भागना नहीं--जागना है
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।। १६।
और हे अर्जुन, असत (वस्तु) का तो अस्तित्व नहीं है और सत का अभाव नहीं है। इस प्रकार, इन दोनों को हम तत्व-ज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है।
क्या है सत्य, क्या है असत्य, उसके भेद को पहचान लेना ही ज्ञान है, प्रज्ञा है। किसे कहें है और किसे कहें नहीं है, इन दोनों की भेद-रेखा को खींच लेना ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। क्या है स्वप्न और क्या है यथार्थ, इसके अंतर को समझ लेना ही मुक्ति का मार्ग है। कृष्ण ने इस वचन में कहा है, जो है, और सदा है, और जिसके न होने का कोई उपाय नहीं है, जिसके न होने की कोई संभावना ही नहीं है, वही सत है। जो है, लेकिन कभी नहीं था और कभी फिर नहीं हो सकता है, जिसके न हो जाने की संभावना है, वही असत है।
यहां बहुत समझ लेने जैसी बात है। साधारणतः असत, हम उसे कहते हैं, जो नहीं है। लेकिन जो नहीं है, उसे तो असत कहने का भी कोई अर्थ नहीं है। जो नहीं है, उसे तो कुछ भी कहने का कोई अर्थ नहीं है। जो नहीं है, उसे इतना भी कहना कि वह नहीं है, गलत है, क्योंकि हम है शब्द का प्रयोग कर रहे हैं। जब हम कहते हैं नहीं है, तब भी हम है शब्द का प्रयोग कर रहे हैं। जो नहीं है, उसके लिए नहीं है, कहना भी गलत है। जो नहीं है, वह नहीं ही है, उसकी कोई बात ही अर्थहीन है।
इसलिए असत का अर्थ नान-एक्झिस्टेंट नहीं होता है। असत का अर्थ होता है, जो नहीं है, फिर भी है; जो नहीं है, फिर भी होने का भ्रम देता है; जो नहीं है, फिर भी प्रतीत होता है कि है। रात स्वप्न देखा है, यह नहीं कह सकते कि वह नहीं है। नहीं था, तो देखा कैसे? नहीं था, तो स्वप्न भी हो सके, यह संभव नहीं है। देखा है, जीया है, गुजरे हैं, लेकिन सुबह उठकर कहते हैं कि स्वप्न था।
यह सुबह उठकर जिसे स्वप्न कहते हैं, उसे बिलकुल नहीं, नान-एक्झिस्टेंट नहीं कहा जा सकता। था तो जरूर। देखा है, गुजरे हैं। और ऐसा भी नहीं था कि जिसका परिणाम न हुआ हो। जब रात स्वप्न में भयभीत हुए हैं, तो कंप गए हैं। असली शरीर कंप गया है, प्राण कंप गए हैं, रोएं खड़े हो गए हैं। नींद भी टूट गई है स्वप्न से, तो भी छाती धड़कती रही है। जागकर देख लिया है कि स्वप्न था, लेकिन छाती धड़की जा रही है, हाथ-पैर कंपे जा रहे हैं।
यदि वह स्वप्न बिलकुल ही नहीं होता, तो उसका कोई भी परिणाम नहीं हो सकता था। था, लेकिन उस अर्थ में नहीं था, जिस अर्थ में जागकर जो दिखाई पड़ता है, वह है। उसे किस कोटि में रखें--न होने की, होने की? उसे किस जगह रखें? था जरूर और फिर भी नहीं है!
