गुरुवार, 7 जुलाई 2022

देवदूत

इसी क्षण एक चमत्कार हुआ। पश्चिम दिशा उज्वल प्रकाश से भर गई। गम्भीर, मेघगर्जन-ध्वनि सुन राम ने भीत होकर मन-ही-मन कहा- यह अनभ्र वज्रगर्जन कैसा? यह बिना ही दामिनी के प्रकाश कैसा?

सहसा देवसारथि मातलि ने राम के सम्मुख आकर कहा- "दाशरथि राम की जय हो, मैं मातलि, देवेन्द्र का सूत, देवेन्द्र का सन्देश लेकर आपकी सेवा में उपस्थित हूं। दाशरथि प्रसन्न हों, देवकुल आपके अनुकूल है। हेमवती उमा भी आप पर सदय हैं। वे सब आपकी जय के अभिलाषी हैं। देवेन्द्र ने इसी कारण मुझे भेजा है । "

 राम ने खड़े होकर कहा- 

“आपके आगमन से तथा देवेन्द्र के और अम्ब उमा के अनुग्रह से सम्पन्न होकर मैं कृतार्थ हुआ। आपको बहुत कष्ट हुआ होगा । देवदूत के बैठाने योग्य मेरे पास स्वर्णासन नहीं है, तथापि मुझ दास पर अनुग्रह कर इस आसन पर बैठिए । मैं अर्घ्यपाद्य निवेदन करता हूं।"

इतना कह राम ने अपने हाथ से कलश उठाकर, मातलि को अर्घ्य पाद्य से सत्कृत कर, आसन पर बैठाया, मधुपर्क दिया, तब देवेन्द्र की कुशल पूछी और कहा -

 "मुझ दास को देवेन्द्र की क्या आज्ञा है?"

स्वस्थ होकर मातलि ने कहा-

 “स्वस्ति रामभद्र, यह तो तुम्हें ज्ञात है कि देव, आदित्य और आर्यों के चार शत्रुकुल थे, जिनमें तिमिरध्वज शम्बर का देवमित्र दिवोदास ने तुम्हारे यशस्वी पिता दशरथ की सहायता से निरन्तर चालीस वर्ष युद्ध कर, उसके सौ दुर्गों का दलन कर हनन किया। इसके अनन्तर दुर्जय वर्चिन को, उसकी एक लाख दानव सैन्य का हनन कर देवपुत्र सुदास ने समूल नाश कर डाला। इसके बाद महाविक्रमशाली भेद सुदास का शरणागत हो गया। अब रह गया है केवल यह रावण, जो अपने को जगदीश्वर महिदेव, जगज्जयी कहता है। तुम जानते हो, इसके दुरन्त पुत्र मेघनाद ने देवेन्द्र को बन्दी कर उनसे पृथ्वी के नरपतियों के सम्मुख दासकर्म कराया था। तभी से देवेन्द्र संतप्त हैं। जब तक यह दुरात्मा मेघनाद नहीं मरता, तब तक देवलोक में देवता और देव दुःखित हैं और जब तक जगज्जयी रावण जीवित हैं, आर्य, आदित्य, देव, देवर्षि, ब्रह्मर्षि सभी का अस्तित्व खतरे में है। तो यही विचार, तुम्हारा संकट देख, देवेन्द्र धूर्जटि के सान्निध्य में कैलास शिखर पर गए थे और वहां प्रसन्नतामयी अम्ब उमा को प्रसन्न कर, नागपाशयुक्त तूणीर और नागदमन धनुष, जिससे कुमार कार्तिक ने स्वर्गजयी तारक का वध किया था, तुम्हारे लिए मांग लाए हैं। साथ ही इन्द्र ने रौद्रतेजपूर्ण यह अभेद्य ढाल और विकराल खड्ग भी दिया है। सो राघव, तुम इन दिव्यास्त्रों को ग्रहण कर, इन दुरन्त राक्षसों का समूल विध्वंस कर दो। इस समय रावण हततेज है। अतः यही समय है, जब रावण सपरिवार मारा जा सकता है। अब उसके सब विषदन्त झड़ चुके हैं। यह दुराचारी मेघनाद शेष है, सो आज तुम इन दिव्यास्त्रों से उसका वध करो। इन महास्त्रों के कारण ही वह रावणि अदृश्य रहकर चहुंमुखी बाण-वर्षा करता है, नागपाश में दुर्जय शत्रु को भी बांध लेता है। अब यही कौशल तुम भी कर सकोगे। परन्तु राघव, दिव्य उमा का तुम्हें एक गुप्त संकेत है। उमा ने कहा है कि रावणि का निरस्त्र ही वध सम्भव है। दिव्यास्त्रों के रहते उसका वध नहीं होगा। सो हे परंतप, जैसे बने, आज तुम उसका निरस्त्र वध करो। यह रहस्य मत भूलो। इसके अतिरिक्त रावण से तुम बिना रथ के युद्ध नहीं कर सकते थे, सो देवेन्द्र की आज्ञा से इस दिव्य रथ सहित संग्राम की समाप्ति तक मैं तुम्हारी सेवा में उपस्थित हूं। अब तुम प्रसन्न होकर देवों का प्रिय करो।”

राम ने कहा-

“देवेन्द्र और अम्ब के प्रति मैं अज्ञ कैसे कृतज्ञता प्रकट करूं?”

 राम ने धनुष हाथ में लेकर देखा और फिर शोकपूरित स्वर में कहा, 

"मैंने वैदेही-स्वयंवर में अपने बाहुबल से हर-धनु भंग किया था। किन्तु आज मैं इस धनुष को खींचने में भी असमर्थ हूं।"

 इस समय लक्ष्मण और विभीषण वहां आ पहुंचे। राघवेन्द्र ने उनसे देवदूत के आगमन का समाचार कहा, देवेन्द्र और हेमवती के संदेश- संकेत कहे। फिर वह दिव्य धनुष उन्हें दिखाया। उसे खींचने की अपनी असामर्थ्य पर खिन्न हुए। इस पर वीर-दर्प से सौमित्र ने धनुष हाथ में ले, क्षण-भर ही में उसे खींच टंकारा, जिससे दसों दिशाएं ध्वनित हो गईं। राम ने भाई को हृदय से लगाकर कहा-

 “भाई, तू ही अब डूबते रघुवंश का सहारा है। किन्तु इस राक्षसपुरी में अकेले राक्षसराज विभीषण ही हमारी नौका के खिवैया हैं। न जाने आज सूर्य उदय होने पर भूतल पर कौन-सा दृश्य देखेंगे।"


आचार्य चतुरसेन शास्त्री





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