बुधवार, 6 जुलाई 2022

दण्डकारण्य

 रणशास्त्र और नीतिशास्त्र का महापण्डित रावण जब दण्डकारण्य और नैमिषारण्य में अपने सबल सैनिक सन्निवेश स्थापित कर चुका और समूचे भरतखण्ड और आर्यावर्त एवं देवभूमि में अपने राक्षसो के जाल फैला चुका, तो वह अपने नाना सुमाली को लंका का प्रबन्ध सौंप एकाकी ही अपना परशु हाथ मे ले चुपचाप छद्म वेश धारण कर भरतखण्ड मे प्रविष्ट हुआ ।

प्रथम उसने दण्डकारण्य मे घूमना आरम्भ किया । इस महाबन का नाम महाकान्तार भी था । यह अति दुर्गम बन था । इसका प्राकृत सौंदर्य भी अपूर्व था । बन में बड़े-बड़े पर्वत शृंग, झरने, झील और नदी-नाले थे । दक्षिणारण्य मे अभी तक दण्डकारण्य ही ऐसा स्थान था, जहां बहुत बिरल बस्ती थी, तथा जहां राक्षसों का प्राबल्य था । यहीं, रावण की बहिन सूर्पनखा - खर दूषण तथा चौदह सहस्र राक्षस सुभटों के साथ रहती थी । इसके अतिरिक्त यहां कुछ और भी विकट राक्षस थे। जिनमे एक प्रबल पराक्रम तुम्बुरु गन्धर्व था, जिसे कुबेर ने क्रुद्ध होकर लंका से निकाल दिया था और अब वह यहां दण्डकारण्य में विराध नाम धारण कर विकट राक्षस की भांति रहता था । यह बड़ा ही धूर्त, नरभक्षी और साहसी तथा दुराचारी राक्षस था । रावण और सूर्पनखा की सह मे वह निर्भय विचरण करता हुआ, ऋषियों को तंग करता तथा अवसर पाकर उन्हें मार भी डालता था । ऐसे ही और भी अनेक राक्षस थे। इनके अतिरिक्त इस बन में बाघ, सिंह, शूकर, भैंसा, गेंडा आदि हिंस जन्तुओं की भी कमी न थी । फिर भी यहां कुछ ऋषिगण अपने आर्य-उपनिवेश स्थापित किए हुए थे, जिनमें प्रमुख शरभंग और सुतीक्ष्ण ऋषि थे । सुतीक्ष्ण ऋषि का उपनिवेश मन्दाकिनी नदी तट पर एक मनोरम स्थल पर था। यह उपनिवेश बहिष्कृत आर्यों का सबसे बड़ा आश्रय स्थल था । यह उपनिवेश अत्यन्त रमणीय था। यहां सुगन्धित पुष्पों और फलों के लताद्रुम बहुत थे। शीतल स्वच्छ जल के जलाशय थे । दण्डकारण्य के भीतर ही एक उपनिवेश माण्डकर्ण का भी था । माण्डकर्ण राजसी प्रकृति के ऋषि थे। अतः इनके उपनिवेश मे सुन्दरी अप्सराएँ नृत्यगान करतीं, और ऋषि उनके साथ स्वच्छन्द विहार करते थे । परन्तु इस दुर्गम मे सबसे अधिक महिमावान अगस्त का उपनिवेश था। महर्षि अगस्त बड़े प्रतापी ऋषि थे । अगस्त के आश्रम के पास ही उनके भाई का भी उपनिवेश था। वहां के सभी जन उनकी अगस्त के समान ही प्रतिष्ठा करते थे । यो तो ये सभी ऋषि राक्षसो से लड़ते-झगड़ते रहते थे, पर अगस्त ने वीरतापूर्वक अनेक राक्षसों का वध कर डाला था, जिनमे वातापि और इल्वल प्रमुख थे । इससे अगस्त का आतंक राक्षसो पर भी था ।


