बुधवार, 6 जुलाई 2022

मन्थरा का कूट तर्क

 देखते ही देखते यह समाचार अयोध्या में व्याप गया। नगर जन हर्षोन्मत्त हो गए। अयोध्या मे मंगल वाद्य बजने लगे । राज मार्ग सज गए । नगर भवनों पर वदनवार - कलश- पताकाएं सुशोभित हो गईं, पुष्पमालाओं-तोरणों से समस्त गृह सम्पन्न हो गए । मंगल-गान, वेणुवाद्य, शंख आदि बजने लगे । राज मार्ग दर्शकों से भर गया। वीरांगनाएँ नृत्य करने लगीं। विविध होम - पूजा और बाल- अनुष्ठान होने लगे । सुरभित-सुगन्धित पदार्थों की गन्ध से दिशाएँ महक उठीं। हर मुंह मे राम के राज्याभिषेक की चर्चा थी । नगर-नागर राम की धीरता वीरता धर्म भीरुता, उत्साह, उदारता, सहृदयता, पितृभक्ति, विद्या-निपुणता आदि की चर्चा करने लगे ।

भोर मे राज्याभिषेक की तैयारी और उत्सव की शोभा को कैकैयी के सतखण्डे हरम की छत से दासी मन्थरा ने देखा । उसने देखा—पुरवासी आनन्द-कोलाहल कर रहे है। द्वार-द्वार पर ध्वजा पताकाएँ, पुष्प-मालाएँ सुशोभित है, दर्शकों की भीड़ और चहल पहल राजद्वार तक बढ़ गई है। राजद्वार पर विविध वाद्य बज रहे है । उसने नीचे आ राम की धाय से, जो पीले वस्त्रों से सुशोभित थी, पूछा-

 "अरी, आज अयोध्या में यह कैसा उत्सव है ? बड़ी रानी कौशल्या आज क्यों अन्न, वस्त्र, स्वर्ण, रत्न लुटा रही हैं। राजद्वार पर यह भीड़-भाड कैसा है ?"

 तब राम की घाय ने बताया -

" अरी मूर्खे, तू इतना भी नहीं जानती ? सुना नहीं ? तूने, आज राम का राज्याभिषेक हो रहा है । "

दासी से यह सूचना सुन विकलांगी दासी मंथरा क्रोध से थर-थर कांपने लगी । वह कैकेयी की पित्रालय की पुरानी दासी थी । कैकेयी को उसने गोद खिलाया था, दूध पिलाया था । शुल्क की बात वह जानती थी । मानव जाति की स्त्री-स्वाधीनता से वह परिज्ञात थी । मानवों की कुल-मर्यादा, पुरुष प्रधानता, स्त्री- दासत्व, इन सब से उसे घृणा थी । वह बड़ी बुद्धिमती और तीखे स्वभाव की वृद्धा थी। रानी के मुंह लगी थी । वह दशरथ के विश्वासघात और वचन भंग को देख अग्नि के समान भभक गई । उसने मन मे कहा - भरत शत्रुघ्न को ननिहार भेज कर राजा ने यह अच्छी युक्ति निकाली है । वह अब अपने वचन को पूरा निवाहना नहीं चाहता। वह तीव्र गति से रानी कैकेयी के शयनागार में पहुॅची, रानी कैकेयी अभी सो ही रही । वहां जाकर उसने रानी से कहा -

 "अरी रानी, क्या आज तेरी निद्रा भंग न होगी ? क्या तू नहीं जानती कि तेरा भविष्य आज अन्ध कार मे डूब रहा है ? तेरे ऊपर घोर संकट आनेवाला है । तेरे पाप का उदय हुआ है । उसका फल तुझे शीघ्र ही मिलने वाला है । राजा मीठी-मीठी बाते बना जाता है, तुझे पुष्पहार, भूषण, रत्न मिल जाते हैं, तो तू समझती है- राजा तेरा ही है । पर मैं कहती हूँ अरी, अज्ञानी, तेरे साथ छल हो रहा है। कोरी प्रवंचना, धोखा, अरी रानी, तू धोखा खायगी ।”

मंथरा दासी की ऐसी कटु व्यंगोक्ति सुन कर रानी कैकेयी हँस दी । उसने हँसकर कहा -

 "अम्ब, आज क्या बात है, भोर ही में तू बक-भक कर रही है, किसने तुझे क्रुद्ध किया है, बोल । तेरा मुंह क्यों सूख रहा है, क्या कोई अमंगल हुआ है ?"

