गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 6 भाग 10

  

योगी युग्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।

एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः।। 10।।


इसलिए उचित है कि जिसका मन और इंद्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, ऐसा वासनारहित और संग्रहरहित योगी अकेला ही एकांत स्थान में स्थित हुआ निरंतर आत्मा को परमेश्वर के ध्यान में लगाए।



यहां दोत्तीन बातें कृष्ण कहते हैं, जो बड़ी विपरीत जाती हुई मालूम पड़ेंगी। और ऐसे सूत्रों की बड़ी गलत व्याख्या की गई है। प्रकट व्याख्या मालूम पड़ती है, इसलिए गलती करने में आसानी भी हो जाती है।

कहते हैं वह, वासना से रहित हुआ, संग्रह से मुक्त हुआ, समत्व को पाया हुआ, ऐसा जो योगी-चित्त है, वह एकांत में परमात्मा का स्मरण करे, परमात्मा को ध्याये, परमात्मा का ध्यान करे; परम सत्ता की दिशा में गति करे।

एकांत में! तो इस सूत्र के गलत अर्थ बहुत आसान हो गए। तो यही तो अर्जुन कह रहा है कि मुझे जाने दो महाराज इस युद्ध से। एकांत में जाऊं, चिंतन-मनन करूं, प्रभु का स्मरण करूं। जाने दो मुझे। कृष्ण फिर उसे रोक क्यों रहे हैं? फिर युद्धोन्मुख क्यों कर रहे हैं? फिर कर्मोन्मुख क्यों कर रहे हैं? फिर क्यों कह रहे हैं कि कर्म में रत रहकर तू जी? सम होकर, समत्व को पाकर, पर कर्म में रत होकर।

एकांत! तो एकांत से कृष्ण का जो अर्थ है, वह समझ लेना चाहिए।

एकांत से अर्थ अकेलापन नहीं है। एकांत से अर्थ अकेलापन नहीं  है। एकांत से अर्थ लोनलीनेस नहीं है। एकांत से अर्थ है, अलोननेस। एकांत से अर्थ है, स्वयं होना, पर-निर्भर न होना। एकांत से अर्थ, दूसरे की अनुपस्थिति नहीं है। एकांत से अर्थ है, दूसरे की उपस्थिति की कोई जरूरत नहीं है।

इस फर्क को ठीक से समझ लें।

आप जंगल में बैठे हैं। बिलकुल एकांत है। कोई नहीं चारों तरफ। दूर कोसों तक कोई नहीं। फिर भी मैं नहीं मानता कि आप एकांत में हो सकेंगे। आपके होने का ढंग भीड़ में होने का ढंग है। आप अकेले हो सकेंगे; एकांत में नहीं हो सकेंगे। अकेले तो प्रकट हैं। अकेले बैठे हैं। कोई नहीं दिखाई पड़ता आस-पास। लेकिन एकांत नहीं हो सकता। भीतर झांककर देखेंगे, तो उन सबको मौजूद पाएंगे, जिनको गांव में, घर छोड़ आए हैं। मित्र भी वहां होंगे, शत्रु भी वहां होंगे; प्रियजन भी वहां होंगे, परिवार भी वहां होगा; दुकान-बाजार, काम-धंधा, सब वहां होगा। भीतर सब मौजूद होंगे। पूरी भीड़ मौजूद होगी। तो अकेले में तो आप हैं, लेकिन एकांत में नहीं हैं। एकांत का तो अर्थ है कि भीतर एक ही स्वर बजे, कोई दूसरे की मौजूदगी न रह जाए भीतर। तो इससे उलटा भी हो सकता है। जिस आदमी को एकांत का रहस्य पता चल गया हो, वह भीड़ में खड़े होकर भी एकांत में होता है। भीड़ कोई बाधा नहीं डालती। भीड़ सदा बाहर है। कौन आपके भीतर प्रवेश कर सकता है?

