग है ही । दशरथ की प्रतिज्ञा और तेरी विवाह-शुल्क की बात जब लोग जान जाएंगे तो किसी का भी साहस तेरे विरोध करने का न होगा । राजा तेरी बहुत लल्लोपत्तो करेगा, तुझे रत्नाभरण देगा, तू सभी को ठुकरा देना । बस, यही मांगना - भरत को राज्य और राम को वनवास । भरत के राज्य करने पर प्रजा भरत से प्रेम कर उठेगी और सब को भूल जायगी । भरत निश्चल होकर राज्य करेंगे, और तू भविष्य मे कौशल राज्यमाता कह कर पूजित होगी । तेरी सौतें और उनके पुत्र तेरे सेवक होगे, फिर उन पर तू चाहे जितना अनुग्रह करना । " 

"ठीक है धातृमातः, अब मैं तेरी ही बात मान दूंगी - कह, मै क्या करूं ?”

"बस, बिलम्ब न कर | जैसे मैने कहा - वही कर । पर सचेत - रह, मतलब से मतलब रख । राजा की बातो मे न भूल ।

आचार्य चतुरसेन शास्त्री





दण्डकारण्य

 रणशास्त्र और नीतिशास्त्र का महापण्डित रावण जब दण्डकारण्य और नैमिषारण्य में अपने सबल सैनिक सन्निवेश स्थापित कर चुका और समूचे भरतखण्ड और आर्यावर्त एवं देवभूमि में अपने राक्षसो के जाल फैला चुका, तो वह अपने नाना सुमाली को लंका का प्रबन्ध सौंप एकाकी ही अपना परशु हाथ मे ले चुपचाप छद्म वेश धारण कर भरतखण्ड मे प्रविष्ट हुआ ।

प्रथम उसने दण्डकारण्य मे घूमना आरम्भ किया । इस महाबन का नाम महाकान्तार भी था । यह अति दुर्गम बन था । इसका प्राकृत सौंदर्य भी अपूर्व था । बन में बड़े-बड़े पर्वत शृंग, झरने, झील और नदी-नाले थे । दक्षिणारण्य मे अभी तक दण्डकारण्य ही ऐसा स्थान था, जहां बहुत बिरल बस्ती थी, तथा जहां राक्षसों का प्राबल्य था । यहीं, रावण की बहिन सूर्पनखा - खर दूषण तथा चौदह सहस्र राक्षस सुभटों के साथ रहती थी । इसके अतिरिक्त यहां कुछ और भी विकट राक्षस थे। जिनमे एक प्रबल पराक्रम तुम्बुरु गन्धर्व था, जिसे कुबेर ने क्रुद्ध होकर लंका से निकाल दिया था और अब वह यहां दण्डकारण्य में विराध नाम धारण कर विकट राक्षस की भांति रहता था । यह बड़ा ही धूर्त, नरभक्षी और साहसी तथा दुराचारी राक्षस था । रावण और सूर्पनखा की सह मे वह निर्भय विचरण करता हुआ, ऋषियों को तंग करता तथा अवसर पाकर उन्हें मार भी डालता था । ऐसे ही और भी अनेक राक्षस थे। इनके अतिरिक्त इस बन में बाघ, सिंह, शूकर, भैंसा, गेंडा आदि हिंस जन्तुओं की भी कमी न थी । फिर भी यहां कुछ ऋषिगण अपने आर्य-उपनिवेश स्थापित किए हुए थे, जिनमें प्रमुख शरभंग और सुतीक्ष्ण ऋषि थे । सुतीक्ष्ण ऋषि का उपनिवेश मन्दाकिनी नदी तट पर एक मनोरम स्थल पर था। यह उपनिवेश बहिष्कृत आर्यों का सबसे बड़ा आश्रय स्थल था । यह उपनिवेश अत्यन्त रमणीय था। यहां सुगन्धित पुष्पों और फलों के लताद्रुम बहुत थे। शीतल स्वच्छ जल के जलाशय थे । दण्डकारण्य के भीतर ही एक उपनिवेश माण्डकर्ण का भी था । माण्डकर्ण राजसी प्रकृति के ऋषि थे। अतः इनके उपनिवेश मे सुन्दरी अप्सराएँ नृत्यगान करतीं, और ऋषि उनके साथ स्वच्छन्द विहार करते थे । परन्तु इस दुर्गम मे सबसे अधिक महिमावान अगस्त का उपनिवेश था। महर्षि अगस्त बड़े प्रतापी ऋषि थे । अगस्त के आश्रम के पास ही उनके भाई का भी उपनिवेश था। वहां के सभी जन उनकी अगस्त के समान ही प्रतिष्ठा करते थे । यो तो ये सभी ऋषि राक्षसो से लड़ते-झगड़ते रहते थे, पर अगस्त ने वीरतापूर्वक अनेक राक्षसों का वध कर डाला था, जिनमे वातापि और इल्वल प्रमुख थे । इससे अगस्त का आतंक राक्षसो पर भी था ।


आजकल जहाँ नासिक है उसी के इधर-उधर पंचवटी के निकट हो अगस्त का उपनिवेश था। पंचवटी में ही विनता के पुत्र श्येनवशी गरुड़ के भाई अरुण के पुत्र जटायु का उपनिवेश था ज़ो गोदावरी के तट पर एक मनोरम स्थान पर भी था, यह स्थान प्राकृतिक सौन्दर्य से ओतप्रोत था । वहां अनेक पर्वतीय गुफाएँ थीं। इन गुफाओं में अनेक ताल, तमाल, खजूर, कटहल, श्रम, अशोक, तिलक, केवड़ा, चम्पा, चन्दन, कदम्ब, लकुच, धर्व, अश्वकर्ण, खैर, शमी, पलाश और वकुल के सघन बन थे । हंस, सारस और जल-कुकटों का वहां कलरव परिपूर्ण रहता था । रावण से भी अपनी बहिन सूर्पनखा के नेतृत्व मे दण्डकारण्य  मे एक उपनिवेश ही स्थापित किया था। यद्यपि वास्तव में वह था सैनिक सन्निवेश । ये राक्षस केवल अपनी संस्कृति का प्रचार बलात् करते और वहां के लोगो को राक्षस बनाने की चेष्टा करते थे । रावण की आज्ञा युद्ध करने को न थी । इसी कारण यद्यपि यहां खर-दूषण चौदह हजार राक्षसों के साथ रहते थे, परन्तु वह लोग लड़ते भिड़ते न थे । केवल ऋषियों के यज्ञों में आकर बलि मांस बलात् डालते, उन्हें पकड़ ले जाते, उनकी बलि देते तथा नरमांस खाते थे ।

रावण दण्डकारण्य की सुषमा पर मोहित हो गया । इस समय शरद ऋतु बीत गई थी और हेमन्त आ गई थी । परम रमणीय गोदावरी के निर्मल जल में रावण स्वच्छन्द विहार करता और वहां की स्वस्थ वायु मे स्फूर्ति लाभ करता था। इस समय वहां वन-उपवनों की शोभा भी निराली हो रही थी। सूर्य दक्षिणायन थे । यह काल हिमालय की ओर बढ़ने योग्य न था । वहां की वायु समशीतोष्ण थी । हेमन्त मे रात्रि अधिक अन्धकारयुक्त हो जाती है। रात्रि का समय भी दिन से बढ़ गया था। चन्द्रमा का सौभाग्य भगवान् भास्कर ने हरण कर लिया था। कोहरे तथा पाले के कारण पूर्णिमा की रात्रि भी मलिन- धूमिल सी प्रतीत होती थी । बन-प्रदेश की शस्य-श्यामला भूमि सूर्य के उदय होते ही सुहावनी प्रतीत होने लगती थी। इस समय सूर्य आकाश पर चढ़ जाने पर भी चन्द्रमा के समान प्रिय लगता था । मध्याह्न का सूर्य भी प्राणियों को प्रिय होता था। जल इतना शीतल हो गया था कि गजराज प्यास लगने पर जब अपनी सूंड जल में डुबाते थे; तब तुरन्त ही बाहर निकाल लेते थे । जल के पक्षी जल के समीप बैठे हुए भी उसमें चोंच डालने का साहस नहीं कर सकते थे । शीत के कारण बन में फल- मूल की कमी हो गई थी। नदियां कुहरे के कारण ढकी सी दीख पड़ती थीं। सरोवरों में कमल बन श्री हत हो गए।

रावण इन सब प्राकृत दृश्यो का आनन्द लेता तथा छद्म वेष में ऋषियों के उपनिवेशो में आता जाता, मतलब की बाते खोज - खबर लेता रहता था । इसी प्रकार उसने दण्डकारण्य में रहते हुए आर्यावर्त और भरतखण्ड के राज्यों का बहुत सा ज्ञान-सम्पादन कर लिया था ।

आचार्य चतुरसेन शास्त्री 




रावण का भारत - प्रवेश

 रावण अपनी सब तैयारी कर चुका था । उसने समुद्र मार्ग से अपने संबंध दक्षिण भारत से जोड़ लिए थे। इसके अतिरिक्त उसने सहस्रों समर्थ राक्षसो को विविध छद्म वेष धारण करके भारत के भिन्न-भिन्न प्रदेशो मे भेज दिया था, जो सब जातियों में रावण द्वारा स्थापित राक्षस-धर्म का प्रचार करते तथा लोगों को राक्षस बनाते थे । इस प्रकार इस समय समूचे दक्षिणारण्य मे ही नहीं, आर्यावर्त मे भी बहुत से राक्षस घूम रहे थे । अब रावण किसी सुयोग की तलाश मे था । वह उसे अकस्मात् ही मिल गया । एक दिन एक दूत रावण के भाई धनपति कुबेर का संदेश लेकर और उसने रावण को कुबेर का यह सदेश दिया कि - "तुम्हारा आचरण और व्यवहार तुम्हारे कुल के योग्य नहीं है । तुम दैत्यों के संग मे बहुत गिर गए हो । दक्षिणारण्य में और भरत खण्ड में तुम्हारे भेजे हुए राक्षस बहुत उत्पात मचाते हैं । वे ऋषियों को मार कर खा जाते है। यज्ञ में रुधिर-मांस की आहुति देते है और अनार्यो से मेल रखते है । तुम्हारे ये कार्य देवों और आर्यों को अप्रिय  है। मै तुम्हारा बड़ा भाई हूं, तो भी तुमने मेरा बड़ा अपमान किया, फिर भी मैने अपनी लंका तुम्हें खुशी से दे दी; और तुम्हें अज्ञानी बालक समझ कर मैने तुम्हारे अपराध सहे हैं। परन्तु अब तुम्हारे कृतपाप असह होते जाते है । इससे मैं कहता हूं कि तुम अपने आचरणों को सुधारो और अपने कुल के अनुसार कार्य करो ।”


दूत के ये वचन सुनकर रावण ने कहा- “अरे दूत, तेरी बात मैंने सुनी । न तो तू, न मेरा भाई धनाध्यक्ष कुबेर ही — जिसने तुझे यहां भेजा है- मेरे हित को समझता है। तू जो मुझे भय दिखाता है सो मुझे तेरा यह आचरण सह्य नहीं है— फिर भी तुझे दूत समझ कर सहता हूं। और कुवेर धनपति मेरा भाई है इसीलिए उसे नहीं मारता । किन्तु तू उससे जाकर कह कि रावण शीघ्र ही तीनो लोको को जीतने के लिए आ रहा है। तभी वह तेरी बात का जवाब देगा।"


दूत को विदा कर रावण ने अपनी योजना आगे बढ़ाई । सब बातो पर सोच-विचार करके उसने दण्डकारण्य का राज्य अपनी बहिन सूर्पनखा को दिया, और अपनी मौसी के बेटे खर और सेना नायक दूषण को चौदह हजार सुभट राक्षस देकर उसके साथ भेज दिया। इस प्रकार जनस्थान और दण्डकारण्य मे राक्षसो का एक प्रकार से अच्छी तरह प्रवेश हो गया, तथा भारत का दक्षिण तट भी उसके लिए सुरक्षित हो गया ।


