गुरुवार, 7 जुलाई 2022

प्रजनन-विज्ञान

 जीवन और शरीर एवं मनुष्य विश्व की सबसे बड़ी इकाई है। कोई देव उससे बड़ा नहीं। मनुष्य ही सबसे बड़ा देव हैं और उसे अपनी ही पूजा-अर्चना करनी चाहिए। उपनिषदों में इस तत्त्व की व्याख्या इस प्रकार की गई है-

देवराज इन्द्र और देवराज विरोचन दोनों ही प्रजापति के पास आत्म-जिज्ञासा के लिए गए और प्रजापति ने उन्हें ही गुह्योपदेश दिया। इन्द्र ने शंकाएं कीं, परन्तु विरोचन अशंक भाव से चला गया और उसने असुरजनों में आत्मपूजा का प्रसार किया। यही कारण है कि मिस्र के प्राचीन असुर राजाओं ने अपने मृत शरीरों को सजाकर बड़े-बड़े पिरामिडों में स्थापित किया, जिनका आश्चर्यजनक और रहस्यपूर्ण विवरण पुरातत्त्ववेत्ताओं ने भूगर्भ से प्राप्त किया है। आत्मपूजन का यह विचार वास्तव में मूल रूप में सबसे पहले रावण ने ही प्रसारित किया था और उसके आदि उद्गाता देवाधिदेव रुद्र थे।

दूसरा प्रश्न जो इसी आत्मपूजन से सम्बन्धित है और उपनिषद् में वर्णित है, ईश्वर या देवता के तत्त्व को स्वीकार न करके इस प्रजनन-विधान को यज्ञ कहा है। प्रजनन की घटना को जो इतना महत्त्व उस युग में दिया गया, यह एक अज्ञानमूलक जंगली प्रथा थी या विज्ञान का उच्च अंग था, इस सम्बन्ध में हम अपनी कोई राय प्रकट न कर केवल तथ्य पर ही प्रकाश डालते हैं।

प्रजनन-विज्ञान चराचर प्राणियों में नर-नारी के मिथुन-संयोग से उत्पन्न होता है। इसलिए प्राचीन काल से प्रजा की वृद्धि, मैथुनी सृष्टि के महत्त्व पर प्रमुख पुरुषों का ध्यान गया और उन्होंने इस घटना को अत्यन्त चमत्कारिक और आश्चर्यजनक पाया कि किस प्रकार नर-नारी के संयोग से गर्भ स्थापित होकर एक नवीन प्राणी का जन्म होता है। और स्वाभाविक रूप से उस काल से पुरुषों का ध्यान नर-नारी के गुह्य प्रजनन-इन्द्रियों के महत्त्व की ओर गया। उन्होंने प्रजनन-इन्द्रियों को विश्व के सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और शक्तिशाली तत्त्व के रूप में स्वीकार करके पूजित किया। कहा जाता है कि प्रजनन-विज्ञान को एक धार्मिक रूप देने का कार्य सबसे प्रथम रुद्र ने किया और उन्होंने एक हज़ार अध्याय के 'काम विज्ञान - शास्त्र' का निर्माण किया। उन्होंने जननांग को सब कारणों का कारक कहकर पूजित किया। जिसका परिणाम यह हुआ कि लिंग-पूजन की वृत्ति प्राचीन जातियों में स्थान पा गई। हम यहां पर थोड़ा और गहराई से वैज्ञानिक विश्लेषण करेंगे। जीवित प्राणी का यह अनिवार्य लक्षण है कि वह अपनी परिस्थिति में जितने रासायनिक उपादान पाये, सबको अपने जटिल सादृश्य में परिणत कर दे। यह परिणयन-पाचन करना और विसर्जन करना इन दो क्रियाओं के रूप में, अनवरत चलता रहा है। विसर्जन देर में और पाचन जल्दी होता है। परन्तु जिस तरह आयतन बढ़ता है, उसी तरह ऊपरी तल, जो आहार पहुंचाने का साधन है, अनुपात से नहीं बढ़ता। एक हद तक बढ़कर रुक जाता है। इसलिए वृद्धि अपरिमित नहीं होती। चींटी से हाथी तक व कीटाणु से किसी भी महाकाय जन्तु तक पहुंचकर व्यक्तित्व की अभिवृद्धि रुक जाती है। बाहरी तल और आयतन में शरीर के भीतर एक ऐसा अनिवार्य अनुपात है कि जिसके भंग होने से वृद्धि रुक जाती है और तब व्यक्तिगत ह्रास और वृद्धि का अनुपात समान हो जाता है। बड़े शरीरों वाले सभी जीवों को ऐसी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। परन्तु सूक्ष्म देहधारी जीव, जिन्हें सेल कहते हैं, उनके सामने यह कठिनाई नहीं आती। जहां उनकी बाढ़ रुकती है, वहां वे बीच से फटकर दो हो जाते हैं। इस तरह वहां आयतन नहीं बढ़ता। आयतन बढ़ने के बदले उनकी संख्या बढ़ जाती है। एक से दो, दो से चार, चार से आठ। इस प्रकार उनकी अनन्त संख्या हो जाती है। इस वृद्धि में ह्रास नहीं होता। प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण है और निरन्तर बढ़ने वाला है। इस प्रकार ये सेलों वाले सूक्ष्म जीवाणु 'एकोऽहं बहुस्याम्' के सिद्धान्त को चरितार्थ करते हैं और इसी में ‘पूर्णमदः पूर्णमिदम्' की घटना घटित होती है। परन्तु ज्यों-ज्यों शरीर में स्थूलता आती है, यह भेदज उत्पत्ति कठिन होते होते समाप्त हो जाती है। षट्पद या अष्टपद प्राणी इस तरह कट-कटकर नहीं बढ़ सकते। यहां प्रकृति अंकुरण से काम लेती है, जिसमें सारा शरीर ज्यों का त्यों रहता है। उसका केवल एक छोटा-सा अंश कटा-सा रहता है और धीरे-धीरे दूसरे शरीर का जब अच्छा-सा पूर्ण रूप तैयार हो जाता है, तब वह अंश अपने पैदा करने वाले बड़े शरीर से बिलकुल अलग हो जाता है और उसका व्यक्तित्व आगे बढ़ने लगता है। ऐसा अंकुरण मूंगों में और कुछ विशेष प्रकार के कीड़ों में और थोड़े-से रीढ़वाले क्षुद्र जन्तुओं में होता है। परन्तु अस्थि-पिंजर की जटिलता बढ़ने पर अंकुरण प्राणियों की बाढ़ भी रुक जाती है और यह वृद्धि छोटे-छोटे उत्पादों तक पहुंच पहुंचकर समाप्त हो जाती है।

