बुधवार, 6 जुलाई 2022

रावण का भारत - प्रवेश

 रावण अपनी सब तैयारी कर चुका था । उसने समुद्र मार्ग से अपने संबंध दक्षिण भारत से जोड़ लिए थे। इसके अतिरिक्त उसने सहस्रों समर्थ राक्षसो को विविध छद्म वेष धारण करके भारत के भिन्न-भिन्न प्रदेशो मे भेज दिया था, जो सब जातियों में रावण द्वारा स्थापित राक्षस-धर्म का प्रचार करते तथा लोगों को राक्षस बनाते थे । इस प्रकार इस समय समूचे दक्षिणारण्य मे ही नहीं, आर्यावर्त मे भी बहुत से राक्षस घूम रहे थे । अब रावण किसी सुयोग की तलाश मे था । वह उसे अकस्मात् ही मिल गया । एक दिन एक दूत रावण के भाई धनपति कुबेर का संदेश लेकर और उसने रावण को कुबेर का यह सदेश दिया कि - "तुम्हारा आचरण और व्यवहार तुम्हारे कुल के योग्य नहीं है । तुम दैत्यों के संग मे बहुत गिर गए हो । दक्षिणारण्य में और भरत खण्ड में तुम्हारे भेजे हुए राक्षस बहुत उत्पात मचाते हैं । वे ऋषियों को मार कर खा जाते है। यज्ञ में रुधिर-मांस की आहुति देते है और अनार्यो से मेल रखते है । तुम्हारे ये कार्य देवों और आर्यों को अप्रिय  है। मै तुम्हारा बड़ा भाई हूं, तो भी तुमने मेरा बड़ा अपमान किया, फिर भी मैने अपनी लंका तुम्हें खुशी से दे दी; और तुम्हें अज्ञानी बालक समझ कर मैने तुम्हारे अपराध सहे हैं। परन्तु अब तुम्हारे कृतपाप असह होते जाते है । इससे मैं कहता हूं कि तुम अपने आचरणों को सुधारो और अपने कुल के अनुसार कार्य करो ।”


दूत के ये वचन सुनकर रावण ने कहा- “अरे दूत, तेरी बात मैंने सुनी । न तो तू, न मेरा भाई धनाध्यक्ष कुबेर ही — जिसने तुझे यहां भेजा है- मेरे हित को समझता है। तू जो मुझे भय दिखाता है सो मुझे तेरा यह आचरण सह्य नहीं है— फिर भी तुझे दूत समझ कर सहता हूं। और कुवेर धनपति मेरा भाई है इसीलिए उसे नहीं मारता । किन्तु तू उससे जाकर कह कि रावण शीघ्र ही तीनो लोको को जीतने के लिए आ रहा है। तभी वह तेरी बात का जवाब देगा।"


दूत को विदा कर रावण ने अपनी योजना आगे बढ़ाई । सब बातो पर सोच-विचार करके उसने दण्डकारण्य का राज्य अपनी बहिन सूर्पनखा को दिया, और अपनी मौसी के बेटे खर और सेना नायक दूषण को चौदह हजार सुभट राक्षस देकर उसके साथ भेज दिया। इस प्रकार जनस्थान और दण्डकारण्य मे राक्षसो का एक प्रकार से अच्छी तरह प्रवेश हो गया, तथा भारत का दक्षिण तट भी उसके लिए सुरक्षित हो गया ।


बहुत दिन से लंका मे ताड़का नाम की एक यक्षिणी रहती थी । यह यक्षिणी जम्भ के पुत्र सुन्द यक्ष की स्त्री थी। एक पुत्र प्रसव होने के बाद, एक युद्ध मे अगस्त ऋषि ने सुन्द यक्ष को मार डाला था । अगस्त के साथ शत्रुता होने के कारण ताड़का ऋषियों से घृणा करती थी । उसने यक्षपति कुबेर से कहा था कि वह उसके पति के बैर का बदला अगस्त से ले, परन्तु कुबेर अगस्त का मित्र था । इससे उसने उसकी बात पर कान नही दिया। जब रावण ने नई रक्ष संस्कृति की स्थापना की, और कुबेर को लंका से खदेड़ दिया, तो यह यक्षिणी लंका से नहीं गई – उसने अपने पुत्र मारीच सहित उसका राक्षस-धर्म स्वीकार कर लिया। मारीच को साहसी तरुण देख रावण ने उसे प्रथम अपने सेनानायको मे और फिर मंत्रियों में स्थान दे दिया। अब जब रावण का अभिप्राय ताड़का ने सुना तो उसने रावण के निकट जाकर कहा - "हे राक्षसराज, आप अनुमति दें तो मैं भी आपकी योजना पूर्ति में सहायता करूं । आप मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनिए मेरा पिता सुकेतु यक्ष महाप्रतापी था । भरतखण्ड में – नैमिषारण्य मे उसका राज्य था । उसने मुझे सब शस्त्र-शास्त्रो की पुरुषोचित शिक्षा थी । और मेरा विवाह धर्मात्मा जम्भ के पुत्र सुन्द से कर दिया था, जिसे उस पाखण्डी ऋषि अगस्त ने मार डाला। अब उस बैर को हृदय में रख मैं अपने पुत्र को ले जी रही हूँ। जो सत्य ही आप आर्यावर्त पर अभियान करना चाहते हैं, तो मुझे और मेरे पुत्र मारीच को कुछ राक्षस देकर नैमिषारण्य में भेज दीजिए, जिससे समय आने पर हम आपकी सेवा कर सकें। वहां हमारे इष्टमित्र, सम्बन्धी सहायक बहुत हैं, जो सभी राक्षस धर्म को स्वीकार कर लेगे ।" ताड़का की यह बात रावण ने मान ली, और उसे राक्षस भटों का एक अच्छा दल देकर, तथा उसी के पुत्र मारीच को उसका सेनानायक बनाकर, तथा सुबाहु राक्षस को उसका साथी बनाकर नैमिषारण्य में भेज दिया। आजकल बिहार प्रान्त में जो शाहाबाद जिला है, वही उस काल मे नैमिषारण्य कहाता था । इस प्रकार भारत में रावण के दो सैनिक - सन्निवेश स्थापित हो गए। एक दण्डकारण्य में-जहां आज नासिक का सुन्दर नगर है— दूसरा नैमिषारण्य में— जहां आज शाहाबाद शहर बसा हुआ है; सोन और गंगा संगम के निकट ।

आचार्य चतुरसेन शास्त्री 


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