निष्काम कर्म और अखंड मन की कीमिया
एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु।
बुद्धया युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि।। ३९।।
हे पार्थ, यह सब तेरे लिए सांख्य (ज्ञानयोग) के विषय में कहा गया और इसी को अब (निष्काम कर्म) योग के विषय में सुन कि जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू, कर्मों के बंधन को अच्छी तरह से नाश करेगा।
अनंत हैं सत्य तक पहुंचने के मार्ग। अनंत हैं प्रभु के मंदिर के द्वार। होंगे ही अनंत, क्योंकि अनंत तक पहुंचने के लिए अनंत ही मार्ग हो सकते हैं। जो भी एकांत को पकड़ लेते हैं--जो भी सोचते हैं, एक ही द्वार है, एक ही मार्ग है--वे भी पहुंच जाते हैं। लेकिन जो भी पहुंच जाते हैं, वे कभी नहीं कह पाते कि एक ही मार्ग है, एक ही द्वार है। एक का आग्रह सिर्फ उनका ही है, जो नहीं पहुंचे हैं; जो पहुंच गए हैं, वे अनाग्रही हैं।
कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं, अब तक जो मैंने तुझसे कहा, वह सांख्य की दृष्टि थी।
सांख्य की दृष्टि गहरी से गहरी ज्ञान की दृष्टि है। सांख्य का जो मार्ग है, वह परम ज्ञान का मार्ग है। इसे थोड़ा समझ लें, तो फिर आगे दूसरे मार्ग समझना आसान हो जाएगा।
पर कृष्ण ने क्यों सांख्य की ही पहले बात कर ली! सांख्य की इसलिए पहले बात कर ली कि अगर सांख्य काम में आ जाए, तो फिर और कोई आवश्यकता नहीं है। सांख्य काम में न आ सके, तो ही फिर कोई और आवश्यकता है।
सांख्य का कहना यही है कि जानना ही काफी है, करना कुछ भी नहीं है; जानना पर्याप्त है। इस जगत की जो पीड़ा है और बंधन है, वह न जानने से ज्यादा नहीं है। अज्ञान के अतिरिक्त और कोई वास्तविक बंधन नहीं है। कोई जंजीर नहीं है, जिसे तोड़नी है। न ही कोई कारागृह है, जिसे मिटाना है। न ही कोई जगह है, जिससे मुक्त होना है। सिर्फ जानना है। जानना है कि मैं कौन हूं? जानना है कि जो चारों तरफ फैला है, वह क्या है? सिर्फ जानना।
एक आदमी, जो वस्तुतः चिंतित और परेशान है, विक्षिप्त है, पागल है, उससे हम कहें कि सिर्फ जानना काफी है और तू पागलपन के बाहर आ जाएगा। वह आदमी कहेगा, जानता तो मैं काफी हूं; जानने को अब और क्या बचा है! लेकिन जानने से पागलपन नहीं मिटता। कुछ और करो! जानने के अलावा भी कुछ और जरूरी है।
कृष्ण ने अर्जुन को सबसे पहले सांख्य की दृष्टि कही, क्योंकि यदि सांख्य काम में आ जाए तो किसी और बात के कहने की कोई जरूरत नहीं है। न काम में आए, तो फिर किसी और बात के कहने की जरूरत पड़ सकती है।तो कृष्ण ने कहा कि अभी जो मैंने तुझसे कहा अर्जुन, वह सांख्य की दृष्टि थी। इस पूरे वक्त कृष्ण ने सिर्फ स्मरण दिलाने की कोशिश की, कि आत्मा अमर है; न उसका जन्म है, न उसकी मृत्यु है। स्मरण दिलाया कि अव्यक्त था, अव्यक्त होगा, बीच में व्यक्त का थोड़ा-सा खेल है। स्मरण दिलाया कि जो तुझे दिखाई पड़ते हैं, वे पहले भी थे, आगे भी होंगे। स्मरण दिलाया कि जिन्हें तू मारने के भय से भयभीत हो रहा है, उन्हें मारा नहीं जा सकता है।
इस पूरे समय कृष्ण क्या कर रहे हैं? कृष्ण अर्जुन को ऐसे किसी विचार के लोक में घुमा रहे हैं कि शायद कोई विचार-कण, कोई स्मृति चोट कर जाए और वह कहे कि ठीक, यही है। ऐसा ही है। लेकिन ऐसा वह नहीं कह पाता।
वह शिथिल गात, अपने गांडीव को रखे, उदास मन, वैसा ही हताश, विषाद से घिरा बैठा है। वह कृष्ण की बातें सुनता है। कहीं भी उसे स्मरण नहीं आता कि वह दौड़कर कहे, कि यह रहा मैं; ठीक है, बात अब बंद करो, पहचान आ गई; रिकग्नीशन हुआ, प्रत्यभिज्ञा हुई, स्मरण आ गया है। ऐसा वह कहता नहीं। वह बैठा है। वह रीढ़ भी नहीं उठाता; वह सीधा भी नहीं बैठता। उसे कुछ भी स्मरण नहीं आ रहा है।
इसलिए कृष्ण उससे कहते हैं कि अब मैं तुझसे कर्मयोग की बात कहता हूं। सांख्ययोग श्रेष्ठतम योग है। अब मैं तुझसे कर्मयोग की बात करता हूं। वे जो जानने से ही नहीं जान सकते, जिन्हें कुछ करना ही पड़ेगा, जो बिना कुछ किए स्मरण ला ही नहीं सकते-- अब मैं तुझसे कर्मयोग की बात कहता हूं।
(भगवान कृष्ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल