गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 3

  स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।। 3।।


वह ही यह पुरातन योग अब मैंने तेरे लिए वर्णन किया है, क्योंकि तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है इसलिए। यह योग बहुत उत्तम और रहस्य अर्थात अति मर्म का विषय है।


 जीवन रोज बदल जाता है, ऋतुओं की भांति। जीवन परिवर्तन का एक क्रम है, गाड़ी के चाक (पहिया) की भांति घूमता चला जाता है। लेकिन चाक का घूमना भी एक न घूमने वाली कील पर ठहरा होता है। घूमता है चाक गाड़ी का, लेकिन किसी कील के सहारे, जो सदा खड़ी रहती है। कील भी घूम जाए, तो चाक का घूमना बंद हो जाए। कील नहीं घूमती, इसलिए चाक घूम पाता है।


सारा परिवर्तन किसी अपरिवर्तित के ऊपर निर्भर होता है।

जीवन के परम नियमों में से एक नियम यह है कि दृश्य अदृश्य पर निर्भर होता है, मृत्यु अमृत पर निर्भर होती है; पदार्थ परमात्मा पर निर्भर होता है। घूमने वाला परिवर्तित जगत, संसार, न घूमने वाले अपरिवर्तित सत्य पर निर्भर होता है। विपरीत पर निर्भर होती हैं चीजें।

इसलिए जो दिखाई पड़ता है, उस पर ही जो रुक जाता है, वह रहस्य से वंचित रह जाता है। जो दिखाई पड़ता है, उसके भीतर जो न दिखाई पड़ने वाले को खोज लेता है, वह रहस्य को उपलब्ध हो जाता है।


कृष्ण कहते हैं, वही योग, वही सत्य पुरातन है, सदा से चला आता है जो। या कहें कि सदा से ठहरा हुआ है जो; वही जो पहले भी ऋषियों ने कहा था, वही मैं तुझसे पुनः कहता हूं। लेकिन पुनः कहता हूं वही, जो सदा से है। कुछ नया नहीं है। कुछ अपनी ओर से नहीं है।

सत्य में अपनी ओर से कुछ जोड़ा भी नहीं जा सकता। सत्य को नया करने का भी कोई उपाय नहीं है। सत्य है। सत्य के साथ सिर्फ एक ही काम किया जा सकता है और वह यह कि हम उसकी तरफ मुंह करके खड़े हो सकते हैं, या पीठ करके खड़े हो सकते हैं। और हम सत्य के साथ कुछ भी नहीं कर सकते हैं। एक ही काम कर सकते हैं, या तो हम जानें उसे, या हम न जानने की जिद करें और अज्ञान में खड़े रहें। लेकिन हम न जानें, तो भी सत्य बदलता नहीं हमारे न जानने से। और हम जान लें, तो भी सत्य बदलता नहीं हमारे जानने से।

हां, बदलते हम जरूर हैं। सत्य को न जानें, तो हम एक तरह के होते हैं। सत्य को जान लें, तो हम दूसरे तरह के हो जाते हैं। सत्य वही है--जब हम नहीं जानते हैं, तब भी; और जब हम जानते हैं, तब भी। ऐसा अगर सत्य न हो, तो फिर सत्य और असत्य में कोई अंतर न रहेगा।

यह बहुत मजे की बात है कि असत्य हमारा इनवेंशन है, हमारा आविष्कार है। सत्य हमारा इनवेंशन नहीं है। सत्य को हम निर्मित नहीं करते, बनाते नहीं। असत्य को हम निर्मित करते हैं और बनाते हैं।

जो मेरे द्वारा बनाया जा सकता है, वह असत्य होगा। और जिसके द्वारा मैं भी बनाया गया, और जिसमें मैं भी लीन हो जाऊंगा, वह सत्य है। कृष्ण नहीं थे, तब भी जो था; कृष्ण नहीं होंगे, तब भी जो होगा; औरों ने भी जिसे कहा, और भी आगे जिसे कहेंगे--वह सत्य है।

