बुधवार, 2 अगस्त 2023

समाधी

 सैक्‍स की शक्‍ति परमात्‍मा की शक्‍ति है, ईश्‍वर की शक्‍ति है।  और इसलिए तो उससे ऊर्जा पैदा होती है। और नये जीवन विकसित होते है। वही तो सबसे रहस्‍यपूर्ण शक्‍ति है। उससे दुश्‍मनी छोड़ दें। अगर आप चाहते है कि आपके जीवन में प्रेम  वर्षा हो जाये तो उससे दुश्‍मनी छोड़ दे। उसे आनंद से स्‍वीकार करें। उसकी पवित्रता को स्‍वीकार करें, उसको धन्‍यवाद दे।  और खोजें उसमें और गहरे और गहरे—तो आप हैरान हो जायेंगे। जितनी पवित्रता से काम की स्‍वीकृति होगी, उतना ही काम पवित्र होता चला जायेगा। और जितना अपवित्रता और पाप की दृष्‍टि से काम का विरोध होगा, काम उतना ही पाप-पूर्ण और कुरूप होता चला जायेगा। जब कोई अपनी पत्‍नी के पास ऐसे जाये जैसे कोई मंदिर में जा रहा है। जब कोई पत्‍नी अपने पति के पास ऐसे जाये जैसे सच में कोई परमात्‍मा से मिलने जा रहा हो। क्‍योंकि जब दो प्रेमी काम मे निकट आते है जब वे संभोग से गुजरते है तब सच में ही वे परमात्‍मा के मंदिर के निकट से गुजर रहे होते है। वहीं परमात्‍मा काम कर रहा है, उनकी उस निकटता में। वही परमात्‍मा की सृजन-शक्‍ति काम कर रही होती है।  

मनुष्‍य को समाधि का, ध्‍यान का जो पहला अनुभव मिला है कभी भी इतिहास में,तो वह संभोग के क्षण में मिला है और कभी नहीं। संभोग के क्षण में ही पहली बार यह स्‍मरण आया है आदमी को कि इतने आनंद की वर्षा हो सकती है। और जिन्‍होंने सोचा,  उन्‍होंने मेडिटेट किया, जिन लोगों ने काम के संबंध पर और  मैथुन पर चिंतन किया और ध्‍यान किया, उन्‍हें यह दिखाई पडा कि काम के क्षण में, मैथुन के क्षण में मन विचारों से शून्‍य हो जाता है। एक क्षण को मन के सारे विचार रूक जाते है। और वह विचारों का रूक जाना और वह मन का ठहर जाना ही आनंद की वर्षा का कारण होता है।

      तब उन्‍हें सीक्रेट मिल गया, राज मिल गया कि अगर मन को विचारों से मुक्‍त किया जा सके किसी और विधि से तो भी इतना ही आनंद मिल सकता है। और तब समाधि और योग की सारी व्‍यवस्‍थाएं विकसित हुई। जिनमें ध्‍यान  की सारी व्‍यवस्‍थाएं विकसित हुई। इन सबके मूल में संभोग का अनुभव है। 

और फिर मनुष्‍य को अनुभव हुआ कि बिना संभोग में जाये भी चित शून्‍य हो सकता है। और जो रस की अनुभूति संभोग में हुई थी। वह बिना संभोग के भी बरस सकती है। फिर संभोग क्षणिक हो सकता है। क्‍योंकि शक्‍ति और उर्जा का वहाँ बहाव और निकास है। लेकिन ध्‍यान सतत हो सकता है। 

एक युगल संभोग के क्षण में जिस आनंद को अनुभव करता है, उस आनंद को एक योगी चौबीस घंटे अनुभव कर सकता है। लेकिन इन दोनों आनंद में बुनियादी विरोध नहीं है। और इसलिए जिन्‍होंने कहा कि विषयानंद और ब्रह्मानंद भाई-भाई है। उन्‍होंने जरूर सत्‍य कहा है। वह सहोदर है, एक ही उदर से पैदा हुए है, एक ही अनुभव से विकसित हुए है। 

उन्‍होंने निश्‍चित ही सत्‍य कहा है। प्रेम क्‍या है। काम की पवित्रता, दिव्‍यता, उसकी ईश्वरीय अनुभूति की स्‍वीकृति होगी। उतने ही आप काम से मुक्त होते चले जायेगे। जितना अस्‍वीकार होता है, उतना ही हम बँधते है। 

जीवन जैसा है, उसे स्‍वीकार करो और जीओं उसकी परिपूर्णता में। वही परिपूर्णता रोज-रोज सीढ़ियां ऊपर उठती जाती है। वही स्‍वीकृति मनुष्‍य को ऊपर ले जाती है। और एक दिन प्रेम के दर्शन होते है,जिसका काम में पता भी नहीं चलता था। 

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