कैकेयी की ऐसी मीठी वाणी सुनकर उसने कहा- 

"अमंगल और कैसा होता है भला । आज राम को युवराज अभिषेक हो रहा , और तू बेखबर सो रही है । तू समझती है, राजा तुझे बहुत प्यार करता है, पर आज तो वह कौशल्या को राज्यलक्ष्मी प्रदान कर रहा है। अब समझी मैं, इसीलिए उसने भरत को ननिहाल भेज दिया था। सोच तो, यदि राम राजा बन गया तो तेरा क्या हाल होगा ? हाय, हाय, मैं तो इसी सोच में मरी जाती हूँ । पर तू भी तो कुछ अपना बुरा भला सोच, अपने पुत्र के हित के लिए अब भी सचेत हो - समय रहते सचेत हो ।”

धात्री के ये वचन सुन कर कैकेयी ने कहा – 

“अम्ब, राम को यौवराज्य मिल रहा है, तो तू दुख क्यों करती है ? इसमें दुःख और शोक की क्या बात है भला, मैं तो राम और भरत मे भेद नहीं समझती । राम और भरत मेरे दो नेत्र हैं। राम का राज्याभिषेक हो रहा है तो मै प्रसन्न हूं - यह तो शुभ समाचार है । ले, यह रत्नहार, ये सब आभूषण, मैं तुझे पुरस्कार में देती हूं।"

 यह कहकर उसने प्रसन्नता से अपने सब रत्नाभूषण उतार कर मंथरा पर फेक दिए । परन्तु कैकेयी के इस व्यवहार से मन्थरा और भी जलभुन गई । उसने वे गहने पटक दिए, और तमक कर बोली

 "अरी मूढ, तेरी यह कुबुद्धि मुझे तनिक भी नहीं सुहाती । तू दुःख स्थान पर सुख मना रही है, सौत का पुत्र राजा बने और तेरा पुत्र दास । इसकी तू खुशी मनाए, ऐसी तेरी बुद्धि है। अरी, यह राम-राज्य को सूचना नहीं है, हमलोगो की मृत्यु की सूचना है । आज राम राजा बनेगा और कौशल्या राजमाता बनेगी। तब तुम, दासी की भांति हाथ बांध उसके सम्मुख जाओगी । भरत राम का दास होगा। सीता रानी बनेगी और भरत की स्त्री माण्डवी उसकी दासी । यह सब तू अपनी आंखों से देख सकेगी ? तुझे छोड़ और कौन बुद्धिमती स्त्री ऐसे अवसर पर प्रसन्न हो सकती है ।"

वास्तव में कैकेयी राम को पुत्रवत् प्यार करती थी, उसके मन में तुच्छता का भान भी न था । वह अपनी शुल्क की बात भी भूल गई थी। राजा का प्यार तथा अयोध्या का वैभव उसे प्रिय था । उसने बूढ़ी धाय मन्थरा के ऐसे वचन सुन नर्मी से कहा

 “धातृमातः, तू स्नेह से ऐसा कहती है । परन्तु राम तो सर्वथा यौवराज्य के योग्य है । वह धर्मात्मा है, उदार, सत्यवादी और प्रजापालक है। वह मुझे ही अपनी माता समझता है, फिर भला भरत और राम में अंतर क्या है ? राम को राज्य मिलना भरत ही को राज्य मिलने जैसा है।"

रानी के ये वचन सुनकर मन्थरा ने कहा – 

“ठीक ही है । अभी तू नहीं समझेगी। पर जब राम का पुत्र गद्दी का अधिकारी होगा और भरत और उसके पुत्रों को कोई स्थान न मिलेगा तब सब कुछ तेरी समझ में आ जायगा । अभी तो तुझे मेरी बातें बुरी लग रही हैं, और सौत की उन्नति देखकर तू मुझे पुरस्कार दे रही है, पर यह भी तो तू सोच, कि भरत को क्यो मामा के यहां भेज दिया गया। देश-देश के राजाओं को तो न्योता गया - पर तेरे पिता, भाई और पुत्रों को नहीं बुलाया गया। पर जब यह सब अपने और अपने पुत्र के सर्वनाश का षड़यन्त्र देख कर भी तेरी आंखें नहीं खुलतीं तो मुझे क्या ? जब राम राजा हो जायगा और तू भरत को ले एक कोने मे दासी की भांति पड़ी रहेगी अथवा जब सौत कौशल्या के सम्मुख तुझे हाथ बांध कर खड़ा होना पड़ेगा, तब तुझे पता लगेगा कि मैंने तेरे हित की ही बात कही थी । " 

मन्थरा के इस विष-वमन से कैकेयी का मन पलट गया । धीरे-धीरे उसे उसकी सभी बातें ठीक प्रतीत होने लगीं। उसने धीरे कहा -"तो अम्ब, तू क्या कहती है, कि भरत का हित किस बात में है । मैं क्या करूं ?”