सत्य नित्य है। इस नित्य सत्य को अर्जुन से कृष्ण कहते हैं, मैं पुनः तुझसे कहता हूं। और क्यों कहता हूं, उसका कारण बताते हैं। वह कारण समझ लेने जैसा है। वह कहते हैं, क्योंकि तू मेरा सखा है, मेरा मित्र है, मेरा प्रिय है।

ऊपर से देखने पर यह बात बड़ी अजीब-सी लगेगी कि क्या कृष्ण भी किसी शर्त के आधार पर सत्य को बताते हैं--मित्र है, सखा है, प्रिय है! मित्र न हो, सखा न हो, प्रिय न हो, तो कृष्ण फिर सत्य को नहीं बताएंगे? क्या सत्य को बताने की भी कोई शर्त, कोई कंडीशन है? क्या कृष्ण उसको नहीं बताएंगे जो प्रिय नहीं, मित्र नहीं, सखा नहीं? तब तो कृष्ण भी पक्षपात करते हुए मालूम पड़ेंगे। ऊपर से जो देखेगा, ऐसा ही लगेगा। लेकिन और थोड़ा गहरा देखना जरूरी है। और कृष्ण जैसे व्यक्तियों के साथ ऊपर से देखना खतरनाक है।

कृष्ण जब यह कहते हैं कि मैं तुझे सत्य की यह बात बताता हूं, क्योंकि तू मेरा प्रिय है, क्योंकि तू मेरा सखा है, मेरा मित्र है। इसके पीछे कारण यह नहीं है कि कृष्ण उसे न बताएंगे जो मित्र नहीं, सखा नहीं, प्रिय नहीं। कारण यह है कि जो मित्र नहीं, प्रिय नहीं, सखा नहीं, वह पीठ करके खड़ा हो जाता है सत्य की ओर। प्रिय होने, सखा होने, मित्र होने का कुल प्रयोजन इतना ही है कि अर्जुन मुंह करके खड़ा हो सकता है।

सत्य को जानने की, सत्य को समझने की तैयारी मैत्री में संभव है। शत्रु के साथ हम पीठ करके खड़े हो जाते हैं; द्वार बंद कर लेते हैं। शत्रु का हम स्वागत नहीं कर पाते। कृष्ण तो बताने को राजी हो जाएंगे शत्रु को भी; लेकिन शत्रु अपने द्वार बंद करके खड़ा हो जाएगा। यह शर्त कृष्ण की तरफ से नहीं है।

सत्य तो सभी को उपलब्ध है। सूर्य निकला है, सभी को उपलब्ध है। लेकिन जिसे नहीं उपलब्ध करना है, वह आंख बंद करके खड़ा हो सकता है। नदी बही जाती है, सभी को उपलब्ध है। लेकिन जिसे नहीं नदी के पानी को देखना है, नहीं पानी को पीना है, वह पीठ करके खड़ा हो सकता है। नदी कुछ भी न कर सकेगी। पीठ करके खड़े होने में आपकी स्वतंत्रता है।

इसलिए सत्य को जब भी किसी के पास समझने कोई गया हो, तो एक मैत्री का संबंध अनिवार्य है। अन्यथा सत्य को पहचाना नहीं जा सकता, समझा नहीं जा सकता, सुना भी नहीं जा सकता।

जिसके प्रति मैत्री का भाव नहीं, उसे हम अपने भीतर प्रवेश नहीं देते हैं। और सत्य बड़ा सूक्ष्म प्रवेश है। उसके लिए एक रिसेप्टिविटी, एक ग्राहकता चाहिए।

