"भ्राता ! आज शत्रुघ्न को मैंने बहुत पीछे छोड़ दिया।"
लक्ष्मण ने राम के निकट पहुँचकर घोड़े की रास खींचते हुए उत्साह से सूचना दी।
“लक्ष्मण ! तुम दोनों की प्रतिद्धन्द्धिता आखिर कब समाप्त होगी?”
उनके पीछे-पीछे ही आ रहे भरत ने हँसते हुए कहा-
“अब बालक नहीं रहे तुम दोनों, बड़े हो गये हो, कुछ तो गम्भीरता लाओ अपने व्यवहार में।"
“भ्राता ! गम्भीरता तो सारी प्रभु ने आप दोनों को ही दे डाली, हमारे लिये तो बची ही नहीं है।"
लक्ष्मण ने पूरा खुलकर ठहाका मार कर घोड़े से उतरते हुए कहा|
"हाँ! गम्भीर रहना राजाओं की विवशता है, हमें क्या?"
अब तक शुत्रुघ्न भी निकट आ गया था। उसने लक्ष्मण के कथन को आगे बढ़ाते हुए कहा। लक्ष्मण का प्रथम कथन वह संभवत: सुन नहीं पाया था| यदि सुन लिया होता तो बात का रुख लड़ाई की तरफ मुड़ गया होता। दोनों के ठहाके आसमान में तैरने लगे।
राम और भरत ने उनके ठहाकों का उत्तर मन्द मुस्कान से दिया ।
राम की कमर में मात्र अधोवस्त्र था। उत्तरीय एक ओर रखा था। शरीर पसीने से लथपथ था। उनके सामने चिरी हुई लकड़ियों का ढेर लगा था। एक बड़ा लड़ा और रह गया था चीरने को। लक्ष्मण की बात सुनने के लिये वे कुल्हाड़ी जमीन में टिकाकर खड़े हो गये थे। अब उन्होंने फिर कुल्हाड़ी उठा ली| लक्ष्मण ने आगे बढ़ते हुए उनके हाथ से कुल्हाड़ी लेने का प्रयास करते हुए कहा
“लाइये मुझे दीजिये, आप बहुत कर चुके। "
“नहीं, गुरुदेव ने यह कार्य मुझे सौंपा है। यह मुझे ही करना है।” राम ने दाहिने हाथ में कुल्हाड़ी थामकर बायें हाथ से लक्ष्मण के बढ़े हुए हाथ को रोकते हुए कहा।
“अरे दीजिये भी!"
“नहीं लक्ष्मण! मैं अपनी देह की सुविधा के लिये गुरु की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकता । "
“रहने दो लक्ष्मण! क्या तुम्हें ज्ञात नहीं कि राम भइया गुरु, ब्राह्मणों और गुरुजनों की आज्ञा का यथावत पालन करते हैं, उसमें कोई तर्क स्वीकार नहीं करते।"
भरत ने हँसते हुए कहा।
“अच्छा भ्राता!”
शत्रुघ्न कुछ गणित लगाते हुए भरत से संबोधित हुए-
“अगले कुछ दिनों में हम लोगों का गुरुकुल जीवन समाप्त हो जायेगा।"
"हाँ, वह तो हैं।"
"सच में आनन्द आ जायेगा, यहाँ तो वर्जनायें ही वर्जनायें हैं।"
"वर्जनाओं की समस्या थोड़े ही हैं तुम्हें, यहाँ परिश्रम करना पड़ता हैं, और तुम ठहरे कामचोर ! देखो भ्राता राम कितनी तन्मयता से अपना काम कर रहे हैं।"
लक्ष्मण ने शत्रुघ्न की टाँग खींचने का अवसर नहीं छोड़ा।
“कामचोर होंगे आप! कौन सा काम कम करता हूँ आपसे?” शत्रुघ्न तिनक कर बोल पड़ा ।
“तुम करते थोड़े हो, गुरुदेव करवा लेते हैं तुमसे काम। तुम्हारा वश चले तो घोड़े की पीठ से नीचे ही नहीं उतरो; राम भ्राता से सीख तो कुछ "
"अब उनकी बात मत करो, वे तो साक्षात मर्यादा का मूर्तिमन्त स्वरूप हैं, उनकी समता हम-तुम नहीं कर सकते। "
“चलो इस बात में मैं तुमसे सहमत हो जाता हूँ, भ्राता की कोई समता नहीं हो सकती।”
“मैं भी सहमत हूँ।”
इनकी लड़ाई का चुपचाप आनंद ले रहे भरत ने भी अपनी सहमति प्रकट की।राम, बाकी तीनों भाइयों की बातों से निर्लिप्त पूरे मनोयोग से अपना कार्य कर रहे थे। उन्होंने यह जानने की भी कोशिश नहीं की कि उनकी प्रशंसा हो रही हैं या खिंचाई। तभी दूर से आते गुरुदेव के दर्शन हुए। सब शान्त हो गये और गुरुदेव के निकट आने की प्रतीक्षा करने लगे।
गुरुदेव के आते-आते राम ने अपना कार्य सम्पूर्ण कर लिया था। चारों भाइयों ने झुक कर गुरुदेव की चरणधूलि ली।
गुरुदेव सबको आशीर्वाद देते हुए राम से बोले
“वाह! तुमने तो कार्य सम्पूर्ण कर लिया, मुझे आशा नहीं थी कि अभी हुआ होगा। चलो अब तुम विश्राम कर लो, ये तीनों इन लकड़ियों को यथास्थान रख देंगे; क्यों भरत?"
