सोमवार, 4 जुलाई 2022

चन्द्रनखा ‌(शूर्पणखा)

 अपनी मनःस्थिति को चन्द्रनखा स्वयं भी नहीं समझ पा रही थी। अपने भाई से उसे अगाध स्नेह था, उस पर उसे सदैव गर्व रहा था; आज भी था... किन्तु विद्युत की मृत्यु के उपरांत अब उससे उसे उतनी ही घृणा भी थी । न चाहते हुए भी उसे वही कार्य करने की इच्छा होती थी, जिन्हें रावण अच्छा नहीं समझता था।

दण्डकारण्य, सम्पूर्णतः वन्य प्रांत था। बड़ी दूर-दूर पर स्थित छोटे-छोटे ग्रामों को छोड़कर सम्पूर्ण प्रदेश जनशून्य था| ये जो छोटे-छोटे ग्राम थे भी, इनमें चन्द्रनखा को कोई रुचि नहीं थी। कभी कभी उसे पश्चाताप भी होता था कि क्यों उसने भाई का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था ? यहाँ उससे बात करने को कोई भी नहीं था। खर और दूषण से कितनी बात करती? और उनसे अधिक बात करने की आवश्यकता भी क्या थी? होंगे उसके मौसेरे भाई, किन्तु अब तो वे उसके अनुचर थे। एकांत में उसे बहुधा विद्युत की यादें घेर लेती थीं, और भाई के प्रति उसका आक्रोश और बढ़ जाता था। अच्छा होता यदि उसने विद्युत का प्रस्ताव मान लिया होता, वह भी भाग गयी होती उसके साथ, जैसा कुम्भी ने किया... तब वह भी विद्युत के साथ चिरकाल तक रमण करती । कितना आनन्द होता। विद्युत का राज्य छोटा सा था तो क्या हुआ, प्रेम महत्त्वपूर्ण होता है। प्रेमास्पद साथ हो तो विपन्नता में भी सुखपूर्वक रहा जा सकता है। यूँ ही एक दिन जब वह एकाकी पड़ी पड़ी ऊब गयी तो सोचने लगी क्या करे? किसके साथ अपनी व्यथा बाँटे ? लंका में होती तो भाभियों के साथ ही मन बहला लेती... कितनी अच्छी हैं उसकी तीनों की तीनों भाभियाँ! कितना प्यार करती हैं उससे । यहाँ असंख्य दासियाँ हैं, किन्तु दासियों के साथ क्या व्यथा बाँटी जा सकती हैं? उनके सम्मुख क्या अपना मन खोला जा सकता है?

“सुकीर्ति!” अचानक उसने एक दासी को पुकारा ।

“जी महारानी जी!” दौड़ते हुए दासी ने प्रवेश किया। दासी, हाथ जोड़े खड़ी थी और चन्द्रनखा उसे ताक रही थी। उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि उसने उसे क्यों पुकारा था। उसने उसे अकारण बुरी तरह डाँटकर भगा दिया। जब वह जाने लगी तो पुनः बुलाया और पूछा

 "तेरा पति है?"

“जी महारानी!”

“क्या करता है?"

 “कुछ नहीं, महापान किए पड़ा रहता है। "

“तू लड़ती नहीं उससे ?"

“खूब लड़ती हूँ, किन्तु तब वह मुझे बुरी तरह पीटता है।"

 “और तू पिट लेती है?” 

“वह पति है मेरा महारानी । "

“तू छोड़ क्यों नहीं देती उसे?"

 “कैसे छोड़ दूँ? पति हैं मेरा वह "

“तू प्रेम करती है उससे ?”

"जी!"

“पीटता है तब भी प्रेम करती है?”

 वह मौन रही, तो चन्द्रनखा ने पुनः कुछ तीव्र स्वर में कहा

“उत्तर क्यों नहीं देती ?"