इसके बाद ही जन्तुओं में मैथुन का आरम्भ होता है। मैथुन का अर्थ है जोड़ा। दो अकेली सेलें जुड़कर एक सेल बन जाती हैं। इनमें से एक सेल लिंग अथवा शुक्र होती है, दूसरी योनि अथवा डिम्ब । इस क्रिया के लिए दो व्यक्तियों के शरीर से एक-एक जनक और जननी सेलें निकलकर परस्पर मिलकर एक सेल बनती हैं। वही नए व्यक्ति का मूल रूप है। नई सेल भेदन- रीति से संख्या वृद्धि करती करती असंख्य सजातीय सेलें बनाकर नए स्थूल शरीर का ढांचा तैयार करती हैं। भेदन और अंकुरण वाली वृद्धि में नर-नारी का कोई भेद नहीं होता। परन्तु बड़े शरीर में, चाहे चल हो या अचल, यह भेद अनिवार्य हो जाता है कि नर का वीर्याणु हो और नारी का डिम्बाणु । वीर्याणु का रूप भी लिंगाकार होता है और डिम्ब की अनुरूपता योनि-पीठिका से मिलती-जुलती रहती है। चराचर प्राणियों में इस प्रकार वृद्धि की विधि में लिंग और योनि व्यापक हैं।उस अत्यन्त प्राचीन काल में इसी गुह्य वैज्ञानिक और दार्शनिक प्रजनन-आधार पर नर-नारी की गुह्रोन्द्रियों का पूजन प्रारम्भ हुआ, जिसका आरम्भ रुद्र से हुआ। इसलिए लिंगोपासना की विधि में संसार की सभी प्राचीन जातियों ने रुद्र या शिव को सम्मिलित किया और रुद्र के व्यक्तित्व को नृवंशों की समष्टि में आरोपित कर लिंग पूजन को शिवलिंगार्चना का रूप दिया। लिंग का धार्मिक अर्थ किया गया 'लयनाल्लिङ्गमुच्यते', अर्थात् लय या प्रलय होता है, इससे उसे लिंग कहा गया है।