बहुत दिन से लंका मे ताड़का नाम की एक यक्षिणी रहती थी । यह यक्षिणी जम्भ के पुत्र सुन्द यक्ष की स्त्री थी। एक पुत्र प्रसव होने के बाद, एक युद्ध मे अगस्त ऋषि ने सुन्द यक्ष को मार डाला था । अगस्त के साथ शत्रुता होने के कारण ताड़का ऋषियों से घृणा करती थी । उसने यक्षपति कुबेर से कहा था कि वह उसके पति के बैर का बदला अगस्त से ले, परन्तु कुबेर अगस्त का मित्र था । इससे उसने उसकी बात पर कान नही दिया। जब रावण ने नई रक्ष संस्कृति की स्थापना की, और कुबेर को लंका से खदेड़ दिया, तो यह यक्षिणी लंका से नहीं गई – उसने अपने पुत्र मारीच सहित उसका राक्षस-धर्म स्वीकार कर लिया। मारीच को साहसी तरुण देख रावण ने उसे प्रथम अपने सेनानायको मे और फिर मंत्रियों में स्थान दे दिया। अब जब रावण का अभिप्राय ताड़का ने सुना तो उसने रावण के निकट जाकर कहा - "हे राक्षसराज, आप अनुमति दें तो मैं भी आपकी योजना पूर्ति में सहायता करूं । आप मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनिए मेरा पिता सुकेतु यक्ष महाप्रतापी था । भरतखण्ड में – नैमिषारण्य मे उसका राज्य था । उसने मुझे सब शस्त्र-शास्त्रो की पुरुषोचित शिक्षा थी । और मेरा विवाह धर्मात्मा जम्भ के पुत्र सुन्द से कर दिया था, जिसे उस पाखण्डी ऋषि अगस्त ने मार डाला। अब उस बैर को हृदय में रख मैं अपने पुत्र को ले जी रही हूँ। जो सत्य ही आप आर्यावर्त पर अभियान करना चाहते हैं, तो मुझे और मेरे पुत्र मारीच को कुछ राक्षस देकर नैमिषारण्य में भेज दीजिए, जिससे समय आने पर हम आपकी सेवा कर सकें। वहां हमारे इष्टमित्र, सम्बन्धी सहायक बहुत हैं, जो सभी राक्षस धर्म को स्वीकार कर लेगे ।" ताड़का की यह बात रावण ने मान ली, और उसे राक्षस भटों का एक अच्छा दल देकर, तथा उसी के पुत्र मारीच को उसका सेनानायक बनाकर, तथा सुबाहु राक्षस को उसका साथी बनाकर नैमिषारण्य में भेज दिया। आजकल बिहार प्रान्त में जो शाहाबाद जिला है, वही उस काल मे नैमिषारण्य कहाता था । इस प्रकार भारत में रावण के दो सैनिक - सन्निवेश स्थापित हो गए। एक दण्डकारण्य में-जहां आज नासिक का सुन्दर नगर है— दूसरा नैमिषारण्य में— जहां आज शाहाबाद शहर बसा हुआ है; सोन और गंगा संगम के निकट ।

आचार्य चतुरसेन शास्त्री 


राक्षसेन्द्र रावण

रावण ने अब अपनी अजेय सामर्थ्य और प्रबल प्रतिभा से लंका का महाराज्य सुदृढ़ किया । मय दानव की पुत्री मन्दोदरी से विवाह करके उसने एक सबल जाति को अपना सम्बंधी बना लिया था । इसके बाद उसने दैत्यपति विरोचन की दौहित्री वज्र ज्वाला से अपने भाई कुम्भकरण का और गन्धर्वों के राजा शैलूष की पुत्री सरमा से विभीषण का विवाह किया। इससे ये दोनो प्रबल और प्रतिष्ठित कुल भी उसके सम्बन्धी बन गए । राक्षस जाति का भलीभांति सगठन कर वह रक्ष संस्कृति का प्रतिष्ठाता हो गया । इस तेजस्वी महापुरुष ने अपने को समुद्र का रक्षक घोषित कर राक्षसेन्द्र की उपाधि धारण की। और अपने बाहुबल से लंका महाराज्य की स्थापना कर ली, जिसके अन्तर्गत यवद्वीप, सुमात्रा, मलाया, कुशद्वीप और मेडागास्टर आदि सात महाद्वीप तथा अन्य अनगिनत छोटे-छोटे द्वीपसमूह भी थे । उसने अपने नाना सुमाली को अपना प्रधान सलाहकार बनाया, तथा प्रवरण, प्रहस्त, महोदर, मारीचि, महापार्श्व, महादंष्ट्र, यज्ञकोष, दूषण, खर, त्रिशरा, दुर्मुख, अतिकाम, देवान्तक, अकम्पन आदि महारथी, रणमत्त, नीतिवन्त, अनुगत उच्च वशीय राक्षसो को अपना मन्त्री, सेनापति, नगरपाल आदि बनाया। ये सब मन्त्री और सेनापति रणनीति और राजनीति के महापण्डित थे। स्वयं रावण भी नीति और वेद का महान् पण्डित था । वह दुर्मद रावण अकेला ही अजेय योद्धा और नीतिविशारद था। अब कुम्भकरण जैसे वीर भाई और ऐसे योग्य मन्त्री और सेनानायको को पाकर उसका बल बहुत बढ़ गया । शीघ्र ही उसे पुत्ररत्न की उपलब्धि हुई । उसका नाम रखा मेघनाद | वह द्वितीया के चन्द्रमा-जैसा बढ़ कर सब शास्त्रों तथा शस्त्रो मे निपुण हो गया। रावण के इस पुत्र में भी पिता का शौर्य और तेज था । इसके अतिरिक्त दूसरी पत्नियों से रावरण को त्रिशिरा, देवान्तक, नरान्तक, अतिकाम, महोदर, महापार्श्व आदि अनेक और पुत्र भी हुए जो महाकाल के समान दुर्जय योद्धा थे । रावण के रनवास मे अनेक दैत्य, दानव, नाग और यक्ष-वंश की सुन्दरियां थी । रावण ने मेघनाद का विवाह भी दानव की कन्या सुलोचना से किया । इस प्रकार पुत्र, परिजन, आमात्य, बान्धव और राक्षसों से सम्पन्न वह रावण परम ऐश्वर्य और सामर्थ्य का प्रतीक हो गया ।

इस प्रकार स्वर्ण-लंका मे अपना महाराज्य स्थापित करके तथा सम्पूर्ण दक्षिणवर्ती द्वीपसमूहों को अधिकृत करके अब उसका ध्यान भारतवर्ष की ओर गया । लंका भारत ही के चरणों मे थी।

उन दिनों तक भारत के उत्तराखण्ड मे ही आर्यों के सूर्य मण्डल और चन्द्रमण्डल नामक दो राजसमूह थे। दोनो मण्डलों को मिलाकर आर्यावर्त कहा जाता था । उन दिनों आर्यों मे यह नियम प्रचलित था कि सामाजिक श्रृंखला भंग करनेवालो को समाज - बहिष्कृत कर दिया जाता था । दण्डनीय जनो को जाति बहिष्कार के अतिरिक्त प्रायश्चित्त, जेल और जुर्माने के दण्ड भी दिए जाते थे । प्रायः ही ये बहिष्कृत जन दक्षिणारण्य मे निष्काषित कर दिए जाते थे । धीरे-धीरे इन बहिष्कृतजनों की दक्षिण और वहां के द्वीपपुंजों मे दस्यु, महिष, कपि, नाग, पौण्ड्र, द्रविड़, काम्बोज, पारद, खस, पल्लव, चीन, किरात, झल्ल, मल्ल, दरद, शक आदि जातियां सगठित हो गई थीं । प्रारम्भ मे केवल ब्रात्य ही जाति-च्युत किए जाते थे । पर पीछे यह निष्कासन उग्र होता गया । सगर ने अपने पिता के शत्रु शक, यवन, काम्बोज, चौल,केरल, आदि कुटुम्बो को जीतकर उनका समूल नाश करना चाहा पर वशिष्ट के कहने से उन्हें वेद- वहिष्कृत करके दक्षिण के अरण्यों मे निकाल दिया । इसी प्रकार नहुषपुत्र ययाति ने नाराज होकर अपने पुत्र तुर्वसु को सपरिवार जातिभ्रष्ट करके म्लेछो की दक्षिण दिशा में खदेड़ दिया था । विश्वामित्र ने भी अपनी आज्ञा का उल्लंघन करने पर अपने पचास कुटुम्बो को दक्षिणारण्य में निष्कासन दिया था, जिनके वशधर दक्षिण मे आकर आन्ध्र, पुण्ड्र, शवर, पुलिन्द आदि जातियों में परिवर्तित हो गए थे ।

इस काल मे लोभी, धोखेबाज, ठग, व्यापारी वणिक को परिणक कहते थे । इसका अर्थ 'परमलोभी' है। ऐसे लोभी परिणकों को भी आर्यलोग बहिष्कृत करके दक्षिण में निष्कासित करते थे । दक्षिण मे आकर भी ये लोग पण्यकर्म करने लगे- माल खरीदने बेचने का व्यापार करने लगे। आगे चलकर इनकी एक जाति 'पाण्य' ही बन गई, और जिस प्रदेश मे ये बसे वह प्रदेश भी 'पाण्यन्य' के नाम से विख्यात हुआ ।

ऐसे ही निष्कासित चोरों की एक शाखा दक्षिण में आकर 'चोल' जाति और प्रान्त मे परिगत हो गई। पणियों ने सागवान के जहाज बनाकर समुद्र के द्वीपपु जो मे दूर-दूर तक जाकर व्यापार विनिमय आरम्भ कर दिया। उनमे से बहुत से परिणक मध्यसागर के किनारे बस्तियां वसा कर बस गए। आगे समुद्र के उस पार जाकर इन्हीं 'परिणयो' और 'चोलों' ने उन देशो को आबाद किया, जिन्हें आज हम 'फिनीशिया' और 'चाल्डिया' कह कर पुकारते है । इस समय कोल और द्रविड़ो से लेकर लंका, मैडागास्टर, अफ्रीका और आस्ट्रेलिया तक जितनी 'इथिओपिक' उप जातियां हैं, वे सब इन्हीं बहिष्कृत आर्यों की परंपरा में है, तथा उन सबका एक ही वंश और संस्कृति है । इनमे बहुत सी तो भारत में दक्षिण में बस गई थीं, और बहुत सी अन्य द्वीपसमूहों तक फैल गई थीं, जिनके उत्तराधिकारी आज समस्त एशिया, अफ्रीका, अमेरिका और योरोप के देशो मे मिलते हैं । रावण के शरीर में शुद्ध आर्य और दैत्य वंश का रक्त था । उसका पिता पौलस्त्य विश्रवा आर्य ऋषि था, और माता दैत्य राजपुत्री थी । उसका पालन-पोषण आर्य विश्रवा के आश्रम मे उसी के तत्वावधान में हुआ । उसकी शिक्षा-दीक्षा भी उसके पिता ने अपने अनुरूप ही दी थी। उस समय वेद का जो स्वरूप था, उसे उसने अपने बाल्यकाल में अपने पिता से पढ़ लिया था । उस काल तक वेद ही आर्यों का एकमात्र साहित्य और कर्म वचन था जो केवल मौखिक था - लेखबद्ध न था । रावण के मातृपक्ष मे दैत्य-संस्कृति थी । दैत्य और असुर, देवो तथा आर्यो के भाई बन्द ही थे। परन्तु रहन सहन, विचार-व्यवहार मे दोनो मे बहुत अंतर था। विशेषकर बहिष्कृत जातियां आर्यो से द्वेष और घृणा करती थीं । बहिष्कार का सबसे कटु रूप ऋषियो-पुरोहितों द्वारा संसर - क्रिया से उन्हें वचित रखना, तथा यज्ञो से बहिष्कृत समझना था । यद्यपि अभी यज्ञो का भी वह विराट् रूप न बना था जो आगे बना । फिर भी यह एक ऐसी अपमानजनक बात थी जिसने इन जातियो मे आर्यों के विरुद्ध दैत्यों और असुरो से भी अधिक - जो आर्यो के दायाद बान्धव थे - विद्वेष और विरोध की ज्वाला सुगला दी थी ।