आप यहां बैठे हैं, इतनी भीड़ में बैठे हैं। आप अकेले हो सकते हैं। भीड़ अपनी जगह बैठी है। कोई आपकी जगह पर नहीं चढ़ा हुआ है। अपनी-अपनी जगह पर लोग बैठे हुए हैं। कोई चाहे, तो भी आपकी जगह पर नहीं बैठ सकता है। अपनी-अपनी जगह पर लोग हैं। अगर उनका हाथ भी आपको छू रहा है चारों तरफ से, तो हाथ ही छू रहा है। हाथ का स्पर्श भीतर प्रवेश नहीं करता। भीतर आप बिलकुल एकांत में हो सकते हैं।

एक ही स्वर हो भीतर, स्वयं के होने का; एक ही स्वाद हो भीतर, स्वयं के होने का; एक ही संगीत हो भीतर, स्वयं के होने का। दूसरे का कोई भी पता नहीं। कोसों तक नहीं, अनंत तक कोई भी पता नहीं। भीतर कोई है ही नहीं दूसरा। आप बिलकुल अकेले हैं।

इस एकांत, इस आंतरिक, इनर एकांत का अर्थ और है, और बाह्य अकेलेपन का अर्थ और है। भीड़ से भाग जाना बड़ी सरल बात है, लेकिन स्वयं के भीतर से भीड़ को बाहर निकाल देना बहुत कठिन बात है।

भीड़ से निकल जाने में कौन-सी कठिनाई है? दो पैर आपके पास हैं, निकल भागिए! दो पैर काफी हैं भीड़ से बाहर निकलने के लिए, कोई कठिन बात है? दो पैर आपके पास हैं, निकल भागिए! मत रुकिए तब तक, जब तक कि भीड़ न छंट जाए। एकांत में पहुंच जाएंगे? अकेलेपन वाले एकांत में पहुंच जाएंगे।

लेकिन भीड़ को भीतर से बाहर निकाल फेंकना अति कठिन मामला है। पैर साथ न देंगे; कितना ही भागिए, भीतर की भीड़ भीतर मौजूद रहेगी। जहां भी जाइएगा, साथ खड़ी हो जाएगी। जहां भी वृक्ष के नीचे विश्राम करने बैठेंगे, भीतर के मित्र बात-चीत शुरू कर देंगे कि कहिए, क्या हाल है! मौसम कैसा है? सब शुरू हो जाएगा! बैठकखाना वापस आपके साथ भीतर मौजूद हो जाएगा। और कई बार तो ऐसा होगा कि जिनकी मौजूदगी में जिनका कोई पता नहीं चलता, उनकी गैर-मौजूदगी में उनका पता और भी ज्यादा चलता है!

अपनी पत्नी के पास बैठे हैं घंटेभर, तो भूल भी जा सकते हैं कि पत्नी है। भूल भी जा सकते हैं। अक्सर भूल ही जाते हैं। पत्नी नहीं है, तब उसकी खाली जगह उसका ज्यादा स्मरण दिलाती है। आदमी जिंदा है, तो पता नहीं चलता; मर जाता है, तो घाव छोड़ जाता है; ज्यादा याद आता है। जगह खाली हो जाती है।

किसी की मौजूदगी की वजह से आपके भीतर भीड़ नहीं होती; आपके भीतरी रसों की वजह से ही भीड़ होती है। आंतरिक रस है। दूसरे में हम रस लेते हैं। इसलिए जब कोई मौजूद होता है, तो उतनी जल्दी नहीं रहती है। जानते हैं कि कभी भी रस ले लेंगे; मौजूद तो है। लेकिन पता चल जाए कि मौजूद नहीं है, तो रस ज्यादा आने लगता है। क्योंकि पता नहीं, अभी रस लेना चाहें, तो दूसरा मौजूद मिले, न मिले। तो गैर-मौजूदगी और भी ज्यादा पकड़ लेती है, जोर से पकड़ लेती है।


तो इस खयाल में मत रहना आप कि भीड़ के बीच में हैं, तो भीड़ में हैं। भीड़ में होने का अर्थ है कि भीड़ आपके भीतर है, तो आप भीड़ में हैं। भीड़ आपके भीतर नहीं है, तो आप बिलकुल अकेले हैं।