जब आप अपरिचित आदमी के पास होते हैं, तो शायद आपने खयाल किया हो, न किया हो; न किया हो, तो अब करें; जब आप अपरिचित, अजनबी आदमी के पास होते हैं, तो क्लोज्ड हो जाते हैं, बंद हो जाते हैं। आपके सब द्वार-दरवाजे चेतना के बंद हो जाते हैं। आप संभलकर बैठ जाते हैं; किसी हमले का डर है। अनजान आदमी से किसी आक्रमण का भय है। न हो आक्रमण, तो भी अनजान आदमी अनप्रेडिक्टिबल है। पता नहीं क्या करे! इसलिए तैयार होना जरूरी है। इसलिए अजनबी आदमी के साथ बेचैनी अनुभव होती है। मित्र है, प्रिय है, तो आप अनआर्म्ड हो जाते हैं। सब शस्त्र छोड़ देते हैं रक्षा के। फिर भय नहीं करते। फिर सजग नहीं होते। फिर रक्षा को तत्पर नहीं होते। फिर द्वार-दरवाजे खुले छोड़ देते हैं।

मित्र है, तो अतिथि हो सकता है आपके भीतर। मित्र नहीं है, तो अतिथि नहीं हो सकता। सत्य तो बहुत बड़ा अतिथि है। उसके लिए हृदय के सब द्वार खुले होने चाहिए। इसलिए एक इंटिमेट ट्रस्ट, एक मैत्रीपूर्ण श्रद्धा अगर बीच में न हो, एक भरोसा अगर बीच में न हो, तो सत्य की बात कही तो जा सकती है, लेकिन सुनी नहीं जा सकती। और कहने वाला पागल है, अगर उससे कहे, जो सुनने में समर्थ न हो।

इसलिए कृष्ण कहते हैं कि तू मित्र है, प्रिय है, सखा है, इसलिए तुझे मैं यह पुनः उस सत्य की बात कहता हूं, जो सदा है, चिरस्थाई है, सनातन है, नित्य है।

एक और भी बात ध्यान रख लेनी जरूरी है। कृष्ण यह याद क्यों दिलाते हैं अर्जुन को कि तू सखा है, प्रिय है, मित्र है? इस बात को याद दिलाने की जरूरत क्या है? अर्जुन मित्र है, सखा है, याद दिलाने की क्या जरूरत है? यहां भी एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक सत्य खयाल में ले लेना जरूरी है।

हम इतने विस्मरण से भरे हुए लोग हैं कि अगर हमें निरंतर चीजें याद न दिलाई जाएं, तो हमें याद ही नहीं रह जाती। हम प्रतिपल भूल जाते हैं। हमारी स्मृति बड़ी दीन है, और हमारा विवेक अत्यंत रुग्ण है। मित्र को भी हम भूल जाते हैं कि वह मित्र है; प्रिय को भी हम भूल जाते हैं कि वह प्रिय है; निकट को भी हम भूल जाते हैं कि वह निकट है।

दूसरे को भूल जाना तो बहुत आसान है। हम अपने को ही भूल जाते हैं। हमें अपना ही कोई स्मरण नहीं रह जाता है। हम कौन हैं, यही स्मरण नहीं रह जाता है। हम किस स्थिति में हैं, यह भी स्मरण नहीं रह जाता है। हम करीब-करीब एक बेहोशी में जीते हैं। एक नींद जैसे हमें पकड़े रहती है। क्रोध आ जाता है, तब हमें पता चलता है कि क्रोध आ गया। आ गया, तब भी पता बहुत मुश्किल से चलता है। सौभाग्यशाली हैं, जिन्हें पता चल जाता है। हो गया, तब पता चलता है। लेकिन तब कुछ किया नहीं जा सकता। पक्षी हाथ के बाहर उड़ गया होता है। लोग क्रोध कर लेते हैं, फिर कहते हैं कि हमें पता नहीं, कैसे हो गया! आपने ही किया, आपको ही पता नहीं? होश में थे, बेहोश थे? नींद में थे? लेकिन हम करीब-करीब नींद में होते हैं।

