गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 24

  यज्ञ का रहस्य


दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते।

ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति।। 25।।


और दूसरे योगीजन देवताओं के पूजनरूप यज्ञ को ही अच्छी प्रकार उपासते हैं अर्थात करते हैं और दूसरे ज्ञानीजन परब्रह्म परमात्मा रूप अग्नि में यज्ञ के द्वारा ही यज्ञ को हवन करते हैं।


यज्ञ के संबंध में थोड़ा-सा समझ लेना आवश्यक है।

धर्म अदृश्य से संबंधित है। धर्म आत्यंतिक से संबंधित है।  आत्यंतिक, जो अंतिम है जीवन में--गहरे से गहरा, ऊंचे से ऊंचा--उससे संबंधित है। जीवन के अनुभव के जो शिखर हैं, शिखर अनुभव, धर्म उनसे संबंधित है।




स्वभावतः, गहन अनुभव जब अभिव्यक्त किया जाए, तो कठिनाई होती है। उस अनुभव के लिए हमारी जिंदगी में न तो कोई शब्द होते हैं। उस अनुभव के लिए हमारे व्यवहार में प्रतीक खोजने भी कठिन हो जाते हैं। ठीक-ठीक समानांतर शब्दों की कोई संभावना नहीं है। इसलिए धर्म प्रतीकात्मक, संकेतात्मक हो जाता है। वह जो आत्यंतिक अनुभव है, उसे पृथ्वी की भाषा में प्रकट करने के लिए रूपक, प्रतीक और संकेत चुनने पड़ते हैं, निर्मित करने पड़ते हैं।

वे ही संकेत अभिव्यक्ति भी लाते हैं, वे ही संकेत अंत में अवरोध भी बन जाते हैं। अभिव्यक्ति उनके लिए बनते हैं वे संकेत, जो उन संकेतों पर रुकते नहीं; इशारों को पकड़ते नहीं, पार निकल जाते हैं। और जो उन इशारों को पकड़कर रुक जाते हैं, उनके लिए अवरोध हो जाते हैं।

मील का पत्थर लगा है। तीर का निशान बना है। जो उस मील के पत्थर के पास ही मंजिल को समझकर रुक जाता है, वह मील का पत्थर उसके लिए अवरोध हो गया। इससे तो अच्छा होता कि रास्ते पर कोई मील के पत्थर न होते। उसे रुकने की कोई जगह न मिलती। वह मंजिल तक पहुंच जाता। लेकिन मील के पत्थर लगाने वाले ने चलने के सहारे के लिए मील के पत्थर लगाए। और वह जो तीर का निशान है, वह कहता है कि आगे, और आगे। यहां नहीं रुक जाना है।

जो गहरे देख पाता है, उसे मील का पत्थर रोकता नहीं, बढ़ाता है। जो गहरे नहीं देख पाता, वह मील के पत्थर पर रुक जाता है और बैठ जाता है।

मील का पत्थर बोल नहीं सकता। प्रतीक गूंगे हैं, बोल नहीं सकते। जो समझ पाए, समझ पाए। न समझ पाए, न समझ पाए।

धर्म को बहुत-से प्रतीक खोजने पड़े, उस अनुभव को बताने के लिए, जो पारलौकिक है। दो-चार प्रतीक मैं आपको खयाल में दूं, तो यज्ञ का प्रतीक भी समझ में आ सके। और तब यह भी समझ में आ सके कि यज्ञ के साथ भी मील के पत्थर का प्रयोग हो गया है। कुछ लोग प्रतीक को पकड़कर मील के पत्थर पर ही बैठ गए हैं। वे आग जला रहे हैं, घी डाल रहे हैं, गेहूं डाल रहे हैं--और सोच रहे हैं, काम का अंत हुआ! सोच रहे हैं, बात पूरी हुई। यज्ञ के प्रतीक का यह अवरोध की तरह उपयोग हुआ। यह प्रतीक गतिमान भी हो सकता  है, गत्यात्मक हो सकता है, आगे ले जा सकता है; लेकिन उन्हीं को, जो इस प्रतीक में गहरे समझने के लिए चेष्टा करें।

मनुष्य के अनुभव में अग्नि गहरा प्रतीक बन सकती है। क्योंकि अग्नि में कुछ खूबियां हैं। पहली खूबी तो यह है कि अग्नि की लपट सदा ही ऊपर की तरफ दौड़ती है। सदा ही। अग्नि की लपट सदा ही ऊपर की तरफ दौड़ती है, ऊर्ध्वगामी है। जैसे ही मनुष्य की चेतना धार्मिक होनी शुरू होती है, ऊर्ध्वगामी हो जाती है, ऊपर की तरफ दौड़ने लगती है। इसलिए बहुत प्रारंभ में ही यह खयाल आ गया कि अग्नि प्रतीक बन सकती है भीतर की चेतना के ऊर्ध्वगमन का, ऊपर उठने का।

