शनिवार, 5 अगस्त 2023

मां बेटा

 पति और पत्‍नी एक क्षण के लिए मिलते है, एक क्षण के लिए दोनों की आत्‍माएं एक हो जाती है। और उस घड़ी में जो उन्‍हें आनंद का अनुभव होता है। वही उनको बांधने वाला हो जाता है।

 कभी आपने सोचा कि मां के पेट में बेटा नौ महीने तक रहता है। और मां के अस्‍तित्‍व से मिला रहता है। पति एक क्षण को मिलता है। बेटा नौ महीने  इक्ट्ठा होता है। इसीलिए मां का बेटे से जो गहरा संबंध है, वह पति से  कभी भी नहीं होता। हो भी नहीं सकता। पति एक क्षण के लिए मिलता है आस्‍तित्‍व के तल पर,  फिर बिछुड़ जाता है। एक क्षण को करीब आते है ओर फिर कोसों का फासला शुरू हो जाता है।

लेकिन बेटा नौ महीने तक मां की सांस से सांस लेता है। मां के ह्रदय से धड़कता है। मां के खून, मां के प्राण से प्राण, उसका अपना कोई अस्‍तित्‍व नहीं होता है। वह मां का एक हिस्‍सा होता है। इसीलिए स्‍त्री मां बने बिना कभी भी पूरी तरह तृप्‍त नहीं हो पाती। कोई पति स्‍त्री को कभी तृप्‍त नहीं कर सकता। जो उसका बेटा उसे कर देता है।  

स्‍त्री मां बने बिना पूरी नहीं हो पाती। उसके व्‍यक्‍तित्‍व का पूरा निखार और पूरा सौंदर्य उसके मां बनने पर प्रकट होता है। उससे उसके बेटे के आत्‍मिक संबंध बहुत गहरे होते है।

 इसीलिए आप यह भी समझ लें कि जैसे ही स्‍त्री मां बन जाती है। उसकी काम में रूचि कम हो जाती है।  फिर काम में उसे उतना रस नहीं मालूम पड़ता। उसने एक और गहरा रस ले लिया है। मातृत्‍व का। वह एक प्राण के साथ और नौ महीने तक इकट्ठी जी ली है। अब उसे काम में रस नहीं  रह जाता है। 

अकसर पति हैरान होते है। पिता बनने से पति में कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन मां बनने से स्‍त्री में बुनियादी फर्क पड़ जाता है। जो नया व्‍यक्‍ति पैदा होता है उससे पिता का कोई गहरा संबंध नहीं है। पिता बिलकुल सामाजिक व्‍यवस्‍था है।  पिता के बिना भी दुनिया चल सकती है, क्योंकि पिता का कोई गहरा संबंध नहीं है बेटे से। मां से उसके गहरे संबंध है, और मां तृप्‍त हो जाती है उसके बाद। और उसमें एक और ही तरह की आध्‍यात्‍मिक गरिमा प्रकट होती है। जो स्त्री मां नहीं बनी है, उसको देखे और जो मां बन गई है उसे देखें। उन दोनों की चमक और उर्जा और उनका व्‍यक्‍तित्‍व अलग मालूम होगा। मां की दीप्ति दिखाई पड़ेगी शांत, जैसे नदी जब मैदान में आ जाती है, तब शांत हो जाती है। जो अभी मां नहीं बनी है, उस स्‍त्री में एक दौड़ दिखेगी, जैसे पहाड़ पर नदी दौड़ती है। झरने की तरह टूटती है, चिल्‍लाती है; गड़गड़ाहट करती है; आवाज है; दौड़ है; मां बन कर वह एक दम से शांत हो जाती है।

 स्‍त्री तृप्‍त होने लगती है मां बनकर क्‍यों? उसने एक आध्‍यात्‍मिक तल पर सेक्‍स का अनुभव कर लिया बच्‍चे के साथ। और इसीलिए मां और बेटे के पास एक आत्‍मीयता है। मां अपने प्राण दे सकती है बेटे के लिए, मां बेटे के प्राण लेने की कल्‍पना नहीं कर सकती। पति पत्‍नी के बीच चौबीस घंटे एक कलह चलती है। जिसे हम प्रेम करते है, उसी के साथ चौबीस घंटे कलह चलती है। लेकिन न पति समझता है, न पत्‍नी समझती है। कि कलह का क्‍या करण है। पति सोचता है कि शायद दूसरी स्‍त्री होती तो ठीक हो जाता। पत्‍नी सोचती है कि शायद दूसरा पुरूष होता तो ठीक हो जाता। यह जोड़ा गलत हो गया है।

दुनिया भर के जोड़ों का यही अनुभव है। और आपको अगर बदलने का मौका दे दिया जाये तो कुछ  फर्क नहीं पड़ेगा। दूसरी स्‍त्री दस पाँच दिन के बाद फिर पहली स्‍त्री साबित होती है। दूसरा पुरूष पन्द्रह दिन के बाद फिर पहला पुरूष साबित हो जाता है। इसके कारण गहरे है। इसके कारण इसी स्‍त्री और इसी पुरूष के संबंधित नहीं है। इसके कारण इस बात से संबंधित है कि जो पति और पत्‍नी का संबंध बीच की यात्रा का संबंध है। वह मुकाम नहीं है, वह अंत नहीं है। अंत तो वही होगा, जहां स्‍त्री मां बन जायेगी। 

शुक्रवार, 4 अगस्त 2023

वृक्ष के त्याग की कहानी

 एक बहुत पुराना वृक्ष था। आकाश में सम्राट की तरह उसके हाथ फैले हुए थे। उस पर फल आते थे तो दूर-दूर से पक्षी सुगंध लेते आते थे। उस पर फूल लगते थे तो तितलियां उड़ती चली आती थी। उसकी छाया, उसके फैले हाथ, हवाओं में उसका वह खड़ा रूप आकाश में बड़ा सुन्‍दर लगता था। एक छोटा सा बच्‍चा उसकी छाया में रोज खेलने आता था। उस बड़े वृक्ष को उस छोटे बच्‍चे से  प्रेम हो गया।

बड़ों को छोटों से प्रेम हो सकता है। अगर बड़ों को पता न हो कि हम बड़े है। वृक्ष को कोई पता नहीं था कि मैं बड़ा हूं, यह पता सिर्फ आदमियों को होता है। इसलिए उसका प्रेम मर गया है, और वृक्ष अभी निर्दोष है निष्कलुष है उन्‍हें नहीं पता की मैं बड़ा हूं।

 अहंकार हमेशा अपने से बड़ों से प्रेम करने की कोशिश करता है। अहंकार हमेशा अपनों से बड़ों से संबंध जोड़ता है। प्रेम के लिए कोई बड़ा छोटा नहीं है। जो आ जाएं, उसी से संबंध जूड़ जाता है।

 वहां एक छोटा सा बच्‍चा खेलने आता था, उस वृक्ष के पास। उस वृक्ष को उससे प्रेम हो गया। लेकिन वृक्ष की शाखाएं ऊपर थीं। बच्‍चा छोटा था तो वृक्ष अपनी शाखाएं उसके लिए नीचे झुकाता, ताकि वह फल तोड़ सके, फूल तोड़ सके। प्रेम हमेशा झुकने को राज़ी है, अहंकार कभी भी झुकने को राज़ी नहीं होता है।

अहंकार के पास जाओगे तो अहंकार के हाथ और ऊपर उठ जायेंगे। ताकि आप उन्‍हें छू न सकें। क्‍योंकि जिसे छू लिया जाये। वह छोटा आदमी है। जिसे न छुआ जा सके, वह आदमी बड़ा आदमी है।

उस वृक्ष की शाखाएं नीचे झुक आती थी, जब वह बच्‍चा खेलता हुआ आता उस वृक्ष के पास, और जब वह उसका फूल तोड़ता, तब वह वृक्ष अंदर तक सिहर जाता, प्रेम की छुअन से सराबोर हो जाता। और खुशी के मारे उसकी शाखाएं नाचने झूमने लगती। उसके प्राण आनंद से भर जाते।

 प्रेम जब भी कुछ दे पाता है तो खुश हो जाता है। अहंकार जब भी कुछ ले पाता है, तभी खुश होता है।

 फिर वह बच्‍चा बड़ा होने लगा। वह कभी उसकी छाया में सोता, कभी उसके फल खाता, कभी उसके फूलों का ताज बनाकर पहनता, वृक्ष उसे जंगल के सम्राट के रूप में देख कर खुश हो जाता।

 प्रेम के फूल जिसके पास भी बरसतें हैं, वही सम्राट हो जाता है, वृक्ष के प्राण आनंद से भर जाते, उसकी छूअन उसे अन्‍दर तक गुदगुदा जाती। हवा जब उसके पतो को छूती तो उससे मधुर गान निकलता। नये-नये गीत फूटते उस बच्‍चे के संग। 

वह लड़का कुछ और बड़ा हुआ। वह वृक्ष के उपर चढ़ने लगा। उसकी शाखाओं से झुलने लगा। वह उस की विशाल शाखाओं पर लेट कर विश्राम करता। वृक्ष आनंदित हो उठता। प्रेम आनंदित होता है जब प्रेम किसी के लिए छाया बन जाता है। अहंकार आनंदित होता है जब किसी की छाया छीन लेता है।

लड़का धीरे-धीरे बड़ा होता चला गया। दिन पर दिन बीतते ही चले गये, मानों समय को पंख लग गये। ऋतु पर ऋतु बदलती चली गयी। वृक्ष को पता ही नहीं चला उस समय का। जब हम आनंद में होते है तो समय की गति तेज हो जाती है। मानों उसके पंख लग गये हो। तब लड़का बड़ा हो गया तो उसे और दूसरे काम भी उसकी दुनियां में आ गये। महत्‍वकांक्षाएं आ गई। उसे परीक्षाए पास करनी थी। उसे मित्रों के साथ भी खेलना था। पढ़ाई में सब को पछाड़ कर अव्वल आना था। धीरे-धीरे उसका आना कम   होता चला गया। कभी आता कभी नहीं आता।

 लेकिन वृक्ष तो हमेशा उसकी राह ताकता रहता। कि वह कब आये और उसके उपर चढ़े उसकी टहनीयों से खेले, उसके फूल तोड़े। उसके फल खाये। लेकिन वह हफ्तों महीनों बाद कभी आता। वृक्ष उसकी प्रतीक्षा करता कि वह आये। वह आये।

उसके सारे प्राण पुकारते कि आओ-आओ। प्रेम निरंतर प्रतीक्षा करता है कि आओ-आओ। प्रेम एक प्रतीक्षा है। लेकिन वह कभी आता, कभी नहीं आता, तो वृक्ष उदास रहने लगा। प्रेम की एक ही उदासी है जब वह बांट नहीं सकता। तब वह उदास हो जाता है। जब वह दे नहीं पाता, तो उदास हो जाता है।और प्रेम की एक ही धन्‍यता है कि जब वह बांट देता है, लुटा देता है तो आनंदित हो जाता है। 

फिर लड़का ओर बड़ा होता चला गया। और वृक्ष के पास आने के दिन कम होते चले गये। जो आदमी जितना बड़ा होता चला जाता है महत्‍वाकांक्षा के जगत में, प्रेम के निकट आने की सुविधा उतनी ही कम होती चली जाती है। उस लड़के की महत्‍वाकांक्षा बढ़ रही थी।  

 फिर एक दिन वह वहां से  जा रहा था, तो उस वृक्ष ने उसे पुकारा, 'सुनो'। हवाओं ने पत्‍तों ने उसकी आवाज को गुंजायमान किया। तुम आते नहीं, मैं प्रतीक्षा करता हूं, मैं रोज तुम्‍हारी राह देखता हूं, कि तुम इधर आओ, मेरी आंखें थक जाती है। पर तुम अब इधर नहीं आते क्‍यों?