रावण के मन मे तीन तत्व काम कर रहे थे । उसका पिता शुद्ध आर्य और विद्वान वैदिक ऋषि था, उसकी माता शुद्ध दैत्य वंश की थी, उसके बन्धुबान्धव बहिष्कृत आर्यवंशी थे । उन्हें क्रियाकर्म तथा यज्ञ च्युत कर दिया गया था। अब उसने भारत और भारतीय आर्यों को दलित करने, उनपर आधिपत्य स्थापित करने, और सब आर्य-अनार्य जातियो के समूचे नृवश को एक ही रक्ष संस्कृति के आधीन समान भाव से दीक्षित करने का विचार किया । तत्कालीन परम्पराओ के अनुसार उसने नृवंश के सब धार्मिक और राजनीतिक नेतृत्व अपने हाथ मे लेने का संकल्प दृढ़ किया ।

देवों और आर्यों का संगठन उस काल मे अत्युत्तम था । उन्होने लोकपालों, दिग्पालो की स्थापना की थी, जो देवभूमि और आर्य देश के प्रान्त भाग की रक्षा करते थे । देवो की प्रवर जातियों में तब मरुत, दसु और आदित्य ही प्रमुख थे । चोटी के पुरुषो में इन्द्र, यम, रुद्र, वरुण, कुबेर आदि थे । यम, वरुण, कुबेर और इन्द्र चार वंशपरा से लोकपाल थे ।

रावण ने देवो और आर्यों के इस संगठन को जड़-मूल उखाड़ फेकने की योजना बनाई। उसने सांस्कृतिक और राजनैतिक दोनो ही प्रकार के विप्लवो का सूत्रपात किया । उसका मेधावी मस्तिष्क और साहसिक शरीर ही यथेष्ट था, तिस पर उसके साथी सहयोगी, सुमाली, मयप्रवरण, प्रहस्त, महोदर, मारीचि, महापार्श्व, महादष्ट्र, यज्ञकोप, खर, दूपण, त्रिशरा, अतिकाय, अकम्पन आदि महारथी सुभट और विचक्षण मन्त्री थे । कुम्भकर्ण-सा भाई और मेघनाद-सा पुत्र था। रावण की सामरिक शक्ति अव चरम सीमा तक पहुंच गई थी। खूब सलाह- सूत करके और आगापीछा विचार कर उसने रामेश्वर के निकट मंदराचल की समुद्रमन्न पर्वत श्रृंखला के सहारे दक्षिण भारत से संबन्ध स्थापित किया। इस समय दक्षिण भारत मे दो प्रधान दल थे – एक वे जो बहिष्कृत आर्य थे, दूसरे वे - जो विदेशो से आकर भारत समुद्र उपकूलो पर आ बसे थे। ये दल आर्य-अनार्य के नाम से पुकारे जाते थे । रावण ने दोनो को अपने साथ मिला लिया ।

सबसे प्रथम उसने यम, कुबेर, वरुण और इन्द्र के चारो देवलोको के लोकपालो को और फिर आर्यावर्त को जय करने का संकल्प किया। अब वह खूब चाक-चौबन्द होकर सुअवसर और घात लगने की ताक मे बैठ गया।

आचार्य चतुरसेन शास्त्री 



मंगलवार, 5 जुलाई 2022

राम भरत लक्ष्मण शत्रुघ्न

 "भ्राता ! आज शत्रुघ्न को मैंने बहुत पीछे छोड़ दिया।"

 लक्ष्मण ने राम के निकट पहुँचकर घोड़े की रास खींचते हुए उत्साह से सूचना दी। 

“लक्ष्मण ! तुम दोनों की प्रतिद्धन्द्धिता आखिर कब समाप्त होगी?” 

उनके पीछे-पीछे ही आ रहे भरत ने हँसते हुए कहा-

 “अब बालक नहीं रहे तुम दोनों, बड़े हो गये हो, कुछ तो गम्भीरता लाओ अपने व्यवहार में।"

“भ्राता ! गम्भीरता तो सारी प्रभु ने आप दोनों को ही दे डाली, हमारे लिये तो बची ही नहीं है।"

 लक्ष्मण ने पूरा खुलकर ठहाका मार कर घोड़े से उतरते हुए कहा|

"हाँ! गम्भीर रहना राजाओं की विवशता है, हमें क्या?"

 अब तक शुत्रुघ्न भी निकट आ गया था। उसने लक्ष्मण के कथन को आगे बढ़ाते हुए कहा। लक्ष्मण का प्रथम कथन वह संभवत: सुन नहीं पाया था| यदि सुन लिया होता तो बात का रुख लड़ाई की तरफ मुड़ गया होता। दोनों के ठहाके आसमान में तैरने लगे।

राम और भरत ने उनके ठहाकों का उत्तर मन्द मुस्कान से दिया ।

राम की कमर में मात्र अधोवस्त्र था। उत्तरीय एक ओर रखा था। शरीर पसीने से लथपथ था। उनके सामने चिरी हुई लकड़ियों का ढेर लगा था। एक बड़ा लड़ा और रह गया था चीरने को। लक्ष्मण की बात सुनने के लिये वे कुल्हाड़ी जमीन में टिकाकर खड़े हो गये थे। अब उन्होंने फिर कुल्हाड़ी उठा ली| लक्ष्मण ने आगे बढ़ते हुए उनके हाथ से कुल्हाड़ी लेने का प्रयास करते हुए कहा

 “लाइये मुझे दीजिये, आप बहुत कर चुके। "

“नहीं, गुरुदेव ने यह कार्य मुझे सौंपा है। यह मुझे ही करना है।” राम ने दाहिने हाथ में कुल्हाड़ी थामकर बायें हाथ से लक्ष्मण के बढ़े हुए हाथ को रोकते हुए कहा।

“अरे दीजिये भी!"

“नहीं लक्ष्मण! मैं अपनी देह की सुविधा के लिये गुरु की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकता । "

 “रहने दो लक्ष्मण! क्या तुम्हें ज्ञात नहीं कि राम भइया गुरु, ब्राह्मणों और गुरुजनों की आज्ञा का यथावत पालन करते हैं, उसमें कोई तर्क स्वीकार नहीं करते।" 

भरत ने हँसते हुए कहा।

 “अच्छा भ्राता!” 

शत्रुघ्न कुछ गणित लगाते हुए भरत से संबोधित हुए- 

“अगले कुछ दिनों में हम लोगों का गुरुकुल जीवन समाप्त हो जायेगा।" 

"हाँ, वह तो हैं।"

"सच में आनन्द आ जायेगा, यहाँ तो वर्जनायें ही वर्जनायें हैं।"

"वर्जनाओं की समस्या थोड़े ही हैं तुम्हें, यहाँ परिश्रम करना पड़ता हैं, और तुम ठहरे कामचोर ! देखो भ्राता राम कितनी तन्मयता से अपना काम कर रहे हैं।" 

लक्ष्मण ने शत्रुघ्न की टाँग खींचने का अवसर नहीं छोड़ा।

“कामचोर होंगे आप! कौन सा काम कम करता हूँ आपसे?” शत्रुघ्न तिनक कर बोल पड़ा ।

“तुम करते थोड़े हो, गुरुदेव करवा लेते हैं तुमसे काम। तुम्हारा वश चले तो घोड़े की पीठ से नीचे ही नहीं उतरो; राम भ्राता से सीख तो कुछ "

 "अब उनकी बात मत करो, वे तो साक्षात मर्यादा का मूर्तिमन्त स्वरूप हैं, उनकी समता हम-तुम नहीं कर सकते। "

“चलो इस बात में मैं तुमसे सहमत हो जाता हूँ, भ्राता की कोई समता नहीं हो सकती।”

 “मैं भी सहमत हूँ।” 

इनकी लड़ाई का चुपचाप आनंद ले रहे भरत ने भी अपनी सहमति प्रकट की।राम, बाकी तीनों भाइयों की बातों से निर्लिप्त पूरे मनोयोग से अपना कार्य कर रहे थे। उन्होंने यह जानने की भी कोशिश नहीं की कि उनकी प्रशंसा हो रही हैं या खिंचाई। तभी दूर से आते गुरुदेव के दर्शन हुए। सब शान्त हो गये और गुरुदेव के निकट आने की प्रतीक्षा करने लगे।

गुरुदेव के आते-आते राम ने अपना कार्य सम्पूर्ण कर लिया था। चारों भाइयों ने झुक कर गुरुदेव की चरणधूलि ली।

गुरुदेव सबको आशीर्वाद देते हुए राम से बोले

“वाह! तुमने तो कार्य सम्पूर्ण कर लिया, मुझे आशा नहीं थी कि अभी हुआ होगा। चलो अब तुम विश्राम कर लो, ये तीनों इन लकड़ियों को यथास्थान रख देंगे; क्यों भरत?"

“जी गुरुदेव! अवश्य।"

लक्ष्मण ने कनखियों से शत्रुघ्न की ओर देखा, जो आख-भौंह सिकोड़ रहा था। यदि गुरुदेव सामने नहीं खड़े होते तो उसके लिये यह अच्छा अवसर था शत्रुघ्न की खिंचाई करने का। भरत और शत्रुघ्न ने लकड़ियाँ उठाना आरम्भ कर दिया। राम भी उठाने के लिये झुके तो गुरुदेव ने रोक दिया

“तुम मेरे साथ चलो, विश्राम करो थोड़ा "

जब वही दोनों अकेले रह गये तो गुरुदेव बोले 

"आओ, उधर आमों के झुरमुट में चलते हैं।”

दोनों टहलते हुए पर्याप्त दूर आमों के झुरमुट में निकल आये तो वशिष्ठ ने बात आरंभ की

“अब समय आ गया हैं राम तुम्हें बताने का" 

उन्होंने कुछ रुककर राम के चेहरे की ओर देखा । राम, शान्त भाव से सिर झुकाये उनकी बात सुन रहे थे। 

“तुम्हें ज्ञात ही होगा कि अब तुम लोगों का गुरुकुल जीवन सम्पूर्ण होने को हैं; तुम चारों को जितना कुछ मैं सिखा सकता था, उसमें पारंगत हो चुके हो।"

 गुरुदेव ने राम के बोलने की प्रतीक्षा की किन्तु जब वे नहीं बोले तो गुरुदेव ने प्रश्न किया

 “अपने भावी जीवन के विषय में कुछ परिकल्पना की है तुमने?"

“बस इतना ही चाहता हूँ गुरुदेव कि मेरा जीवन प्राणिमात्र के हित के लिये समर्पित रहे, मुझसे अनजाने भी किसी का अहित न हो।" 

"वह तो तुमसे संभव ही नहीं है; राज्य व्यवस्था के विषय में कुछ सोचते हो? तुम ही तो अयोध्या के भावी सम्राट हो ।”

 “यह तो पिताजी का विषय हैं, मुझे तो जो भी कार्य भार वे सौंप देंगे उसी का पूरे समर्पण के साथ निर्वाह करूँगा और सम्राट बनने के विषय में अभी से सोचना बहुत शीघ्रता होगी, अभी तो सुदीर्घकाल तक पिताजी की छत्रछाया हमारे सिर पर रहने वाली है। " 

वशिष्ठ मुस्कुराये। राम के उत्तर जैसा वे सोच रहे थे वैसे ही थे। राम के व्यक्तित्व का उनका आकलन सर्वथा सही था। यह आगत काल में स्वयं को धरती का सबसे पराक्रमी व्यक्ति सिद्ध करके रहेगा।

“गुरुदेव! आप कुछ और भी कह रहे थे, अनुमति दें तो पूछू।”

 राम के शब्दों ने उन्हें विचारों की वीथियों से बाहर खींचा 

 "निःशंक पूछे वत्स!"

“मुझे क्या बताने का समय आ गया है, अभी आप ऐसा ही कुछ कह रहे थे?"