दूसरी खूबी अग्नि की यह है कि अग्नि में कुछ भी अशुद्ध हो, तो जल जाता है। सोने को डाल दें, अशुद्ध जल जाता है, शुद्ध निखरकर बाहर आ जाता है। जिन्होंने धर्म की चेतना की ज्योति का अनुभव किया, उनको भी पता लगा कि उस ज्योति में, जो भी अशुद्ध है, वह जल जाता है; और जो शुद्ध है, वह निखर आता है। अग्नि और भी गहरा प्रतीक बन गई धर्म का।

फिर तीसरी अग्नि की खूबी है कि लपट थोड़ी दूर तक ही दिखाई पड़ती है, फिर अदृश्य में खो जाती है। जरा दिखी, और खोई। जिनको भी चेतन के ऊर्ध्वगमन का अनुभव हुआ है, वे जानते हैं कि थोड़ी दूर तक ही पता चलता कि मैं हूं, फिर मैं होने का पता नहीं चलता; फिर तो ब्रह्म में लीन हो जाता सब। जरा-सी झलक अपने होने की, और फिर सर्व के होने में खो जाता है। इसलिए अग्नि और भी गहरा प्रतीक बन गई। लपट झलकी भी नहीं, और खोई। ऊपर उठी भी नहीं, और ब्रह्म के साथ एक हुई।

सागर में गिर जाए बूंद, खोजनी कठिन है कि हम उस बूंद को फिर से पा लें, लेकिन फिर भी अकल्पनीय नहीं है। सोच तो सकते ही हैं कि बूंद कहीं तो होगी ही। कोई न कोई उपाय खोजा जा सकता है कि वापस खोज लें। लेकिन अग्नि की लपट खो जाए आकाश में, तो कंसीवेबल भी नहीं है कि हम उसे वापस पा लें।

जो खो गया ब्रह्म में,  वह वापस नहीं लौट सकता। वहां से वापसी नहीं है। इसलिए अग्नि का प्रतीक गहरा प्रतीक बन गया। और जब पहली बार अग्नि यज्ञ बनी, तो मेटाफर थी, सूचक थी। ऋषियों के आश्रम में जलती ही रहती सदा। यज्ञ की ज्योति बढ़ती ही रहती सदा आकाश की तरफ। आस-पास से निकलते हुए साधक निरंतर स्मरण कर पाते उस लपट से, रिमेंबर कर पाते, भीतर की लपट को निरंतर ऊपर उठाने का।

उस अग्नि में जो भी आहुति डाली जाती, उस अग्नि में जो भी डाला जाता, वह सब प्रतीक था अपने को डालने का, स्वयं को डालने का। अपने को निरंतर डालते रहना है यज्ञरूपी अग्नि में। वे सब प्रतीक थे। उन प्रतीकों को निरंतर उपस्थित रखना अर्थपूर्ण था।

अर्थपूर्ण ऐसे ही, जैसे एक आदमी बाजार जाए; कुछ लाना है खरीदकर। भूल न जाए, तो कुर्ते के छोर में गांठ लगा लेता है। बाजार में दिन में दस बार गांठ पर नजर जाती है, खयाल आ जाता है, कुछ लाना है। गांठ से कोई संबंध नहीं है लाने का। बिना गांठ के भी लाया जा सकता है। लेकिन गांठ स्मरण के लिए आधार बन सकती है। चुभती रहेगी; खयाल बनाए रखेगी, कुछ लाना है। स्मृति को जगाए रखेगी। दिन में पच्चीस बार, हजार काम में डूबे हुए जब भी नजर जाएगी कुर्ते की गांठ पर, खयाल आएगा, कुछ लाना है। सांझ होते तक भूलना मुश्किल होगा। सांझ होते-होते तक भूलना मुश्किल होगा। सांझ घर जो लाना है, लेकर आदमी लौट आएगा। गांठ के बिना भूलना हो सकता था। गांठ के साथ भूलना मुश्किल है।

लेकिन कोई गांठ की पूजा करने लग जाए, तो भी भूल जाएगा। क्योंकि तब गांठ स्मरण नहीं कराएगी, पूजा करवाएगी।