“जी गुरुदेव! अवश्य।"
लक्ष्मण ने कनखियों से शत्रुघ्न की ओर देखा, जो आख-भौंह सिकोड़ रहा था। यदि गुरुदेव सामने नहीं खड़े होते तो उसके लिये यह अच्छा अवसर था शत्रुघ्न की खिंचाई करने का। भरत और शत्रुघ्न ने लकड़ियाँ उठाना आरम्भ कर दिया। राम भी उठाने के लिये झुके तो गुरुदेव ने रोक दिया
“तुम मेरे साथ चलो, विश्राम करो थोड़ा "
जब वही दोनों अकेले रह गये तो गुरुदेव बोले
"आओ, उधर आमों के झुरमुट में चलते हैं।”
दोनों टहलते हुए पर्याप्त दूर आमों के झुरमुट में निकल आये तो वशिष्ठ ने बात आरंभ की
“अब समय आ गया हैं राम तुम्हें बताने का"
उन्होंने कुछ रुककर राम के चेहरे की ओर देखा । राम, शान्त भाव से सिर झुकाये उनकी बात सुन रहे थे।
“तुम्हें ज्ञात ही होगा कि अब तुम लोगों का गुरुकुल जीवन सम्पूर्ण होने को हैं; तुम चारों को जितना कुछ मैं सिखा सकता था, उसमें पारंगत हो चुके हो।"
गुरुदेव ने राम के बोलने की प्रतीक्षा की किन्तु जब वे नहीं बोले तो गुरुदेव ने प्रश्न किया
“अपने भावी जीवन के विषय में कुछ परिकल्पना की है तुमने?"
“बस इतना ही चाहता हूँ गुरुदेव कि मेरा जीवन प्राणिमात्र के हित के लिये समर्पित रहे, मुझसे अनजाने भी किसी का अहित न हो।"
"वह तो तुमसे संभव ही नहीं है; राज्य व्यवस्था के विषय में कुछ सोचते हो? तुम ही तो अयोध्या के भावी सम्राट हो ।”
“यह तो पिताजी का विषय हैं, मुझे तो जो भी कार्य भार वे सौंप देंगे उसी का पूरे समर्पण के साथ निर्वाह करूँगा और सम्राट बनने के विषय में अभी से सोचना बहुत शीघ्रता होगी, अभी तो सुदीर्घकाल तक पिताजी की छत्रछाया हमारे सिर पर रहने वाली है। "
वशिष्ठ मुस्कुराये। राम के उत्तर जैसा वे सोच रहे थे वैसे ही थे। राम के व्यक्तित्व का उनका आकलन सर्वथा सही था। यह आगत काल में स्वयं को धरती का सबसे पराक्रमी व्यक्ति सिद्ध करके रहेगा।
“गुरुदेव! आप कुछ और भी कह रहे थे, अनुमति दें तो पूछू।”
राम के शब्दों ने उन्हें विचारों की वीथियों से बाहर खींचा
"निःशंक पूछे वत्स!"
“मुझे क्या बताने का समय आ गया है, अभी आप ऐसा ही कुछ कह रहे थे?"