आजकल जहाँ नासिक है उसी के इधर-उधर पंचवटी के निकट हो अगस्त का उपनिवेश था। पंचवटी में ही विनता के पुत्र श्येनवशी गरुड़ के भाई अरुण के पुत्र जटायु का उपनिवेश था ज़ो गोदावरी के तट पर एक मनोरम स्थान पर भी था, यह स्थान प्राकृतिक सौन्दर्य से ओतप्रोत था । वहां अनेक पर्वतीय गुफाएँ थीं। इन गुफाओं में अनेक ताल, तमाल, खजूर, कटहल, श्रम, अशोक, तिलक, केवड़ा, चम्पा, चन्दन, कदम्ब, लकुच, धर्व, अश्वकर्ण, खैर, शमी, पलाश और वकुल के सघन बन थे । हंस, सारस और जल-कुकटों का वहां कलरव परिपूर्ण रहता था । रावण से भी अपनी बहिन सूर्पनखा के नेतृत्व मे दण्डकारण्य  मे एक उपनिवेश ही स्थापित किया था। यद्यपि वास्तव में वह था सैनिक सन्निवेश । ये राक्षस केवल अपनी संस्कृति का प्रचार बलात् करते और वहां के लोगो को राक्षस बनाने की चेष्टा करते थे । रावण की आज्ञा युद्ध करने को न थी । इसी कारण यद्यपि यहां खर-दूषण चौदह हजार राक्षसों के साथ रहते थे, परन्तु वह लोग लड़ते भिड़ते न थे । केवल ऋषियों के यज्ञों में आकर बलि मांस बलात् डालते, उन्हें पकड़ ले जाते, उनकी बलि देते तथा नरमांस खाते थे ।

रावण दण्डकारण्य की सुषमा पर मोहित हो गया । इस समय शरद ऋतु बीत गई थी और हेमन्त आ गई थी । परम रमणीय गोदावरी के निर्मल जल में रावण स्वच्छन्द विहार करता और वहां की स्वस्थ वायु मे स्फूर्ति लाभ करता था। इस समय वहां वन-उपवनों की शोभा भी निराली हो रही थी। सूर्य दक्षिणायन थे । यह काल हिमालय की ओर बढ़ने योग्य न था । वहां की वायु समशीतोष्ण थी । हेमन्त मे रात्रि अधिक अन्धकारयुक्त हो जाती है। रात्रि का समय भी दिन से बढ़ गया था। चन्द्रमा का सौभाग्य भगवान् भास्कर ने हरण कर लिया था। कोहरे तथा पाले के कारण पूर्णिमा की रात्रि भी मलिन- धूमिल सी प्रतीत होती थी । बन-प्रदेश की शस्य-श्यामला भूमि सूर्य के उदय होते ही सुहावनी प्रतीत होने लगती थी। इस समय सूर्य आकाश पर चढ़ जाने पर भी चन्द्रमा के समान प्रिय लगता था । मध्याह्न का सूर्य भी प्राणियों को प्रिय होता था। जल इतना शीतल हो गया था कि गजराज प्यास लगने पर जब अपनी सूंड जल में डुबाते थे; तब तुरन्त ही बाहर निकाल लेते थे । जल के पक्षी जल के समीप बैठे हुए भी उसमें चोंच डालने का साहस नहीं कर सकते थे । शीत के कारण बन में फल- मूल की कमी हो गई थी। नदियां कुहरे के कारण ढकी सी दीख पड़ती थीं। सरोवरों में कमल बन श्री हत हो गए।

रावण इन सब प्राकृत दृश्यो का आनन्द लेता तथा छद्म वेष में ऋषियों के उपनिवेशो में आता जाता, मतलब की बाते खोज - खबर लेता रहता था । इसी प्रकार उसने दण्डकारण्य में रहते हुए आर्यावर्त और भरतखण्ड के राज्यों का बहुत सा ज्ञान-सम्पादन कर लिया था ।

आचार्य चतुरसेन शास्त्री 




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