सारे प्रतीक गांठ की तरह हैं। गुरुकुल में जलती हुई अग्नि, यज्ञ की उठती हुई लपटें, रोज सुबह दी गई आहुति, पढ़े गए मंत्र--गांठ हैं। और जिनको उन प्रतीकों का अर्थ पता था, उनके लिए वह सिर्फ अग्नि न थी, वह चेतना की लपट थी। जिन्हें प्रतीकों का अर्थ पता था, उनके लिए डाली गई आहुति गेहूं नहीं था, घी नहीं था, जीवन था। वे प्रतीक थे; गांठ की तरह प्रतीक थे।


यह कृष्ण जिस यज्ञ की बात कर रहे हैं, वह प्रतीकात्मक है। तब पूरा जीवन ही यज्ञ है। तब पूरा जीवन ही यज्ञ है। और यह स्मरण आ जाए, तो समस्त कर्म यज्ञ हैं। तब समस्त जीवन आहुति है। तब स्वयं को बना लेना है हवन का कुंड; सब समर्पित कर देना है उस कुंड में। डाल देना है स्वयं को; जला देना है स्वयं को। जल जाए अहंकार।

पूछ सकेंगे, पूछने का मन होगा कि गेहूं जैसी चीज क्यों डाली गई?

वह भी वैसा ही प्रतीक है, जैसी अग्नि। गेहूं है बीज। छिपा है सब उसमें, अभी प्रकट नहीं हुआ। अब इस बीज को जमीन में बो दें, तो प्रकट होगा; अंकुर निकलेगा; वृक्ष बनेगा। और एक बीज करोड़ बीज बन जाएगा।

जब गेहूं को डालते हैं यज्ञ में, तो प्रतीक है इस बात का कि अहंकार जब बीजरूप हो, तभी डाल देना। उसको बो मत देना जमीन में। अन्यथा अहंकार में अंकुर आ जाएंगे। हर अंकुर में सैकड़ों बीज लग जाएंगे। हर बीज में फिर सैकड़ों अंकुर लगने की संभावना पैदा हो जाएगी। और अहंकार विराट वृक्ष की तरह बढ़ता चला जाएगा। बीज की तरह डाल देना उसे। जब बीज हो, तभी डाल देना। अंकुरित मत करना। सींचना मत। खाद मत डालना। बढ़ाना मत। उसको मजबूत मत करना, पोषण मत करना। जब बीजरूप ही हो, तभी डाल देना।

स्वभावतः, बीज के लिए उन पुराने दिनों में गेहूं से निकट और कोई चीज न थी! निकटतम, अधिकतम प्रभावी, जीवन जिस पर निर्भर था, उस गेहूं को दग्ध कर देना, राख। ऐसे ही अहंकार को दग्ध कर देना, राख। निर्बीज हो जाना अहंकार की दृष्टि से।

अब बीज के साथ दो काम किए जा सकते हैं। जमीन में गड़ाएं, तो बीज अंकुरित होगा; करोड़ों बीज पैदा कर जाएगा। आग में डाल दें, तो बीज अंकुरित नहीं होगा, सिर्फ राख हो जाएगा। उसके पीछे कोई रेखा नहीं छूट जाएगी यात्रा की।

अग्नि में डाले गए बीज, बीजरूपी अहंकार को डालने के प्रतीक थे।

घी भी डाला गया है यज्ञ में। क्यों डाला गया होगा? किस प्रतीक, किस मेटाफर के खयाल से?

देखा होगा, घी को डालें अग्नि में, तो अग्नि की लपटें बढ़ती हैं। घी के डालने से अग्नि की लपट बढ़ती है, तीव्र होती है, उज्ज्वल होती है, प्रखर होती है, तेज होती है। घी के डालते ही अग्नि में त्वरा आती है। गेहूं को डालिएगा, तो अग्नि की त्वरा कम होगी। गति क्षीण होगी, क्योंकि अग्नि की ताकत गेहूं को जलाने में लगेगी। तो जो लपट बनने की शक्ति थी, वह बंटेगी। लेकिन घी को डालिए, तो अग्नि की ताकत घी को जलाने में नहीं लगती, घी की ताकत ही अग्नि को बढ़ाने में लगती है।

जीवन की जो ज्योति है, उसमें दो काम करने हैं। उसमें बुराई को डालकर दग्ध करना है और भलाई को डालकर उस ज्योति को बढ़ाना है। घी भलाई का निकटतम प्रतीक हो सकता था, जिन दिनों वह प्रतीक खोजा गया। घी भलाई का निकटतम प्रतीक हो सकता था। कई कारणों से।