असत की जो कोटि है, असत की जो केटेगरी है, वह अनस्तित्व की कोटि नहीं है। असत की कोटि अस्तित्व और अनस्तित्व के बीच की कोटि है। ऐसा सत, जो सत मालूम पड़ता है, लेकिन नहीं है।
लेकिन हम यह कैसे जानेंगे? क्योंकि स्वप्न में तो पता नहीं पड़ता कि जो हम देख रहे हैं, वह नहीं है। स्वप्न में तो मालूम होता है, जो देख रहे हैं, वह बिलकुल है। और ऐसा नहीं है कि पहली दफे स्वप्न देखने में ऐसा मालूम पड़ता हो। जीवनभर स्वप्न देखकर भी और रोज सुबह जागकर भी, जानकर कि नहीं था, आज रात फिर जब स्वप्न आएगा, तब स्वप्न में पूरी तरह लगेगा कि है। लगता है पूरी तरह कि है; भासता है पूरी तरह कि है; फिर भी सुबह जागकर पाते हैं कि नहीं है।
यह जो एपिअरेंस है, भासना है, यह जो दिखाई पड़ना है, यह जो होने जैसा धोखा है, इसका नाम असत है। संसार को जब असत कहा है, तो उसका यह अर्थ नहीं है कि संसार नहीं है। उसका इतना ही अर्थ है कि चेतना की ऐसी अवस्था भी है, जब हम जागने से भी जागते हैं। अभी हम स्वप्न से जागकर देखते हैं, तो पाते हैं, स्वप्न नहीं है। लेकिन जब हम जागने से भी जागकर देखते हैं, तो पाते हैं कि जिसे जागने में जाना था, वह भी नहीं है। जागने से भी जाग जाने का नाम समाधि है। जिसे अभी हम जागना कह रहे हैं, जब इससे भी जागते हैं, तब पता चलता है कि जो देखा था, वह भी नहीं है।
कृष्ण कह रहे हैं, जिसके आगे-पीछे न होना हो और बीच में होना हो, वह असत है। जो एक समय था कि नहीं था और एक समय आता है कि नहीं हो जाता है, उसके बीच की जो घटना है, बीच की जो हैपनिंग है, दो न होने के बीच जो होना है, उसका नाम असत है।
लेकिन जिसका न होना है ही नहीं, जिसके पीछे भी होना है, बीच में भी होना है, आगे भी होना है, जो तीनों तलों पर है ही; सोएं तो भी है, जागें तो भी है, जागकर भी जागें तो भी है; निद्रा में भी है, जागरण में भी है, समाधि में भी है; जो चेतना की हर स्थिति में ही है, उसका नाम सत है। और ऐसा जो सत है, वह सदा है, सनातन है, अनादि है, अनंत है।
जो ऐसे सत को पहचान लेते हैं, वे बीच में आने वाले असत के भंवर को, असत की लहरों को देखकर न सुखी होते हैं, न दुखी होते हैं। क्योंकि वे जानते हैं, जो क्षणभर पहले नहीं था, वह क्षणभर बाद नहीं हो जाएगा। दोनों ओर न होने की खाई है, बीच में होने का शिखर है। तो स्वप्न है। तो असत है। दोनों ओर होने का ही विस्तार है अंतहीन, तो जो है, वह सत है।
कसौटी, कृष्ण कीमती कसौटी हाथ में देते हैं, उससे सत की परख हो सकती है। सुख अभी है, अभी क्षणभर पहले नहीं था, और अभी क्षणभर बाद फिर नहीं हो जाता है। दुख अभी है, क्षणभर पहले नहीं था, क्षणभर बाद नहीं हो जाता है। जीवन अभी है, कल नहीं था, कल फिर नहीं हो जाता है। जो-जो चीजें बीच में होती हैं और दोनों छोरों पर नहीं होती हैं, वे बीच में केवल होने का धोखा ही दे पाती हैं। क्योंकि जो दोनों ओर नहीं है, वह बीच में भी नहीं हो सकता है। सिर्फ भासता है, दिखाई पड़ता है, प्रकट होता है।
