गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 2 भाग 15

  वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्

कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्तिकम्।। २१।।

हे पृथापुत्र अर्जुनजो पुरुष इस आत्मा को नाशरहितनित्यअजन्मा और अव्यय जानता हैवह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है।


जानता है! कृष्ण कहते हैंजो ऐसा जानता है--
 नहीं कहते हैं कि जो ऐसा मानता है--

कह सकते थे कि जो पुरुष ऐसा मानता है कि न जन्म हैन मृत्यु है। तब तो हम सबको भी बहुत आसानी हो जाए। मानने से ज्यादा सरल कुछ भी नहीं हैक्योंकि मानने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता। जानने से ज्यादा कठिन कुछ भी नहीं हैक्योंकि जानने के लिए तो पूरी आत्म-क्रांति से गुजर जाना पड़ता है।

कृष्ण कहते हैंजो पुरुष ऐसा जानता है। इस जानने शब्द को ठीक से पहचान लेना जरूरी है। क्योंकि सारा धर्म जानने शब्द को छोड़कर मानने शब्द के इर्द-गिर्द घूम रहा है। सारा धर्मसारी पृथ्वी पर बहुत-बहुत नामों से जो धर्म प्रचलित हैवह सब मानने के आस-पास घूम रहा है। वह सारा धर्म कह रहा हैमानो ऐसामानोगे तो हो जाएगा। लेकिन कृष्ण कहते हैंजो जानता है।

अब जानने का क्या मतलब? जानना भी दो तरह से हो सकता है। शास्त्र से कोई पढ़ लेतो भी जान लेता है। अनुभव से कोई जानेतो भी जान लेता है। क्या ये दोनों जानना एक ही अर्थ रखते हैंशास्त्र से जानना तो बड़ा सरल है। लिखा हैपढ़ा और जाना। उसके लिए सिर्फ शिक्षित होना काफी हैपठित होना काफी है। उसके लिए धार्मिक होने की कोई जरूरत नहीं है। शास्त्र से पढ़कर जो जानना हैवह जानना नहीं हैजानने का धोखा है। वह सिर्फ सूचना है।
लेकिन सूचना से धोखे हो जाते हैं। पढ़ लेते हैंअजर हैअमर हैनहीं जन्मतानहीं मरतापढ़ लेते हैंदोहरा लेते हैं। बार-बार दोहरा लेने से भूल जाते हैं कि जानते नहीं हैंसिर्फ दोहराते हैं। बहुत बार-बार दोहराने सेबहुत बार-बार दोहराने से बात ही भूल जाती है कि जो हम कह रहे हैंवह अपना जानना नहीं है।


एक आदमी शास्त्र में पढ़ ले तैरने की कलाजान ले पूरा शास्त्र। चाहे तो तैरने पर बोल सकेबोलेलिख सके तो लिखे। चाहे तो कोई युनिवर्सिटी से पीएच.डी. ले ले। डाक्टर हो जाए तैरने के संबंध में। लेकिन फिर भी उस आदमी को भूलकर नदी में धक्का मत देना। क्योंकि उसकी पीएच.डीतैरा न सकेगी। उसकी पीएच.डी. और जल्दी डुबा देगीक्योंकि काफी वजनी होती हैपत्थर का काम करेगी।
तैरने के संबंध में जाननातैरना जानना नहीं है। सत्य के संबंध में जाननासत्य जानना नहीं है।   सत्य के संबंध में जाननासत्य को न जानने के बराबर है। लेकिन एकदम बराबर कहना ठीक नहीं हैथोड़ा खतरा है। सत्य को न जाननाऐसा जाननासत्य की तरफ जाने में राह बन जाती है। लेकिन सत्य को बिना जानते हुए जान लेना कि जानते हैंसत्य की तरफ जाने में बाधा बन जाती है। 
कृष्ण के इस शब्द को बहुत ठीक से समझ लेना चाहिए। क्योंकि इस एक शब्द --जानने के आस-पास ही  वास्तविक धर्म का जन्म होता है। मानने के आस-पास अप्रामाणिक धर्म का जन्म होता है। जानने से जो उपलब्ध होता हैउसका नाम श्रद्धा है। और मानने से जो उपलब्ध होता हैउसका नाम विश्वास हैबिलीफ है। और जो लोग विश्वासी हैंवे धार्मिक नहीं हैंवे बिना जाने मान रहे हैं।

यह शब्द बहुत छोटा नहीं हैबड़े से बड़ा शब्द है। लेकिन भ्रांति इसके साथ निरंतर होती रहती है। हमारे पास एक शब्द हैवेदवेद का अर्थ हैजानना। लेकिन हम तो वेद से मतलब लेते हैंसंहितावह जो किताब है। हमने कहा हैवेद अपौरुषेय हैजानना अपौरुषेय है। लेकिन हम मतलब लेते हैं कि वह जो किताब है हमारे पासवेद नाम कीवह परमात्मा की लिखी हुई है।

वेद किताब नहीं हैवेद जीवन है। लेकिन जानने को मानना बना लेना बड़ा आसान हैज्ञान को किताब बना लेना बड़ा आसान हैजानने को शास्त्र पर निर्भर कर देना बहुत आसान है। क्योंकि तब बहुत कुछ करना नहीं पड़ताजानने की जगह केवल स्मृति की जरूरत होती है। बसयाद कर लेना काफी होता है। तो बहुत लोग गीता याद कर रहे हैं!
(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल

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