कृष्ण अर्जुन को गीता में बहुत बार याद दिलाते हैं कि तू मेरा मित्र है। बहुत बार, परोक्ष-अपरोक्ष, सीधे भी, कभी घूम-फिर कर भी वे अर्जुन को याद दिलाए चले जाते हैं कि तू मेरा मित्र है। जब भी कृष्ण को लगता होगा, अर्जुन बंद हो रहा है, खुल नहीं रहा है, तभी वे कहते हैं, तू मेरा मित्र है; स्मरण कर। प्रिय है। और इसलिए ही तो तुझसे मैं सत्य की बात कह रहा हूं। यह सुनकर शायद क्षणभर को अर्जुन की स्मृति लौट आए और वह खुला हो जाए, निकट हो जाए, ओपेन हो जाए, और कृष्ण जिस सत्य के संबंध में उसे जगाना चाहते हैं, उस जगाने की कोई किरण उसके भीतर पहुंच जाए। इसलिए कृष्ण बहुत बार गीता में बार-बार कहते हैं उसे कि तू मेरा मित्र है, तू मेरा प्रिय है, तू मेरा सखा है, इसलिए कहता हूं।

यह, जब भी हम किसी के भी प्रति एक इंटिमेसी, एक आंतरिकता से भरे होते हैं, तो एक क्षण में हमारी चेतना का तल बदल जाता है। हम कुछ और हो जाते हैं। जब हम किसी के प्रति बहुत मैत्री और प्रेम से भरे होते हैं, तो हम बड़ी ऊंचाइयों पर होते हैं। और जब हम किसी के प्रति घृणा और शत्रुता से भरे होते हैं, तो हम बड़ी नीचाइयों में होते हैं। और जब हम किसी के प्रति उपेक्षा से भरे होते हैं, तो हम समतल भूमि पर होते हैं।

सत्य के दर्शन तो वहीं हो सकते हैं, जब हम शिखर पर होते हैं, अपनी चेतना की ऊंचाई पर। कृष्ण जो बात कह रहे हैं, अर्जुन छलांग लगाए, तो ही समझ सकता है। अर्जुन अपनी जगह खड़ा रहे, तो नहीं समझ सकेगा। अर्जुन उछले थोड़ा, छलांग लगाए, तो शायद जो सूर्य उसे दिखाई नहीं पड़ रहा अपनी जगह से, उसकी एक झलक मिल जाए। कोई हर्ज नहीं, झलक के बाद वह अपनी जगह पर वापस लौट आएगा। लेकिन एक झलक भी जीवन को रूपांतरित करने का आधार बन जाती है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, तू मित्र मेरा, प्रिय मेरा, इसलिए तुझसे सत्य की बात कहता हूं। यह मित्रता की स्मृति अर्जुन को एक छलांग लगाने के लिए है, ताकि अर्जुन किसी तरह कृष्ण के पास आ जाए।

ध्यान रहे, दो ही उपाय हैं संवाद के। या तो कृष्ण अर्जुन के पास खड़े हो जाएं उसी चित्त-दशा में, जिसमें अर्जुन है, तो संवाद हो सकता है। लेकिन तब सत्य का संवाद मुश्किल होगा। और या फिर अर्जुन कृष्ण की चित्त-दशा में पहुंच जाए, तो फिर संवाद हो सकता है। तब संवाद सत्य का हो सकता है। दोनों के बीच पहाड़ और खाई का फासला है।

यह चर्चा एक पर्वत के शिखर की और एक गहन खाई से चर्चा है। एक पर्वत का शिखर गौरीशंकर, पास में पहाड़ों के गङ्ढ में अंधेरे में दबी हुई खाई से बात करता है। कठिन है चर्चा। भाषा एक नहीं, निकटता नहीं, बहुत मुश्किल है। लेकिन खाई डर न जाए, अन्यथा और अंधेरे में छिप जाएगी और सिकुड़ जाएगी। तो शिखर पुकारता है कि मित्र हूं तेरा, निकट हूं तेरे। खुल; भय मत कर, सिकुड़ मत, संकोच मत कर। द्वार बंद मत कर। जो कहता हूं, उसे भीतर आ जाने दे।

अर्जुन को सब तरह का भरोसा दिलाने के लिए कृष्ण बहुत-सी बात कहते हैं। पहली बात तो उन्होंने यह कही कि यह सत्य अति प्राचीन है अर्जुन, अति पुरातन है, सनातन, अनादि, सबसे पहले, समय नहीं हुआ, तब भी यह सत्य था। क्यों? इसे याद न दिलाते, तो चल सकता था।