 उस लड़के ने एक बार घुर कर देखा उस वृक्ष को और कहा कि क्‍या है तुम्‍हारे पास। जो मैं आऊं,मुझे तो रूपये चाहिए।  

 हमेशा अहंकार पूछता है, कि क्‍या है तुम्‍हारे पास, जो मैं आऊं। अहंकार मांगता है कि कुछ हो तो मैं आऊं। न कुछ हो तो आने की जरूरत नहीं है। अहंकार एक प्रयोजन है। प्रयोजन पूरा होता है तो मैं आऊं। अगर कोई प्रयोजन न हो तो आने की जरूरत क्‍या है।

और प्रेम निष्‍प्रयोजन है। प्रेम का कोई प्रयोजन नहीं। प्रेम अपने में ही अपना प्रयोजन है। वृक्ष तो चौंक गया। उसने कहा, तुम तभी आओगे, जब मैं तुम्‍हें कुछ दूँ। मैं तुम्‍हें सब दे सकता हूं। क्‍योंकि प्रेम कुछ भी रोकना नहीं चाहता। जो रोक ले वह प्रेम नहीं है। अहंकार रोकता है। प्रेम तो बेशर्त देता है। लेकिन ये रूपये तो मेरे पास नहीं है। ये रूपये तो आदमी का अविष्कार है। उसी का रोग है अभी हमे नहीं लगा। हम बचे है अभी।

उस वृक्ष ने कहा, इस लिए तो देखो हम इतने आनंदित है। पर मनुष्‍य के संग साथ रह कर हम उसके रोग को पाल लेते है। वरना तो हमारे उत्‍सव को देखो इन खिलें फूलों को देखो, इतने विशाल तने, इनकी छाया। इनपर पक्षियों का चहकना। अपने घर बनाना। खेलना नाचना। कलरव करना। देखो हम कितने नाचते है आकाश में , कितने गीत गाते है। क्‍योंकि हमारे पास पैसा नहीं है। हम आदमी की तरह दीन-हीन मंदिरों में बैठ कर, शांति की कामना नहीं करते है।  सर टरकाते है उसके चरणों में कि हमें कुछ तो दो हम पड़े है तेरे द्वार...पर हमारे पास पैसा नहीं है।

 तो उसने कहा, फिर क्‍यों आऊं मैं तुम्‍हारे पास। जहां पर रूपये है मुझे तो वहीं जाना है। तुम समझते नहीं हमारी मजबूरी, क्‍योंकि तुम्‍हें पैसे की जरूरत नहीं है। पानी तुम्‍हें कुदरत से मिल जाता है, जिस मिट्टी पर तुम खड़े हो वह तुम्‍हें मुफ्त में मिल गई है। हवा, धूप जो तुम्हें पोषण देती है उसके लिए तुम्‍हें कुछ देना नहीं होता। पर हमें तो सब पैसे से ही लेना है, हमारा जीवन तो पैसे से ही चलता है.....अब ये बात तुम्‍हें कैसे समझाऊं।

अहंकार रूपये मांगता है। क्‍योंकि रूपया शक्‍ति है, सुरक्षा है। उस वृक्ष ने बहुत सोचा, फिर उसे ख्‍याल आया....तो तुम एक काम तो कर सकते हो, मेरे सारे फल तोड़ कर ले जाओ और बेच दो उसे बाजार में, फिर तुम्‍हें शायद पैसा मिल जाये।

 उस लड़के की आंखों में चमक आ गई। उसे तो ये ख्‍याल ही नहीं आया था। वह खुशी से राजा हो गया। वह चढ़ गया उस वृक्ष पर और तोड़ने लगा फल, पर आज उसके हाथों में क्रुरता थी, उसके चढ़ने से भी उस वृक्ष को कुछ भारी पन लग रहा था। उसने फलों के साथ तोड़ डालें हजारों पत्‍ते, टहनियां, वृक्ष को पीड़ा होती पर वह यह जान कर आनंदित होता कि ये पीड़ा उसके प्रेमी ने ही तो दी है। प्रेम पीड़ा में भी आनंद देख लेता है। और अहंकार उदारता में भी दु:ख। लेकिन फिर भी वह वृक्ष खुश था कि इस बहाने उसे उस का संग साथ तो मिला।

टूटकर भी प्रेम आनंदित हो जाता है। अहंकार पाकर भी आनंदित नहीं होता। पाकर भी दु:खी होता है। और उस लड़के ने तो धन्‍यवाद भी नहीं दिया और सारे फल ले कर चल दिया बाजार की ओर। वृक्ष उसे निहारता रहा। जाते हुए देखता रहा, अपने को तृप्‍त करता रहा पर उसने एक बार भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा।

लेकिन उस वृक्ष को पता भी नहीं चला। उसे तो धन्‍यवाद मिल गया इसी में कि उस लड़के ने उसके प्रेम को स्‍वीकार किया। और उससे फल तोड़े और उन्‍हें बेचकर उसे धन मिल जायेगा। वह यह सोच सोच कर खुश हो रहा था।

लेकिन इसके बाद भी वह लड़का बहुत दिनों तक नहीं आया। उसके पास रूपये थे,वह रुपयों से और रूपये पैदा करने की  कोशिश में वह लग गया। वह भूल ही गया उस बात को कि वह पैसा उसे उसी वृक्ष के प्रेम की देन है। सालों गुजर गये।

और धीरे-धीरे वृक्ष की उदासी उसके पत्‍तों पर भी उभरने लगी। तेज हवाये उसे खड़खड़ाती जरूर पर अब उनमें वह लय नहीं थी। एक मुर्दे की सी खड़खड़ाहट थी। वह इस लिए जीवत था कि उसके प्राणों में रस का संचार हो रहा था। उसके प्राणों का रस बार-बार पुकारता उस लड़के को की तू मेरे पास आ मैं तुझे अपना रस दूँगा। जैसे किसी मां के स्तन में दूध भरा हो और उसका बेटा खो जाये। और उसके प्राण तड़प रहे है कि उसका बेटा कहां है जिसे वह खोजें, जो उसे हलका कर दे। निर्भार कर दे। ऐसा उस वृक्ष के प्राण पीड़ित होने लगे कि वह आये—आये,आये। उसके प्राणों की सारी आवाज में यही गुंज रहा था। आओ-आओ।

बहुत दिनों के बाद वह आया। वह लड़का प्रौढ़ हो गया था। वृक्ष ने उससे कहा आओ मेरे पास। मेरे आलिंगन में आओ। उसने कहा छोड़ो,यह बकवास। यह बचपन की बातें है। अब मैं बड़ा हो गया हूं ।मेरे कंधों पर घर गृहस्थी का बोझ आ गये है। ये सब तुम नहीं समझ सकते।

अहंकार प्रेम को पागलपन समझता है। बचपन की बातें समझता है। उस वृक्ष ने कहा, आओ मेरी डालियों से झूलों—नाचो, चढ़ो मुझ पर। दौड़ों भागों....

उसने कहा छोड़ो भी ये फजूल की सब बातें,क्‍या रखा इन सब में। समय खराब करना ही है। मुझे एक मकान बनाना है। तुम मुझे मकान दे सकते हो? वृक्ष ने कहा, मकान? वह क्‍या होता है, हम तो कोई मकान नहीं बनाते। क्‍यों बनाओगे तुम मकान। क्‍या काम आयेगा। और भी पशु पक्षी भी मकान, घोसला बनाते, है चींटियाँ, दीमक,पर वह तो आदमी की तरह दुःखी नहीं होती। वह तो बड़े आनंद उत्‍सव से उसके बनाने का आनंद लेती है। फिर तुम इतने उदास क्‍यों हो? लेकिन एक बात हो सकती है, मैं क्‍या सहायता कर सकता हूं तुम्‍हारे मकान बनाने के लिए.....कोई हो तो कहो।

वह आदमी थोड़ी देर के लिए तो चुप हो गया। उसके दिल की बात ज़ुंबाँ पर आते-आते रूक गई। पर वह साहस कर के कहने लगा। तुम अपनी शाखाएं मुझे दे दो तो मैं अपने मकान की छत आराम से डाल सकता हूं। वृक्ष मुस्‍कुराया और कहने लगा तो इसमें इतना सोचने की क्‍या बता है। तुम ले सकते हो मेरी शाखाएं। मैं तुम्हारे किसी भी काम आ सकूँ तो अपने को धन्‍य ही मानूँगा। और मुझे लगेगा की तुमने मुझे प्‍यार किया। और वह आदमी गया और कुल्‍हाड़ी लेकर आ गया और उसने उस वृक्ष की शाखाएं काट डाली। वृक्ष एक ठूंठ रह गया। एक दम मृत प्राय, नग्‍न, पर फिर भी वह वृक्ष आनंदित था। प्रेम सदा आनंदित रहता है। चाहे उसके अंग भी काटे जायें। लेकिन कोई ले जाये, कोई बांट ले, कोई सम्‍मिलित हो जाये, कोई साझीदार हो जाये।

और उस आदमी ने पीछे मुड़ कर इस बार भी नहीं देखा।

 और वक्‍त गुजरता गया। वह ठूंठ राह देखता रहा, वह चिल्‍लाना चाहता था। कहना चाहता था, अपने ह्रदय की पुकार, पर अब उसके पास पत्‍ते भी नहीं थे। शाखाएं भी नहीं थी। हवाएँ आती और वह उनसे बात भी नहीं कर पाता था। बुला भी नहीं पाता था अपने प्रेमी को। लेकिन प्राणों में अब भी एक गुंज थी आओ-आओ....एक बार फिर आओ।

 और बहुत दिन बीत गये। अब वह बच्‍चा  बूढा आदमी हो गया था। वह निकल रहा था उसके पास से। और वह वृक्ष के पास आकर खड़ा हो गया। बहुत दिनों बाद आये, पर तुम्‍हें भी मेरी याद सताती तो है। कहो सब ठीक है। कैसे उदास हो। कमर झुक गई है। बाल सफेद हो गये। आंखों पर चश्मा लग गया है। उसने कहा मैं प्रदेश जाना चाहता हूं। यहां इतनी मेहनत की, कुछ नहीं मिला। वहां जा कर खूब धन कमाऊगां। पर मैं नदी पार नहीं कर सकता। उसके लिए नाव चाहिए। तुम अपना तना मुझे दे दो तो मैं नाव बना सकता हूं। नाव तो तुम मेरी बना सकते हो, पर मुझे भूल मत जाना वहां जाकर। मुझे तुम्‍हारी बहुत याद आती है। तुम लौट कर जरूर इधर आना। मैं यहां तुम्‍हारी प्रतीक्षा करूंगा।

 और उसने उस वृक्ष के तने को काट कर नाव बना ली। वहां रह गया एक छोटा सा ठूंठ, और वह आदमी दूर यात्रा पर निकल गया। और वह ठूंठ उसकी प्रतीक्षा करता रहा कि अब आयेगा। अब आयेगा। लेकिन अब तो उसके पास कुछ भी नहीं था। उसे देने के लिए शायद वह कभी इधर नहीं आयेगा। क्‍योंकि अहंकार वहीं आता है। जहां कुछ पाने को है। अहंकार वहां नहीं जाता,जहां कुछ पाने को नहीं है।

 वह ठूंठ सोच रहा था कि वह मेरा मित्र अब तक नहीं आया। और मुझे बड़ी पीड़ा होती है। कि वह ठीक से तो है। वह मेरे तने की नाव बना कर परदेश गया था। कही मेरे तने में कोई छेद तो नहीं था। उसे रात दिन यही चिंता सताये जाती है। बस एक बार यह पता चल जाये की वह जहां भी है खुश है। तो मैं तृप्‍त हो जाऊँगा। एक खबर मुझे भर कोई ला दे। अब मैं मरने के करीब हूं। इतना पता चल जाये कि वह सकुशल है, फिर कोई बात नहीं। फिर सब ठीक है। अब तो मेरे पास देने को कुछ नहीं है। इसलिए बूलाऊं भी तो शायद वह नहीं आयेगा। क्‍योंकि वह केवल लेने की ही भाषा समझता है।