एक तो स्निग्ध है, इसलिए उसका दूसरा नाम स्नेह भी है, प्रेम भी है। और भी कई कारणों से। घी प्रकृति में सीधा पैदा नहीं होता। गेहूं प्रकृति में सीधे पैदा होता है। अहंकार प्रकृति में सीधा पैदा होता है, बुराई सीधी पैदा होती है। भलाई को पैदा करने के लिए बड़ा श्रम उठाना पड़ता है। वह सीधी पैदा नहीं होती; उसकी डायरेक्ट बर्थ नहीं होती।

घी सीधा पैदा नहीं होता। दूध बनेगा, दही बनेगा, मथा जाएगा, फिर घी निकलेगा। बहुत होगा दूध, बहुत होगा दही, थोड़ा-सा घी निकलेगा। बड़ा होगा श्रम, छोटी-सी भलाई निकलेगी। श्रम होगा पीछे; रूपांतरण होगा पीछे। सीधे घी पैदा नहीं होता--इसे खयाल रखें--पैदा होने की प्रक्रिया है, प्रोसेस है। पैदा करेंगे, तो ही पैदा होगा। अगर आदमी न हो पृथ्वी पर, तो घी पैदा नहीं होगा। दूध पैदा होगा, घी पैदा नहीं होगा। मनुष्य की चेतना ने घी को जन्म दिया।

अगर मनुष्य न हो पृथ्वी पर, तो भलाई पैदा नहीं होगी। भलाई को मनुष्य की चेतना ने जन्म दिया। इसलिए अगर घी का प्रतीक खयाल में आ गया हो, तो बहुत आश्चर्यजनक नहीं है। सहज है। जिनके पास थोड़ी-सी भी काव्य की दृष्टि है, वे उघाड़ सकते हैं बात को कि क्यों यह प्रतीक खयाल में आ गया होगा।

मथना पड़ता है, मंथन करना पड़ता है। घी को जन्माना पड़ता है। भलाई मनुष्य के श्रम का फल है। ऐसे ही नहीं मिलती। गेहूं बिना आदमी के भी होता रहेगा। बीज गिरते रहेंगे। अंकुर निकलते रहेंगे। आदमी नहीं होगा, तो भी पौधे होंगे, बीज होंगे; चलती रहेगी यात्रा। लेकिन घी नहीं होगा पृथ्वी पर। आदमी नहीं होगा, तो भलाई नहीं होगी पृथ्वी पर। शुभ नहीं होगा।

तो जिन दिनों, जिस कृषि के जगत में गीता जन्मी, जिस कृषि के जगत में वेद जन्मा, जिस कृषि के प्रतीकों की दुनिया के बीच यज्ञ की धारणा जन्मी, घी निकटतम प्रतीक था शुभ का।

अब यह मजे की बात है, अशुभ को डालें जीवन की चेतना में, तो अशुभ जल जाएगा, लेकिन जीवन की चेतना को क्षीण करेगा। अशुभ जलेगा, तो भी जीवन की चेतना को क्षीण करेगा। शुभ को भी डालें जीवन की चेतना में, तो शुभ जीवन की चेतना को क्षीण नहीं करेगा, बढ़ाएगा।

दूसरी बात भी खयाल रख लें कि अंततः शुभ को भी जला देना है। शुभ जलेगा और ज्योति बढ़ेगी। लेकिन जला देना है उसे भी। उसे भी बचा नहीं लेना है। अन्यथा वह भी बंधन बन जाएगा।

घी रहस्यपूर्ण है इन अर्थों में। जल भी जाता है, मिट भी जाता है, जीवन की धारा को ऊपर की तरफ गतिमान भी कर जाता है। लपटों को प्राण दे जाता है, आकाश की तरफ दौड़ने का बल दे जाता है; और जल भी जाता है, खो भी जाता है, विदा भी हो जाता है। कहीं कोई रूपरेखा नहीं छूट जाती। कहीं कोई रूपरेखा नहीं छूट जाती। यज्ञ में फेंका गया घृत आस-पास सिर्फ एक सुवास छोड़ जाता है, सिर्फ एक सुगंध छोड़ जाता है। शुभ जब जलता है, तो सुगंध छोड़ जाता है। वह सुवास व्याप्त हो जाती है चारों ओर।

साधु के पास शुभ होता है। संत के पास शुभ की सिर्फ सुवास होती है, शुभ नहीं होता। साधु अग्नि में जलता हुआ घृत है, संत जल गया घृत है। शुभ भी जल गया है; सिर्फ सुवास रह गई है। जिनके पास बहुत तीव्र नासारंध्र हैं, वे ही केवल उस सुवास को पकड़ सकेंगे।