कृष्ण जैसा आदमी कहीं भी खड़ा हो--कैसी भी भीड़ में, कैसे भी बाजार में--अरण्य ही चलता है, जंगल ही है। हम जैसा आदमी कहीं भी खड़ा हो जाए, जंगल में भी, तो भीड़ ही चलती है, बाजार ही है। हमारे होने के ढंग पर निर्भर है।

तो जब अर्जुन से कहा कृष्ण ने कि ऐसा व्यक्ति समत्व को उपलब्ध हुआ, थिर हुआ, शांत हुआ, एकांत में प्रभु को ध्याता है, प्रभु का ध्यान करता है, तो क्या अर्थ होगा? किसी जंगल में, किसी पहाड़ पर, किसी गुफा में?

नहीं, एक और गुफा है, अंतर-हृदय की, वहां। एक और अरण्य है स्वयं के भीतर ही, शून्य का, वहां। एक इनर स्पेस है, एक भीतरी आकाश है। इस बाहर के आकाश से भी विराट और बड़ा, वहां। हृदय की गुफा में। वहां एकांत में वह प्रभु को ध्याता है। और वहीं प्रभु का ध्यान किया जा सकता है; बाहर के जंगलों में कोई प्रभु का ध्यान नहीं किया जा सकता।

इसे भी थोड़ा-सा समझ लें।

साधक के लिए विशेष ध्यान में ले लेने जैसी बात है कि प्रभु का ध्यान अंतर-गुफा में किया जाता है, हृदय की गुफा में। नकल में हम कितनी ही गुफाएं बाहर बना लें पत्थरों को खोदकर, उनसे हल नहीं होता। पत्थर बहुत कमजोर है। हृदय को खोदना पत्थर से भी जटिल चीज को तोड़ना है; ज्यादा कठिन है। हीरे की छेनियां भी टूट जाएंगी।

हृदय में गुफा है। सबके भीतर एक अंतर-आकाश है।

तो आपको एकांत का अंतिम अर्थ कहता हूं, जिससे कृष्ण का प्रयोजन है। अगर आप भी बच रहे, तो भी एकांत नहीं है। एक क्षण ऐसा आता है, जब आप भी नहीं हैं; सिर्फ चैतन्य रह जाता है, आप भी नहीं होते हैं। आपको पता भी नहीं होता कि मैं भी हूं, सिर्फ होना रह जाता है। उस शुद्ध होने में एकांत है। उस एकांत में प्रभु को ध्याया जाता है। ध्याया क्या जाता है, उस एकांत में प्रभु को जान ही लिया जाता है। उस एकांत में प्रभु से मिलन ही हो जाता है।

तो कृष्ण कहते हैं, ऐसा पुरुष एकांत में प्रभु को ध्याता है।

यह ध्याता शब्द बहुत अदभुत है। प्रभु का ध्यान करता है। क्या आप किसी ऐसी चीज का ध्यान कर सकते हैं, जिसका आपको पता न हो? क्या यह संभव है कि जिसको आप जानते न हों, उसका आप ध्यान कर सकें? यह कैसे संभव है? जिसे जानते नहीं, उसका ध्यान कैसे करिएगा? ध्यान के लिए तो जानना जरूरी है। लेकिन हम सब प्रभु का ध्यान करते हैं। और हमें प्रभु का कोई भी पता नहीं है!

ध्यान हो कैसे सकता है, जिसका हमें पता नहीं है! जिसे हमने जाना ही नहीं, यह भी नहीं जाना कि जो है भी या नहीं है! यह भी नहीं जाना कि है, तो कैसा है! कुछ भी जिसकी हमें खबर नहीं है, उसका ध्यान कर रहे हैं लोग बैठकर! आंख बंद करके लोग कहते हैं कि हम प्रभु का ध्यान कर रहे हैं!