 अहंकार लेने की भाषा समझता है। प्रेम देने की भाषा है।

 जीवन एक ऐसा वृक्ष बन जाये और उस वृक्ष की शाखाएं अनंत तक फैल जायें। सब उसकी छाया में हों और सब तक उसकी बाँहें फैल जायें तो पता चल सकता है कि प्रेम क्‍या है।

प्रेम का कोई शास्‍त्र नहीं है। न कोई परिभाषा है। न  प्रेम का कोई सिद्धांत ही है।

यह बूढ़ा वृक्ष एक बाप है जो अपना सब कुछ अपने बच्चों की खुशी के उन्हें दे देता है और बदले में पाता है ........।

      

      

गुरुवार, 3 अगस्त 2023

स्त्री पुरुष

आप किसी आदमी का नाम भूल सकते है, जाति भूल सकते है। चेहरा भूल सकते है? अगर मैं आप से मिलूं या मुझे आप मिलें तो मैं सब भूल सकता हूं कि आपका नाम क्‍या था,आपका चेहरा क्‍या था, आपकी जाति क्‍या थी, उम्र क्‍या थी आप किस पद पर थे,सब भूल सकते है।  कभी आप भूल सकते है इस बात को कि जिससे आप मिले थे, वह पुरूष है या स्‍त्री? नहीं यह बात आप कभी नहीं भूल सके होगें। जब सारी बातें भूल जाती है तो यह क्‍यों नहीं भूलता?

हमारे भीतर मन में कहीं सैक्‍स बहुत अतिशय हो बैठा है। वह चौबीस घंटे उबल रहा है। इसलिए सब बातें भूल जाती है। लेकिन यह बात नहीं भूलती है। हम सतत सचेष्‍ट है। यह पृथ्‍वी तब तक स्‍वस्‍थ नहीं हो सकेगी, जब तक आदमी और स्‍त्रियों के बीच यह दीवार और यह फासला खड़ा हुआ है। यह पृथ्‍वी तब तक कभी भी शांत नहीं हो सकेगी,जब तक भीतर उबलती हुई आग है और उसके ऊपर हम जबरदस्‍ती बैठे हुए है। उस आग को रोज दबाना पड़ता है। उस आग को प्रतिक्षण दबाये रखना पड़ता है। वह आग हमको भी जला डालती है। सारा जीवन राख कर देती है। लेकिन फिर भी हम विचार करने को राज़ी नहीं होते। 

अगर हम इस आग को समझ लें, तो यह आग दुश्‍मन नहीं दोस्‍त है। यह हमें जलायेगी नहीं, हमारी रोटियाँ  सेक सकती है।सर्दियों में हमारे घर को गर्म भी कर सकती है। और हमारी जिंदगी में सहयोगी और मित्र भी हो सकती है। 

मनुष्‍य के भीतर बिजली से भी अधिक ताकत है सैक्‍स की। मनुष्‍य के भीतर अणु की शक्‍ति से भी बड़ी शक्‍ति है सैक्‍स की। क्‍या आपने सोचा कि मनुष्‍य के काम की ऊर्जा का एक अणु एक नये व्‍यक्‍ति को जन्‍म देता है।  एक छोटा सा अणु एक मनुष्‍य की काम ऊर्जा का, एक महामानव को छिपाये हुए है। लेकिन हम सैक्‍स को समझने को राज़ी नहीं है। लेकिन हम सैक्‍स की ऊर्जा के संबंध में बात करने की हिम्‍मत जुटाने को राज़ी नहीं है। कौन सा भय हमें पकड़े हुए है कि जिससे सारे जीवन का जन्‍म होता है। उस शक्‍ति को हम समझना नहीं चाहते?कौन सा डर है कौन सी घबराहट है? जो लोग सैक्‍स के संबंध में बात करने की मनाही करते है, वे ही लोग पृथ्‍वी को सैक्‍स के गड्ढे में डाले हुए है।  जो लोग घबराते है और जो समझते है कि धर्म का सैक्‍स से कोई संबंध नहीं, वह खुद तो पागल है ही, वे सारी पृथ्‍वी को पागल बनाने में सहयोग कर रहे है। धर्म का संबंध मनुष्‍य की शक्‍ति को रूपांतरित करने से है। धर्म चाहता है कि मनुष्‍य के व्‍यक्‍तित्‍व में जो छिपा है, वह श्रेष्‍ठतम रूप से अभिव्‍यक्‍त हो जाये। धर्म चाहता है कि मनुष्‍य का जीवन निम्न से उच्‍च की एक यात्रा बने। पदार्थ से परमात्‍मा तक पहुंच जाये। हम जहां जाना चाहते है, उस स्‍थान को समझना उतना उपयोगी नहीं है। जितना उस स्‍थान को समझना उपयोगी है, जहां से यह यात्रा शुरू करनी है।

 सैक्‍स हमारे जीवन का तथ्‍य है। इस तथ्‍य को समझ कर हम परमात्‍मा की यात्रा कर सकते है। लेकिन इसे बिना समझे एक इंच आगे नहीं जा सकते।  हम जीवन की वास्‍तविकता को समझने की भी तैयारी नहीं दिखाते। तो फिर हम ओर क्‍या कर सकते है। और आगे क्‍या हो सकता है। फिर ईश्‍वर की परमात्‍मा की सारी बातें सान्‍त्‍वना ही, कोरी सान्‍त्‍वना की बातें है और झूठ है। क्‍योंकि जीवन के परम सत्‍य चाहे कितने ही नग्‍न क्‍यों न हो, उन्‍हें जानना ही पड़ेगा। समझना ही पड़ेगा।

 मनुष्‍य का जन्‍म सैक्‍स से होता है। मनुष्‍य का सारा जीवन व्‍यक्‍तित्‍व सैक्‍स के अणुओं से बना हुआ है। मनुष्‍य का सारा प्राण सैक्‍स की उर्जा से भरा हुआ है। जीवन की उर्जा अर्थात काम की उर्जा। यह जो काम की ऊर्जा है, वह क्‍या है? यह क्‍यों हमारे जीवन को इतने जोर से आंदोलित करती है? क्‍यों हमारे जीवन को इतना प्रभावित करती है? क्‍यों हम घूम घूम कर सैक्‍स के आसपास, उसके ईद-गिर्द ही चक्‍कर लगाते है। और समाप्‍त हो जाते है। कौन सा आकर्षण है इसका? 

हजारों साल से ऋषि,मुनि कह रहे है कि मुख मोड़ लो सैक्स से। दूर हट जाओ इससे। सैक्‍स की कल्‍पना और काम वासना छोड़ दो। चित से निकाल डालों ये सारे सपने।लेकिन आदमी के चित से यह सपने निकले ही नहीं। कभी निकल भी नहीं सकते है इस भांति।   

क्‍योंकि हमने उस समस्‍या को समझने की भी चेष्‍टा नहीं की है। हमने उस ऊर्जा के नियम भी जानने नहीं चाहे है। हमने कभी यह भी नहीं पूछा कि मनुष्‍य का इतना आकर्षण क्‍यों है। कौन सिखाता है, सैक्‍स आपको। सारी दूनिया तो सीखने के विरोध में सारे उपाय करती है। मॉं-बाप चेष्‍टा करते है कि बच्‍चे को पता न चल जाये। शिक्षक चेष्‍टा करता है। धर्म शास्‍त्र चेष्‍टा करते है कहीं स्‍कूल नहीं, कहीं कोई युनिवर्सिटी नहीं। लेकिन आदमी अचानक एक दिन पाता है कि सारे प्राण काम की आतुरता से भर गये है। 

सैक्‍स का आकर्षण इतना प्रबल है, इतना नैसर्गिक केंद्र क्‍या है, जरूर इसमें कोई रहस्‍य है और इसे समझना जरूरी है। तो शायद हम इससे मुक्‍त भी हो सकते है।

 मनुष्‍य के प्राणों में जो काम वासना है, वह वस्‍तुत: काम की वासना नहीं है। हर आदमी काम के कृत्‍य के बाद पछताता है, दुःखी होता है पीडित होता है। सोचता है कि इससे मुक्‍त हो जाऊँ। लेकिन एक अनुभव काम का, संभोग का, उसे गहरे ले जाता है। और उसकी गहराई में दो घटनायें घटती है, एक संभोग के अनुभव में अहंकार विसर्जित हो जाता है।  एक क्षण के लिए अहंकार नहीं रह जाता, एक क्षण को यह याद भी नहीं रह जाता कि मैं हूं।

धर्म में श्रेष्‍ठतम अनुभव में ‘मैं’ बिलकुल मिट जाता है। अहंकार बिलकुल शून्‍य हो जाता है। सेक्‍स के अनुभव में क्षण भर को अहंकार मिटता है। लगता है कि मै हूं या नहीं। एक क्षण को विलीन हो जाता है मेरा पन का भाव।

समाधि का जो अनुभव है वहां  समय नहीं रह जाता है। वह कालातीत है। समय बिलकुल विलीन हो जाता है। न कोई अतीत है, न कोई भविष्‍य,शुद्ध वर्तमान रह जाता है। सेक्‍स के अनुभव में यह दूसरी घटना घटती है। न कोई अतीत रह जाता है , न कोई भविष्‍य, एक क्षण के लिए समय विलीन हो जाता है।

दो तत्‍व है, जिसकी वजह से आदमी सैक्‍स की तरफ आतुर होता है और पागल होता है। वह आतुरता स्‍त्री के शरीर के लिए नहीं है। पुरूष के शरीर के लिए नहीं है। वह आतुरता शरीर के लिए बिलकुल भी नहीं है। वह आतुरता किसी और ही बात के लिए है। वह आतुरता है,अहंकार शून्‍यता का अनुभव, समय शून्‍यता का अनुभव।

 समय-शून्‍य और अहंकार शून्‍य होने के लिए आतुरता क्‍यों है? क्‍योंकि जैसे ही अहंकार मिटता है, आत्‍मा की झलक उपलब्‍ध होती है। जैसे ही समय मिटता है, परमात्‍मा की झलक मिलनी शुरू हो जाती है।

 एक क्षण की होती है यह घटना, लेकिन उस एक क्षण के लिए मनुष्‍य कितनी ही ऊर्जा, कितनी ही शक्‍ति खोने को तैयार है। शक्‍ति खोने के कारण पछतावा है बाद में कि शक्‍ति क्षीण हुई शक्‍ति का अपव्‍यय हुआ। और उसे पता है कि शक्‍ति जितनी क्षीण होती है मौत उतनी करीब आती है।

मनुष्‍य को यह अनुभव में आ गया बहुत पहले कि सैक्‍स का अनुभव शक्‍ति को क्षीण करता है। जीवन ऊर्जा कम होती है। और धीरे-धीरे मौत करीब आती है। पछतावा है आदमी के प्राणों में, पछताने के बाद फिर पाता है घड़ी भर बाद कि वही आतुरता है। निश्‍चित ही इस आतुरता में कुछ और अर्थ है, जो समझ लेना जरूरी है।

 सैक्‍स की आतुरता में आत्‍मिक अनुभव है। उस अनुभव को अगर हम देख पाये तो हम सैक्‍स के ऊपर उठ सकते है। अगर उस अनुभव को हम न देख पाये तो हम सैक्‍स में ही जियेंगे और मर जायेंगे। 

