मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।। १४।।
हे कुंतीपुत्र, सर्दी-गर्मी और सुख-दुख को देने वाले इंद्रिय और विषयों के संयोग तो क्षणभंगुर और अनित्य हैं। इसलिए, हे भरतवंशी अर्जुन, उनको तू सहन कर।
जो भी जन्मता है, मरता है। जो भी उत्पन्न होता है, वह विनष्ट होता है। जो भी निर्मित होगा, वह बिखरेगा, समाप्त होगा। कृष्ण कह रहे हैं, इसे स्मरण रख भारत, इसे स्मरण रख कि जो भी बना है, वह मिटेगा। और जो भी बना है, वह मिटेगा; जो जन्मा है, वह मरेगा--इसका अगर स्मरण हो, इसकी अगर याददाश्त हो, इसका अगर होश, तो उसके मिटने के लिए दुख का कोई कारण नहीं रह जाता। और जिसके मिटने में दुख का कारण नहीं रह जाता, उसके होने में सुख का कोई कारण नहीं रह जाता।
हमारे सुख-दुख हमारी इस भ्रांति से जन्मते हैं कि जो भी मिला है वह रहेगा। प्रियजन आकर मिलता है, तो सुख मिलता है। लेकिन जो आकर मिला है, वह जाएगा। जहां मिलन है, वहां विरह है। जो मिलन में विरह को देख ले, उसके मिलन का सुख विलीन हो जाता है, उसके विरह का दुख भी विलीन हो जाता है। जो जन्म में मृत्यु को देख ले, उसकी जन्म की खुशी विदा हो जाती है, उसका मृत्यु का दुख विदा हो जाता है। और जहां सुख और दुख विदा हो जाते हैं, वहां जो शेष रह जाता है, उसका नाम ही आनंद है। आनंद सुख नहीं है। आनंद सुख की बड़ी राशि का नाम नहीं है। आनंद सुख के स्थिर होने का नाम नहीं है। आनंद मात्र दुख का अभाव नहीं है। आनंद मात्र दुख से बच जाना नहीं है। आनंद सुख और दुख दोनों से ही उठ जाना है, दोनों से ही बच जाना है।
असल में सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो मिलन में सिर्फ मिलन को देखता और विरह को नहीं देखता, वह क्षणभर के सुख को उपलब्ध होता है। फिर जो विरह में सिर्फ विरह को देखता है, मिलन को नहीं देखता, वह क्षणभर के दुख को उपलब्ध होता है। और जब कि मिलन और विरह एक ही प्रक्रिया के दो हिस्से हैं; एक ही मैग्नेट के दो पोल हैं; एक ही चीज के दो छोर हैं।
इसलिए जो सुखी हो रहा है, उसे जानना चाहिए, वह दुख की ओर अग्रसर हो रहा है। जो दुखी हो रहा है, उसे जानना चाहिए, वह सुख की ओर अग्रसर हो रहा है। सुख और दुख एक ही अस्तित्व के दो छोर हैं। और जो भी चीज निर्मित है, जो भी चीज बनी है, वह बिखरेगी; बनने में ही उसका बिखरना छिपा है; निर्मित होने में ही उसका विनाश छिपा है। जो व्यक्ति इस सत्य को पूरा का पूरा देख लेता है, पूरा...! हम आधे सत्य देखते हैं और दुखी होते हैं।
यह बड़े मजे की बात है, असत्य दुख नहीं देता, आधे सत्य दुख देते हैं। असत्य जैसी कोई चीज है भी नहीं, क्योंकि असत्य का मतलब ही होता है जो नहीं है। सिर्फ आधे सत्य ही असत्य हैं। वे भी हैं इसीलिए कि वे भी सत्य के आधे हिस्से हैं। पूरा सत्य आनंद में ले जाता, आधा सत्य सुख-दुख में डांवाडोल करवाता है।
इस जगत में असत्य से मुक्त नहीं होना है, सिर्फ आधे सत्यों से मुक्त होना है। ऐसा समझिए कि आधा सत्य ही असत्य है। और कोई असत्य है नहीं। असत्य को भी खड़ा होना पड़े तो सत्य के ही आधार पर खड़ा होना पड़ता है, वह अकेला खड़ा नहीं हो सकता; उसके पास अपने कोई पैर नहीं हैं।
कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से, तू पूरे सत्य को देख। तू आधे सत्य को देखकर विचलित, पीड़ित, परेशान हो रहा है।
जो भी विचलित, पीड़ित, परेशान हो रहा है, वह किसी न किसी आधे सत्य से परेशान होगा। जहां भी दुख है, जहां भी सुख है, वहां आधा सत्य होगा। और आधा सत्य पूरे समय पूरा सत्य बनने की कोशिश कर रहा है।
तो जब आप सुखी हो रहे हैं, तभी आपके पैर के नीचे से जमीन खिसक गई है और दुख आ गया है। जब आप दुखी हो रहे हैं, तभी जरा गौर से देखें, आस-पास कहीं दुख के पीछे सुख छाया की तरह आ रहा है। इधर सुबह होती है, उधर सांझ होती है। इधर दिन निकलता है, उधर रात होती है। इधर रात है, उधर दिन तैयार हो रहा है। जीवन पूरे समय, अपने से विपरीत में यात्रा है। जीवन पूरे समय, अपने से विपरीत में यात्रा है। एक छोर से दूसरे छोर पर लहरें जा रही हैं। कृष्ण कहते हैं, भारत! पूरा सत्य देख। पूरा तुझे दिखाई पड़े, तो तू अनुद्विग्न हो सकता है।
(भगवान कृष्ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल
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