""अरे हाँ, यही तो मैं तुम्हें बताने यहाँ लाया था, किन्तु ध्यान दूसरी ओर चला गया।"

 फिर वे बोले

 “देखा राम! यह सत्य तुम्हारे पिता को भी नहीं ज्ञात हैं, उन्हें ज्ञात होना भी नहीं चाहिये।” 

“तो कृपया न बतायें गुरुदेव! यदि कभी पिताजी ने पूछ लिया तो मैं उनसे मिथ्याभाषण नहीं कर सकूँगा।"

 “वे कभी नहीं पूछेंगे, इसकी चिंता तुम मत करो।"

“जैसी आज्ञा आपकी! आप बतायें, जो भी आप कहेंगे वह राम की जिव्हा से दुबारा उच्चारित नहीं होगा|"

“देखो! तुम कोई साधारण राजकुमार नहीं हो, तुम्हारा और लक्ष्मण का चयन देवों और ऋषियों ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य के लिये किया है, तुम्हें राज्य का भार सँभालने से पूर्व वह कार्य सम्पादित करना होगा।"

“यह तो अकिंचन राम का सौभाग्य है कि उसे देवों और ऋषियों ने महत्त्वपूर्ण समझा। सत्य तो यह हैं कि यह सब मात्र आपका ही प्रताप हैं; राम तो मात्र मिट्टी था, उसे गढ़ा तो आपने ही हैं... किन्तु वह कार्य क्या है गुरुदेव ?"

“तुम जानते ही हो वत्स कि आज लंकेश्वर के आतंक से समस्त त्रिलोक भयभीत हैं, उसके आतंक से विश्व को तुम्हें ही त्राण दिलाना हैं।" 

"गुरुदेव एक शंका है !"

“कहो।"

वशिष्ठ को इस शंका की पूर्व ही सम्भावना थी।

“गुरुदेव! जहाँ तक मुझे ज्ञान हैं, लंकेश्वर ब्राह्मण हैं, पूज्य कुल से हैं। विद्वान हैं, पराक्रमी हैं,प्रजापालक हैं; देवेन्द्र से तो चरित्र में भी वह अत्यंत श्रेष्ठ है। फिर भी आप उसके आतंक की बात कर रहे हैं? देव अपनी पराजय से खिन्न हो सकते हैं, किन्तु अब त्रिलोक विजय के उपरांत तो रावण शांत है।"

 “मुझे तुमसे इसी प्रश्न की अपेक्षा थी। यहाँ प्रश्न किसी व्यक्ति का नहीं है, यहाँ प्रश्न संस्कृति का हैं। निस्संदेह रावण, इन्द्र से सभी प्रकार श्रेष्ठ है, किन्तु वह आर्य संस्कृति को नष्ट कर रहा हैं। वह अपनी, अपितु कहना चाहिये अपने मातामह की रक्ष-संस्कृति का प्रसार कर रहा है; यदि वह जीवित रहा तो एक दिन आर्यावर्त से ही आर्य संस्कृति का मूलोच्छेद हो जायेगा "

राम कुछ पल सोचते रहे। उन्हें स्वप्न में भी यह आशा नहीं थी कि उनके सम्मुख ऐसी परिस्थिति भी उत्पन्न हो सकती है। गुरुदेव, मौन उन्हें निहारते रहे, उनके बोलने की प्रतीक्षा करते रहे। अंततः राम बोले

 “किन्तु गुरुदेव ब्रह्महत्या ? ब्राह्मण तो अवध्य हैं, फिर रक्षेन्द्र जैसा श्रेष्ठ ब्राह्मण... वृत्रासुर के वध के पश्चात स्वयं देवेन्द्र को भी ब्रह्महत्या का पातक झेलना पड़ा था, फिर मैं तो एक साधारण मनुष्य मात्र हूँ, मैं शास्त्र विरुद्ध आचरण कैसे कर सकता हूँ? और करके फिर उसके पातक से कैसे बच सकता हूँ?"

“वह ब्राह्मण तो तभी तक था, जब तक वह आर्य संस्कृति का अनुयायी था। ये चार वर्ण तो आर्य संस्कृति के ही उपादान हैं। जब रावण ने अपनी नयी संस्कृति का सूत्रपात कर दिया, जिसमें वर्ण-व्यवस्था है ही नहीं, तब उसके ब्राह्मण या अब्राह्मण होने का प्रश्न अपने आप असंगत हो गया। वह अपने आप अपने ब्राह्मणत्व से च्युत हो गया, अब तो वह मात्र रक्ष हैं।"

राम फिर मौन रहे। उनके मस्तिष्क में झंझावात चल रहा था। गुरुदेव के तर्क से वे सहमत नहीं हो पा रहे थे, किन्तु गुरुदेव का विरोध करना भी उनके चरित्र में नहीं था। यही उनके चरित्र की मर्यादा थी| गुरुदेव भी समझते थे कि राम के मस्तिष्क में इस समय क्या चल रहा होगा। उन्होंने भी कोई बाधा नहीं दी। अंततः तो राम को सहमत होना ही था। वह गुरुजनों की आज्ञा को नकार ही नहीं सकता। कुछ समय दोनों वहीं टहलते रहे, फिर अंततः राम बोले

 "गुरुदेव! सम्राट तो पिताजी हैं; कटक भी उन्हीं के अधीन है; वे क्या इस युद्ध के लिये प्रस्तुत होंगे? मुझे तो प्रतीत होता है नहीं होंगे।"

“यह युद्ध दशरथ को नहीं, राम को करना है; लक्ष्मण ही सहयोगी होगा तुम्हारा | सम्राट दशरथ क्या, किसी भी आर्य सम्राट और उनकी सेना की इस अभियान में कोई भूमिका नहीं होगी।"

 "यह कैसे संभव हैं गुरुदेव ?” 

राम आश्चर्य से बोल पड़े- 

"त्रैलोक्य विजयी लंकेश्वर के सामने राम और लक्ष्मण तो भंगुरवत हैं, वह फूँक मार कर उड़ा देगा हमें "

"ऐसा नहीं होगा राम ! तुम अपना सही मूल्यांकन नहीं कर रहे हो, यह कार्य तुम्हारे ही हाथों सम्पादित होना है, यही विधि का विधान हैं।"

“गुरुदेव मैं अपना अनुचित मूल्यांकन नहीं कर रहा, किन्तु लंकेश्वर का भी तो उचित मूल्यांकन करना ही होगा!" 

वशिष्ठ हल्के से हँसे। राम, धीरे-धीरे अभियान के लिये स्वयं को तैयार कर रहा था। फिर बोले 

“इस अभियान पर कल ही नहीं निकलना है तुम्हें, अभी तुम्हें इसके लिये बहुत तैयारी करनी है, तुम्हें और लक्ष्मण दोनों को। देवगण और ऋषिगण अत्यंत दीर्घकाल से, तुम्हारे जन्म के भी पहले से, इस हेतु कार्यरत हैं; तुम्हारा चयन तो इस कार्य के लिये हम सबने ही नहीं नियति ने भी, तुम्हारे जन्म से भी पूर्व ही कर लिया था, मात्र लक्ष्मण को तुम्हारे सहयोगी के रूप में मैंने बाद में जोड़ा हैं। " 

“यह क्या कह रहे हैं गुरुदेव, देवगण व ऋषिगण इस प्रयोजन को मूर्त रूप देने के लिये....?"

“वह सब तुम्हें समय-समय पर ज्ञात होता रहेगा, बस इतना समझ लो कि अब मेरा दायित्व पूर्ण हो गया है। "

“पर अभी तो आप कह रहे थे कि मुझे अभी बहुत तैयारी करनी है।”

 “मैं जितना कुछ दे सकता था, वह मैंने तुम्हें प्रदान कर दिया है, और मुझे प्रसन्नता है कि तुमने भी सब कुछ सम्पूर्ण मनोयाग से ग्रहण किया है; शेष दायित्व अब ब्रह्मर्षि विश्वामित्र का है। वे तुम दोनों को अपने साथ ले जाने हेतु सिद्धाश्रम से प्रस्थान कर चुके हैं।"

 "ओह! धन्य हो जायेगा राम यह सौभाग्य पाकर "

“अभी तुम कुछ काल के लिये उनके साथ जाओगे; अभी उनके साथ तुम... जैसे प्रायोगिक शिक्षा के लिये आखेट पर जाते हो उसी प्रकार कुछ राक्षसों के आखेट के लिये जाओगे। तत्पश्चात तुम्हारा मुख्य अभियान कब और किस भाँति आरंभ होगा यह तुम्हें समय आने पर ज्ञात होगा।"

"जी गुरुदेव!"

 “पुनः स्मरण करा दूँ कि तुम्हारे वनगमन का वास्तविक प्रयोजन पूर्णतः गुप्त ही रहना चाहिये; किसी भी अतिरिक्त व्यक्ति को इसकी भनक तक नहीं लगनी चाहिये।"

 “पिताजी को भी नहीं ?"

" उन्हें तो कदापि नहीं, अन्यथा वे किसी भी स्थिति में इसके लिये स्वीकृति नहीं देंगे ।”

 “जैसी आज्ञा गुरुदेव!"

"याद रखो, तुम्हें सम्पूर्ण भारत भूमि पर सप्तम विष्णु के रूप में प्रतिष्ठित होना है।" 

राम ने झटके से अपना सिर ऊपर उठाया परंतु बोले कुछ नहीं। वशिष्ठ ने भी इसे लक्ष्य किया, पर बोले वे भी कुछ नहीं, बस धीरे से मुस्कुरा दिये।

सुलभ अग्निहोत्री





सोमवार, 4 जुलाई 2022

नारद जनक का सीता के लिए चिंतन

 जनक ने जैसे ही घर में प्रवेश किया, उर्मिला आकर उनकी बाँहों में झूल गयी - 

“आज आप कुछ शीघ्र आ गये पिता!”

 “अरे-अरे ! गिरा देगी क्या?”

 जनक हँसते हुए बोलें। उसके इस प्रकार झूल जाने से वे कुछ लड़खड़ा गये थे । 

“अब तू बड़ी हो गयी है।”

“वाह! यह भी कोई बात हुई; कभी कहते हैं छोटी हैं, कभी कहते हैं बड़ी हो गयी । ” 

उर्मिला ने लड़ियाते हुए कहा और हँसने लगी ।

“अत्यंत ढीठ हो गयी है तू!"

“पिता के साथ ढिठाई नहीं करूँगी तो किसके साथ करूंगी?” उर्मिला उसी भाँति बोली। अब तक ये लोग कक्ष में आ गये थे। उर्मिला, पिता को हाथ पकड़कर पर्यंक पर बिठाती हुई बोली- “अच्छा आप विश्राम कीजिये, मैं अभी आपके लिये मधु-दुग्ध लेकर आती हूँ।”

पिता को बैठाकर उर्मिला दूध लेने के लिये कक्ष से बाहर की ओर बढ़ने की सोच ही रही थी, तभी सीता का स्वर उभरा

 “तू रहने दे, मैं लेकर आ रही हूँ। "

सीता का स्वर सुनकर उर्मिला पिता के पास ही पर्यक पर बैठ गयी। कुछ ही देर में सीता, दुग्ध-पात्र लिये कक्ष में प्रविष्ट हुई। उससे दूध का पात्र लेते हुए जनक बोले

“पुत्री हो तो ऐसी!”

 फिर वे उर्मिला की ओर घूमते हुए बोले

“क्या कह रही थी तू... आज आप शीघ्र आ गये... तुझे अच्छा नहीं लगा हो तो वापस चला जाऊँ!”

 कहते-कहते वे हँस पड़े ।

 “क्या पिता, मेरा उपहास कर रहे हैं!”

 “अच्छा तुम्हारी माता कहाँ हैं? उनके दर्शन नहीं हुए अभी ।" जनक ने विषय परिवर्तन करते हुए कहा।

“भोजन का प्रबन्ध कर रही हैं।"

“अरे! स्वयं ?”