संभोग का इतना आकर्षण क्षणिक समाधि के लिए है। और संभोग से आप उस दिन मुक्त होंगे। जिस दिन आपको समाधि बिना संभोग के मिलना शुरू हो जायेगी। उसी दिन संभोग से आप मुक्‍त हो जायेंगे, सैक्‍स से मुक्‍त हो जायेंगे।

सैक्‍स जिस अनुभूति को लाता है। अगर वह अनुभूति किन्‍हीं और मार्गों से उपलब्‍ध हो सके, तो आदमी का चित सैक्‍स की तरफ बढ़ना, अपने आप बंद हो जाता है। उसका चित एक नयी दिशा लेनी शुरू कर देता है।

       

मनुष्य का जीवन

एक पौधा पूरी चेष्‍टा कर रहा है,नये बीज उत्पन्न करने की, एक पौधे के सारे प्राण,सारा रस, नये बीज इकट्ठे करने, जन्‍म लेनें की चेष्‍टा कर रहे है। एक पक्षी क्‍या कर रहा है। एक पशु क्‍या कर रहा है।

अगर हम सारी प्रकृति में खोजने जायें तो हम पायेंगे, सारी प्रकृति में एक ही क्रिया जोर से प्राणों को घेर कर चल रही है। और वह क्रिया है सतत-सृजन की क्रिया। वह क्रिया है जीवन को पुनर्जीवित, नये-नये रूपों में जीवन देने की क्रिया। फूल बीज को संभाल रहे है, फल बीज को संभाल रहे है। बीज क्‍या करेगा? बीज फिर पौधा बनेगा। फिर फल बनेगा।

अगर हम सारे जीवन को देखें, तो जीवन जन्म लेने की एक अनंत क्रिया का नाम है। जीवन एक ऊर्जा है, जो स्‍वयं को पैदा करने के लिए सतत संलग्न है और सतत चेष्‍टा शील है।

आदमी के भीतर भी वहीं है।मनुष्‍य के भीतर भी जीवन को जन्‍म देने की सतत चेष्‍टा चल रही है। आदमी के भीतर उस सतत सृजन की चेष्‍टा का नाम हमने सैक्‍स दे रखा है, काम दे रखा है। इस  नाम के कारण उस ऊर्जा को एक गाली मिल गयी है। एक  अपमान । इस नाम के कारण एक निंदा का भाव पैदा हो गया    है। 

 मनुष्‍य को जमीन पर आये बहुत दिन नहीं हुए है, कुछ लाख वर्ष हुए। उसके पहले मनुष्‍य नहीं था। लेकिन पशु थे। पशु को आये हुए भी बहुत ज्‍यादा समय नहीं हुआ। एक जमाना था कि पशु भी नहीं था। लेकिन पौधे थे। पौधों को भी आये बहुत समय नहीं हुआ। एक समय था जब पौधे भी नहीं थे। पहाड़ थे। नदियां थी, सागर थे। पत्‍थर थे। पत्‍थर, पहाड़ और नदियों की जो दुनिया थी वह किस बात के लिए पीड़ित थी?

वह पौधों को पैदा करना चाहती थी। पौधे धीरे-धीरे पैदा हुए। जीवन ने एक नया रूप लिया। पृथ्‍वी हरियाली से भर गयी।     फूल खिल गये। लेकिन पौधे भी अपने से तृप्‍त नहीं थे। वे सतत जीवन को जन्‍म देते है। उसकी भी कोई चेष्‍टा चल रही थी। वे पशुओं को पक्षियों को जन्‍म देना चाहते है। पशु, पक्षी पैदा हुए।

हजारों लाखों बरसों तक पशु, पक्षियों से भरा था यह जगत, लेकिन मनुष्‍य का कोई पता नहीं था। पशुओं और पक्षियों के  प्राणों के भीतर निरंतर मनुष्‍य भी निवास कर रहा था। पैदा होने की चेष्‍टा कर रहा था। फिर मनुष्‍य पैदा हुआ।

 मनुष्‍य भी निरंतर नये जीवन को पैदा करने के लिए आतुर है। उस क्रिया को हम  सैक्‍स कहते है, हम उस को काम  वासना कहते है। लेकिन उस वासना का मूल अर्थ क्‍या है? मूल अर्थ इतना है कि मनुष्‍य अपने पर समाप्‍त नहीं होना चाहता, आगे भी जीवन को पैदा करना चाहता है। लेकिन क्‍यों? क्‍या मनुष्‍य के प्राणों में, मनुष्‍य के ऊपर किसी महा मानव को पैदा करने की कोई चेष्‍टा नहीं चल रही है?

निश्‍चित ही चल रही है। निश्‍चित ही मनुष्‍य के प्राण इस चेष्‍टा में संलग्‍न है कि मनुष्‍य से श्रेष्‍ठतर जीवन जन्‍म पा सके। मनुष्‍य से श्रेष्‍ठतर प्राणी आविर्भूत हो सके। सारे मनुष्‍य के प्राणों में एक कल्‍पना, एक सपने की तरह बैठी रही कि मनुष्‍य से बड़ा प्राणी पैदा कैसे हो सके। लेकिन मनुष्‍य से बड़ा प्राणी पैदा कैसे होगा?

हमने तो हजारों वर्षों से इस के पैदा होने की कामना को ही निंदित कर रखा है। हमने तो सैक्‍स को सिवाय गाली के आज तक दूसरा कोई सम्‍मान नहीं दिया। हम तो बात करने मे भयभीत होते है। हमने तो सैक्‍स को इस भांति छिपा कर रख दिया है, जैसे वह है ही नहीं। जैसे उसका जीवन में कोई स्‍थान नहीं है। जब कि सच्‍चाई यह है कि उससे ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण मनुष्‍य के जीवन में  ओर कुछ भी नहीं है। लेकिन उसको छिपाया है, दबाया है।

दबाने और छिपाने से मनुष्‍य सैक्‍स से मुक्‍त नहीं हो गया, बल्‍कि और भी बुरी तरह से सैक्‍स से ग्रसित हो गया। दमन उलटे परिणाम लाता है। क्‍या कभी आपने वह सोचा है कि आप चित को जहां से बचाना चाहते है, चित वहीं आकर्षित हो जाता है। जिन लोगो ने मनुष्‍य को सैक्‍स के विरोध में समझाया, उन लोगों ने ही मनुष्‍य को कामुक बनाने का जिम्‍मा भी अपने ऊपर ले लिया है।मनुष्‍य की अति कामुकता गलत शिक्षाओं का परिणाम है।

आज भी हम भयभीत होते है कि सैक्‍स की बात न की जाये। क्‍यों भयभीत होते है? भयभीत इसलिए होते है कि हमें डर है कि सैक्‍स के संबंध में बात करने से लोग और कामुक हो जायेंगे। यह बिलकुल ही गलत भ्रम है। यह शत-प्रतिशत गलत है। पृथ्‍वी उसी दिन सैक्‍स से मुक्‍त होगी, जब हम सैक्‍स के संबंध, में सामान्‍य, स्‍वस्‍थ बातचीत करने में समर्थ हो जायेंगे। जब हम सैक्‍स को पूरी तरह से समझ सकेंगे, तो ही हम सैक्‍स को अपने जीवन  से दूर कर सकेंगे।

जगत में ब्रह्मचर्य का जन्‍म हो सकता है। मनुष्‍य सैक्‍स के ऊपर उठ सकता है। लेकिन सैक्‍स को समझकर, सैक्‍स को पूरी तरह पहचान कर, उस की ऊर्जा के पूरे अर्थ, मार्ग, व्‍यवस्‍था को जानकर, उस से मुक्‍त हो सकता है।

वह सोचता है, आँख बंद कर लो सैक्‍स के प्रति तो सैक्‍स मिट जायेगा। अगर आँख बंद कर लेने से चीजें मिटती तो बहुत आसान थी जिंदगी। बहुत आसान होती दुनिया। आँख बंद करने से कुछ मिटता नहीं है। बल्‍कि जिस चीज के संबंध में हम आँख बंद करते है। हम प्रमाण देते है कि हम उस से भयभीत है। हम डर गये है। वह हमसे ज्‍यादा मजबूत है। उससे हम जीत नहीं सकते है, इसलिए आँख बंद करते है। आँख बंद करना कमजोरी का लक्षण है।आदमी बातचीत करेगा आत्‍मा की, परमात्‍मा की, स्‍वर्ग की, मोक्ष की। परन्तु सैक्‍स की कभी कोई बात नहीं करेगा। और उसका सारा व्‍यक्‍तित्‍व चारों तरफ से सैक्‍स से भरा हुआ है। 

 ब्रह्मचर्य की बात हम करते है। लेकिन कभी इस बात की चेष्‍टा नहीं करते कि पहले मनुष्‍य की काम की ऊर्जा को समझा जाये, फिर उसे रूपान्‍तरित करने के प्रयोग भी किये जा सकते है। बिना उस ऊर्जा को समझे दमन की, संयम की सारी शिक्षा, मनुष्‍य को पागल, विक्षिप्‍त और रूग्ण करेगी। इस संबंध में हमें कोई भी ध्‍यान नहीं है। यह मनुष्‍य इतना रूग्‍ण, इतना दीन-हीन कभी भी न था । इतना दुःखी भी न था। 

 अगर हम आदमी की तरफ देखेगें तो दिखाई पड़ेगा,आदमी के भीतर बहुत जहर इकट्ठा हो गया है। और उस जहर के इकट्ठे हो जाने का कारण यह है कि हमने उसकी प्रकृति को स्‍वीकार नहीं किया है। उसकी प्रकृति को दबाने और जबरदस्‍ती तोड़ने की चेष्‍टा की है। मनुष्‍य के भीतर जो शक्‍ति है। उस शक्‍ति को रूपांतरित करने का, ऊंचा ले जाने का, आकाशगामी बनाने का हमने कोई प्रयास नहीं किया। उस शक्‍ति के ऊपर हम जबरदस्‍ती कब्‍जा करके बैठ गये है। वह शक्‍ति नीचे से ज्‍वालामुखी की तरह उबल रही है। और धक्‍के दे रही है। वह आदमी को किसी भी क्षण उलटा देने की चेष्‍टा कर रही है। 


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सुन्दर जीवन

हजारों वर्षों से हमें एक बात मंत्र की तरह पढ़ाई जाती है। जीवन असार है, जीवन व्‍यर्थ है, जीवन दु:ख है। सम्‍मोहन की तरह हमारे प्राणों पर यह मंत्र दोहराया गया है । यह बात सुन-सुन कर धीरे धीरे हमारे प्राणों में पत्‍थर की तरह मजबूत होकर बैठ गयी है। इस बात के कारण जीवन ने सारा आनंद, सारा प्रेम,सारा सौंदर्य खो दिया है। जीवन एक बोझ बन गया है। मनुष्‍य एक दुःख का अड्डा बन गया है। 

अगर हमने यह मान ही लिया है कि जीवन सिर्फ छोड़ देने योग्‍य है, तो जिसे छोड़ ही देना है, उसे सजाने, उसे निखारने, क्या जरूरत  है। हम जो करते है उसी से हम निर्मित होते है। हमारा कृत्‍य अंतत: हमें निर्मित करता है। हमें बनाता है। हम जो करते है, वहीं धीरे-धीरे हमारे प्राण और हमारी आत्‍मा का निर्माता हो जाता है। जीवन के साथ हम क्‍या कर रहे है,इस पर निर्भर करेगा कि हम कैसे निर्मित हो रहे है। जीवन के साथ हमारा क्‍या व्‍यवहार है, इस पर निर्भर होगा कि हमारी आत्‍मा किन दिशाओं में यात्रा करेगी। किन मार्गों पर जायेगी। किन नये जगत की खोज करेगी।  