“वह भी तो करता हैं।”

“जा भाग जा।"

दासी चली गयी, किन्तु चन्द्रनखा के मन को एक नया प्रश्न दे गयी... यदि विद्युत उसे पीटता तो वह क्या करती ? अचानक उसका मन करने लगा कि विद्युत आये और उसे खूब पीटे । किन्तु विद्युत कैसे आ सकता था? उसे तो भाई ने ... उसके मन में पुन: रावण के प्रति घृणा का ज्वार उबलने लगा। उसके मन में रावण से प्रतिशोध लेने की इच्छा तीव्र होने लगी ।

किन्तु वह तो अपने भाई से बहुत-बहुत प्यार करती थी। भाई भी तो उससे कितना स्नेह करता था| उसका मन किया कि वह अभी जाये और भाई से खूब लड़े, जी भर के खरी-खोटी सुनाये उसे।संभवतः इसी से उसका गुबार निकल जाये, उसे कुछ शांति मिले। किन्तु ऐसे जा भी कैसे सकती थी ।यही सब सोचते-सोचते उसके सिर में तीव्र पीड़ा होने लगी ।उसने पुनः पुकारा

 “सुकीर्ति !”

दासी पुनः उपस्थित हुई।

"जा, वैद्य से शिरोपीड़ा की औषधि ले आ " 

“जी महारानी !”

“अथवा ऐसा कर, उन्हें बुला ही ला । "

वैद्य भी त्रस्त था महारानी की अबूझ व्याधियों से। उसकी किसी औषधि से महारानी को लाभ नहीं होता था। होता भी कैसे ? उसके पास शारीरिक व्याधियों का उपचार था, मानसिक व्याधियों का नहीं। वह चन्द्रनखा की वास्तविक पीड़ा समझ रहा था, किन्तु उनकी ऐसी मनःस्थिति में उनसे कुछ कहने का साहस उसमें नहीं था। वह कोई ऐसी राह खोज रहा था जिससे यह सत्य सम्राट् तक पहुँचा सके। उसकी स्वयं की न तो सम्राट तक पहुँच थी और न ही उनसे यह सब कहने का साहस।

ऐसे ही दिन व्यतीत हो रहे थे।

ऐसे ही में एक दिन चन्द्रनखा को रावण की देवराज पर विजय का समाचार ज्ञात हुआ। मेघनाद के पराक्रम का समाचार ज्ञात हुआ। उसका मन अपूर्व उल्लास से भर गया । उसने प्रसन्नता में दासियों को ढेर सारे उपहार बाँट डाले। वह पूरे मन से लंका जाने की तैयारी करने लगी । वह बड़े उत्साह से आई थी लंका, किन्तु लंका में आकर उसका मन खिन्न हो गया था। ऐसा नहीं कि किसी ने उसका अपमान करने की चेष्टा की हो... सब उससे वैसे ही मिले थे जैसे पूर्व में मिलते थे, किन्तु उसका मन उदास था। वह चाहती थी कि सबसे हँसकर बोले, ठिठोली करे, किन्तु जैसे ही कोई बोलता था, उसका मन करता था उसका मुँह तोड़ दे। सबको प्रसन्न देखकर उसे चिढ़ सी होने लगती थी।

जब उत्सव में चलने के लिये मन्दोदरी उसे बुलाने आयी, तो उसके साथ चित्रांगदा भी थीं। उसे देखते ही चन्द्रनखा सुलग उठी। बड़े प्रयास से उसने स्वयं को संयत किया। उसका मन किया कि तुलना भी नहीं कर सकी। सारे उत्सव में रावण की जय-जयकार सुनकर वह कुढ़ती रही। उसकी स्थिति देखकर मन्दोदरी भी व्यथित हो उठी थी। उसने निश्चय किया कि शीघ्र ही किसी दिन एकान्त में वह अवश्य रावण से इस विषय में वार्ता करेगी। इसे टालना अनर्थकारी हो सकता है। 

***

उत्सव तक रावण स्वयं इतना व्यस्त था कि वह चन्द्रनखा से भेंट ही नहीं कर पाया। मान से भरी चन्द्रनखा भी उससे मिलने नहीं पहुँची । उत्सव के उपरांत सब एकत्र थे। चन्द्रनखा भी थी। उसे देखते ही रावण उसके पास पहुँचा और स्नेह से उसे छाती से लगा लिया, और उसके बाल सहला सहलाने लगा। चन्द्र भी पिघल गयी। वह भी कसकर भाई से चिपट गयी, जैसे बचपन में किया करती थी।

 “प्रसन्न तो हैं दण्डकारण्य की महारानी ?"