“इसमें आश्चर्य क्या है, वे तो बहुधा करती हैं।”

 “तो जाकर अपनी माता से कह दे कि कुछ ही काल में देवर्षि आ रहे होंगे, स्वल्पाहार मैं उनके साथ ही करूँगा।"

उर्मिला, माता तक सूचना पहुँचाने चली गयी ।

“पिता! एक प्रश्न हैं?"

“पूछ ना” 

जनक ने पर्यंक पर पालथी मारकर बैठते हुए कहा। अपना उत्तरीय उन्होंने सिकोड़कर गले में डाल लिया।

“मिथिला में इधर कुछ दस्युकर्म की घटनायें सुनने में आ रही हैं ।” “सत्य कह रही है तू, आज सभा में भी यह प्रश्न उठा था; मैंने रक्षकों को और अधिक सजग रहने की चेतावनी भी दे दी है।"

"कितना सजग रहेंगे वे ? मिथिला के पास रक्षकदल है ही कितना?"

“शान्तिप्रिय मिथिला को कभी अधिक रक्षकदल की आवश्यकता ही नहीं पड़ी; यहाँ पूर्व में कभी इस प्रकार की घटनाएँ नहीं हुई। " “इसीलिये तो मिथिला के रक्षकदल में आलस्य घर कर गया है, इसे चैतन्य करने की आवश्यकता हैं। "

“प्रमुख, प्रयास तो कर रहे हैं इस हेतु । ”

 "वे कुछ नहीं कर पायेंगे पिता "

 सीता ने दो टूक कहा।

“क्या कह रही हैं तू? प्रमुख पर सीधे-सीधे अक्षमता का आरोप लगा रही है?” 

सीता के मुख से ऐसी दो टूक बात सुनकर जनक अवाक रह गये थे। 

“मैं प्रमुख पर आरोप नहीं लगा रही पिता, वे अत्यंत योग्य पुरुष हैं, किन्तु आपने उन्हें जो कार्यभार सौंपा है, वह उनकी प्रवृत्ति के विपरीत है, यही कारण है कि मुझे लगता है कि वे सफल नहीं हो पायेंगे। इन दस्युओं का सिर उठाते ही दमन कर देना आवश्यक है, अन्यथा इनका साहस बढ़ता जायेगा, इन्हें देखकर अन्य व्यक्ति भी इस प्रकार के कर्म में प्रवृत्त हो सकते हैं।” 

“क्या कहना चाहती हैं तू, खुलकर कहा "

 जनक ने राजकीय व्यवस्था के विषय में पुत्री के इस प्रकार हस्तक्षेप पर डाँटकर उसे चुप नहीं कराया |

“देखिये पिता ! मिथिला में प्रायः प्रत्येक पद पर आपके समान सतोगुणी व्यक्ति आसीन हैं, करुणा और दया उनका स्थाई गुण हैं, वे सबको अपने समान ही साधु प्रकृति का समझकर व्यवहार करते हैं। सुरक्षा, चाहे वह आन्तरिक हो अथवा वाह्य, उसके लिये सतोगुण नहीं, रजोगुण की आवश्यकता होती है, क्षात्रदर्प की आवश्यकता होती है। दस्यु, दमन की भाषा समझते हैं, स्नेह की नहीं। उनके साथ उसी भाषा में वार्ता करना उचित हैं, जिसे वे समझते हैं।”

“पुत्री ! यह मिथिला की नीति नहीं है; मिथिला की सम्पूर्ण व्यवस्था शांति, सद्भाव और सहयोग पर आधारित है। मिथिला चाहता है कि व्यक्ति स्वेच्छा से सदाचारी बने, भय से नहीं... और तू जानती ही है, कि अभी तक मिथिला की यह नीति सफल रही हैं, भविष्य में भी होगी... ये जो भटके हुए कुछ व्यक्ति हैं, ये भी हमारे प्रयासों से दस्युकर्म त्यागकर अवश्य ही अपनी भूल पर पश्चाताप करेंगे।”

“मुझे ऐसा प्रतीत नहीं होता पिता; सहजवृत्ति प्रत्येक व्यक्ति को आकर्षित करती है। यदि सहजता से अधिक उपार्जन हो रहा है, तो व्यक्ति कदापि परिश्रम नहीं करना चाहता। संतोष आपका गुण है, किन्तु प्रत्येक व्यक्ति का तो नहीं हो सकता। अधिकांश व्यक्ति सदैव अपने प्राप्ति से असंतुष्ट रहते हैं, उन्हें अपने श्रम के बदले अधिक की आकांक्षा रहती है। "

“यह तो अनुचित है पुत्री; इस भावना को प्रश्रय कदापि नहीं दिया जा सकता।” 

“निस्संदेह अनुचित है, किन्तु यही सामान्य व्यक्ति की मूल प्रवृत्ति होती है, इसे भय के द्वारा ..... ""

 तभी नारायण-नारायण की ध्वनि सुनकर वार्ता का क्रम भंग हो गया । नारद का पदार्पण हो गया था। उनके पीछे-पीछे उर्मिला आ रही थी। जनक और सीता दोनों ने उठकर देवर्षि का अभिवादन किया, और उन्हें आसन प्रदान किया।

“उर्मिला! माता को सूचना कर दी ?"

“जी, अभी करके आती हूँ।”

“देवर्षि! आपकी ही प्रतीक्षा कर रहा था मैं, देवराज सानन्द तो हैं?"

“देवराज सानन्द कैसे हो सकते हैं!”

“क्यों भला?”

“जिसे किसी भी पल रावण के आक्रमण का भय हो, वह आनन्द से कैसे हो सकता है?”

 “सत्य हैं देवर्षि!"

“देवेन्द्र की बात छोड़िये विदेहराज, उनके साथ तो यह सदैव ही लगा रहता है, और रहेगा; उनकी चिंता में हम कब तक घुलेंगे? आप अपनी बताइये ! प्रतीत होता है अभी कुछ गम्भीर वार्ता चल रही थी पुत्री के साथ ?”

""चल तो रही थी देवर्षि! सीता कह रही थी कि दस्युओं का दमन आवश्यक हैं; वे स्नेह की भाषा नहीं समझ सकते, इसके विपरीत मेरा विश्वास है कि ये कुछ भटके हुए व्यक्ति हैं, हम यदि निष्ठा     से प्रयास करें तो ये भी अपनी भूल का अनुभव करेंगे, और उसपर पश्चाताप करेंगे । ” 

“पुत्री! तेरे पिता संत हैं, संत पुरुषार्थ के मार्ग का अनुसरण नहीं करता वह तो प्रेम के मार्ग पर ही चलता है। पुरुषार्थ का मूल तो महत्वाकांक्षा होती है, और संत सर्वप्रथम इस महत्त्वाकांक्षा का ही त्याग करता है।" 

नारद अपने चिर-परिचित हास्य के साथ बोले ।

सीता भी मुस्कुरा दी। देवर्षि ने कितनी सहजता से बात स्पष्ट कर दी थी।

 “किन्तु विदेहराज ! राजा को दण्डधारी कहा गया है; उसकी प्रजा का अहित करने वाले को दण्डित करना उसका बाध्यकारी कर्तव्य है; लोभ और भय के बिना प्रीति नहीं होती। स्वर्ग और नर्क की अवधारणा ही मात्र इसलिये की गयीं, कि व्यक्ति सद्कर्म में प्रवृत्त हो। कोई भी व्यक्ति में अपने मनोनुकूल आचरण करने हेतु स्वतंत्र है, परंतु उसकी यह स्वतंत्रता वहीं तक सीमित है, जब तक उसके आचरण से किसी अन्य व्यक्ति के हित प्रभावित नहीं होते। जो भी व्यक्ति किसी दूसरे का अहित करता है, वह राजा द्वारा दण्डनीय हैं; आप यदि इससे विरत होते हैं, तो आप स्वयं भी दण्ड के भागी होते हैं, क्योंकि आपकी प्रजा के किसी भी व्यक्ति के हितों में अनधिकार हस्तक्षेप करने वाले किसी भी व्यक्ति को नियंत्रित करना आपका प्रथम दायित्व है... दंड के पात्र को दण्डित करना राजा की इच्छा पर निर्भर नहीं हैं, राजा इसके लिये बाध्य हैं; इस प्रकार इस विषय में आपकी पुत्री का परामर्श उचित है, आपको उसका सम्मान करना चाहिये।""

 “देवर्षि! मैं आपके कथन का सम्मान करता हूँ, तथापि मेरा मत हैं कि यदि व्यक्ति को प्रेम के द्वारा सही मार्ग पर लाया जा सके, तो वही सर्वश्रेष्ठ उपाय हैं; दण्ड तो अन्तिम उपाय होना चाहिये।”

“विदेहराज ! राजा के और संत के.... दोनों के कर्तव्य पृथक होते हैं; जब तक आप राजदण्ड के स्वामी हैं, आप उसके अनुसार कर्तव्य करने को बाध्य हैं। सतोगुण तीनों गुणों में सर्वश्रेष्ठ हैं, परंतु राजा का आभूषण रजोगुण ही है, इसीलिये तो वह रजोगुण कहा गया है। जब आप राजदण्ड किसी सक्षम उत्तराधिकारी को सौंप देंगे तब... तब आपके लिये वह उपाय अनुकरणीय होगा, जो अभी आप अपनाना चाह रहे हैं। ”

इसी बीच महारानी सुनयना और उर्मिला ने कक्ष में प्रवेश किया। दो दासियाँ स्वल्पाहार के पात्र लिये उनका अनुसरण कर रही थीं। प्रवेश करने के साथ ही सुनयना ने देवर्षि का अभिवादन किया। दासियाँ, यथास्थान सारे पात्र रखकर और देवर्षि को प्रणाम निवेदन कर चली गयीं। रानी और उर्मिला ने भी आसन ग्रहण किये।

“महारानी ! सानन्द तो हैं?"

“जी देवर्षि! अनुकम्पा हैं आपकी । ”

“महारानी, आपकी कन्यायें अत्यंत विदुषी हैं, सीता तो अन्यतम है। "

 “सौभाग्य है हमारा देवर्षि!”

“अत्यंत भाग्यशाली होगा वह पुरुष, जो सीता का वरण करेगा। "

अपने विवाह की चर्चा आरम्भ होते ही सीता ने अनुमति माँगी - “हम लोग चलें पिताश्री?”

जनक ने हँसते हुए अनुमति में सिर हिला दिया। सीता, उर्मिला का हाथ पकड़कर उसे भी अपने साथ खींच ले गयी |

“कुछ चिंतन किया नहीं आप लोगों ने अभी इस विषय में?” सीता के जाते ही नारद ने प्रश्न किया।

“ मैं तो इन्हें नित्य ही स्मरण दिलाती हूँ, किन्तु ये पता नहीं क्या सोच रहे हैं!”

महारानी ने पति को उलाहना सा देते हुए कहा।

 “देवर्षि! मैं भी इस विषय में विन्तन किया करता हूँ, परंतु सीता के अनुरूप वर मिलना भी क्या सहज हैं?" 

“अरे विदेहराज! समस्त आर्यावर्त के राजकुलों में क्या कुमारों का अकाल पड़ गया है, जो आप ऐसा कह रहे हैं?"

“कुमारों का अकाल तो नहीं पड़ गया, किन्तु योग्य कुमारों का निस्संदेह अकाल ही है... दंभ, ईर्ष्या, मिथ्याचार, अनाचार, पौरुष के नाम पर परपीड़न... कौन सा अवगुण नहीं हैं आर्य कुमारों में। आर्य कुमारों में ही क्यों, सभी राजवंशों में यही होता है; शक्ति और सता के साथ ही ..... महाराज ने हताशा में अपनी बात अधूरी छोड़ दी |

“विदेहराज ! इस भूलोक में दो कुमार हैं, जो सीता के योग्य वर हो सकते हैं।” 

“कौन देवर्षि?”

 जनक और सुनयना दोनों ने एक साथ उत्सुकता से प्रश्न किया ।

“प्रथम तो है दशरथ पुत्र राम ... समस्त गुणों से युक्त हैं।”

 “सत्य हैं, मैंने भी ख्याति सुनी है उसके गुणों की, और दूसरा ?”