""अरे हाँ, यही तो मैं तुम्हें बताने यहाँ लाया था, किन्तु ध्यान दूसरी ओर चला गया।"
फिर वे बोले
“देखा राम! यह सत्य तुम्हारे पिता को भी नहीं ज्ञात हैं, उन्हें ज्ञात होना भी नहीं चाहिये।”
“तो कृपया न बतायें गुरुदेव! यदि कभी पिताजी ने पूछ लिया तो मैं उनसे मिथ्याभाषण नहीं कर सकूँगा।"
“वे कभी नहीं पूछेंगे, इसकी चिंता तुम मत करो।"
“जैसी आज्ञा आपकी! आप बतायें, जो भी आप कहेंगे वह राम की जिव्हा से दुबारा उच्चारित नहीं होगा|"
“देखो! तुम कोई साधारण राजकुमार नहीं हो, तुम्हारा और लक्ष्मण का चयन देवों और ऋषियों ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य के लिये किया है, तुम्हें राज्य का भार सँभालने से पूर्व वह कार्य सम्पादित करना होगा।"
“यह तो अकिंचन राम का सौभाग्य है कि उसे देवों और ऋषियों ने महत्त्वपूर्ण समझा। सत्य तो यह हैं कि यह सब मात्र आपका ही प्रताप हैं; राम तो मात्र मिट्टी था, उसे गढ़ा तो आपने ही हैं... किन्तु वह कार्य क्या है गुरुदेव ?"
“तुम जानते ही हो वत्स कि आज लंकेश्वर के आतंक से समस्त त्रिलोक भयभीत हैं, उसके आतंक से विश्व को तुम्हें ही त्राण दिलाना हैं।"
"गुरुदेव एक शंका है !"
“कहो।"
वशिष्ठ को इस शंका की पूर्व ही सम्भावना थी।
“गुरुदेव! जहाँ तक मुझे ज्ञान हैं, लंकेश्वर ब्राह्मण हैं, पूज्य कुल से हैं। विद्वान हैं, पराक्रमी हैं,प्रजापालक हैं; देवेन्द्र से तो चरित्र में भी वह अत्यंत श्रेष्ठ है। फिर भी आप उसके आतंक की बात कर रहे हैं? देव अपनी पराजय से खिन्न हो सकते हैं, किन्तु अब त्रिलोक विजय के उपरांत तो रावण शांत है।"
“मुझे तुमसे इसी प्रश्न की अपेक्षा थी। यहाँ प्रश्न किसी व्यक्ति का नहीं है, यहाँ प्रश्न संस्कृति का हैं। निस्संदेह रावण, इन्द्र से सभी प्रकार श्रेष्ठ है, किन्तु वह आर्य संस्कृति को नष्ट कर रहा हैं। वह अपनी, अपितु कहना चाहिये अपने मातामह की रक्ष-संस्कृति का प्रसार कर रहा है; यदि वह जीवित रहा तो एक दिन आर्यावर्त से ही आर्य संस्कृति का मूलोच्छेद हो जायेगा "
राम कुछ पल सोचते रहे। उन्हें स्वप्न में भी यह आशा नहीं थी कि उनके सम्मुख ऐसी परिस्थिति भी उत्पन्न हो सकती है। गुरुदेव, मौन उन्हें निहारते रहे, उनके बोलने की प्रतीक्षा करते रहे। अंततः राम बोले
“किन्तु गुरुदेव ब्रह्महत्या ? ब्राह्मण तो अवध्य हैं, फिर रक्षेन्द्र जैसा श्रेष्ठ ब्राह्मण... वृत्रासुर के वध के पश्चात स्वयं देवेन्द्र को भी ब्रह्महत्या का पातक झेलना पड़ा था, फिर मैं तो एक साधारण मनुष्य मात्र हूँ, मैं शास्त्र विरुद्ध आचरण कैसे कर सकता हूँ? और करके फिर उसके पातक से कैसे बच सकता हूँ?"
“वह ब्राह्मण तो तभी तक था, जब तक वह आर्य संस्कृति का अनुयायी था। ये चार वर्ण तो आर्य संस्कृति के ही उपादान हैं। जब रावण ने अपनी नयी संस्कृति का सूत्रपात कर दिया, जिसमें वर्ण-व्यवस्था है ही नहीं, तब उसके ब्राह्मण या अब्राह्मण होने का प्रश्न अपने आप असंगत हो गया। वह अपने आप अपने ब्राह्मणत्व से च्युत हो गया, अब तो वह मात्र रक्ष हैं।"
राम फिर मौन रहे। उनके मस्तिष्क में झंझावात चल रहा था। गुरुदेव के तर्क से वे सहमत नहीं हो पा रहे थे, किन्तु गुरुदेव का विरोध करना भी उनके चरित्र में नहीं था। यही उनके चरित्र की मर्यादा थी| गुरुदेव भी समझते थे कि राम के मस्तिष्क में इस समय क्या चल रहा होगा। उन्होंने भी कोई बाधा नहीं दी। अंततः तो राम को सहमत होना ही था। वह गुरुजनों की आज्ञा को नकार ही नहीं सकता। कुछ समय दोनों वहीं टहलते रहे, फिर अंततः राम बोले
"गुरुदेव! सम्राट तो पिताजी हैं; कटक भी उन्हीं के अधीन है; वे क्या इस युद्ध के लिये प्रस्तुत होंगे? मुझे तो प्रतीत होता है नहीं होंगे।"
“यह युद्ध दशरथ को नहीं, राम को करना है; लक्ष्मण ही सहयोगी होगा तुम्हारा | सम्राट दशरथ क्या, किसी भी आर्य सम्राट और उनकी सेना की इस अभियान में कोई भूमिका नहीं होगी।"
"यह कैसे संभव हैं गुरुदेव ?”
