आज तक मनुष्य की सारी संस्कृतियों ने सेक्स का, काम का, वासना का विरोध किया है। इस विरोध ने मनुष्य के भीतर प्रेम के जन्म की संभावना तोड़ दी, नष्ट कर दी। इस निषेध ने....क्योंकि सचाई यह है कि प्रेम की सारी यात्रा का प्राथमिक बिन्दु काम है, सेक्स है। सेक्स की शक्ति ही, काम की शक्ति ही प्रेम बनती है।प्रेम का जो विकास है, वह काम की शक्ति का ही ट्रांसफॉमेंशन है। वह उसी का रूपांतरण है। काम की ऊर्जा ही, सेक्स एनर्जी ही, अंतत: प्रेम में परिवर्तित होती है और रूपांतरित होती है।
अपनी ही शक्ति से आदमी को लड़ा दिया गया है। सेक्स की शक्ति से आदमी को लड़ा दिया गया है। मनुष्य कभी भी काम से मुक्त नहीं हो सकता। काम उसके जीवन का प्राथमिक बिन्दु है। उसी से जन्म होता है। परमात्मा ने काम की शक्ति को ही, सेक्स को ही सृष्टि का मूल बिंदू स्वीकार किया है। और परमात्मा जिसे पाप नहीं समझ रहा है, महात्मा उसे पाप बता रहे है। अगर परमात्मा उसे पाप समझता है तो परमात्मा से बड़ा पापी इस पृथ्वी पर, इस जगत में इस विश्व में कोई नहीं है।
फूल खिला हुआ दिखाई पड़ रहा है। कभी सोचा है कि फूल का खिल जाना भी सेक्सुअल ऐक्ट है, फूल का खिल जाना भी काम की एक घटना है, वासना की एक घटना है। फूल के खिल जाने में क्या है ? उसके खिल जाने में कुछ भी नहीं है। वे बिंदु है पराग के, वीर्य के कण है जिन्हें तितलियों उड़ा कर दूसरे फूलों पर ले जाएंगी और नया जन्म देगी। एक मोर नाच रहा है—और कवि गीत गा रहा है। और संत भी देख कर प्रसन्न हो रहा हे—लेकिन उन्हें ख्याल नहीं कि नृत्य एक सेक्सुअल ऐक्ट है। मोर पुकार रहा है अपनी प्रेयसी को या अपने प्रेमी को। वह नृत्य किसी को रिझाने के लिए है? पपीहा गीत गा रहा है, कोयल बोल रही है, एक आदमी जवान हो गया है, एक युवती सुन्दर होकर विकसित हो गयी है। ये सब की सब सेक्सुअल एनर्जी की अभिव्यंजना है। यह सब का सब काम का ही रूपांतरण है। यह सब का सब काम की ही अभिव्यक्त,काम की ही अभिव्यंजना है।
सेक्स को गाली बना दिया है। सेक्स को रोग बना दिया है, घाव बना दिया है और सब विषाक्त कर दिया है। छोटे-छोटे बच्चों को समझाया जा रहा है कि सेक्स पाप है। लड़कियों को समझाया जा रहा है, लड़कों को समझाया जा रहा है कि सेक्स पाप है। फिर वह लड़की जवान होती है। इसकी शादी होती है, सेक्स की दुनिया शुरू होती है। और इन दोनों के भीतर यह भाव है कि यह पाप है। और फिर कहा जायेगा स्त्री को कि पति को परमात्मा मानें। जो पाप में ले जा रहा है। उसे परमात्मा कैसे माना जा सकता है। यह कैसे संभव है कि जो पाप में घसीट रहा है वह परमात्मा है। और उस लड़के से कहा जायेगा उस युवक को कहा जायेगा कि तेरी पत्नी है, तेरी साथिन है, तेरी संगिनी है। लेकिन वह नर्क में ले जा रही है। शास्त्रों में लिखा है कि स्त्री नर्क का द्वार है। यह नर्क का द्वार संगी और साथिनी, यह मेरा आधा अंग—यह नर्क का द्वार। मुझे उस में धकेल रहा है। मेरा आधा अंग। इस के साथ कौन सा सामंजस्य बन सकता है।
सारी दुनिया का दाम्पत्य जीवन नष्ट किया है इस शिक्षा ने। और जब दम्पति का जीवन नष्ट हो जाये तो प्रेम की कोई संभावना नहीं है। क्योंकि वह पति और पत्नी प्रेम न कर सकें एक दूसरे को जो कि अत्यन्त सहज और प्राकृतिक प्रेम है। तो फिर कौन और किसको प्रेम कर सकेगा। इस प्रेम को बढ़ाया जा सकता है। कि पत्नी और पति का प्रेम इतना विकसित हो, इतना उदित हो इतना ऊंचा बने कि धीरे-धीरे बाँध तोड़ दे और दूसरों तक फैल जाये। यह हो सकता है। लेकिन इसको समाप्त ही कर दिया जाये,तोड़ ही दिया जाये, विषाक्त कर दिया जाये तो फैलेगा क्या, बढ़ेगा क्या?
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