“दूसरा है रावण पुत्र मेघनाद... किन्तु उससे सीता का विवाह हो नहीं सकता "

“कारण देवर्षि?”

“आर्य संस्कारों में पली कन्या का रक्ष-संस्कृति में निर्वाह अत्यंत कठिन है।"

 “आपका कथन सत्य है। ... तो अब बचा मात्र राम; किन्तु क्या दशरथ इस संबंध के लिये सम्मति देंगे? मुझे तो शंका है देवर्षि!”

“मुझे भी है। इक्ष्वाकुवंश में विवाह की दो ही परम्परायें प्रचलित रही हैं; एक तो शक्ति के द्वारा, दूसरी कुल-गोत्र के द्वारा। राम का चरित्र दशरथ के विपरीत है, वह प्रथम परम्परा का अनुकरण कदापि नहीं करेगा..."

“दूसरी परम्परा का अनुसरण करने पर दशरथ कदापि सम्मति नहीं देंगे।” 

जनक ने नारद का वाक्य पूरा किया।

“निरसंदेह !”

“तब क्या निष्कर्ष निकला?"

"निष्कर्ष भी निकलेगा, हताश क्यों होते हैं विदेहराज? यदि नारद ने यह सम्बन्ध निश्चित कर लिया है तो निष्कर्ष को निकलना ही पड़ेगा।"

 नारद के स्वर में अपूर्व दृढ़ता थी, किन्तु अधरों पर अब भी वही मोहिनी स्मित नृत्य कर रही थी ।

“किस भाँति देवर्षि?”

“आप सीता को वीर्यशुल्का ; जिससे विवाह हेतु पराक्रम की कोई विशेष शर्त निर्धारित हो घोषित कर दीजिये | "

“और उसके लिये पराक्रम क्या निर्धारित किया जाये?”

“आपके पास शिव का वह अद्भुत धनुष धरोहर के रूप में रखा हुआ है, जिससे उन्होंने दक्ष यज्ञ का विध्वंस किया था।""

“उसी धनुष को उठाकर उस पर शरसंधान का शुल्क निर्धारित कर दीजिये।”

 “तब तो मेरी कन्या कुमारी ही रह जायेगी; उस धनुष का संधान भला कौन कर पायेगा ?” 

“नहीं रह जायेगी... शिव के अतिरिक्त चार व्यक्ति हैं, जो उस धनुष पर शरसंधान कर सकते हैं।”

 “कौन-कौन? "

“विश्वामित्र, शुक्राचार्य, रावण और परशुराम।"

“ तो देवर्षि! इनमें से किसे आप मेरी सीता देना चाहते हैं?”

 जनक व्यंग्यपूर्वक बोल पड़े-

 “आप तो राम का उल्लेख कर रहे थे?" 

“राम को यह ज्ञान विश्वामित्र देंगे न !"

"क्या राम यह कर लेगा?"

 जनक को अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था।

 “देवहित और लोकहित का कोई भी कार्य राम के लिये असंभव नहीं हैं विदेहराज |""

सुलभ अग्निहोत्री 



चन्द्रनखा ‌(शूर्पणखा)

 अपनी मनःस्थिति को चन्द्रनखा स्वयं भी नहीं समझ पा रही थी। अपने भाई से उसे अगाध स्नेह था, उस पर उसे सदैव गर्व रहा था; आज भी था... किन्तु विद्युत की मृत्यु के उपरांत अब उससे उसे उतनी ही घृणा भी थी । न चाहते हुए भी उसे वही कार्य करने की इच्छा होती थी, जिन्हें रावण अच्छा नहीं समझता था।

दण्डकारण्य, सम्पूर्णतः वन्य प्रांत था। बड़ी दूर-दूर पर स्थित छोटे-छोटे ग्रामों को छोड़कर सम्पूर्ण प्रदेश जनशून्य था| ये जो छोटे-छोटे ग्राम थे भी, इनमें चन्द्रनखा को कोई रुचि नहीं थी। कभी कभी उसे पश्चाताप भी होता था कि क्यों उसने भाई का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था ? यहाँ उससे बात करने को कोई भी नहीं था। खर और दूषण से कितनी बात करती? और उनसे अधिक बात करने की आवश्यकता भी क्या थी? होंगे उसके मौसेरे भाई, किन्तु अब तो वे उसके अनुचर थे। एकांत में उसे बहुधा विद्युत की यादें घेर लेती थीं, और भाई के प्रति उसका आक्रोश और बढ़ जाता था। अच्छा होता यदि उसने विद्युत का प्रस्ताव मान लिया होता, वह भी भाग गयी होती उसके साथ, जैसा कुम्भी ने किया... तब वह भी विद्युत के साथ चिरकाल तक रमण करती । कितना आनन्द होता। विद्युत का राज्य छोटा सा था तो क्या हुआ, प्रेम महत्त्वपूर्ण होता है। प्रेमास्पद साथ हो तो विपन्नता में भी सुखपूर्वक रहा जा सकता है। यूँ ही एक दिन जब वह एकाकी पड़ी पड़ी ऊब गयी तो सोचने लगी क्या करे? किसके साथ अपनी व्यथा बाँटे ? लंका में होती तो भाभियों के साथ ही मन बहला लेती... कितनी अच्छी हैं उसकी तीनों की तीनों भाभियाँ! कितना प्यार करती हैं उससे । यहाँ असंख्य दासियाँ हैं, किन्तु दासियों के साथ क्या व्यथा बाँटी जा सकती हैं? उनके सम्मुख क्या अपना मन खोला जा सकता है?

“सुकीर्ति!” अचानक उसने एक दासी को पुकारा ।

“जी महारानी जी!” दौड़ते हुए दासी ने प्रवेश किया। दासी, हाथ जोड़े खड़ी थी और चन्द्रनखा उसे ताक रही थी। उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि उसने उसे क्यों पुकारा था। उसने उसे अकारण बुरी तरह डाँटकर भगा दिया। जब वह जाने लगी तो पुनः बुलाया और पूछा

 "तेरा पति है?"

“जी महारानी!”

“क्या करता है?"

 “कुछ नहीं, महापान किए पड़ा रहता है। "

“तू लड़ती नहीं उससे ?"

“खूब लड़ती हूँ, किन्तु तब वह मुझे बुरी तरह पीटता है।"

 “और तू पिट लेती है?” 

“वह पति है मेरा महारानी । "

“तू छोड़ क्यों नहीं देती उसे?"

 “कैसे छोड़ दूँ? पति हैं मेरा वह "

“तू प्रेम करती है उससे ?”

"जी!"

“पीटता है तब भी प्रेम करती है?”

 वह मौन रही, तो चन्द्रनखा ने पुनः कुछ तीव्र स्वर में कहा

“उत्तर क्यों नहीं देती ?"

“वह भी तो करता हैं।”

“जा भाग जा।"

दासी चली गयी, किन्तु चन्द्रनखा के मन को एक नया प्रश्न दे गयी... यदि विद्युत उसे पीटता तो वह क्या करती ? अचानक उसका मन करने लगा कि विद्युत आये और उसे खूब पीटे । किन्तु विद्युत कैसे आ सकता था? उसे तो भाई ने ... उसके मन में पुन: रावण के प्रति घृणा का ज्वार उबलने लगा। उसके मन में रावण से प्रतिशोध लेने की इच्छा तीव्र होने लगी ।

किन्तु वह तो अपने भाई से बहुत-बहुत प्यार करती थी। भाई भी तो उससे कितना स्नेह करता था| उसका मन किया कि वह अभी जाये और भाई से खूब लड़े, जी भर के खरी-खोटी सुनाये उसे।संभवतः इसी से उसका गुबार निकल जाये, उसे कुछ शांति मिले। किन्तु ऐसे जा भी कैसे सकती थी ।यही सब सोचते-सोचते उसके सिर में तीव्र पीड़ा होने लगी ।उसने पुनः पुकारा

 “सुकीर्ति !”

दासी पुनः उपस्थित हुई।

"जा, वैद्य से शिरोपीड़ा की औषधि ले आ " 

“जी महारानी !”

“अथवा ऐसा कर, उन्हें बुला ही ला । "

वैद्य भी त्रस्त था महारानी की अबूझ व्याधियों से। उसकी किसी औषधि से महारानी को लाभ नहीं होता था। होता भी कैसे ? उसके पास शारीरिक व्याधियों का उपचार था, मानसिक व्याधियों का नहीं। वह चन्द्रनखा की वास्तविक पीड़ा समझ रहा था, किन्तु उनकी ऐसी मनःस्थिति में उनसे कुछ कहने का साहस उसमें नहीं था। वह कोई ऐसी राह खोज रहा था जिससे यह सत्य सम्राट् तक पहुँचा सके। उसकी स्वयं की न तो सम्राट तक पहुँच थी और न ही उनसे यह सब कहने का साहस।

ऐसे ही दिन व्यतीत हो रहे थे।

ऐसे ही में एक दिन चन्द्रनखा को रावण की देवराज पर विजय का समाचार ज्ञात हुआ। मेघनाद के पराक्रम का समाचार ज्ञात हुआ। उसका मन अपूर्व उल्लास से भर गया । उसने प्रसन्नता में दासियों को ढेर सारे उपहार बाँट डाले। वह पूरे मन से लंका जाने की तैयारी करने लगी । वह बड़े उत्साह से आई थी लंका, किन्तु लंका में आकर उसका मन खिन्न हो गया था। ऐसा नहीं कि किसी ने उसका अपमान करने की चेष्टा की हो... सब उससे वैसे ही मिले थे जैसे पूर्व में मिलते थे, किन्तु उसका मन उदास था। वह चाहती थी कि सबसे हँसकर बोले, ठिठोली करे, किन्तु जैसे ही कोई बोलता था, उसका मन करता था उसका मुँह तोड़ दे। सबको प्रसन्न देखकर उसे चिढ़ सी होने लगती थी।

जब उत्सव में चलने के लिये मन्दोदरी उसे बुलाने आयी, तो उसके साथ चित्रांगदा भी थीं। उसे देखते ही चन्द्रनखा सुलग उठी। बड़े प्रयास से उसने स्वयं को संयत किया। उसका मन किया कि तुलना भी नहीं कर सकी। सारे उत्सव में रावण की जय-जयकार सुनकर वह कुढ़ती रही। उसकी स्थिति देखकर मन्दोदरी भी व्यथित हो उठी थी। उसने निश्चय किया कि शीघ्र ही किसी दिन एकान्त में वह अवश्य रावण से इस विषय में वार्ता करेगी। इसे टालना अनर्थकारी हो सकता है। 

***

उत्सव तक रावण स्वयं इतना व्यस्त था कि वह चन्द्रनखा से भेंट ही नहीं कर पाया। मान से भरी चन्द्रनखा भी उससे मिलने नहीं पहुँची । उत्सव के उपरांत सब एकत्र थे। चन्द्रनखा भी थी। उसे देखते ही रावण उसके पास पहुँचा और स्नेह से उसे छाती से लगा लिया, और उसके बाल सहला सहलाने लगा। चन्द्र भी पिघल गयी। वह भी कसकर भाई से चिपट गयी, जैसे बचपन में किया करती थी।

 “प्रसन्न तो हैं दण्डकारण्य की महारानी ?"