जीवन की प्रत्येक चीज को इस कसौटी पर कसा जा सकता है। अर्जुन से कृष्ण यही कह रहे हैं कि तू कसकर देख। जो अतीत में नहीं था, जो भविष्य में नहीं होगा, उसके अभी होने के व्यामोह में मत पड़। वह अभी भी वस्तुतः नहीं है; वह अभी भी सिर्फ दिखाई पड़ रहा है; वह सिर्फ होने का धोखा दे रहा है। और तू धोखे से जाग भी न पाएगा कि वह नहीं हो जाएगा। तू उस पर ध्यान दे, जो पहले भी था, जो अभी भी है और आगे भी होगा। हो सकता है, वह तुझे दिखाई भी न पड़ रहा हो, लेकिन वही है। तू उसकी ही तलाश कर, तू उसकी ही खोज कर।
जीवन में सत्य की खोज, असत्य की परख से शुरू होती है। मिथ्या को जानना मिथ्या की भांति, असत को पहचान लेना असत की भांति, सत्य की खोज का आधार है। सत्य को खोजने का और कोई आधार भी नहीं है हमारे पास। हम कैसे खोजें कि सत क्या है? सत्य क्या है? हम ऐसे ही शुरू कर सकते हैं कि असत्य क्या है।
कई बार बड़ी उलझन पैदा होती है। क्योंकि कहा जा सकता है कि जब तक हमें सत्य पता न हो, तब तक हम कैसे जानेंगे कि असत्य क्या है? सत्य पता हो, तो ही असत्य को जान सकेंगे। और सत्य हमें पता नहीं है।
लेकिन इससे उलटी बात भी कही जा सकती है। और सोफिस्ट उलटी दलील भी देते रहे हैं। वे कहते हैं कि जब तक हमें यही पता नहीं है कि असत्य क्या है, तो हम कैसे समझ लेंगे कि सत्य क्या है! यह चक्रीय तर्क वैसा ही है, जैसे अंडे और मुर्गी का है। कौन पहले है? अंडा पहले है या मुर्गी पहले है? कहें कि मुर्गी पहले है तो मुश्किल में पड़ जाते हैं, क्योंकि मुर्गी बिना अंडे के नहीं हो सकेगी। कहें कि अंडा पहले है तो उतनी ही कठिनाई खड़ी हो जाती है, क्योंकि अंडा बिना मुर्गी के रखे रखा नहीं जा सकेगा। लेकिन कहीं से प्रारंभ करना पड़ेगा, अन्यथा उस दुष्चक्र में, उस विशियस सर्किल में कहीं कोई प्रारंभ नहीं है।
अगर ठीक से पहचानें, तो मुर्गी और अंडे दो नहीं हैं। इसीलिए दुष्चक्र पैदा होता है। अंडा, हो रही मुर्गी है; मुर्गी, बन रहा अंडा है। वे दो नहीं हैं; वे एक ही प्रोसेस, एक ही हिस्से के, एक ही लहर के दो भाग हैं। और इसीलिए दुष्चक्र पैदा होता है कि कौन पहले! उनमें कोई भी पहले नहीं है। एक ही साथ हैं, युगपत हैं। अंडा मुर्गी है, मुर्गी अंडा है।
यह सत और असत का भी करीब-करीब सवाल ऐसा है। वह जिसको हम असत कहते हैं, उसका आधार भी सत है। क्योंकि वह असत भी सत होकर ही भासता है; वह भी दिखाई पड़ता है। एक रस्सी पड़ी है और अंधेरे में सांप दिखाई पड़ती है। सांप का दिखाई पड़ना बिलकुल ही असत है। पास जाते हैं और पाते हैं कि सांप नहीं है, लेकिन पाते हैं कि रस्सी है। वह रस्सी सांप जैसी भास सकी, पर रस्सी थी भीतर। रस्सी का होना सत है। वह सांप एक क्षण को दिखाई पड़ा, फिर नहीं दिखाई पड़ा, वह असत था। पर वह भी, उसके आधार में भी सत था, सब्सटैंस में, कहीं गहरे में सत था। उस सत के ही आभास से, उस सत के ही प्रतिफलन से वह असत भी भास सका है।