लेकिन अर्जुन से अगर कृष्ण कहें कि यह सत्य मैं ही दे रहा हूं, तो शायद अर्जुन ज्यादा खुल न पाए, शायद बंद हो जाए। शायद इतना भरोसा न कर पाए; शायद इतना ट्रस्ट पैदा न हो। तो कृष्ण शुरू करते हैं अनादि से, किस-किस ने किस-किस से कहा। ऐसे वे अर्जुन को राजी करते हैं, खुलने के लिए, ओपनिंग के लिए, द्वार खुला रखने के लिए।

फिर याद दिलाते हैं कि मित्र है, प्रिय है। और जब अर्जुन को वे पाएंगे कि वह ठीक टयूनिंग, ठीक उस क्षण में आ गया है, जहां मिलन हो सकता है, वहीं वे सत्य कहेंगे। इसलिए गीता में कुछ क्षणों में टयूनिंग घटित हुई है। किसी जगह अर्जुन बिलकुल कृष्ण के करीब आ गया, तब कृष्ण एक वचन बोलते हैं, जो बहुमूल्य है, जिसका फिर मूल्य नहीं चुकाया जा सकता।



लेकिन वह उसी समय, जब अर्जुन और कृष्ण की चेतना तादात्म्य को उपलब्ध होती है, तभी। जब बोलने वाला और सुनने वाला एक हो जाते हैं, एक रस हो जाते हैं, तभी--मैं आपको कहूंगा, याद दिलाऊंगा कि किन क्षणों में--तब महावाक्य गीता में उत्पन्न होते हैं; तब जो कृष्ण बोलते हैं, वह महावाक्य है। उसके पहले नहीं बोला जा सकता। प्रतीक्षा करनी पड़ती है।

सत्य को बोलना हो, तो प्रतीक्षा करनी पड़ती है। सत्य को सुनना हो, तो भी प्रतीक्षा करनी पड़ती है। आज की दुनिया तो बहुत जल्दी में है। इसलिए शायद, शायद इसीलिए सत्य की चर्चा बहुत मुश्किल हो गई है।

 कृष्ण को तो अर्जुन के साथ संबंध जोड़ना जितना कठिन हुआ होगा, इतना कठिन बुद्ध को अपने किसी शिष्य के साथ कभी नहीं हुआ; महावीर को अपने किसी शिष्य के साथ कभी नहीं हुआ; जीसस को, मोहम्मद को, कंफ्यूशियस को, लाओत्से को--किसी को अपने शिष्य के साथ इतना कठिन कभी न हुआ होगा। क्योंकि युद्ध के मैदान पर सत्य को सिखाने का मौका कृष्ण के अलावा और किसी को आया नहीं।

कितनी जल्दी न रही होगी! भेरियां बज गईं युद्ध की, शंख-ध्वनियां हो गई हैं, घोड़े बेताब हैं दौड़ पड़ने को; अस्त्र-शस्त्र सम्हल गए हैं; योद्धा तैयार हैं जीवनभर की उनकी साधना आज कसौटी पर कसने को; दुश्मन आमने-सामने खड़े हैं। और अर्जुन ने सवाल उठाए। ऐसे संकट के क्षण में सत्य की शिक्षा बड़ी ही कठिन पड़ी होगी, बड़ी मुश्किल गई होगी।

इसलिए कृष्ण बहुत बार जो बातें कह रहे हैं अर्जुन से, वह सिर्फ निकट लाने के लिए है, उसे आश्वस्त करने के लिए है। वह भूल जाए, युद्ध है चारों तरफ; वह भूल जाए, जल्दी है; वह भूल जाए, संकट है; और वह सत्य के इस संवाद को सुनने को अंतस से तैयार हो जाए। इस आंतरिक तैयारी के लिए वे बहुत-सी बातें कहेंगे। और जब अर्जुन तैयार होता है, तब वे एक महावाक्य कहते हैं। थोड़े-से महावाक्य गीता में हैं, जिनका सारा फैलाव है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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