कुछ अल्पायु वाले छोटे-छोटे शरीरों में मैथुनी वृद्धि में कुछ कठिनाई होती है। एक नन्ही-सी जननी एक बार में थोड़े ही से डिम्ब उपजाती है। यदि जनकों की आवश्यकता न पड़े तो दूनी शक्ति वृद्धि में लग जाती है। इसलिए, जहां विभाजन या अंकुरण के लिए शरीर अधिक जटिल है और मैथुनी विधि के सुभीते नहीं हैं, वहां 'प्रथा - जनन' की विधि काम आती है। इसमें शुक्र या लिंग-जीवाणु के बिना ही काम चल जाता है। ये डिम्ब ज्यों ही प्रौढ़ता को पहुंचते हैं त्यों ही शरीर की रचना होने लगती है। मधुमक्खी का नर इसी प्रथा जनन विधि से उत्पन्न होता है। उसके माता-पिता नहीं हैं परन्तु रानी मक्खी वीर्यरहित अण्डों से ही पैदा होती है। इस प्रकार जननक्रिया के हिसाब से चार प्रकार के प्राणी संसार में हैं- भेदज, अंकुरज, मैथुनज और अनादितः अण्डज । अब विश्वसृष्टि के नियमन में मैथुनी क्रिया प्रकृति में अपने आप उपजी या किसी ईश्वर या प्रकृति का इसमें हाथ है, यह विचारणीय है। रुद्र और रावण ने किसी दैवी कर्ता को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने मनुष्य को ही अपनी सृष्टि का कर्ता-धर्त्ता माना और अपने को ही ईश्वर कहा। लाखों-करोड़ों वर्षों में विकसित होकर अयोनिज से योनिज सृष्टि हुई है। मनुष्य वृद्धि की यह कल्पना है कि उसने जगत् की प्रवृत्ति काम-वासना की ओर देखकर, समस्त प्राणियों को काममोहित पाकर लिंग-योनि की उपासना की नींव डाली।

ईसाई धर्म के प्रचार से पूर्व पाश्चात्य देशों की प्रायः सभी जातियों में किसी न किसी रूप में लिंग-पूजा की प्रथा प्रचलित थी। रोम और यूनान दोनों देशों में क्रमशः प्रियेपस और फल्लुस के नाम से लिंग-पूजा होती थी। फूल्लुस फलेश का बिगड़ा रूप है। लिंग-पूजा इन दोनों राष्ट्रों के प्राचीन धर्म का प्रधान धर्म-चिह्न था। वृषभ की मूर्ति लिंग के साथ पूज्य थी। पूजन विधि हिन्दुओं की भांति धूप-दीप आदि द्वारा होती थी। मिस्र देश में तो 'हर' और 'ईशि:' की उपासना उनके धर्म का प्रधान अंग था। इन तीनों देशों में फाल्गुन मास में, वसन्तोत्सव के रूप में लिंग पूजा प्रतिवर्ष समारोह से हुआ करती थी। मिस्र में ‘ओसिरि:' नाम के देवता इथिओपिया के चन्द्रशैल से निकलती हुई नील नदी के अधिष्ठाता माने गए थे। प्लुटार्क का कहना है कि उस समय मिस्र में प्रचलित लिंग पूजा सारे पच्छिम में प्रचलित थी।

प्राचीन चीन और जापान के साहित्य में भी लिंग पूजा का उल्लेख है। अमेरिका में मिली प्राचीन मूर्तियों से प्रमाणित है कि अमेरिका के आदि निवासी लिंग पूजक थे। ईसाइयों के पुराने अहृदनामें में लिखा है कि रैहीवोयम के पुत्र आशा ने अपनी माता को लिंग के सामने बलि देने से रोका था। पीछे उस लिंग-मूर्ति को तोड़-फोड़ दिया गया था। यहूदियों का देवता बैल फेगो लिंग-मूर्ति ही था। उसका एक गुप्त मन्त्र था, जिसकी दीक्षा यहूदी ही ले सकते थे। मौयावी और मारिना निवासी यहूदियों के उपास्य देव लिंग की स्थापना फेगगी शैल पर हुई थी। इनकी उपासना-विधि मिस्रवासियों से मिलती-जुलती थी। पहाड़ पर, जंगल में, बड़े वृक्ष के नीचे यहूदियों ने लिंग और बछड़े की मूर्ति स्थापित की थी। उसे वे बाल नाम से पूजते थे। वेदी के सामने धूप देते और लिंग के सामने वाले वृषभ 'नन्दी' को हर अमावस्या को पूजा चढ़ाते थे। मिस्र के ओसिरिस के लिंग के सामने भी बैल रहता था।