जीवन के साथ हमारा व्‍यवहार हमें निर्मित करता है—यह अगर स्‍मरण हो, तो शायद जीवन को असार, व्‍यर्थ मानने की दृष्‍टि हमें भ्रांत मालूम पड़ें; तो शायद हमें जीवन को दुःख पूर्ण मानने की बात गलत मालूम पड़े, तो शायद हमें जीवन से विरोध रूख अधार्मिक मालूम पड़े।

लेकिन अब तक धर्म के नाम पर जीवन का विरोध ही सिखाया गया है। सच तो यह है कि अब तक का सारा धर्म मृत्‍यु वादी है, जीवन वादी नहीं, उसकी दृष्‍टि में मृत्‍यु के बाद जो है, वहीं महत्‍वपूर्ण है, मृत्‍यु के पहले जो है वह महत्‍वपूर्ण नहीं है। अब तक के धर्म की दृष्‍टि में मृत्‍यु की पूजा है, जीवन का सम्‍मान नहीं। जीवन के फूलों का आदर नहीं, मृत्‍यु के कुम्‍हला गये, जा चुके, मिट गये, फूलों की क़ब्रों की , प्रशंसा और श्रद्धा है।

अब तक का सारा धर्म चिन्‍तन कहता है कि मृत्‍यु के बाद क्‍या है—स्‍वर्ग,मोक्ष, मृत्‍यु के पहले क्‍या है। उससे आज तक के धर्म को कोई संबंध नहीं रहा है। 

मृत्‍यु के पहले जो है, अगर हम उसे ही संभालने मे असमर्थ है, तो मृत्‍यु के बाद जो है उसे हम संभालने में कभी भी समर्थ नहीं हो सकते। मृत्‍यु के पहले जो है अगर वहीं व्‍यर्थ छूट जाता है, तो मृत्‍यु के बाद कभी भी सार्थकता की कोई गुंजाइश कोई पात्रता, हम अपने में पैदा नहीं करा सकेंगे। मृत्‍यु की तैयारी भी इस जीवन में जो आसपास है मौजूद है उस के द्वारा करनी है। मृत्‍यु के बाद भी अगर कोई लोक है, तो उस लोक में हमें उसी का दर्शन होगा। जो हमने जीवन में अनुभव किया है। और निर्मित किया है। लेकिन जीवन को भुला देने की,जीवन को विस्‍मरण कर देने की बात ही अब तक नहीं की गई।

जीवन के अतिरिक्‍त न कोई परमात्‍मा है, न हो सकता है। जीवन को साध लेना ही धर्म की साधना है और जीवन में ही परम सत्‍य को अनुभव कर लेना मोक्ष को उपल्‍बध कर लेने की पहली सीढ़ी है। जो जीवन को ही चूक जाते है वह और सब भी चूक जायेगा,यह निश्‍चित है।

  लेकिन अब तक का रूख उलटा रहा है। वह रूख कहता है, जीवन को छोड़ो। वह रूख कहता है जीवन को त्‍यागों। वह यह नहीं कहता है कि जीवन में खोजों। वह यह नहीं कहता है कि जीवन को जीने की कला सीख़ों। वह यह भी नहीं कहता है कि जीवन को जीने पर निर्भर करता है कि जीवन कैसा मालुम पड़ता है। अगर जीवन अंधकार पूर्ण मालूम पड़ता है, तो वह जीने का गलत ढंग है। यही जीवन आनंद की वर्षा भी बन सकता है। अगर जीने का सही ढंग उपलब्‍ध हो जाये।

पाँच हजार वर्षों की धार्मिक शिक्षा के बाद भी पृथ्‍वी रोज-रोज अधार्मिक होती जा रही है। मंदिर है, मस्जिदें है, चर्च है, पुजारी है, पुरोहित है, सन्‍यासी है, लेकिन पृथ्‍वी धार्मिक नहीं हो सकी है। और नहीं हो सकेगी। क्‍योंकि धर्म का आधार ही गलत है। धर्म का आधार जीवन नहीं है, धर्म का आधार मृत्‍यु है। धर्म का आधार खिलते हुए फूल नहीं है, कब्र है। जिस धर्म का आधार मृत्‍यु है, वह धर्म अगर जीवन के प्राणों को स्‍पंदित न कर पाता हो, तो इसमें आश्‍चर्य क्‍या है? जिम्‍मेवारी किस की है?




जीवन

 सुबह सुबह एक मांझी नदी की तरफ जा रहा  था। रास्ते में उसका पैर किसी चीज से टकराया। झुककर उसने देखा। पत्‍थरों से भरा हुआ एक झोला पडा था। नदी के किनारे पहुंच कर उसने अपना जाल किनारे पर रख दिया,वह सुबह के सूरज के उगने की प्रतीक्षा करने लगा। सूरज ऊग आये तो वह अपना जाल फेंके और मछलियाँ पकड़े। वह जो झोला उसे पडा हुआ मिला था, जिसमें पत्‍थर थे। उसमें से वह एक-एक पत्‍थर निकालकर शांत नदी में फेंकने लगा। सुबह के सन्‍नाटे में उन पत्‍थरों के गिरने की छपाक की आवाज उसे बड़ी मधुर लग रही थी। उस पत्‍थर से बनी लहरे उसे मुग्‍ध कर रही थी। वह एक-एक कर के पत्‍थर फेंकता जा रहा था। 

धीरे-धीरे सुबह का सूरज निकला, रोशनी हुई। तब तक उसने झोले के सारे पत्‍थर फेंक दिये थे। सिर्फ एक पत्‍थर उसके हाथ में रह गया था। सूरज की रोशनी मे देखते ही जैसे उसके ह्रदय की धड़कन बंद हो गई। सांस रूक गई। उसने जिन्‍हें पत्‍थर समझ कर फेंक दिया था। वे हीरे-जवाहरात थे। लेकिन अब तो अंतिम पत्थर हाथ में बचा था, और वह पूरे झोले को फेंक चूका था। और वह रोने लगा, चिल्‍लाने लगा। इतनी संपदा उसे मिल गयी थी कि अनंत जन्‍मों के लिए काफी थी, लेकिन अंधेरे में, अन्जाने में, उसने उस सारी संपदा को पत्‍थर समझकर फेंक दिया था। 

लेकिन फिर भी वह मछुआरा सौभाग्‍यशाली था, क्‍योंकि अंतिम पत्‍थर फेंकने से पहले सूरज निकल आया था और उसे दिखाई पड़ गया था कि उसके हाथ में हीरा है। साधारणतया सभी लोग इतने भाग्‍यशाली नहीं होते। जिंदगी बीत जाती है, सूरज नहीं निकलता, सुबह नहीं होती, सूरज की रोशनी नहीं आती। और सारे जीवन के हीरे हम पत्‍थर समझकर फेंक चुके होते है।

जीवन एक बहुत बड़ी संपदा है, लेकिन आदमी सिवाय उसे फेंकने और गंवाने के कुछ भी नहीं करता है। जीवन क्‍या है, यह भी पता नहीं चल पाता और हम उसे फेंक देते है। जीवन में क्‍या छिपा है, कौन से राज, कौन से रहस्‍य, कौन सा स्‍वर्ग, कौन सा आनंद, कौन सी मुक्‍ति, उन सब का कोई भी अनुभव नहीं हो  पाता और जीवन हमारे हाथ से चला जाता है।

जिन लोगो ने जीवन को पत्‍थर मानकर फेंकने में ही समय गंवा दिया है। अगर आज उनसे कोई कहने जाये कि जिन्‍हें तुम पत्‍थर समझकर फेंक रहे थे। वे हीरे-मोती थे तो वे नाराज होंगे। क्रोध से भर जायेंगे। इसलिए नहीं कि जो बात कही गयी है वह गलत है, बल्‍कि इसलिए कि यह बात इस बात का स्‍मरण दिलाती है। कि उन्‍होंने बहुत बड़ी संपदा फेंक दी।

लेकिन चाहे हमने कितनी ही संपदा फेंक दी हो, अगर एक क्षण भी जीवन का शेष है तो फिर भी हम कुछ बचा सकते है। और कुछ जान सकते है और कुछ पा सकते है। जीवन की खोज में कभी भी इतनी देर नहीं होती कि आदमी निराश हो। 

लेकिन हमने यह मान ही लिया है,अंधेरे में, अज्ञान में कि जीवन में कुछ भी नहीं है सिवाय पत्‍थरों के। जो लोग ऐसा मानकर बैठ गये है, उन्‍होंने खोज के पहले ही हार स्‍वीकार कर ली है। जीवन मिटटी और पत्‍थर नहीं है। जीवन में बहुत कुछ है। अगर खोजने वाली आंखें हो तो जीवन से वह सीढ़ी भी निकलती है, जो परमात्‍मा तक पहुँचती है। इस शरीर में भी,जो देखने पर हड्डी मांस और चमड़ी से ज्‍यादा नहीं है। वह छिपा है, जिसका हड्डी, मांस और चमड़ी से कोई संबंध नहीं है। इस साधारण सी देह में भी जो आज जन्‍मती है कल मर जाती है। और मिटटी हो जाती है। उसका वास है,जो अमृत है, जो कभी जन्‍मता नहीं और कभी समाप्‍त नहीं होता है।

रूप के भीतर अरूप छिपा है और दृश्‍य के भीतर अदृश्‍य का वास है। और मृत्‍यु के कुहासे में अमृत की ज्‍योति छिपी है। जिसकी कोई मृत्‍यु नहीं है।

बुधवार, 2 अगस्त 2023

समाधी

 सैक्‍स की शक्‍ति परमात्‍मा की शक्‍ति है, ईश्‍वर की शक्‍ति है।  और इसलिए तो उससे ऊर्जा पैदा होती है। और नये जीवन विकसित होते है। वही तो सबसे रहस्‍यपूर्ण शक्‍ति है। उससे दुश्‍मनी छोड़ दें। अगर आप चाहते है कि आपके जीवन में प्रेम  वर्षा हो जाये तो उससे दुश्‍मनी छोड़ दे। उसे आनंद से स्‍वीकार करें। उसकी पवित्रता को स्‍वीकार करें, उसको धन्‍यवाद दे।  और खोजें उसमें और गहरे और गहरे—तो आप हैरान हो जायेंगे। जितनी पवित्रता से काम की स्‍वीकृति होगी, उतना ही काम पवित्र होता चला जायेगा। और जितना अपवित्रता और पाप की दृष्‍टि से काम का विरोध होगा, काम उतना ही पाप-पूर्ण और कुरूप होता चला जायेगा। जब कोई अपनी पत्‍नी के पास ऐसे जाये जैसे कोई मंदिर में जा रहा है। जब कोई पत्‍नी अपने पति के पास ऐसे जाये जैसे सच में कोई परमात्‍मा से मिलने जा रहा हो। क्‍योंकि जब दो प्रेमी काम मे निकट आते है जब वे संभोग से गुजरते है तब सच में ही वे परमात्‍मा के मंदिर के निकट से गुजर रहे होते है। वहीं परमात्‍मा काम कर रहा है, उनकी उस निकटता में। वही परमात्‍मा की सृजन-शक्‍ति काम कर रही होती है।  

मनुष्‍य को समाधि का, ध्‍यान का जो पहला अनुभव मिला है कभी भी इतिहास में,तो वह संभोग के क्षण में मिला है और कभी नहीं। संभोग के क्षण में ही पहली बार यह स्‍मरण आया है आदमी को कि इतने आनंद की वर्षा हो सकती है। और जिन्‍होंने सोचा,  उन्‍होंने मेडिटेट किया, जिन लोगों ने काम के संबंध पर और  मैथुन पर चिंतन किया और ध्‍यान किया, उन्‍हें यह दिखाई पडा कि काम के क्षण में, मैथुन के क्षण में मन विचारों से शून्‍य हो जाता है। एक क्षण को मन के सारे विचार रूक जाते है। और वह विचारों का रूक जाना और वह मन का ठहर जाना ही आनंद की वर्षा का कारण होता है।