इसलिए साधु को पहचानना बहुत आसान; संत को पहचानना बहुत कठिन। साधु को कोई भी पहचान लेता है, क्योंकि शुभ दिखाई पड़ता है। संत को पहचानना कठिन हो जाता है, क्योंकि शुभ दिखाई नहीं पड़ता। शुभ अब पारदर्शी भी नहीं रह जाता। शुभ अब चारों तरफ स्पर्श नहीं किया जा सकता। अब शुभ खो जाता है सुवास में।

ऐसा यह यज्ञ का प्रतीक। कृष्ण कहते हैं, जीवन ही जिसका यज्ञ हो जाए; यज्ञ को ही जो यज्ञ में समर्पित कर दे, ऐसा व्यक्ति, ऐसा व्यक्ति ही जीवन का चरम अनुभव है; ऐसी चेतना ही परात्परब्रह्म को जान पाती है; अल्टिमेट को, आत्यंतिक को जान पाती है।

ये प्रतीक सड़ जाते हैं। सब प्रतीक सड़ जाते हैं; अपने कारण नहीं, हमारे कारण। क्योंकि हमारी जो प्रतीकों की पकड़ है, वह नीचे के छोर से होती है। और जो प्रतीकों को जन्म देता है, वह ऊपर के छोर से जन्म देता है। जो प्रतीक को जन्म देता है, वह आकाश की तरफ से प्रतीक को निर्मित करता है। और हम जब प्रतीक को पकड़ते हैं, तब जमीन की तरफ से पकड़ते हैं।

जो अग्नि के प्रतीक को देता है, वह चेतना के लिए प्रतीक खोजता है। और हम जब अग्नि को पकड़ते हैं, तो अग्नि को ही पकड़ते हैं। फिर अग्नि की पूजा चलती है। फिर हम गेहूं को जलाते रहते हैं। फिर हम घी को जलाते रहते हैं। फिर हम सब भूल जाते हैं कि घी क्या है, अग्नि क्या है, यज्ञ क्या है। सब भूल जाते हैं। एक थोथा, मरा हुआ,  प्रतीक हाथ में रह जाता है। फिर उसके आस-पास हम घूमते रहते हैं, भटकते रहते हैं--सदियों तक।

और बड़ी कठिनाई तो तब पैदा होती है कि जब कोई व्यक्ति इस भटकाव का विरोध करे, तो धर्म का दुश्मन मालूम पड़ता है। कोई कहे कि यह पागलपन है, तो निश्चित ही धर्म का दुश्मन मालूम पड़ेगा। क्योंकि हम कहेंगे, कृष्ण तो गीता में कहते हैं, और आप पागलपन कहते हैं! लेकिन जिसे कृष्ण गीता में कहते हैं और जिसे आप पकड़े हैं, उसमें आकाश और जमीन का फासला हो गया। अगर कृष्ण भी वापस लौट आएं, तो आपको पागल कहेंगे।

प्रतीक पकड़ने के लिए नहीं, पार हो जाने के लिए हैं। हर प्रतीक पार हो जाने के लिए है। और जब प्रतीक पार नहीं होते, तो संप्रदाय खड़े होते हैं।

मेरे जैसे आदमी की कठिनाई भारी है। भारी इसलिए है कि मैं देखता हूं कि प्रतीक के पीछे प्राण हैं। और भारी इसलिए है कि मैं देखता हूं कि आपके हाथ में लाश है। तब मेरी कठिनाई भारी है। तब एक दिन मैं कहता हूं, पागल हैं आप; और फिर भी मैं जानता हूं कि प्रतीक सार्थक है। दूसरे दिन कहता हूं, सार्थक है प्रतीक। तब आप पाते हैं कि असंगत है यह आदमी। क्योंकि कल कहा था कि गलत है; आज कहते हैं, सही है। कल तुम्हें गलत कहा था, प्रतीक को नहीं। आज प्रतीक को सही कह रहा हूं, तुम्हें नहीं। दोनों ही करना पड़ेंगे।

प्रतीक के भीतर गहरा छिपा हुआ राज है, उसे बचाना जरूरी है। लेकिन आपके हाथ में जो प्रतीक है, वह मुर्दा है, उसे मिटाना भी जरूरी है। और ये दोनों बातें हो पाएं, तो धर्म का रहस्य समझ में आता है, अन्यथा नहीं आता।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

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