चन्द्रनखा उखड़ गयी

“क्या है प्रसन्नता के लिये वहाँ ? स्वयं तो यहाँ, ऐसे स्वर्ण प्रासाद में सम्पूर्ण वैभवों के मध्य निवास कर रहे हैं, और मुझे वहाँ निर्जन वन में डाल दिया है जहाँ कोई व्यवस्था ही नहीं है । " 

उसके इस व्यवहार से सब चौंक गये। रावण भी एक क्षण को समझ नहीं पाया। फिर उसने चन्द्रनखा का चिबुक पकड़कर उसका सिर उठाया और उसकी आँखों में झाँकता हुआ बोला

“अरे, तो क्रोध क्यों करती है? अभी हुई जाती है समस्त व्यवस्था, तुझे तो ज्ञात ही है कि तुझे दण्डकारण्य सौंपने के उपरांत तेरे भाई को अवकाश ही नहीं मिला।"

 इसके साथ ही वह प्रहस्त से सम्बोधित हुआ- 

"मातुल ! आप स्वयं अपनी देख-रेख में दण्डकारण्य में चन्द्र के लिये समस्त वैभवों की व्यवस्था करवाइये ।”

रावण की आँखों के सम्मोहन में फँसी चन्द्रनखा प्रसन्न हो गयी । रात्रि में मन्दोदरी ने भी रावण से इस विषय में बात की। 

“महारानी, उसे क्रोध करने का अधिकार हैं, रावण उसका अपराधी है।”

“वह मैं समझती हूँ महाराज, किन्तु उसकी इस अवस्था का उपचार आवश्यक है; उसकी ऐसी विक्षिप्तता स्वयं उसके लिये अहितकर है। अब आप अभियानों से निवृत्ति पा चुके हैं, अब सर्वप्रथम चन्द्र के उपचार पर ही ध्यान दीजिये ।”

“वह तो रावण करेगा ही, किन्तु कैसे? यही विचार कर रहा है। उसके अन्तर्मन की गहराइयों में अपने पति के हत्यारे के प्रति घृणा बस गयी है। वह अपने भाई से अत्यंत प्रेम करती है, किन्तु इस समय यह घृणा उसकी चेतना को आवृत्त किये हैं। यह घृणा उसकी मूल प्रवृत्ति बन गयी है, और सम्मोहन से किसी व्यक्ति की मूल प्रवृत्ति को परिवर्तित नहीं किया जा सकता। समय और हमारा स्नेह ही उसका उपचार करेगा। फिर भी रावण अपने प्रयासों में कोई न्यूनता नहीं आने देगा” 

“जैसा आप उचित समझें !”

रावण कुछ देर उसके चेहरे पर दृष्टि टिकाये मुस्कुराता रहा, फिर उसे आलिंगन में लेता हुआ बोला

“रावण अपराधी तो आपका भी है।”

मंदोदरी सब कुछ बिसारकर उसके अंक में सिमट गयी। थोड़ी देर वह सब कुछ भूली रही । सघन मेघों से आच्छादित धरती अपनी प्यास बुझाती रही।... पर तभी जैसे अकस्मात उसे कुछ स्मरण हुआ, वह बोली

“महाराज ! चित्रांगदा भी उद्विग्न है। मन्दोदरी का तो यही परिवार है, यहाँ सभी उसके आत्मीय स्वजन हैं, किन्तु उसके स्वजन अभी मात्र आप ही हैं, उसे भी आपके प्रेम की आवश्यकता है, अन्यथा वह स्वयं को उपेक्षित अनुभव करने लगेगी । " 

“आप अपने मन से अपना पति किसी अन्य स्त्री को सौंप रही हैं?" रावण ने विस्मित होते हुए कहा

“नहीं, मैं एक नई विपत्ति को टालने का प्रयास कर रही हूँ, मेरे पति का मन तो मात्र मेरा ही हैं, उसे मुझसे कोई नहीं बाँट सकता।"

 वह एक बार फिर रावण के सीने से लग गयी, पर तुरंत ही हटती हुई बोली

“जाइये, इस समय चित्रांगदा को आपकी अधिक आवश्यकता है; विलम्ब मत कीजिये, अन्यथा बहुत विलम्ब हो जायेगा|" 

किन्तु विलम्ब तो हो गया था।

सुलभ अग्निहोत्री 



रविवार, 3 जुलाई 2022

रम्भा से रमण

प्रिय के आगमन का समाचार सुनते ही विरहिणी चित्रांगदा का मन- कमल खिल उठा वह सब कुछ भूलकर जैसी बैठी थी वैसी ही द्वार की ओर भाग ली। वह द्वार पर पहुँची, तब रावण, गन्धर्वराज के साथ प्रवेश कर ही रहा था। वह लोक-लज्जा सब विस्मृत कर वल्लरी की भाँति प्रियतम से लिपट गयी। कुछ काल मान-मनौवल और उपालम्भों का दौर चला, और फिर सब आनन्दमय हो गया।

गन्धर्वराज को सुमाली का संदेश प्राप्त हो गया था। वे प्रयाण हेतु तत्पर थे।

विरह के बाद मिलन में ज्वार अधिक होता है; फिर गन्धर्वलोक में उन्मुक्त विलास में किसी भाँति की मर्यादा की बाधा ही नहीं थी। सैन्य के आगमन की प्रतीक्षा करते रावण के दिन एक बार पुनः चित्रांगदा के मंदिर सान्निध्य में रमण करते व्यतीत होने लगे।

सुमाली और प्रहस्त, गन्धर्वलोक के रमणीय वातावरण का आनन्द ले रहे थे, साथ ही गन्धर्वराज के साथ रणनीति पर भी मन्थन कर रहे थे। फिर एक दिन लंका के सैन्य का आगमल हो गया।

कुछ दिन बाद ही मधु का आगमन भी हो गया। रावण ने सुमाली और गन्धर्वराज को समस्त सैन्य का नेतृत्व सौंपा और स्वयं एकाकी कैलाश की ओर जाने का मन बनाया। वह इन्द्र पर आक्रमण से पूर्व एक बार शिव का आशीर्वाद लेने का इच्छुक था। सैन्य के कूच करते ही रावण भी चित्रांगदा से विदा लेने पहुँच गया। “पुनः जा रहे हैं? आपको अपनी चित्रांगदा पर तनिक भी तरस नहीं आता?"

“प्रियतमा, तुम्हें तो ज्ञात था रावण का उद्देश्य, फिर ऐसा उपालंभ भला क्यों?” 

“इन बातों से विरहाग्नि शीतल तो नहीं हो जाती!"

“सत्य है चित्रांगदे ! किन्तु महत् उद्देश्य के लिये अपने क्षणिक सुख का त्याग तो करना ही पड़ता हैं। "

 “समझती हूँ; किन्तु इस मन को किस भाँति समझाऊँ? यह तो कोई तर्क नहीं समझता "

“समझ जायेगा, तुम प्रसन्न वदन विदा दो रावण को, अन्यथा वह अपने लक्ष्य पर चित्त केन्द्रित नहीं कर पायेगा "

 “किन्तु शीघ्र वापस लौटने का वचन देना होगा।"

"दिया!”

“याद रखियेगा, आपका पुत्र भी प्रतीक्षा करेगा आपकी !" चित्रांगदा ने तिर्यक मुस्कान के साथ इठलाते हुए कहा "

 “क्या?”

 रावण के स्वर में कौतूहल भी था और प्रसन्नता भी ।

“हाँ! मैं गर्भवती हैं।"


रावण ने उत्साह से उसे पुनः बाँहों में भर लिया और अपने जलते अधर उसके मंदिर अधरों पर रख दिये।

******

शिव, रावण की मानो प्रतीक्षा ही कर रहे थे। प्रभु के लिये क्या अज्ञात रह सकता है- रावण ने मन ही मन सोचा शिव ने उसे खुले मन से आशीर्वाद दिया। पार्वती यद्यपि देवेन्द्र के प्रति सहज स्नेह के चलते प्रसन्न नहीं थीं, किन्तु उन्होंने भी आशीर्वाद दिया फिर शिव ने बताया कि वे दीर्घ समाधि में जाने वाले थे, बस उसी की प्रतीक्षा कर रहे थे। शिव की  समाधि में विघ्न डालना उचित नहीं था, अतः रावण ने अमरावती की ओर प्रस्थान किया|

 *****


कैलाश क्षेत्र का सुरम्य वातावरण रावण के मन-मस्तिष्क पर सदैव अद्भुत प्रभाव डालता रहा था। आज वह अकेला था। सुवासित सोमरस का पात्र उसके हाथ में था, जिसे वह धीरे-धीरे चुसकता जा रहा था। प्रकृति की मोहकता ने उसे अपने सम्मोहन में जकड़ लिया और उसका मन - विहग आनन्दलोक में उड़ान भरने लगा। जैसे-जैसे वह आगे अलका के निकट पहुँचता जाता था, वातावरण की सम्मोहकता बढ़ती ही जाती थी। उसने अलका के परकोटे से थोड़ी ही दूर एक विशाल उपवन में पुष्पक को उतार लिया । आकाश में बिखरी चाँदनी, सर्वत्र व्याप्त रातरानी की मादक सुगंध और अलका से आती गीत-संगीत की उन्मत्त स्वर-लहरियाँ, उसे जैसे अपने साथ उड़ाये लिए जा रही थीं। किलोल करती यक्षिणियों, किन्नरियों, अप्सराओं की आनन्दातिरेक से परिपूर्ण फुसफुसाहटें, जैसे रावण की चेतना पर उन्मादी प्रभाव डाल रहीं थीं। बीच-बीच में यत्र-तत्र विचरते आपस में खोये गंधर्व-युगल जैसे एक-दूसरे में समा जाने को व्याकुल हो रहे थे। रावण को लगा, जैसे उसका स्वयं पर से नियंत्रण छूटा जा रहा हैं। उसे चित्रांगदा के साथ उन्मुक्त रमण के पल याद आने लगे। वह विचलित होता जा रहा था। चलते-चलते कहे गये चित्रांगदा के शब्द और उसके बाद उसका उन्मादी चुम्बन - आलिंगन.....


यह उसे क्या होता जा रहा हैं? उसने सोचा। क्या यह सोमरस का प्रभाव हैं? उसने पात्र एक ओर रख दिया और पुष्पक से बाहर निकल आया। उसने सिर को झटक कर सामान्य होने का प्रयास किया, किन्तु व्यर्थ। उसकी चेतना को मानो अनंग ने अपने पुष्पशर से अवश कर दिया था। वह निरुद्देश्य भटकने लगा । वह जिधर जा रहा था उधर ही .... यहाँ तो उन्मुक्त रमण का साम्राज्य था। क्या उसे रमण का अधिकार नहीं है? कैसा हतभाग्य है वह। दैव उसे प्रियतमा का सान्निध्य देता है, फिर छीन लेता है। उसे अचानक वेदवती की याद आ गयी। उसके साथ बिताये गये पल याद आ गये। आह ! वह मधुर रमण... और दैव ने बलात उससे वेदवती को छीन लिया। फिर उसे मन्दोदरी याद आ गयी। उससे भी तो कितने काल से वह ठीक से बात तक नहीं कर पाया है! जब भी मिलता है कोई न कोई व्याधि उसके रस को निचोड़ लेती है और उसके पास मन्दोदरी के लिये रस बचता ही नहीं। उसे फिर चित्रांगदा याद आ गयी। उसका उन्मत समर्पण याद आ गया। दैव को उससे कौन सा वैर है?

“यहाँ एकान्त में यह कौन एकाकी विचरण कर रहा है?"

 एक अत्यंत मधुर मादक सा स्वर सुनकर उसे लगा जैसे वेदवती ने उसे पुकारा हो। वह चौंक पड़ा। घूमकर देखा तो एक अनिंद्य सुन्दरी, सुवासित पुष्पाभूषणों से जैसे सृष्टि को मदोन्मत्त करती हुई चली आ रही थी। उसके झीने वस्त्रों से झाँकती उसके मादक यौवन की अंगड़ाई जैसे धवल चाँदनी को भी सम्मोहित किये ले रही थी । नहीं, यह मेरी वेदवती नहीं हैं।

 “सुन्दरी कौन हो तुम?"

 उसने पूछा।


“मैं रम्भा हूँ। "

"कौन ? अप्सरा रम्भा?"

“हाँ वही; आप कौन हैं, और इस वातावरण में एकाकी कहाँ विचर रहे हैं?"

 "मैं रावण हूँ, लंकेश्वर रावण !”

 “ओह! प्रणाम स्वीकार करें पौलस्त्य!”