अगर उनकी खोपड़ी थोड़ी चीरी जा सके और उनकी खोपड़ी में झांका जा सके, तो आपको पता चल जाएगा, वे किसका ध्यान कर रहे हैं! किसका ध्यान कर रहे हैं, पता चल जाएगा।

कृष्ण कहते हैं, ऐसा पुरुष--यह शर्त है ध्यान की, इतनी शर्त पूरी हो, तो ही प्रभु का ध्यान होता है, नहीं तो ध्यान नहीं होता। हां, और चीजों का ध्यान हो सकता है। प्रभु का ध्यान, उसकी शर्त--समत्व को जो उपलब्ध हुआ, निष्कंप जिसका चित्त हुआ, ऐसा व्यक्ति फिर एकांत में, अंतर-गुहा में प्रभु को ध्याता है। फिर प्रभु ही प्रभु चारों तरफ दिखाई पड़ता है। खुद तो खोजे से नहीं मिलता, प्रभु ही प्रभु दिखाई पड़ता है। उसकी ही स्मृति रोम-रोम में गूंजने लगती है। उसका ही स्वाद प्राणों के कोने-कोने तक तिर जाता है। उसकी ही धुन बजने लगती है रोएं-रोएं में। श्वास-श्वास में वही। तब ध्यान है।

ध्यान का अर्थ है, जिसके साथ हम आत्मसात होकर एक हो जाएं। नहीं तो ध्यान नहीं है। अगर आप बच रहे, तो ध्यान नहीं है। ध्यान का अर्थ है, जिसके साथ हम एक हो जाएं। ध्यान का अर्थ है कि कोई आपको काटे, तो आपके मुंह से निकले कि प्रभु को क्यों काट रहे हो! ध्यान का अर्थ है कि कोई आपके चरणों में सिर रख दे, तो आप जानें कि प्रभु को नमस्कार किया गया है। सोचें नहीं, जानें। आपका रोआं-रोआं प्रभु से एक हो जाए। लेकिन यह घटना तो एकांत में घटती है। इनर अलोननेस, वह जो भीतरी एकांत गुहा है, जहां सब दुनिया खो जाती, बाहर समाप्त हो जाता। मित्र, प्रियजन, शत्रु सब छूट जाते। धन, दौलत, मकान सब खो जाते। और आखिरी पड़ाव पर स्वयं भी खो जाते हैं आप। क्योंकि उस स्वयं की भीतर कोई जरूरत नहीं है, बाहर जरूरत है।

अगर ठीक से समझें, तो वह जिसको आप कहते हैं मैं, वह साइनबोर्ड है, जो घर के बाहर लगाने के लिए दूसरों के काम पड़ता है। आपने कभी खयाल किया कि जब आप अपने दरवाजे के भीतर घुसते हैं, तो साइनबोर्ड को अपनी छाती पर लटकाकर मकान के भीतर नहीं जाते। क्यों? आपका ही घर है, यहां साइनबोर्ड को ले जाने की क्या जरूरत है? साइनबोर्ड तो दरवाजे की चौखट पर लगा देते हैं। बाहर से जाने वाले, राह से गुजरने वाले, औरों को पता चले कि कौन यहां रहता है। आप अपना साइनबोर्ड अपनी छाती पर लटकाकर घर के भीतर नहीं जाते।

वह जिसको हम कहते हैं, मैं, नाम-धाम, पता-ठिकाना, वह भी एक साइनबोर्ड है बहुत सूक्ष्म, जो हमने दूसरों के लिए लगाया है। जब भीतर के एकांत में कोई प्रवेश करता है, तो उसे ले जाने की कोई भी जरूरत नहीं पड़ती। वहां आपकी भी कोई जरूरत नहीं है। आप भी वहां शून्यवत हो जाते हैं। उस शून्यवत एकाकार स्थिति में प्रभु को ध्याया जाता है।

यह एकांत जंगल में, अरण्य में भाग जाने वाला एकांत नहीं, यह स्वयं के भीतर प्रविष्ट हो जाने वाला एकांत है।