"बस, राम वन को जाय और भरत सिंहासन पर बैठे, यही तू कर । इसी में तेरा और भरत का तथा उसकी संतान का हित है।अरी, इन आर्यों के परिवारो में माताओं की क्या मर्यादा है | ये तो पितृ मूलक परिवार हैं। राम के राजा होते ही तेरा और तेरे पुत्र भरत के वंश का तो कहीं पता ही नहीं लगेगा। क्या इसी लिए तेरे पिता ने इस बूढ़े कामुक राजा को दो सौतों पर तुझे दिया था ? क्या तेरे प्रतापी पिता की कुछ मर्यादा ही नहीं है ? क्या तू नहीं जानती कि समूचा ही पच्छिमी उत्तरी पंजाब और सुदूर पूर्व प्रदेशो में तेरे पिता और उनके सम्बधियो के राज्य फैले है ? आर्यावर्त का यह कंटक ही तेरे पिता के सार्वभौम होने मे बाकी है । ज्यो ही कौशल की मुख्य गद्दी पर तेरा पुत्र बैठेगा तो आर्यावर्त मे फिर तेरे ही पिता के और पुत्र के वंश का डंका बजेगा । तेरे पुत्र का कुल कितना समृद्ध और लोकविश्रुत होगा, यह तो तनिक विचार ।”

"तो अम्ब, अब तू ही उपाय कर । जिसमें मेरे पुत्र भरत को कौशल का राज्य मिले और राम बन जाय । बता, अब कैसे हम सफल- मनोरथ होंगे ।"

मन्थरा ने कहा – 

“इसमें क्या है । राजा ने यही वचन देकर तुझे व्याहा था कि तेरा ही पुत्र राज्य का उत्तराधिकारी होगा। सो राजा को यदि अपने वचन की चिन्ता नहीं है, तो युधाजित् तेरा भाई आनव - नरेश खड्गहस्त है। इन मानवों को हम समझ लेंगे । किसकी सामर्थ्य है जो तेरे वीर भाई से लोहा ले सके। फिर अभी तो राजा का वचन और तेरा प्यार है। सो तू वस्त्राभरण अलंकार त्याग, कोप भवन में जा, मौन हो भूमि में पड़ी रह । इस बूढ़े कामुक राजा की क्या मजाल जो वह तेरे कोप को सहन करे । फिर तू खुल्लम खल्ला उसके वचन भंग का भण्डाफोड़ कर दे । राजा अपने को सत्यप्रतिज्ञ समझता है । वचन भंग का लांच्छन सहन नहीं करेगा । यदि करेगा तो उसके सिर पर युधाजिद का खड्ग है ही । दशरथ की प्रतिज्ञा और तेरी विवाह-शुल्क की बात जब लोग जान जाएंगे तो किसी का भी साहस तेरे विरोध करने का न होगा । राजा तेरी बहुत लल्लोपत्तो करेगा, तुझे रत्नाभरण देगा, तू सभी को ठुकरा देना । बस, यही मांगना - भरत को राज्य और राम को वनवास । भरत के राज्य करने पर प्रजा भरत से प्रेम कर उठेगी और सब को भूल जायगी । भरत निश्चल होकर राज्य करेंगे, और तू भविष्य मे कौशल राज्यमाता कह कर पूजित होगी । तेरी सौतें और उनके पुत्र तेरे सेवक होगे, फिर उन पर तू चाहे जितना अनुग्रह करना । " 

"ठीक है धातृमातः, अब मैं तेरी ही बात मान दूंगी - कह, मै क्या करूं ?”

"बस, बिलम्ब न कर | जैसे मैने कहा - वही कर । पर सचेत - रह, मतलब से मतलब रख । राजा की बातो मे न भूल ।

आचार्य चतुरसेन शास्त्री





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