गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 5 भाग 17

 


 विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।

शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।। 18।।


इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।

निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः।। 19।।


ऐसे वे ज्ञानीजन विद्या और विनय युक्त ब्राह्मण में, तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चांडाल में भी समभाव से देखने वाले ही होते हैं।


इसलिए जिनका मन समत्वभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही संपूर्ण संसार जीत लिया गया, क्योंकि सच्चिदानंदघन परमात्मा निर्दोष और सम है। इससे वे सच्चिदानंदघन परमात्मा में ही स्थित हैं।


पाना हो जिसे प्रभु को, उसे प्रभु जैसा हो जाना पड़ेगा। पाने की एक ही शर्त है, जो पाना हो, उस जैसा ही हो जाना पड़ता है। यह शर्त गहरी है। और यह नियम शाश्वत है। और जीवन के समस्त तलों पर लागू है।

अगर किसी व्यक्ति को धन पाना है, तो थोड़े दिन में पाएंगे कि वह आदमी भी धातु का ठीकरा हो गया। अगर किसी व्यक्ति को पद पाना है, तो थोड़े दिन में पाएंगे कि उस आदमी में और कुर्सी की जड़ता में कोई फर्क नहीं रहा। असल में हमें जो भी पाना है, जाने-अनजाने हमें वही बन जाना पड़ता है। बिना बने, हम पा नहीं सकते। हम वही पा सकते हैं, जो हम बनते हैं। जो भी हम चाहते हैं इस जगत में, इस जगत के पार, हम वही बन जाते हैं।

इसलिए आदमी के चेहरे पर, आंखों में, हाथों में, वह सब लिखा रहता है, वह जो उसकी खोज है, वह जो पाना चाहता है। आदमी को देखकर कहा जा सकता है, वह क्या पाना चाहता है। क्योंकि उसके सारे भावों पर, उसकी चमड़ी पर सब अंकित हो गया होता है।

परमात्मा को जिसे पाना है, उसे परमात्मा जैसा हो जाना पड़ेगा। परमात्मा के क्या मौलिक लक्षण हैं?

एक, कि परमात्मा सम है, विषम नहीं है। समता की स्थिति है परमात्मा, संतुलन की। सब चीजें सम हैं परमात्मा में। कोई लहर भी नहीं है, जो विषमता लाती हो। सब! जैसे कि तराजू के दोनों पलड़े बिलकुल एक जगह पर हों, कंपन भी न होता है। जैसे वीणा के तार बिलकुल सधे हों। न बहुत ढीले हों, न बहुत खिंचे हों। ऐसी समता परमात्मा का स्वरूप है।

जिसे भी परमात्मा को पाना है, उसे समता की तरफ बढ़ना पड़ेगा। कोई चाहे कि मैं विषम रहकर और परमात्मा को पा लूं, तो नहीं पा सकेगा। विषम रहकर परमात्मा को पाना असंभव है।

इसीलिए जो आदमी क्रोध में, लोभ में, काम में, घृणा में, ईष्या में डूबता है, वह परमात्मा की तरफ नहीं बढ़ पाएगा। क्योंकि ये सब चीजें मन को विषम करती हैं, उत्तेजित करती हैं, आंदोलन करती हैं, सम नहीं करती हैं। इसलिए जो आदमी करुणा में, प्रेम में, क्षमा में, दान में, दया में विकसित होगा, वह धीरे-धीरे परमात्मा की तरफ बढ़ेगा। क्योंकि दान है, दया है, क्षमा है, करुणा है, प्रेम है, ये भीतर समता को पैदा करवाते हैं।

क्या कभी आपने खयाल किया कि जब आप लोभ से भरते हैं, तो आपके भीतर का संतुलन डगमगा जाता है। पलड़े नीचे-ऊपर होने लगते हैं। लहरें उठ जाती हैं।

जिस चीज से आपके भीतर जितनी ज्यादा विषमता पैदा होती हो, जानना, वह उतनी ही अधर्म है। अधर्म की एक कसौटी है, जिससे उत्तेजना और विषमता पैदा होती हो। धर्म की भी एक कसौटी है, जिससे समता और संतुलन निर्मित होता हो। ऐसी घड़ी भीतर आ जाए कि आपका हृदय दो पलड़ों की तरह ठहर जाए, तराजू सम हो जाए। कोई भी पल्ला न नीचे हो, न ऊपर हो। वजन किसी पर न रह जाए। दोनों पल्ले समान आ जाएं। ऐसी तराजू की स्थिति आ जाए सम, उसी क्षण परमात्मा से तदरूपता सधनी शुरू हो जाती है।