 रम्भा ने हाथ जोड़कर उसे प्रणाम किया।

“रम्भे! तुमने प्रश्न किया कि मैं एकाकी कहाँ घूम रहा हूँ, तो क्यों नहीं तुम ही मेरी सहचरी बन जातीं। रावण को तुम्हारे इस रूप के व्याध ने अपने जाल में बुरी प्रकार जकड़ लिया है।

 " “लंकेश! काश रम्भा आपकी मनोकामना पूर्ण कर सकती!" रावण की आशाओं पर तुषारापात करते हुए रम्भा ने विनम्रता से उत्तर दिया

 “क्यों सुन्दरी, क्या असमर्थता है? किसका भय हैं?”

 रावण का स्वर थोड़ा सा तीव्र हो गया। 

“भय रम्भा को किसका होगा, किन्तु लंकेश ! आज यह संभव नहीं है कि रम्भा आपके साथ रमण का सौभाग्य प्राप्त करे।”

“तुम लंकेश को न कह रही हो; क्या तुम्हें ज्ञात नहीं कि आज लंकेश त्रिलोक की सबसे बड़ी शक्ति है; लंकेश की इच्छा की अवमानना करने का साहस आज किसी को नहीं है। " 

"ज्ञात है, किन्तु रम्भा लंकेश की इच्छा की अवमानना कहाँ कर रही हैं? रम्भा तो उनसे विनय कर रही है कि आज उसे क्षमा करें, रम्भा आज वचनबद्ध है।"


“नहीं!” वातावरण का प्रभाव, मद्य का प्रभाव, वेदवती - मन्दोदरी - चित्रांगदा से रमण की स्मृतियों का प्रभाव... सबने मिलकर रावण की वासना को जाग्रत कर दिया था। उसे अपना आकाशचारी आत्मगौरव विस्मृत हो गया था। उसका विवेक तो जैसे प्रसुप्त पड़ा था। रम्भा के न कहने से वह उत्तेजित हो उठा - 

“रावण के समक्ष न कहना संभव नहीं है; कुछ ही काल में तुम्हारा देवराज भी रावण के चरणों में होगा "

 “मैं स्वीकार करती हूँ आपकी श्रेष्ठता, किन्तु आपके साथ रमण, मर्यादा का उल्लंघन होगा, अतः मुझे जाने दें। "

"मर्यादा का उल्लंघन !"

 रावण ने अट्टहास किया-

 “अप्सरा की भी कोई मर्यादा होती है रम्भे ? अप्सराओं का तो अस्तित्व ही उन्मुक्त भोग के लिये है... आज तक समर्थ देव ही अप्सराओं के साथ रमण करते रहे हैं, आज लंकेश्वर रावण, रम्भा के साथ रमण करेगा। क्या रम्भा, लंकेश्वर रावण के आदेश की अवहेलना करने का दुस्साहस कर सकती है? इतनी सामर्थ्य है उसकी ?”

“नहीं-नहीं, लंकेश्वर ! रम्भा की इतनी सामर्थ्य नहीं है, रम्भा तो मात्र अपनी मर्यादा से बँधी है।”

“पुनः वही मर्यादा! रावण को ठगना चाहती हो तुम? क्या सभी देव, मनचाही अप्सरा के साथ रमण नहीं करते? क्या रम्भा कभी किसी देव को न भी कह देती हैं?" 

“यह सच है कि रम्भा ने सभी देवों के साथ रमण किया है, वह कभी किसी देव को न नहीं कहती, किन्तु देव कभी भी उसे मर्यादा का उल्लंघन करने को बाध्य नहीं करते, वे इसका सदैव ध्यान रखते हैं।"

“किस मर्यादा की दुहाई दे रही हो तुम? अभी तो तुमने स्वयं स्वीकार किया कि तुम सभी देवों के साथ रमण करती हो; मात्र देव ही क्यों, अप्सरायें तो देवों से इतर भी सामर्थ्यवान पुरुषों के निमंत्रण की कभी अवहेलना नहीं करतीं, फिर रावण तो रावण हैं; त्रिलोक में सर्वाधिक सामर्थ्यवान पुरुष ... उसके निमंत्रण की अवहेलना कैसे कर सकती हो तुमा "

“रम्भा आज वचनबद्ध है; आज की रात्रि वह किसी के लिये पत्नीवत है। यही अप्सराओं की मर्यादा हैं। वे निर्धारित अवधि के लिये किसी की पत्नी होती हैं। उस काल में वे किसी अन्य के साथ रमण नहीं करतीं। आज वह आपके भ्रातृज नलकूबर ; कुबेर का पुत्रद्ध के साथ वचनबद्ध हैं, आज वह उसकी पत्नी हैं। इस मर्यादा से आज वह आपकी पुत्रवधू है, आज उसके साथ रमण की अभिलाषा आप के लिये अशोभनीय हैं। रम्भा पर अनुग्रह कीजिये, इस अभिलाषा को त्याग दीजिये, अन्यथा रम्भा की मर्यादा टूटने के साथ-साथ आपकी उज्ज्वल कीर्ति भी कलंकित हो जायेगी ।”

“अब तुम रावण के धर्य की परीक्षा ले रही हो ! उसे बलप्रयोग के लिये बाध्य कर रही हो।"

 कहते हुए रावण ने रम्भा का हाथ पकड़कर उसे अपने कठोर आलिंगन में बाँध लिया। रम्भा प्रतिरोध करती रही किन्तु रावण मदोन्मत्त सा बोलता रहा

 “रावण की पुत्रवधू! ... रावण के साथ छल करने का प्रयास करती है। रावण की सर्वोच्च सत्ता की अवमानना का प्रयास करती हैं। रावण आज तुझे बतायेगा कि वह क्या हैं... उसकी सत्ता क्या है!!”

“नहीं ऽऽ!”

 की एक दीर्घ चीत्कार दूर-दूर तक तैर गई। उसने कठिनता से कहने का प्रयास किया-

 “रम्भा सत्य कह रही है, आज की रात वह आपके भातृज नलकूबर...."

 रम्भा का वाक्य पूरा नहीं हो पाया। रावण ने अपने ओठों से उसके अधर पीस दिये।

*****

“रम्भे! रम्भे!”

 का स्वर सुनकर रावण चैतन्य हुआ। उसने अलसायी आँखों से देखा, रम्भा कुछ दूर पर घुटनों में सिर दिये बैठी थी। उसने वस्त्र पहन लिये थे, किन्तु वे अब भी अस्त-व्यस्त थे।

बाल बिखरे हुए थे, चेहरा घुटनों में छुपा हुआ था। 

“रम्भे! रम्भे!”

 वही स्वर पुनः सुनाई पड़ा। रावण उठ बैठा। फिर उसने एक निगाह रम्भा पर डाली । वह वैसी ही जड़वत बैठी हुई थी। रावण ने खड़े होकर अपने वस्त्र ठीक किये, फिर पुनः बैठ गया और स्वर की ओर काल कर दिये। कुछ ही पलों में आकृति स्पष्ट होने लगी। आकृति पास आई तो उसके चेहरे पर पहचान के चिन्ह उभरे, फिर उसने पास आकर उसके चरणों में प्रणाम किया और बोली

“आह पितृव्य ! अरे आप यहाँ ?”

रावण की दृष्टि में अभी भी पहचान के भाव नहीं उभरे थे। वह अपने मस्तिष्क पर जोर दे रहा था

“कौन?”

 उसने धीरे से पूछा ।

तभी जैसे वह समझ गया हो - 

“क्या नलकूबर?"

“हाँ पितृव्य! आप यहाँ कैसे बैठे हैं? क्या पुनः अलका पर आक्रमण का कोई कुचक्र रच रहे हैं? और... और यह कौन है?”

 नलकूबर की दृष्टि सिर झुकाये बैठी रम्भा पर पड़ चुकी थी, किन्तु उसका चेहरा घुटनों में छिपा होने से और उसकी उजड़ी उजड़ी सी अवस्था के चलते वह उसे पहचान नहीं पाया था। रम्भा ने अभी भी सिर नहीं उठाया था।

“अब उसकी कोई आवश्यकता नहीं हैं।" 

रावण ने किंचित दंभ से कहा- 

“रावण अब सीधे तुम्हारे देवराज पर आक्रमण हेतु प्रस्तुत हैं; अब वह त्रिलोकेश्वर होगा।" 

फिर उसने औपचारिक प्रश्न किया

“किन्तु तुम इस समय, अर्धरात्रि को यहाँ ? तुम्हें तो इस समय अपने प्रासाद में विलास-लीला में निमग्न होना चाहिये!”

 उसके स्वर में उपहास था।

“आह!” 

नलकूबर की दृष्टि अब भी रम्भा पर ही थी। शायद वह पहचान रहा था। - 

“नलकूबर यहाँ नहीं होता इस समय तो और कहाँ होता ?”

फिर उसने रम्भा को पुकारा

 “रम्भे! रम्भे! ... क्या यह तुम्हीं हो? शीश उठाओ तो तनिक "

“हाँ, यह रम्भा ही हैं, आज की निशा की तुम्हारी पत्नी ।"

 झटके से सिर उठाते हुए रम्भा ने आवेश में कहा। उसका चेहरा आँसुओं से गीला था। काजल ने पूरे चेहरे को काला कर दिया था-

 “आज तुम्हारे पितृव्य ने बलात्... रम्भा ने बार-बार चेताया इन्हें बार-बार रोका, किन्तु इन्हे तो अपनी शक्ति का दंभ था, इन्हांने..."

“यह क्या किया आपने पितृव्य? अप्सराओं की मर्यादा के अनुसार आज रम्भा मेरी पत्नी थी, इस नाते वह आपकी पुत्रवधू हुई... और... और आपने ..."

रावण का मस्तिष्क इस समय पूर्ण चैतन्यावस्था में था। नलकूबर की बात सुनते ही उसे लगा कि जैसे उसपर वज्राघात हुआ हो। उसे भान हो रहा था कि उसने क्या अनर्थ कर डाला है। निस्संदेह नलकूबर से उसके संबंध मित्रता के नहीं थे, किन्तु था तो वह उसके भाई का पुत्र ही; इस रक्त संबंध की उपेक्षा कैसे की जा सकती थी! हाँ ! कुछ ऐसा ही तो कह रही थी रम्भा ! अब उसे स्मरण हो रहा था। उसे स्वयं पर क्रोध आ रहा था।

“पितृव्य! आपने अपने नाम के साथ आज यह कैसा अपवाद जोड़ लिया? युगों तक जब-जब आपका नाम लिया जायेगा, लोग आपका यह कुकृत्य भी याद करेंगे ... आपको धिक्कारेंगे ..."

 नलकूबर, क्रोध और हताशा में जो भी मुँह में आ रहा था कहता जा रहा था। किन्तु रावण इससे आगे नहीं सुन सका। उसकी इच्छा हो रही थी कि अभी धरती फट जाये और वह उसमें समा जाये। वह नलकूबर और रम्भा के सामने दृष्टि उठाने का साहस नहीं कर पा रहा था।


“आह प्रभु शिव! आपका कैलाश क्षेत्र रावण के प्रति इतना निर्दय क्यों हो जाता हैं। रावण तो यहाँ मात्र इसलिये आया था कि वह आपके दर्शन करना चाहता था । "

 रावण होठों में ही बड़बड़ा रहा था। उसकी चेतना से अब नलकूबर और रम्भा दोनों ही मिट गये थे । उसे न उनके स्वर सुनाई दे रहे थे, न उनकी आकृतियां दिखाई दे रही थीं। उसकी आँखें बंद थीं। फिर वह पद्मासन में बैठ गया। कुछ ही देर में वह पूर्ण समाधि की अवस्था में था। उस अवस्था में उसके मस्तिष्क में एक ही स्वर गूँज रहा था 

'आज के बाद रावण अपनी पत्नी के अतिरिक्त किसी भी स्त्री पर वासनामय दृष्टि नहीं डालेगा; रावण सदैव एकनिष्ठ रहेगा|' आत्मसम्मोहन विधि से उसने आज यह अटूट प्रण ले लिया था।

सुलभ अग्निहोत्री 



कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...