      तब उन्‍हें सीक्रेट मिल गया, राज मिल गया कि अगर मन को विचारों से मुक्‍त किया जा सके किसी और विधि से तो भी इतना ही आनंद मिल सकता है। और तब समाधि और योग की सारी व्‍यवस्‍थाएं विकसित हुई। जिनमें ध्‍यान  की सारी व्‍यवस्‍थाएं विकसित हुई। इन सबके मूल में संभोग का अनुभव है। 

और फिर मनुष्‍य को अनुभव हुआ कि बिना संभोग में जाये भी चित शून्‍य हो सकता है। और जो रस की अनुभूति संभोग में हुई थी। वह बिना संभोग के भी बरस सकती है। फिर संभोग क्षणिक हो सकता है। क्‍योंकि शक्‍ति और उर्जा का वहाँ बहाव और निकास है। लेकिन ध्‍यान सतत हो सकता है। 

एक युगल संभोग के क्षण में जिस आनंद को अनुभव करता है, उस आनंद को एक योगी चौबीस घंटे अनुभव कर सकता है। लेकिन इन दोनों आनंद में बुनियादी विरोध नहीं है। और इसलिए जिन्‍होंने कहा कि विषयानंद और ब्रह्मानंद भाई-भाई है। उन्‍होंने जरूर सत्‍य कहा है। वह सहोदर है, एक ही उदर से पैदा हुए है, एक ही अनुभव से विकसित हुए है। 

उन्‍होंने निश्‍चित ही सत्‍य कहा है। प्रेम क्‍या है। काम की पवित्रता, दिव्‍यता, उसकी ईश्वरीय अनुभूति की स्‍वीकृति होगी। उतने ही आप काम से मुक्त होते चले जायेगे। जितना अस्‍वीकार होता है, उतना ही हम बँधते है। 

जीवन जैसा है, उसे स्‍वीकार करो और जीओं उसकी परिपूर्णता में। वही परिपूर्णता रोज-रोज सीढ़ियां ऊपर उठती जाती है। वही स्‍वीकृति मनुष्‍य को ऊपर ले जाती है। और एक दिन प्रेम के दर्शन होते है,जिसका काम में पता भी नहीं चलता था। 

मंगलवार, 1 अगस्त 2023

पति पत्नी

 जब पति और पत्‍नी में प्रेम न हो, जिस पत्‍नी ने अपने पति को प्रेम न किया हो और जिस पति ने अपनी पत्‍नी को प्रेम न किया हो, वे बेटों को, बच्‍चों को प्रेम कर सकते है? तो आप गलत सोच रहे है। पत्‍नी उसी मात्रा में बेटे को प्रेम करेगी, जिस मात्रा में उसने अपने पति को प्रेम किया है। क्‍योंकि यह बेटा पति का फल है: उसका ही प्रति फलन है, उसका ही रीफ्लैक्शन है। यह एक बेटे के प्रति जो प्रेम होने वाला है, वह उतना ही होगा,जितना उसके पति को चाहा और प्रेम किया है। यह पति की मूर्ति है, जो फिर से नई होकर वापस लौट आयी है। अगर पति के प्रति प्रेम नहीं है, तो बेटे के प्रति प्रेम सच्‍चा कभी भी नहीं हो सकता है। और अगर बेटे को प्रेम नहीं किया गया—पालन पोसना और बड़ा कर देना प्रेम नहीं है—तो बेटा मां को कैसे कर सकता है। बाप को कैसे कर सकता है।

हर आदमी कहता है कि मैं प्रेम करता हूं। मां कहती है, पत्‍नी कहती है, बाप कहता है, भाई कहता है। बहन कहती है। मित्र कहते है। कि हम प्रेम करते है। सारी दुनिया में हर आदमी कहता है कि हम प्रेम करते है। दुनिया में इकट्ठा देखो तो प्रेम कहीं दिखाई ही नहीं पड़ता। इतने लोग अगर प्रेम करते है। तो दुनिया में प्रेम की वर्षा हो जानी चाहिए, प्रेम की बाढ़ आ जानी चाहिए, प्रेम के फूल खिल जाने चाहिए थे। प्रेम के दिये ही दिये जल जाते। घर-घर प्रेम का दीया होता तो दूनिया में इकट्ठी इतनी प्रेम की रोशनी होती कि मार्ग आनंद उत्‍सव से भरे होते।

      लेकिन वहां तो घृणा की रोशनी दिखाई पड़ती है। क्रोध की रोशनी दिखाई पड़ती है। युद्धों की रोशनी दिखाई पड़ती है। प्रेम का तो कोई पता नहीं चलता। झूठी है यह बात और यह झूठ जब तक हम मानते चले जायेंगे,जब तक सत्‍य की दिशा में खोज भी नहीं हो सकती। कोई किसी को प्रेम नहीं कर रहा।


सैक्स

 आज तक मनुष्‍य की सारी संस्कृतियों ने सेक्‍स का, काम का, वासना का विरोध किया है। इस विरोध ने मनुष्‍य के भीतर प्रेम के जन्‍म की संभावना तोड़ दी, नष्‍ट कर दी। इस निषेध ने....क्‍योंकि सचाई यह है कि प्रेम की सारी यात्रा का प्राथमिक बिन्‍दु काम है, सेक्‍स है। सेक्‍स की शक्‍ति ही, काम की शक्‍ति ही प्रेम बनती है।प्रेम का जो विकास है, वह काम की शक्‍ति का ही ट्रांसफॉमेंशन है। वह उसी का रूपांतरण है। काम की ऊर्जा ही, सेक्‍स एनर्जी ही, अंतत: प्रेम में परिवर्तित होती है और रूपांतरित होती है।

अपनी ही शक्‍ति से आदमी को लड़ा दिया गया है। सेक्‍स की शक्‍ति से आदमी को लड़ा दिया गया है। मनुष्‍य कभी भी काम से मुक्‍त नहीं हो सकता। काम उसके जीवन का प्राथमिक बिन्‍दु है। उसी से जन्‍म होता है। परमात्‍मा ने काम की शक्‍ति को ही, सेक्‍स को ही सृष्‍टि का मूल  बिंदू स्‍वीकार किया है। और परमात्‍मा जिसे पाप नहीं समझ रहा है, महात्‍मा उसे पाप बता रहे है। अगर परमात्‍मा उसे पाप समझता है तो परमात्‍मा से बड़ा पापी इस  पृथ्‍वी पर, इस जगत में इस विश्‍व में कोई नहीं है।

 फूल खिला हुआ दिखाई पड़ रहा है। कभी सोचा है कि फूल का खिल जाना भी सेक्‍सुअल ऐक्‍ट है, फूल का खिल जाना भी काम की एक घटना है, वासना की एक घटना है। फूल के खिल जाने में क्या है ? उसके खिल जाने में कुछ भी नहीं है। वे बिंदु है पराग के, वीर्य के कण है जिन्‍हें तितलियों उड़ा कर दूसरे फूलों पर ले जाएंगी और नया जन्‍म देगी। एक मोर नाच रहा है—और कवि गीत गा रहा है। और संत भी देख कर प्रसन्‍न हो रहा हे—लेकिन उन्‍हें ख्‍याल नहीं कि नृत्‍य एक सेक्‍सुअल ऐक्‍ट है। मोर पुकार रहा है अपनी प्रेयसी को या अपने प्रेमी को। वह नृत्‍य किसी को रिझाने के लिए है? पपीहा गीत गा रहा है, कोयल बोल रही है, एक आदमी जवान हो गया है, एक युवती सुन्‍दर होकर विकसित हो गयी है। ये सब की सब सेक्सुअल एनर्जी की अभिव्‍यंजना है। यह सब का सब काम का ही रूपांतरण है। यह सब का सब काम की ही अभिव्‍यक्‍त,काम की ही अभिव्‍यंजना है।

सेक्‍स को गाली बना दिया है। सेक्‍स को रोग बना दिया है, घाव बना दिया है और सब विषाक्‍त कर दिया है। छोटे-छोटे बच्‍चों को समझाया जा रहा है कि सेक्‍स पाप है। लड़कियों को समझाया जा रहा है, लड़कों को समझाया जा रहा है कि सेक्‍स पाप है। फिर वह लड़की जवान होती है। इसकी शादी होती है, सेक्‍स की दुनिया शुरू होती है। और इन दोनों के भीतर यह भाव है कि यह पाप है। और फिर कहा जायेगा स्‍त्री को कि पति को परमात्‍मा मानें। जो पाप में ले जा रहा है। उसे परमात्‍मा कैसे माना जा सकता है। यह कैसे संभव है कि जो पाप में घसीट रहा है वह परमात्‍मा है। और उस लड़के से कहा जायेगा उस युवक को कहा जायेगा कि तेरी पत्‍नी है, तेरी साथिन है, तेरी संगिनी है। लेकिन वह नर्क में ले जा रही है। शास्‍त्रों में लिखा है कि स्‍त्री नर्क का द्वार है। यह नर्क का द्वार संगी और साथिनी, यह मेरा आधा अंग—यह नर्क का द्वार। मुझे उस में धकेल रहा है। मेरा आधा अंग। इस के साथ कौन सा सामंजस्‍य बन सकता है। 

 सारी दुनिया का दाम्‍पत्‍य जीवन नष्‍ट किया है इस शिक्षा ने। और जब दम्‍पति का जीवन नष्‍ट हो जाये तो प्रेम की कोई संभावना नहीं है। क्‍योंकि वह पति और पत्‍नी प्रेम न कर सकें एक दूसरे को जो कि अत्‍यन्‍त सहज और प्राकृतिक प्रेम है। तो फिर कौन और किसको प्रेम कर सकेगा। इस प्रेम को बढ़ाया जा सकता है। कि पत्‍नी और पति का प्रेम इतना विकसित हो, इतना उदित हो इतना ऊंचा बने कि धीरे-धीरे बाँध तोड़ दे और दूसरों तक फैल जाये। यह हो सकता है। लेकिन इसको समाप्‍त ही कर दिया जाये,तोड़ ही दिया जाये, विषाक्‍त कर  दिया जाये तो फैलेगा क्‍या, बढ़ेगा क्‍या?