लहर के पीछे भी सागर है, मर्त्य के पीछे भी अमृत है, शरीर के पीछे भी आत्मा है, पदार्थ के पीछे भी परमात्मा है। अगर पदार्थ भी भासता है, तो परमात्मा के ही प्रतिफलन से, रिफ्लेक्शन से भासता है, अन्यथा भास नहीं सकता।
आप एक नदी के किनारे खड़े हैं और नीचे आपका प्रतिबिंब बनता है। निश्चित ही वह प्रतिबिंब आप नहीं हैं; लेकिन वह प्रतिबिंब आपके बिना भी नहीं है। निश्चित ही वह प्रतिबिंब सत नहीं है, पानी पर बनी केवल छवि है। लेकिन फिर भी वह प्रतिबिंब जहां से आ रहा है, वहां सत है।
असत, सत की ही झलक है क्षणभर को मिली। क्षणभर को सत ने जो आकृति ली, अगर हमने उस आकृति को जोर से पकड़ लिया, तो हम असत को पकड़ लेते हैं। और अगर हमने उस आकृति में से उसको पहचान लिया जो निराकार, निर्गुण, उस क्षणभर आकृति में झलका था, तो हम सत को पकड़ लेते हैं।
लेकिन जहां हम खड़े हैं, वहां आकृतियों का जगत है। जहां हम खड़े हैं, वहां प्रतिफलन ही दिखाई पड़ते हैं। हमारी आंखें इस तरह झुकी हैं कि नदी के तट पर कौन खड़ा है, वह दिखाई नहीं पड़ता; नदी के जल में जो प्रतिबिंब बन रहा है, वही दिखाई पड़ता है। हमें उससे ही शुरू करना पड़ेगा; हमें असत से ही शुरू करना पड़ेगा। हम स्वप्न में हैं, तो स्वप्न से ही शुरू करना पड़ेगा। अगर हम स्वप्न को ठीक से पहचानते जाएं, तो स्वप्न तिरोहित होता चला जाएगा।
यह बड़े मजे की बात है, कभी प्रयोग करने जैसा अदभुत है। रोज रात को सोते समय स्मरण रखकर सोएं, सोते-सोते एक ही स्मरण रखे रहें कि जब स्वप्न आए तब मुझे होश बना रहे कि यह स्वप्न है। बहुत कठिन पड़ेगा, लेकिन संभव हो जाता है। नींद लगती जाए, लगती जाए, और आप स्मरण करते जाएं, करते जाएं कि जैसे ही स्वप्न आए, मैं जान पाऊं कि यह स्वप्न है। थोड़े ही दिन में यह संभव हो जाता है, नींद में भी यह स्मृति प्रवेश कर जाती है। अचेतन में उतर जाती है। और जैसे ही स्वप्न आता है, वैसे ही पता चलता है, यह स्वप्न है।
लेकिन एक बहुत मजे की घटना है। जैसे ही पता चलता है, यह स्वप्न है, स्वप्न तत्काल टूट जाता है--तत्काल, इधर पता चला कि यह स्वप्न है कि उधर स्वप्न टूटा और बिखरा। स्वप्न को स्वप्न की भांति पहचान लेना, उसकी हत्या कर देनी है। वह तभी तक जी सकता है, जब तक सत्य प्रतीत हो। उसके जीने का आधार उसके सत्य होने की प्रतीति में है।
इस प्रयोग को जरूर करना ही चाहिए।
इस प्रयोग के बाद कृष्ण का यह सूत्र बहुत साफ समझ में आ जाएगा कि वे इतना जोर देकर क्यों कह रहे हैं कि अर्जुन, असत और सत के बीच की भेद-रेखा को जो पहचान लेता है, वह ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है। स्वप्न से ही शुरू करें रात के, फिर बाद में दिन के स्वप्न को भी जागकर देखें और वहां भी स्मरण रखें कि जो है--दो नहीं के बीच में--वह स्वप्न है। और तब अचानक आप पाएंगे कि आपके भीतर कोई रूपांतरित होता चला जा रहा है। और जहां कल मन पकड़ लेने का होता था, आज वहां मुट्ठी नहीं बंधती। कल जहां मन रोक लेने का होता था किसी स्थिति को, आज वहां हंसकर गुजर जाने का मन होता है। क्योंकि जो दोनों तरफ नहीं है, उसे पकड़ना, हवा को मुट्ठी में बांधने जैसा है। जितने जोर से पकड़ो, उतने ही बाहर हाथ के हो जाती है। मत पकड़ो तो बनी रहती है; पकड़ो तो खो जाती है।