लेकिन हमारा मन सदा ही कहीं न कहीं झुका रहता है--किसी पक्ष में, किसी वृत्ति में, किसी लोभ में, किसी वासना में--कहीं न कहीं झुका रहता है। हम किसी के खिलाफ और किसी के पक्ष में झुके रहते हैं। किसी के विपरीत और किसी के अनुकूल झुके रहते हैं। किसी के विकर्षण में और किसी के आकर्षण में झुके रहते हैं। हम सदा ही झुके रहते हैं। और यह झुकाव चौबीस घंटे बदलता रहता है। चौबीस घंटे! हमें भी पक्का नहीं होता कि ऊंट सांझ तक किस करवट बैठेगा। दिन में बहुत करवट बदलते हैं।

यह जो चित्त की दशा है विषम, यह परमात्मा की तरफ ले जाने वाली नहीं बन सकती है।

परमात्मा है सम, समता। अगर वैज्ञानिक शब्दों में कहें, तो समत्व। परमात्मा शब्द को छोड़ा जा सकता है। इतना ही कहना काफी है कि जीवन का जो मूल स्वभाव है, वह समत्व है। वहां सब समान है।

जिस व्यक्ति को परमात्मा की यात्रा करनी है, उसे चौबीस घंटे ध्यान में रखना चाहिए कि वह समत्व खोता है या बढ़ाता है! ऊपर से बहुत अंतर नहीं पड़ता, असली सवाल भीतर जानकारी का है। ऊपर हो सकता है कि एक आदमी सम मालूम पड़े और भीतर विषम हो। इससे विपरीत भी हो सकता है। कृष्ण जैसा आदमी जब चक्र हाथ में ले ले सुदर्शन, तो बाहर से तो लोगों को लगेगा ही कि विषम हो गया, पर भीतर सम है।

असली सवाल भीतर है। इसलिए दूसरे का सवाल नहीं है। प्रत्येक को अपने भीतर देखते रहना चाहिए कि मैं समता को बढ़ाता हूं, गहराता हूं, घनी कर रहा हूं; या तोड़ रहा हूं, मिटा रहा हूं, नष्ट कर रहा हूं।

जैसे कोई आदमी बगीचे की तरफ जा रहा हो। अभी बगीचा बहुत दूर है, लेकिन जैसे-जैसे पास पहुंचता है, हवाएं ठंडी होने लगती हैं। हवाओं को ठंडा जानकर वह सोचता है कि मेरे कदम ठीक रास्ते पर पड़ रहे हैं। और पास पहुंचता है, अभी भी बगीचा दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन फूलों की सुगंध आने लगती है। तो वह सोचता है कि मेरे कदम ठीक रास्ते पर पड़ रहे हैं।

ठीक ऐसे ही, अगर आपके भीतर समता का भाव आने लगे, तो आप समझना कि परमात्मा की तरफ कदम पड़ रहे हैं। और अगर विषमता का भाव आने लगे, तो समझना कि कदम विपरीत पड़ रहे हैं। हवाएं गर्म होने लगें, तो समझना कि बगीचे से उलटे जा रहे हैं। और सुगंध की जगह दुर्गंध से चित्त भरने लगे, तो समझना कि बगीचे के विपरीत जा रहे हैं।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, समत्व को जो उपलब्ध हो जाए, वही उस परमात्मा से भी एक हो पाता है, तदरूप हो पाता है। और जब कोई उस परमात्मा से एक हो जाता है, तो हाथी में, घोड़े में, गाय में--किसी में भी--कृष्ण ने सारे नाम गिनाए, फिर वह परमात्मा को ही देखता है।


यह दूसरा भी एक महत्वपूर्ण नियम है जीवन का कि हम बाहर वही देखते हैं, जो हमारे भीतर गहरे में होता है। हम अपने से ज्यादा इस जगत में कभी कुछ नहीं देख पाते। बाहर हम वही देखते हैं, जो गहरे में हमारे भीतर होता है।



हम दूसरे में वही देखते हैं, जो हमारे भीतर होता है। ओर जो आदमी परमात्मा से तदरूप हो जाएगा, वह अपने चारों ओर परमात्मा को देखना शुरू कर देगा। इसके अलावा उपाय नहीं बचेगा। उपाय नहीं है फिर। देखेगा ही। क्योंकि जब भीतर परमात्मा दिखाई पड़ेगा, तो आपकी आंखों के पार भी परमात्मा दिखाई पड़ेगा। जब अपनी हड्डी के पार परमात्मा दिखाई पड़ेगा, तो दूसरे की हड्डी में भी छिपा वही दिखाई पड़ेगा। जब अपनी देह के भीतर उसका मंदिर मालूम पड़ेगा, तो दूसरे की देह के भीतर भी उसका मंदिर मालूम पड़ेगा।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, सब में वह परमात्मा को देखना शुरू कर देता है।