और कृष्ण ने यहां अर्जुन को जो कहा है, वह योग की परम उपलब्धि है। समस्त योग इसलिए है कि हम अंतर-गुफा में कैसे प्रवेश करें। योग विधि है अंतर-गुफा में प्रवेश की। और अंतर-गुफा में प्रवेश के बाद जो प्रभु का ध्यान है, वह अनुभव है, वह प्रतीति है, वह साक्षात्कार है।

सबके भीतर है वह गुफा। लेकिन सब अपनी गुफा के बाहर घूमते रहते हैं, कोई भीतर जाता नहीं। शायद हमें स्मरण ही नहीं रहा है, क्योंकि न मालूम कितने जन्मों से हम बाहर घूमते हैं। और जब भी एकांत होता है, तो हम अकेलेपन को एकांत समझ लेते हैं। और तब हम तत्काल अपने अकेलेपन को भरने के लिए कोई उपाय कर लेते हैं। पिक्चर देखने चले जाते हैं, कि रेडियो खोल लेते हैं, कि अखबार पढ़ने लगते हैं। कुछ नहीं सूझता, तो सो जाते हैं, सपने देखने लगते हैं। मगर अपने अकेलेपन को जल्दी से भर लेते हैं।

ध्यान रहे, अकेलापन सदा उदासी लाता है, एकांत आनंद लाता है। वे उनके लक्षण हैं। अगर आप घड़ीभर एकांत में रह जाएं, तो आपका रोआं-रोआं आनंद की पुलक से भर जाएगा। और आप घड़ीभर अकेलेपन में रह जाएं, तो आपका रोआं-रोआं थका और उदास, और कुम्हलाए हुए पत्तों की तरह आप झुक जाएंगे। अकेलेपन में उदासी पकड़ती है, क्योंकि अकेलेपन में दूसरों की याद आती है। और एकांत में आनंद आ जाता है, क्योंकि एकांत में प्रभु से मिलन होता है। वही आनंद है, और कोई आनंद नहीं है।

तो अगर आपको अकेले बैठे हुए उदासी मालूम होने लगे, तो आप समझना कि यह एकांत नहीं है; यह दूसरों की याद आ रही है आपको। और एकांत की खोज करना। और एकांत खोजा जा सकता है।

ध्यान कहें, स्मरण कहें, सुरति कहें, नाम कहें, कोई भी, सब एकांत की खोज है। इस बात की खोज है कि मैं उस जगह पहुंच जाऊं, जहां कोई रूप-रेखा न रह जाए दूसरे की। और जहां दूसरे की कोई रूप-रेखा नहीं रह जाती, वहां स्वयं की भी रूप-रेखा के बचने का कोई कारण नहीं रह जाता। सब हो जाता है निराकार।

उस निराकार क्षण में ईश्वर को ध्याया जाता है, जाना जाता है, जीया जाता है। हम फिर अलग होकर नहीं देखते उसे। वह परिचय नहीं है। हम उसके साथ एकमेक होकर जानते हैं। वह पहचान नहीं है दूर से, बाहर से, अलग से। वह एक होकर ही जान लेना है। हम वही होकर जानते हैं।

और जिस दिन कोई अपनी अंतर-गुहा में पहुंच जाता है, वह स्वयं ही भगवान हो जाता है।


भगवान हो जाने का अर्थ सिर्फ इतना ही है कि वहां उसके और भगवान के बीच कोई फासला नहीं रह जाता। और प्रत्येक व्यक्ति की मंजिल यही है कि वह भगवान हो जाए। भगवान के होने के पहले कोई पड़ाव मंजिल मत समझ लेना।

निराकार हो जाने के पहले, कहीं रुक मत जाना। सब पड़ाव हैं। रुकना तो वहीं है, जहां स्वयं भी मिट जाए, सब मिट जाए; शून्य, निराकार रह जाए। वही है परम आनंद। उस परम आनंद की दिशा में ही कृष्ण अर्जुन को इस सूत्र में इशारा करते हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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