प्रेम

 जीना और जानना तो आसान है, लेकिन कहना बहुत कठिन है। आदमी के जीवन में जो भी श्रेष्‍ठ है, सुन्‍दर है, और सत्‍य है; उसे जिया जा सकता है, जाना जा सकता है। हुआ जा सकता है। लेकिन कहना बहुत कठिन बहुत मुश्‍किल है। और दुर्घटना और दुर्भाग्‍य यह है कि जिसमें जिया जाना चाहिए, जिसमें हुआ जाना चाहिए, उसके संबंध में मनुष्‍य जाति पाँच छह हजार साल से केवल बातें कर रही है। प्रेम की बात चल रही है, प्रेम के गीत गाये जा रहे है। प्रेम के भजन गाये जा रहे है। और प्रेम का मनुष्‍य के जीवन में कोई स्‍थान नहीं है। अगर आदमी के भीतर खोजने जायें तो प्रेम से ज्‍यादा असत्‍य शब्‍द दूसरा नहीं मिलेगा। और जिन लोगों ने प्रेम को असत्‍य सिद्ध कर दिया है और जिन्‍होंने प्रेम की समस्‍त धाराओं को अवरूद्ध कर दिया है.....ओर बड़ा दुर्भाग्‍य यह है कि लोग समझते है कि वे ही प्रेम के जन्‍मदाता है।

      मनुष्‍य के जीवन में प्रेम की धारा प्रकट नहीं हो पायी। और नहीं हो पायी तो हम दोष देते है कि मनुष्‍य ही बुरा है, इसलिए प्रेम  प्रकट नहीं हो पाया। हम दोष देते है कि यह मन ही जहर है, इसलिए प्रकट नहीं हो पायी। मन जहर नहीं है। और जो लोग मन को जहर कहते रहे है, उन्‍होंने ही प्रेम को जहरीला कर दिया,प्रेम को प्रकट नहीं होने दिया है। मन जहर हो कैसे सकता है? इस जगत में कुछ भी जहर नहीं है। परमात्‍मा के इस सारे उपक्रम में कुछ भी विष नहीं है, सब अमृत है। लेकिन आदमी ने सारे अमृत को जहर कर लिया है और इसे जहर करने में शिक्षक, साधु, संत और तथाकथित धार्मिक लोगों का सबसे ज्‍यादा हाथ है। इस बात को थोड़ा समझ लेना जरूरी है। क्‍योंकि अगर यह बात दिखाई न पड़े तो मनुष्‍य के जीवन में कभी भी प्रेम...भविष्‍य में भी नहीं हो सकेगा। क्‍योंकि जिन कारणों से प्रेम नहीं पैदा हो सका है, उन्‍ही कारणों को हम प्रेम प्रकट करने के आधार ओर कारण बना रहे है। 

हालतें ऐसी है कि गलत सिद्धांतों को अगर हजार वर्षों तक दोहराया जाये तो फिर यह भूल ही जाते है कि सिद्धांत गलत है। और दिखाई पड़ने लगता है कि आदमी गलत है। क्‍योंकि वह उन सिद्धांतों को पूरा नहीं कर पा रहा है। प्रेम कोई ऐसी बात नहीं है कि कहीं खोजने जाना है उसे। वह प्राणों की प्‍यास है प्रत्‍येक के भीतर, वह प्राणों की सुगंध है प्रत्‍येक के भीतर। लेकिन चारों तरफ परकोटा है उसके और वह प्रकट नहीं हो पाता। सब तरफ पत्‍थर की दीवाल है और वह झरने नहीं फूट पाते। तो प्रेम की खोज और प्रेम की साधना कोई पाजीटिव, कोई विधायक खोज और साधना नहीं है कि हम जायें और कही प्रेम सीख लें। मनुष्‍य के भीतर प्रेम छिपा है, सिर्फ उघाड़ने की बात है। उसे पैदा करने का सवाल नहीं है। अनावृत करने की बात है। कुछ है, जो हमने ऊपर ओढा हुआ है। जो उसे प्रकट नहीं होने देता ?

स्त्री

 यदि तुम एक स्त्री से प्रेम करते हो तो तुम उससे पूर्ण वफादारी और ईमानदारी की मांग करोगे, तुम पागल हो जाओगे और वह भी पागल हो जायेगी। यह सम्भव नहीं है: परिपूर्ण वफादारी का अर्थ है कि वह किसी अन्य व्यक्ति के बारे में सोचेगी भी नहीं, वह सपने तक में भी नहीं सोचेंगी। यह सम्भव नहीं है। तुम होते कौन हो ? वह आखिर तुम्हारे प्रेम में क्यों पड़ी ?—क्योंकि तुम एक पुरूष हो। यदि वह तुम्हारे साथ प्रेम में पड़ सकती है, तो दूसरों के बारे में क्यों नहीं सोच सकती ? वह सम्भावना खुली ही रहती है। यदि वह किसी सुंदर पुरूष के सम्पर्क में आती है तो उसके अंदर एक कामना उठ सकती है । यह कहना भी कि वह व्यक्ति सुंदर है, एक कामना करना हैं—एक कामना अंदर प्रविष्ट हो गई। तुम केवल यह कह सकते हो कि कोई चीज़ सुंदर है, और जब तुम अनुभव करते हो कि वह अधिकार में किये जाने और आनंद का उपयोग करने के योग्य है, तो तुम उदासीन नहीं रह सकते।

अब तुम परिपूर्ण सत्यनिष्ठा और वफादारी के बारे में पूछते हो जैसा कि लोग पूछते हैं, तब वहां संघर्ष होना सुनिश्चित है और तुम संदेह शील बने रहोगे। तुम संदेह शील बने रहोगे क्योंकि तुम अपने मन को भी जानते हो कि वह दूसरी स्त्रियों के बारे में भी सोचता है, इसलिए तुम यह कैसे विश्वास कर सकते हो कि तुम्हारी स्त्री दूसरे पुरुषों के बारे में नहीं सोच रही है ? तुम जानते हो कि तुम ऐसा सोच रहे हो; इसलिए तुम यह भी जानते हो कि वह भी सोच रही है। अब अविश्वास संघर्ष, दुःख उत्पन्न होता है। वह प्रेम जो सम्भव था वह एक असम्भव कामना के कारण असंभव बन गया है। 

जो नहीं किया सकता, लोग उसे मांगते हैं। तुम भविष्य के लिए सुरक्षा चाहते हो, जो सम्भव नहीं है। तुम कल के लिए परिपूर्ण सुरक्षा चाहते हो। उसकी गारंटी नहीं हो सकती है, वह जीवन के स्वभाव में ही नहीं है। एक बुद्धिमान व्यक्ति जानता है कि वह जीवन के स्वभाव में ही नहीं है—भविष्य खुला बना रहता हैं। बैंक दिवालिया सिद्ध हो सकता है, पत्नी किसी अन्य व्यक्ति के साथ भाग सकती है, पति मर सकता है, बच्चे अयोग्य सिद्ध हो सकते हैं। तुम अपंग हो सकते हो....कल के बारे में कौन जानता है?

कल के लिए सुरक्षा मांगने का अर्थ है भय में बने रहना, इतने अधिक भय को नष्ट किये जाना सम्भव नहीं है। वहां भय होगा ही तुम कांप रहे होगे और इसी मध्य वर्तमान क्षण खोते जा रहे हो। भविष्य में सुरक्षा की कामना के साथ तुम वर्तमान को नष्ट कर रहे हो। उस जीवन को नष्ट कर रहे हो जो केवल अभी उपलब्ध है। और तुम अधिक से अधिक भयभीत कम्पित और लालची बनोगे।

सोमवार, 31 जुलाई 2023

प्याज

 https://www.jivansutra.com/food/onion-benefits-in-hindi/

https://www.stylecraze.com/hindi/pyaz-ke-fayde-upyog-aur-nuksan-in-hindi/

बैंगनी टमाटर

अगर हम कहीं भी टमाटर का जिक्र सुनें तो हमारे दिमाग में जिसका ध्यान आता है वो है लाल टमाटर। क्यूंकि टमाटर पकने 
के बाद लाल ही होते हैं। ऐसे में अगर हम आपसे ये कहें कि नहीं.. टमाटर लाल नहीं बल्कि बैंगनी भी होता है तो जाहिर सी बात है आप कहेंगे विदेश से आये हो या इंडिया के की हो। लेकिन ये सच है टमाटर सिर्फ लाल ही नहीं बल्कि बैंगनी भी होता है और इसकी अनेकों विशेषताएँ है।
लाल और कभी-कभी पीले टमाटर खाकर अगर आपका 
मन ऊब गया हो तो बैंगनी टमाटर ट्राई किया जा सकता है.
 क्योंकि वैज्ञानिकों का दावा है कि इसमें साधारण टमाटर से ज्यादा एंटीऑक्सीडेंट्स  हैं. कैंसर से लड़ने की क्षमता है. 
साथ ही शरीर में कहीं भी सूजन या दर्द हो, उसे कम करने की ताकत भी.
बैंगनी रंग इन टमाटरों को ब्लूबेरी की तरह स्वास्थ्य के लिए लाभकारी गुण देगा. ये टमाटर कैंसर की रोकथाम में मददगार हो सकते हैं क्योंकि इनमें एंथोसाइनिन नाम का एंटी-ऑक्सीडेंट होता है.ये नए टमाटर टोमैटो कैचअप से लेकर पिज़्जा तक में पोषण तत्व बढ़ा सकते हैं.ये टमाटर ब्रिटेन के नॉरिज में स्थित जॉन इनस सेंटर में विकसित किए गए हैं.
इन बैंगनी टमाटरों में वही तत्व होंगे जो ब्लूबेरी और क्रेनबेरी को स्वास्थ्य के लिए लाभदायक बनाते हैं लेकिन आप इसे उस भोजन में शामिल कर सकते हैं जिसे आम लोग वास्तव में प्रचुर मात्रा में खाते हैं और जो किफ़ायती भी हैं. आनुवंशिक रूप से संशोधित ये टमाटर आनुवांशिक संशोधन  यानी जेनेटिकली मॉडिफ़ाइड वाले उन पौधों में शामिल हैं जिन्हें ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए बनाया गया है.
टमाटरों का बैंगनी रंग स्नैपड्रैगन पौधे से निकाले गए एक जीन को टमाटर के पौधे में स्थानांतरित करने का नतीज़ा है. आनुवांशिक संशोधन के कारण टमाटर के पौधों में एंथोसाएनिन अपने आप विकसित होने लगता है.
कुछ लोगों को अब यह चिंता रहेगी कि यह ऐसी तकनीक है जो प्राकृतिक व्यवस्था के साथ छेड़छाड़ करती है. इसके बड़ी कंपनियों के हाथ में जाने की भी चिंता लोगों को रहेगी. आखिरकार यह आपके और आपके बच्चों के भोजन का हिस्सा बनेगा. और यह समूचे विश्व के परिवारों के लिए चिंता की बड़ी वजह होगी.
ये टमाटर खासतौर से उन लोगों के लिए फायदेमंद होगा, जिन्हें अपनी सेहत से प्यार है. क्योंकि लोग वो खाना चाहते हैं जिसमें ज्यादा पोषक तत्व हों और वह रुचिकर भी हो. अब बैंगनी टमाटर से ज्यादा इंट्रेस्टिंग क्या हो सकता है.
अगर आप आधा कप ब्लू बेरी खाते हैं. तो आप इस टमाटर को आधा काटकर खा लीजिए. आपको उतना ही एंथोसायनिन मिलेगा. यह आधा टमाटर 250 मिलिग्राम एंथोसायनिन शरीर में छोड़ेगा. इसके अलावा स्नैपड्रैगन फूल का जीन के अलग फायदे हैं.  बैंगनी टमाटर की उम्र साधारण टमाटर से दोगुनी है. यानी साधारण टमाटर अगर तीन-चार दिन में खराब होता है तो बैंगनी टमाटर 6-8 दिन में खराब होगा.