 अरब में मुहम्मद के प्रादुर्भाव से पूर्व 'लात' नाम से लिंग पूजन होता था। इसी से में पच्छिमी लोगों ने सोमनाथ के लिंग को भी 'लात' कहा है। 'लात' की मूर्तियां दोनों जगह  बहुत विशाल और रत्न-जटित थीं। कहते हैं कि वह लिंग पचास पोरसा ऊंचा एक ही पत्थर का था। संभव है, इस विराटकाय लिंग के 'लात' नाम पर ही विजय स्तम्भों को 'लाट' का नाम दिया गया जैसे कुतुब की लाट। यह भी सम्भव है कि ये विजय स्तम्भ उसी देवता 'लात' के प्रतीक हों। कोपकार रिचर्डसन का कहना है कि 'लात' अल्लाह की सबसे बड़ी पुत्री का नाम था और उसका चिह्न व मूर्ति लिंग की आकृति की थी। पाठकों को यह न भूलना चाहिए कि अल्लाह, इलाही, इलोई प्राचीन वरुणदेव के ही नाम हैं।

मक्का के काबे में जो लिंग है, उसका भविष्य पुराणकार मक्केश्वर के नाम से उल्लेख करता है। यह एक काले पत्थर का लिंग है, जिसे मुसलमान संगे-असवद कहते हैं। पहले इसराइली और यहूदी इसकी पूजा करते थे। मुहम्मद के जीवन काल में इसकी पूजा पण्डों के चार कुल करते थे। फ्रांस में भी प्राचीन काल में लिंग पूजा का प्रचलन था। वहां के गिरजों और म्यूजियमों में लिंग के पत्थर स्मारक की भांति रखे हैं। पाश्चात्य देशों में लिंगची एक सम्प्रदाय ही था, जिसे फालिसिज्म कहते थे। भारत में भी दक्षिण में लिंगायत सम्प्रदाय है।

इजिप्ट-मेसिफ और अशीरिस प्रान्त - वासी नन्दी पर बैठे हुए, त्रिशूलहस्त और व्याघ्र चर्मधारी शिव-मूर्ति की पूजा बेलपत्र से तथा अभिषेक दूध से करते थे। बेबीलोन में एक हज़ार दो सौ फीट का एक महालिंग था। ब्राजील प्रदेश में अत्यन्त प्राचीन अनेक शिवलिंग है। इटली में अनेक ईसाई शिवलिंग पूजते हैं। स्कॉटलैण्ड के ग्लासगो नगर में एक सुवर्णाच्छादित शिवलिंग है, जिसकी पूजा होती है। फीज़ियन्स में 'एटिव्स' व निनवा में ‘एषीर' नाम के शिवलिंग हैं। यहूदियों के देश में भी बहुत से प्राचीन शिवलिंग हैं। अफरीदिस्तान, काबुल, बलख, बुखारा आदि स्थानों में अनेक शिवलिंग हैं, जिन्हें वहां के लोग पंचशेर और पंचवीर नामों से पुकारते हैं।

इण्डोचाइना के 'अनाम' में अनेक शिवालय हैं। प्राचीन काल में इस देश को चम्पा कहते थे। वहां के प्राचीन राजा शिवपूजक थे। वहां संस्कृत में अनेक शिलालेख, अनेक शिवमूर्तियां तथा लिंग मिले हैं। कम्बोडिया में, जिसका प्राचीन नाम 'काम्बोज' है तथा जावा, सुमात्रा आदि द्वीपों में भी अनगिनत शिवलिंग मिले हैं। वहां के लोग लिंग-पूजन करते थे। भारत-चीन (इण्डोचीन ) श्रीक्षेत्र (मध्य बर्मा), हंसावली (दक्षिण बर्मा), द्वारावती (स्याम), मलयद्वीप आदि सर्वत्र शिवलिंग और शिवमूर्तियां पाई जाती हैं।