राम आश्चर्य से बोल पड़े-
"त्रैलोक्य विजयी लंकेश्वर के सामने राम और लक्ष्मण तो भंगुरवत हैं, वह फूँक मार कर उड़ा देगा हमें "
"ऐसा नहीं होगा राम ! तुम अपना सही मूल्यांकन नहीं कर रहे हो, यह कार्य तुम्हारे ही हाथों सम्पादित होना है, यही विधि का विधान हैं।"
“गुरुदेव मैं अपना अनुचित मूल्यांकन नहीं कर रहा, किन्तु लंकेश्वर का भी तो उचित मूल्यांकन करना ही होगा!"
वशिष्ठ हल्के से हँसे। राम, धीरे-धीरे अभियान के लिये स्वयं को तैयार कर रहा था। फिर बोले
“इस अभियान पर कल ही नहीं निकलना है तुम्हें, अभी तुम्हें इसके लिये बहुत तैयारी करनी है, तुम्हें और लक्ष्मण दोनों को। देवगण और ऋषिगण अत्यंत दीर्घकाल से, तुम्हारे जन्म के भी पहले से, इस हेतु कार्यरत हैं; तुम्हारा चयन तो इस कार्य के लिये हम सबने ही नहीं नियति ने भी, तुम्हारे जन्म से भी पूर्व ही कर लिया था, मात्र लक्ष्मण को तुम्हारे सहयोगी के रूप में मैंने बाद में जोड़ा हैं। "
“यह क्या कह रहे हैं गुरुदेव, देवगण व ऋषिगण इस प्रयोजन को मूर्त रूप देने के लिये....?"
“वह सब तुम्हें समय-समय पर ज्ञात होता रहेगा, बस इतना समझ लो कि अब मेरा दायित्व पूर्ण हो गया है। "
“पर अभी तो आप कह रहे थे कि मुझे अभी बहुत तैयारी करनी है।”
“मैं जितना कुछ दे सकता था, वह मैंने तुम्हें प्रदान कर दिया है, और मुझे प्रसन्नता है कि तुमने भी सब कुछ सम्पूर्ण मनोयाग से ग्रहण किया है; शेष दायित्व अब ब्रह्मर्षि विश्वामित्र का है। वे तुम दोनों को अपने साथ ले जाने हेतु सिद्धाश्रम से प्रस्थान कर चुके हैं।"
"ओह! धन्य हो जायेगा राम यह सौभाग्य पाकर "
“अभी तुम कुछ काल के लिये उनके साथ जाओगे; अभी उनके साथ तुम... जैसे प्रायोगिक शिक्षा के लिये आखेट पर जाते हो उसी प्रकार कुछ राक्षसों के आखेट के लिये जाओगे। तत्पश्चात तुम्हारा मुख्य अभियान कब और किस भाँति आरंभ होगा यह तुम्हें समय आने पर ज्ञात होगा।"
"जी गुरुदेव!"
“पुनः स्मरण करा दूँ कि तुम्हारे वनगमन का वास्तविक प्रयोजन पूर्णतः गुप्त ही रहना चाहिये; किसी भी अतिरिक्त व्यक्ति को इसकी भनक तक नहीं लगनी चाहिये।"
“पिताजी को भी नहीं ?"
" उन्हें तो कदापि नहीं, अन्यथा वे किसी भी स्थिति में इसके लिये स्वीकृति नहीं देंगे ।”
“जैसी आज्ञा गुरुदेव!"
"याद रखो, तुम्हें सम्पूर्ण भारत भूमि पर सप्तम विष्णु के रूप में प्रतिष्ठित होना है।"
राम ने झटके से अपना सिर ऊपर उठाया परंतु बोले कुछ नहीं। वशिष्ठ ने भी इसे लक्ष्य किया, पर बोले वे भी कुछ नहीं, बस धीरे से मुस्कुरा दिये।
सुलभ अग्निहोत्री
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