चन्द्रनखा उखड़ गयी

“क्या है प्रसन्नता के लिये वहाँ ? स्वयं तो यहाँ, ऐसे स्वर्ण प्रासाद में सम्पूर्ण वैभवों के मध्य निवास कर रहे हैं, और मुझे वहाँ निर्जन वन में डाल दिया है जहाँ कोई व्यवस्था ही नहीं है । " 

उसके इस व्यवहार से सब चौंक गये। रावण भी एक क्षण को समझ नहीं पाया। फिर उसने चन्द्रनखा का चिबुक पकड़कर उसका सिर उठाया और उसकी आँखों में झाँकता हुआ बोला

“अरे, तो क्रोध क्यों करती है? अभी हुई जाती है समस्त व्यवस्था, तुझे तो ज्ञात ही है कि तुझे दण्डकारण्य सौंपने के उपरांत तेरे भाई को अवकाश ही नहीं मिला।"

 इसके साथ ही वह प्रहस्त से सम्बोधित हुआ- 

"मातुल ! आप स्वयं अपनी देख-रेख में दण्डकारण्य में चन्द्र के लिये समस्त वैभवों की व्यवस्था करवाइये ।”

रावण की आँखों के सम्मोहन में फँसी चन्द्रनखा प्रसन्न हो गयी । रात्रि में मन्दोदरी ने भी रावण से इस विषय में बात की। 

“महारानी, उसे क्रोध करने का अधिकार हैं, रावण उसका अपराधी है।”

“वह मैं समझती हूँ महाराज, किन्तु उसकी इस अवस्था का उपचार आवश्यक है; उसकी ऐसी विक्षिप्तता स्वयं उसके लिये अहितकर है। अब आप अभियानों से निवृत्ति पा चुके हैं, अब सर्वप्रथम चन्द्र के उपचार पर ही ध्यान दीजिये ।”

“वह तो रावण करेगा ही, किन्तु कैसे? यही विचार कर रहा है। उसके अन्तर्मन की गहराइयों में अपने पति के हत्यारे के प्रति घृणा बस गयी है। वह अपने भाई से अत्यंत प्रेम करती है, किन्तु इस समय यह घृणा उसकी चेतना को आवृत्त किये हैं। यह घृणा उसकी मूल प्रवृत्ति बन गयी है, और सम्मोहन से किसी व्यक्ति की मूल प्रवृत्ति को परिवर्तित नहीं किया जा सकता। समय और हमारा स्नेह ही उसका उपचार करेगा। फिर भी रावण अपने प्रयासों में कोई न्यूनता नहीं आने देगा” 

“जैसा आप उचित समझें !”

रावण कुछ देर उसके चेहरे पर दृष्टि टिकाये मुस्कुराता रहा, फिर उसे आलिंगन में लेता हुआ बोला

“रावण अपराधी तो आपका भी है।”

मंदोदरी सब कुछ बिसारकर उसके अंक में सिमट गयी। थोड़ी देर वह सब कुछ भूली रही । सघन मेघों से आच्छादित धरती अपनी प्यास बुझाती रही।... पर तभी जैसे अकस्मात उसे कुछ स्मरण हुआ, वह बोली

“महाराज ! चित्रांगदा भी उद्विग्न है। मन्दोदरी का तो यही परिवार है, यहाँ सभी उसके आत्मीय स्वजन हैं, किन्तु उसके स्वजन अभी मात्र आप ही हैं, उसे भी आपके प्रेम की आवश्यकता है, अन्यथा वह स्वयं को उपेक्षित अनुभव करने लगेगी । " 

“आप अपने मन से अपना पति किसी अन्य स्त्री को सौंप रही हैं?" रावण ने विस्मित होते हुए कहा

“नहीं, मैं एक नई विपत्ति को टालने का प्रयास कर रही हूँ, मेरे पति का मन तो मात्र मेरा ही हैं, उसे मुझसे कोई नहीं बाँट सकता।"

 वह एक बार फिर रावण के सीने से लग गयी, पर तुरंत ही हटती हुई बोली

“जाइये, इस समय चित्रांगदा को आपकी अधिक आवश्यकता है; विलम्ब मत कीजिये, अन्यथा बहुत विलम्ब हो जायेगा|" 

किन्तु विलम्ब तो हो गया था।

सुलभ अग्निहोत्री 



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