बेबीलोनिया, मिस्र, चीन और भारत में प्राप्त शिवलिंगों को यदि ध्यान से देखा जाए तो यौन उपासना के एक अविश्वसनीय तथ्य का रहस्योद्घाटन होगा। मसीह से पूर्व से लेकर ईस्वी सन् से बहुत बाद तक भी ऐसा प्रतीत होता है कि स्त्री-पुरुष की स्वतन्त्र और मिथुन-रूप में पूजा होती रही है। इन सभी देशों में ऐसे देवताओं की पूजा प्रचलित थी, जिनके सम्बन्ध में कहा जाता है कि उनमें स्त्री और पुरुष दोनों का समान प्रतिनिधित्व था। बाइबिल में आदम, जो पृथ्वी पर आनेवाला प्रथम व्यक्ति है, स्त्री-पुरुष का समान  प्रतिनिधित्व लेकर आया। उसमें स्त्री-पुरुष दोनों ही की रचनात्मक शक्ति थी। गाज़ी में एक प्राचीन सिक्का प्राप्त हुआ है। उस पर मुद्रा अंकित है, जिससे पता चलता है कि देवता 'अश्वात' की दो आकृतियां थीं। इस प्रकार के देवताओं को, जिनमें स्त्री पुरुष दोनों तत्त्व निहित रहते थे, आत्मतुष्ट कहा जाता है। यूनान के 'अपोलो' तथा 'डायना' के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उनमें स्त्री-पुरुष दोनों का समान प्रतिनिधित्व था। बेबीलोन वाले यह विश्वास रखते थे कि सबसे प्रथम जो पुरुष उत्पन्न हुआ, उसके दो सिर थे - एक स्त्री का, दूसरा पुरुष का। शरीर में भी दोनों लिंगों की इंद्रियां अंकित थीं। शैव हिन्दू शिव का एक रूप अर्धनारीश्वर मानते हैं। एलोरा की गुहा में अर्धनारीश्वर की एक भव्य मूर्ति है। वैसे भी शरीर का बायां अंग स्त्री का माना जाता है। हिन्दू पत्नियां अर्धाङ्गिनी कहाती हैं। अनेक देशों के पुरातन साहित्य में कहा गया है कि पहले स्त्री-पुरुष जुड़े हुए थे, पीछे पृथक्-पृथक् हुए। 'प्लेटो' भी इसी धारणा पर विश्वास करते थे। अनेक दार्शनिक बारहवीं शताब्दी तक यही धारणा रखते थे। नृत्य में हाथों की उंगलियों की भाव-भंगिमा और मुद्राओं से विभिन्न यौन संकेत में निकलते थे। प्राचीन काल में मिस्र में हाथों को रचनात्मक शक्ति का प्रतीक माना जाता था। तर्जनी से यदि सामने की ओर संकेत कर शेष उंगलियों को मोड़ लिया जाए तो उससे पुरुष लिंग का संकेत होता था। भारतीय नृत्य में हाथ के दोनों अंगूठों को आपस में मिलाकर दोनों हाथों की तर्जनी को मिलाती हुई उंगलियों को सीध में तान देने से योनि का संकेत होता है। यदि दोनों हाथों की हथेलियों को परस्पर मिलाकर, दोनों तर्जनियों को संयुक्त रूप में खड़ा कर दिया जाए, और शेष उंगलियां परस्पर आबद्ध होकर झुकी रहें, तो वे संभोग की भाव-व्यंजना का बोध कराती हैं।

शिव के साथ जहां लिंग पूजन का एकीकरण हुआ, वहां शिव के साथ सर्प- धारण की भी बात है। प्रसिद्ध है कि शिव सर्प को धारण करते हैं। प्राचीन शिव के भित्ति चित्रों में सांप को अपनी पूंछ निगलते दिखाया गया है, इसका यह अर्थ है कि वह अपने-आप में पूर्ण इकाई है। यूनान के पुराने मठों में जीवित सर्प रखे जाते थे, जिनकी रक्षा की व्यवस्था मन्दिर की देवदासियों के ज़िम्मे होती थी। इन देवदासियों को नागकन्या कहते थे। खासकर ‘अपोलो' के मन्दिर में सर्प पाले जाते थे, जहां स्त्रियां नंगी होकर उन्हें खाना खिलाती थीं। गेहुंअन सर्प मिस्र के पुराने शिलाचित्रों में अंकित पाया गया है। बेबीलोन में देवी इस्तार के पूजक सर्प की भी पूजा करते थे। भारत में 'नाग पंचमी' के दिन सर्प की पूजा बहुत दिन से प्रचलित है। अत्यन्त प्राचीन काल में मिस्र, यूनान, भारत, चीन, और जापान के लोग कमल और कुमुदिनी के फूलों को इसलिए महत्त्व देते थे कि कमल फूलों में स्त्री-पुरुष दोनों का ही प्रतिनिधित्व माना जाता था। कली में स्त्री- भाव और फूल में पुरुष भाव माना जाता था। इन फूलों से मन्दिर का भी शृंगार होता था। भूमध्यसागर के अनेक देशों के प्राचीन निवासी प्राचीन काल से डायन-योजन के भय से गले में लिंग के आकार का तावीज़ बांधते हैं। भारत में भी ऐसे तावीज़ बांधे जाते हैं। बेबीलोनिया और प्राचीन फ्रांस में लिंग और योनि के आकार की रोटियां बनाकर खास उत्सव के समय देवी पूजा करके खाई जाती थीं। मैक्सिको और मध्य-उत्तर अमेरिका में भी लिंग-पूजा प्रचलित थी। प्रसिद्ध लेखक ब्रुसेनवर्क लिखता है कि प्लोलमी फिखाड़े लफस के समय एक वृहत् लिंग की स्थापना की गई थी, जिसकी लम्बाई 390 फीट थी। यह लिंग ऊपर से स्वर्णमण्डित था। हिरोपोलिस में वीनस के मन्दिर के सामने दो सौ फीट ऊंचा एक पत्थर का लिंग स्थापित था।