रविवार, 30 जुलाई 2023

टमाटर

भारत विश्व का चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा टमाटर उत्पादक देश है। टमाटर विश्व में सबसे ज्यादा प्रयोग होने वाली सब्जी है।  बहुत से लोग तो ऐसे हैं जो बिना टमाटर के खाना बनाने की कल्पना भी नहीं कर सकते। इसकी उत्पति दक्षिण अमेरिकी ऐन्डीज़ में हुई। शुरू शुरू में इसे खाने योग्य नहीं माना जाता था। इसको ज़हरीला सेब कहते थे।मेक्सिको में इसका भोजन के रूप में प्रयोग आरम्भ हुआ और अमेरिका के स्पेनिस उपनिवेश से होते हुये विश्वभर में फैल गया। टमाटर में भरपूर मात्रा में कैल्शियम, फास्फोरस व विटामिन सी पाये जाते हैं। एसिडिटी की शिकायत होने पर टमाटरों की खुराक बढ़ाने से यह शिकायत दूर हो जाती है। हालाँकि टमाटर का स्वाद अम्लीय अर्थात  खट्टा होता है, लेकिन यह शरीर में क्षारीय अर्थात   खारी प्रतिक्रियाओं को जन्म देता है। लाल-लाल टमाटर देखने में सुन्दर और खाने में स्वादिष्ट होने के साथ पौष्टिक होते हैं। इसके खट्टे स्वाद का कारण यह है कि इसमें साइट्रिक एसिड और मैलिक एसिड पाया जाता है जिसके कारण यह प्रत्यम्ल यानी एंटासिड के रूप में काम करता है। 
टमाटर में विटामिन 'ए' काफी मात्रा में पाया जाता है। यह आँखों के लिये बहुत लाभकारी है। शरीर के लिए टमाटर बहुत ही लाभकारी होता है। इससे कई रोगों में लाभ मिलता  है। टमाटर शरीर से विशेषकर गुर्दे से रोग के जीवाणुओं को निकालता है। यह पेशाब में चीनी के प्रतिशत पर नियन्त्रण पाने के लिए प्रभावशाली होने के कारण यह मधुमेह के रोगियों के लिए भी बहुत उपयोगी होता है। कार्बोहाइड्रेट की मात्रा कम होने के कारण इसे एक उत्तम भोजन माना जाता है। टमाटर से पाचन शक्ति बढ़ती है। इसके लगातार सेवन से जिगर बेहतर ढँग से काम करता है और गैस की शिकायत भी दूर होती है। जो लोग अपना वजन कम करने के इच्छुक हैं, उनके लिए टमाटर बहुत उपयोगी है। एक मध्यम आकार के टमाटर में केवल 12 कैलोरीज होती है, इसलिए इसे पतला होने के भोजन के लिए उपयुक्त माना जाता है।
 इसके साथ साथ यह पूरे शरीर के छोटे-मोटे विकारों को भी दूर करता है। टमाटर के नियमित सेवन से श्वास नली का शोथ कम होता है। प्राकृतिक चिकित्सकों का कहना है कि टमाटर खाने से अतिसंकुचन भी दूर होता है और खाँसी तथा बलगम से भी राहत मिलती है। इसके सेवन से रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है।

भारत में बेहद लोकप्रिय टमाटर की चटनी को बहुत ही कम समय में बनाया जा सकता है। यह चटनी नाश्ते में समोसे, आलू बड़ा, पकोड़े, बड़े, डबलरोटी आदि के साथ आसानी से खायी जा सकती है। वैसे टमाटर की मीठी चटनी टुमैटो कैचप या सॉस के रूप में आम बाज़ार में भी मिलती है। अब तो इसका व्यावसायिक दृष्टि से उत्पादन भी होने लगा है। इसका प्रयोग ज्यादा से ज्यादा नाश्ते की चटनी बनाने किया जाता है
वनस्पति वैज्ञानिक तौर पर मानते हैं कि टमाटर फल है।  हालांकि, टमाटर में अन्य खाद्य फल की तुलना में काफी कम शक़्क़र सामग्री है और इसलिए यह उतना मीठा नहीं है। यह पाक उपयोगों के लिए एक सब्जी माना जाता है। वैसे आमतौर पर टमाटर को सब्जी ही माना जाता है।
रसीले और लाल टमाटर खाने का स्वाद बढ़ाने वाले टमाटर के अनेक फायदे हैं। टमाटर को लाल रंग देने वाला तत्व लाइकोपीन, जो सेहत के लिए फायदों से भरा है, कच्चे टमाटर से अधिक पकने के बाद प्रभावी होता है।  टमाटर हर मौसम में फायदेमंद है ।टमाटर  त्वचा के लिए भी काफी लाभकारी है। यह झुर्रियों को कम करता है और रोम छिद्रों को बड़ा करता है




 एक खरीदारी ऐसी भी

मुल्ला नसीरुद्दीन को कहीं से कुछ पैसे मिले। उसने सोचा- सामने ईद है, क्यों न इन पैसों से ईद के लिए नए कपड़े ले लिये जाएं। यह विचार मन में आते ही मुल्ला नसीरुद्दीन कपड़े की एक दुकान में चला गया और दुकानदार से कहा- "मुझे कुर्ते का कपड़ा चाहिए! "

दुकानदार मुल्ला की पतली लम्बी दाढ़ी और नोकदार टोपी देखकर मन-ही-मन यह अनुमान लगा रहा था कि हो न हो यह शख्स मुल्ला नसीरुद्दीन ही है। उसने मुल्ला नसीरुद्दीन के बारे में तरह-तरह के किस्से सुन रखे थे। दुकानदार मुल्ला को देखकर मन-ही- मन खुश हो रहा था कि चलो, आज मुल्ला नसीरुद्दीन को वह इतने करीब से देख तो पा रहा है।

दुकानदार ने मुल्ला के सामने कुर्ते के कपड़े के नायाब टुकड़ों का ढेर लगा दिया। उसमें से एक रेशमी कपड़ा मुल्ला को पसन्द आया। उसने दुकानदार से कहा- "मुझे कपड़े का यही टुकड़ा दे दो।"

अचानक मुल्ला को याद आया कि उसके पास अभी भी कई नए कुर्ते रखे हैं जिन्हें उसने एक दिन भी नहीं पहना है जबकि वेगम के पास तमाम कपड़े पुराने ही हैं इसलिए बेगम के लिए ही नए कपड़े लेने चाहिए। यह खयाल आते ही मुल्ला नसीरुद्दीन ने दुकानदार से कहा -“इस कुर्ते के कपड़े के बदले में मेरी बेगम के लिए कुर्ती और सलवार का जोड़ा दे सकते हो?"

"हाँ-हाँ, क्यों नहीं!" दुकानदार ने कहा और मुल्ला नसीरुद्दीन के सामने कुर्ती और सलवार के जोड़ों की झड़ी लगा दी।

मुल्ला नसीरुद्दीन ने एक जोड़ा पसन्द किया। दुकानदार यह जोड़ा जब नसीरुद्दीन को देने लगा तब नसीरुद्दीन ने दुकानदार से कहा- "माफ करना भाई! मुझे लगता है कि मेरी बेगम को कुर्ती सलवार से ज्यादा बुरकों की जरूरत है। ऐसा करो, यह कुर्ती सलवार रख लो और इसके बदले में इसी दाम का बुरका लपेट दो। “

दुकानदान ने बिना किसी प्रतिक्रिया के ऐसा ही किया और बुरका लपेटकर मुल्ला नसीरुद्दीन को दे दिया।

मुल्ला नसीरुद्दीन बुरका लेकर जब दुकान से जाने लगा तो दुकानदार ने पूछा- "हुजूर, पैसे?"

"पैसे? किस बात के पैसे?” मुल्ला नसीरुद्दीन ने संजीदगी से पूछा

। दुकानदार ने मुल्ला नसीरुद्दीन से कहा- "हुजूर! बुरके के पैसे!“

नसीरुद्दीन ने दुकानदार की तरफ अचरज से देखा और पूछा - "बुरका के पैसे क्यों भाई वह तो मैंने कुर्ती सलवार के बदले में लिया!”

मुल्ला का जवाब सुनकर दुकानदार अचकचा गया और बोला- “तो ठीक है हजूर! कुर्ती सलवार के पैसे!"

मुल्ला नसीरुद्दीन ने खा जानेवाली नजरों से दुकानदार को देखा और गरजते हुए कहा - "कुर्ती-सलवार के पैसे? अरे, वह तो मैंने कुर्ते के कपड़े के बदले में लिया था । ""

दुकानदार के तो पसीने छूटने लगे, फिर भी साहस करके बोला- “तो हुजूर, कुर्ते के कपड़े के पैसे ही दे दें। "

"अरे, कुर्ते के कपड़े के पैसे मुझसे कैसे लेगा? कुर्ते का कपड़ा मैंने लिया ही नहीं है । " मुल्ला नसीरुद्दीन इतना कहकर बुरका लेकर दुकान से चला गया और दुकानदार उसे जात हुआ देखता रह गया।

भगवान् विष्णु के ये सौ दिव्य नाम

 भगवान् विष्णु के ये सौ दिव्य नाम निश्चय ही पापों का नाश करने वाले हैं। व्यासजी ने सर्वप्रथम इनका उपदेश दिया है। इस के पाठ से समस्त पापका नाश हो जाता है। जो प्रातः काल उठकर इसका पाठ करेगा, वह मनुष्य भगवान् विष्णु का भक्त हो जायगा। उसके हृदयके सारे पाप धुल जायँगे और वह शुद्धचित्त होकर भगवान् विष्णु का सायुज्य  प्राप्त कर लेगा। इसके पाठ से सहस्रों चान्द्रायणव्रत, सैकड़ों कन्यादानजनित पुण्य तथा सहस्रों लक्ष गोदानों का फल पाकर मनुष्य मोक्षका भागी होता है; उसे दस हजार अश्वमेध यज्ञोंका पुण्य फल प्राप्त होता है

1 - ॐ (सच्चिदानन्दस्वरूप) वासुदेव, 

2- हृषीकेश,,

 3- वामन, 

4- जलशायी, 

5- जनार्दन, 6 - हरि, 7 - कृष्ण, 8- श्रीवत्स, 9- गरुडध्वज, 

10- वाराह, 11 - पुण्डरीकाक्ष, 12 - नृसिंह, 13 - नरकान्तक, 14- अव्यक्त, 15 - शाश्वत, 16 - विष्णु, 17 - अनन्त, 

18- अज, 19- अव्यय, 20- नारायण, 21 - गदाध्यक्ष, 

22- गोविन्द, 23- कीर्तिभाजन, 24 - गोवर्धनोद्धर, 

25- देव, 26- भूधर, 27- -भुवनेश्वर, 28 - वेत्ता (ज्ञानी),

 29 - यज्ञपुरुष, 30 - यज्ञेश, 31 - यज्ञवाहक, 32 - चक्रपाणि, 33-गदापाणि, 34-शङ्खपाणि, 35 - नरोत्तम, 36 - वैकुण्ठ, 37- दुष्टदमन, 38- भूगर्भ, 39 - पीतवासा, 40 - त्रिविक्रम, 

41 - त्रिकालज्ञ, 42 - त्रिमूर्ति, 43- नन्दकेश्वर, 44 - राम (परशुराम), 45 - राम (रामचन्द्र ), 46 - हयग्रीव, 47 - भीम, 48 - रौद्र, 49 - भवोद्भव, 50- - श्रीपति, 51 - श्रीधर, 52 - श्रीश, 53 - मङ्गल, 54 - मङ्गलायुध, 55 - दामोदर, 56 - दमोपेत, 57 - केशव, 58 - केशिसूदन, 59 - वरेण्य, 60 - वरद, 61 - विष्णु,

 62 - आनन्द

63 - वसुदेवज, 64 - हिरण्यरेता, 65 - दीप्त, 66 - पुराण, 67 - पुरुषोत्तम, 68 - सकल, 69 - निष्कल, 70 - शुद्ध, 71 - निर्गुण, 72 - गुणशाश्वत, 73- हिरण्यतनुसंकाश, 74- सूर्यायुतसमप्रभ, 75 - मेघश्याम, 76 -- - चतुर्बाहु, 77-कुशल, 78-कमलेक्षण, 79 - ज्योतीरूप, 80-अरूप, 81-स्वरूप, 82-रूपसंस्थित, 83 - सर्वज्ञ, 84 - सर्वरूपस्थ, 85 - सर्वेश, 86- सर्वतोमुख, 87 - ज्ञान, 88 - कूटस्थ, 89- अचल, 90 - ज्ञानद, 91- परम, 92- प्रभु, 93-योगीश, 94- योगनिष्णात, 95 - योगी, 96 - योगरूपी, 97 - ईश्वर, 98 - सर्वभूतेश्वर, 99-भूतमय और 100-प्रभु

की मैं वन्दना करता हूँ ॥

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...