हम तो अपने में ही नहीं देखते, तो दूसरे में देखने की तो बात बहुत मुश्किल है! सारी यात्रा अपने ही घर से शुरू करनी पड़ती है। अभी तो मुझे अपने में ही पता न चलता हो कि परमात्मा है, तो मैं आपमें कैसे देख सकूंगा? अपने भीतर तो पता चलता है, चोर है, बेईमान है। तो मैं दूसरे में भी चोर और बेईमान ही देख सकता हूं। पढूंगा मैं, किताब आपकी होगी, लेकिन पढूंगा वही, जो मैं पढ़ सकता हूं। अर्थ मैं वही निकालूंगा, जो मैं निकाल सकता हूं।

इसलिए इस जगत में हर किताब गलत पढ़ी जाती है, हर आदमी गलत पढ़ा जाता है। पढ़ा ही जाएगा, क्योंकि पढ़ने वाला वही पढ़ सकता है।


हम वही पढ़ लेते, वही समझ लेते, हम वही मान लेते, वही जान लेते, जो हमारे भीतर है। हमारा जगत हमारा प्रोजेक्शन है। एक-एक आदमी अपनी दुनिया को अपने साथ लेकर चलता है। एक-एक आदमी अपनी दुनिया को अपने साथ लेकर चलता है। कोई भी चीज बाहर घटे, हमें अपनी ही बात याद आती है।


आदमी के भीतर एक जाल है। उसी जाल से वह सारे जगत को बाहर से नापता-जोखता है। इसलिए जब आपको कोई आदमी चोर मालूम पड़े, तो एक बार सोचना फिर से कि उसके चोर मालूम पड़ने में आपके भीतर का चोर तो सहयोगी नहीं हो रहा! और जब कोई आदमी बेईमान मालूम पड़े, तो सोचना भीतर से कि उसके बेईमान दिखाई पड़ने में आपके भीतर का बेईमान तो कारण नहीं बन रहा!

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि बाहर लोग बेईमान नहीं हैं और चोर नहीं हैं। होंगे! उससे कोई प्रयोजन नहीं है। लेकिन जब आपको दिखाई पड़ता है, तो जरा भीतर देखना कि आपके भीतर कोई कारण तो इस व्याख्या के लिए आधार नहीं है? और अगर हो, तो दूसरे के चोर होने से इतना नुकसान नहीं है, जितना दूसरे के चोर दिखाई पड़ने से नुकसान है। क्योंकि फिर इस जगत में आपको परमात्मा दिखाई पड़ना मुश्किल है। और दूसरा चोर होकर आपसे कुछ कीमती चीज नहीं छीन सकता, लेकिन आप दूसरे में चोर देखते हैं, इससे आप बहुत बड़ी कीमती चीज से वंचित रह जा सकते हैं। वह दूसरे में परमात्मा दिख सकता था, उससे आप वंचित रह जा सकते हैं।

इसलिए साधक के लिए कहता हूं, आखिरी बात! साधक निरंतर इस चेष्टा में रहेगा, पहला सूत्र मैंने कहा, समता की ओर बढ़ रहा हूं या नहीं। दूसरा सूत्र, साधक निरंतर इस चेष्टा में रहेगा कि दूसरे के भीतर कोई ऐसी शुभ चीज को देख ले, जिससे परमात्मा का स्मरण आ सके। अगर दूसरे के भीतर अशुभ को देखा, तो शैतान का स्मरण आ सकता है, परमात्मा का स्मरण नहीं आ सकता। दूसरे के भीतर मैं कोई चीज देख लूं, जिससे परमात्मा का स्मरण आ सके।


ये दो सूत्र भी एक ही सूत्र के हिस्से हैं। अगर भीतर समता लानी हो, तो बाहर शुभ को देखना अनिवार्य है। और अगर भीतर विषमता लानी हो, तो बाहर अशुभ को देखना अनिवार्य है।

बाहर अशुभ को देखना छोड़ते चले जाएं। और ध्यान रखें, इस पृथ्वी पर बुरे से बुरा आदमी भी ऐसा नहीं है, जिसके भीतर शुभ की कोई किरण न हो। और यह भी ध्यान रखें, इस पृथ्वी पर भले से भला आदमी भी ऐसा नहीं है, जिसके भीतर कोई अशुभ न खोजा जा सके। आप पर निर्भर है। और जब आपको एक अशुभ मिल जाता है किसी में, तो उसमें दूसरे शुभ पर भरोसा करना कठिन हो जाता है। और जब आपको किसी में एक शुभ मिल जाता है, तो दूसरे शुभ के लिए भी द्वार खुल जाता है।

भीतर लानी हो समता, तो बाहर शुभ का दर्शन करना शुरू करें। जितना शुभ का दर्शन कर सकें बाहर, करें। उतनी समता घनी होगी।

भीतर समता, बाहर शुभ। और आप पाएंगे कि इन दोनों के बीच में प्रभु की किरण धीरे-धीरे उतरने लगी। और वह दिन भी दूर नहीं होगा कि जिस दिन समता और शुभ की पूर्ण स्थिति में प्रभु से तदरूपता हो जाती है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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