रुद्र के साथ नन्दी का सम्बन्ध बताया गया है। नन्दी को एक बैल के रूप में शिव का वाहन कहा गया है। हम बता चुके हैं कि वैदिक साहित्य में रुद्र को एक सांड़ के समान शक्तिशाली बताया गया है। आश्वलायन गृह्यसूत्रों में एक शुलगव यज्ञ का उल्लेख है, जिसमें एक चितकबरे बैल को मारकर "रुद्राय महादेवाय जुष्टो वर्धस्वहराय, कृपया, शर्वाय, शिवाय, भवाय, महादेवायो ग्राय, पशुपतये रुद्राय, शङ्करायेशानायाशनये स्वाहा” - इस प्रकार मन्त्रों से उसकी पूंछ, चाम, सिर और पैर की आहुति देने का उल्लेख है। वैभाकद्फिसेस के सिक्कों पर महेश्वर की मूर्ति और नन्दी बैल की मूर्ति चिह्नित मिली है। इसका राज्य-काल संभवतः ईसा की पहली शताब्दी माना जाता है। मिस्र में, जहां शिव का स्थान माना गया है, बैल-पूजा अत्यन्त प्राचीन काल में लिंग पूजा ही के समान मानी गई श्री । रोमन जूलियस सीज़र ने लिखा है कि मिस्र में एक देवता असीरन' माना जाता था, जिसकी आकृति सांड़ की-सी थी। इसे उत्पादन का द्योतक माना जाता था। ‘एपिस' नामक सांड़ के पूजन का उल्लेख मिस्र के प्राचीनतम इतिहास में है। इस बैल में पूजनीय होने के लिए कुछ खास चिह्न होने आवश्यक थे, जैसे पद का काला रंग, माथे पर उभरा हुआ सफेद चौकोर चिह्न, पीठ पर गरुड़-जैसा चिह्न । इन चिह्नोंवाला बैल ज्यों ही कहीं मिल जाता था, वह तुरन्त पिंजरे में बन्द कर दिया जाता था। उसे अच्छा भोजन और सोने को नर्म बिछौना दिया जाता था। पीने के लिए पानी भी पवित्र कुएं से पहुंचाया जाता था। लोग उसे एकान्त में रखते थे। केवल उत्सवों के समय में ही बाहर निकालते थे । मन्त्रों द्वारा उसकी स्तुति, आराधना होती थी। और लगातार सात दिन तक उसका जन्मोत्सव मनाया जाता था। बाहर से आया कोई दर्शक उसका दर्शन किए बिना वापस न जा सकता था। जब उसकी मृत्यू होती थी, तो उसे सुगन्धित लेपों से अत्यंत धूमधाम से दफनाया जाता था। वैदिक पणि लोग, जो यूरोप में फणिश कहाते हैं और इबरानी जाति के पूर्वज हैं, वे भी लिंगपूजक थे। वे बालेश्वर लिंग की पूजा करते थे। बाइबिल में इसे 'शिउन' कहा गया है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में जो लिंग मिले हैं, वे तमाम थोथी दार्शनिक बातों को खत्म कर देते हैं। वे वास्तव में शिश्न की आकृतियां हैं।

आचार्य चतुरसेन शास्त्री 




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