सोमवार, 12 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 2 भाग 8

 मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।

आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।। १४।।

हे कुंतीपुत्रसर्दी-गर्मी और सुख-दुख को देने वाले इंद्रिय और विषयों के संयोग तो क्षणभंगुर और अनित्य हैं। इसलिएहे भरतवंशी अर्जुनउनको तू सहन कर।




जो भी जन्मता हैमरता है। जो भी उत्पन्न होता हैवह विनष्ट होता है। जो भी निर्मित होगावह बिखरेगासमाप्त होगा। कृष्ण कह रहे हैंइसे स्मरण रख भारतइसे स्मरण रख कि जो भी बना हैवह मिटेगा। और जो भी बना हैवह मिटेगाजो जन्मा हैवह मरेगा--इसका अगर स्मरण होइसकी अगर याददाश्त होइसका अगर होश,  तो उसके मिटने के लिए दुख का कोई कारण नहीं रह जाता। और जिसके मिटने में दुख का कारण नहीं रह जाताउसके होने में सुख का कोई कारण नहीं रह जाता।

हमारे सुख-दुख हमारी इस भ्रांति से जन्मते हैं कि जो भी मिला है वह रहेगा। प्रियजन आकर मिलता हैतो सुख मिलता है। लेकिन जो आकर मिला हैवह जाएगा। जहां मिलन हैवहां विरह है। जो मिलन में विरह को देख लेउसके मिलन का सुख विलीन हो जाता हैउसके विरह का दुख भी विलीन हो जाता है। जो जन्म में मृत्यु को देख लेउसकी जन्म की खुशी विदा हो जाती हैउसका मृत्यु का दुख विदा हो जाता है। और जहां सुख और दुख विदा हो जाते हैंवहां जो शेष रह जाता हैउसका नाम ही आनंद है। आनंद सुख नहीं है। आनंद सुख की बड़ी राशि का नाम नहीं है। आनंद सुख के स्थिर होने का नाम नहीं है। आनंद मात्र दुख का अभाव नहीं है। आनंद मात्र दुख से बच जाना नहीं है। आनंद सुख और दुख दोनों से ही उठ जाना हैदोनों से ही बच जाना है।

असल में सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो मिलन में सिर्फ मिलन को देखता और विरह को नहीं देखतावह क्षणभर के सुख को उपलब्ध होता है। फिर जो विरह में सिर्फ विरह को देखता हैमिलन को नहीं देखतावह क्षणभर के दुख को उपलब्ध होता है। और जब कि मिलन और विरह एक ही प्रक्रिया के दो हिस्से हैंएक ही मैग्नेट के दो पोल हैंएक ही चीज के दो छोर हैं।

इसलिए जो सुखी हो रहा हैउसे जानना चाहिएवह दुख की ओर अग्रसर हो रहा है। जो दुखी हो रहा हैउसे जानना चाहिएवह सुख की ओर अग्रसर हो रहा है। सुख और दुख एक ही अस्तित्व के दो छोर हैं। और जो भी चीज निर्मित हैजो भी चीज बनी हैवह बिखरेगीबनने में ही उसका बिखरना छिपा हैनिर्मित होने में ही उसका विनाश छिपा है। जो व्यक्ति इस सत्य को पूरा का पूरा देख लेता हैपूरा...! हम आधे सत्य देखते हैं और दुखी होते हैं।

यह बड़े मजे की बात हैअसत्य दुख नहीं देताआधे सत्य दुख देते हैं। असत्य जैसी कोई चीज है भी नहींक्योंकि असत्य का मतलब ही होता है जो नहीं है। सिर्फ आधे सत्य ही असत्य हैं। वे भी हैं इसीलिए कि वे भी सत्य के आधे हिस्से हैं। पूरा सत्य आनंद में ले जाताआधा सत्य सुख-दुख में डांवाडोल करवाता है।

इस जगत में असत्य से मुक्त नहीं होना हैसिर्फ आधे सत्यों से मुक्त होना है। ऐसा समझिए कि आधा सत्य ही असत्य है। और कोई असत्य है नहीं। असत्य को भी खड़ा होना पड़े तो सत्य के ही आधार पर खड़ा होना पड़ता हैवह अकेला खड़ा नहीं हो सकताउसके पास अपने कोई पैर नहीं हैं।

कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन सेतू पूरे सत्य को देख। तू आधे सत्य को देखकर विचलितपीड़ितपरेशान हो रहा है।

जो भी विचलितपीड़ितपरेशान हो रहा हैवह किसी न किसी आधे सत्य से परेशान होगा। जहां भी दुख हैजहां भी सुख हैवहां आधा सत्य होगा। और आधा सत्य पूरे समय पूरा सत्य बनने की कोशिश कर रहा है।

तो जब आप सुखी हो रहे हैंतभी आपके पैर के नीचे से जमीन खिसक गई है और दुख आ गया है। जब आप दुखी हो रहे हैंतभी जरा गौर से देखेंआस-पास कहीं दुख के पीछे सुख छाया की तरह आ रहा है। इधर सुबह होती हैउधर सांझ होती है। इधर दिन निकलता हैउधर रात होती है। इधर रात हैउधर दिन तैयार हो रहा है। जीवन पूरे समयअपने से विपरीत में यात्रा है। जीवन पूरे समयअपने से विपरीत में यात्रा है। एक छोर से दूसरे छोर पर लहरें जा रही हैं। कृष्ण कहते हैंभारत! पूरा सत्य देख। पूरा तुझे दिखाई पड़ेतो तू अनुद्विग्न हो सकता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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