जैसे ही यह दिखाई पड़ गया कि दो नहीं के बीच में जो है, है मालूम पड़ता है, वह स्वप्न है, वैसे ही आपकी जिंदगी से असत की पकड़ गिरनी शुरू हो जाएगी; स्वप्न बिखरना शुरू हो जाएगा। तब जो शेष रह जाता है, वह सत्य है। जिसको आप पूरी तरह जागकर भी नहीं मिटा पाते, जिसको आप पूरी तरह स्मरण करके भी नहीं मिटा पाते, जो आपके बावजूद शेष रह जाता है, वही सत्य है। वह शाश्वत है; उसका कोई आदि नहीं है, कोई अंत नहीं है। कहना चाहिए, वह टाइमलेस है।
यह भी थोड़ा समझ लेने जैसा है।
असत हमेशा टाइम में होगा, समय में होगा। क्योंकि जो कल नहीं था, आज है, और कल नहीं हो जाएगा, उसके समय के तीन विभाजन हुए--अतीत, वर्तमान और भविष्य। लेकिन जो कल भी था, आज भी है, कल भी होगा, उसके तीन विभाजन नहीं हो सकते। उसका कौन-सा अतीत है? उसका कौन-सा वर्तमान है? उसका कौन-सा भविष्य है? वह सिर्फ है। इसलिए सत्य के साथ टाइम सेंस नहीं है, समय की कोई धारणा नहीं है। सत कालातीत है, समय के बाहर है। असत समय के भीतर है।
जैसे मैंने कहा, आप नदी के तट पर खड़े हैं और आपका प्रतिफलन, रिफ्लेक्शन नदी में बन रहा है। आप नदी के बाहर हो सकते हैं, लेकिन रिफ्लेक्शन सदा नदी के भीतर ही बन सकता है। पानी का माध्यम जरूरी है। कोई भी माध्यम जो दर्पण का काम कर सके, कोई भी माध्यम जो प्रतिफलन कर सके, वह जरूरी है। आपके होने के लिए, कोई प्रतिफलन करने वाले माध्यम की जरूरत नहीं है। लेकिन आपका चित्र बन सके, उसके लिए प्रतिफलन के माध्यम की जरूरत है।
टाइम, समय प्रतिफलन का माध्यम है। किनारे पर सत खड़ा होता है, समय में असत पैदा होता है। समय की धारा में, समय के दर्पण पर, टाइम मिरर पर जो प्रतिफलन बनता है, वह असत है। और समय में कोई भी चीज थिर नहीं हो सकती। जैसे पानी में कोई भी चीज थिर नहीं हो सकती, क्योंकि पानी अथिर है। इसलिए कितना ही थिर प्रतिबिंब हो, फिर भी कंपता रहेगा। पानी कंपन है।
ये जो कंपते हुए प्रतिबिंब हैं समय के दर्पण पर बने हुए, कल थे, अभी हैं, कल नहीं होंगे। कल भी बड़ी बात है; बीते क्षण में थे, नहीं थे, अगले क्षण में नहीं हो जाएंगे। ऐसा जो क्षण-क्षण बदल रहा है, जो क्षणिक है, वह असत है। जो क्षण के पार है, जो सदा है, वही सत है। इसकी भेद-रेखा को जो पहचान लेता, कृष्ण कहते हैं, वह ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है।
(भगवान कृष्ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल
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