शनिवार, 17 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 4 भाग 40

 


तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।

छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत।। 42।।


तस्मात् - अतः; अज्ञान- सम्भूतम् - अज्ञान से उत्पन्न हृत्स्थम् - हृदय में स्थित; ज्ञान- ज्ञान रूपी; असिना-शस्त्र से आत्मनः स्व के छित्त्वा काट कर एनम् - इस संशयम् - संशय को; योगम् - योग में; अतिष्ठ-स्थित होओ, उत्तिष्ठ युद्ध करने के लिए उठो भारत- हे भरतवंशी ।


इससे, हे भरतवंशी अर्जुन, तू समत्वबुद्धिरूप योग में स्थित हो और अज्ञान से उत्पन्न हुए हृदय में स्थित, इस अपने संशय को ज्ञानरूप तलवार द्वारा छेदन करके युद्ध के लिए खड़ा हो।



इसलिए हे अर्जुन, तू समत्वबुद्धिरूप योग को पाकर, संशय को ज्ञानरूपी तलवार से काट डाल।

दो बातें हैं। एक, समत्वबुद्धिरूपी योग को, समता को उपलब्ध हो। समता का अर्थ है, निष्पक्षता को। समता का अर्थ है, तटस्थता को। समता का अर्थ है, दोनों के पार, दुई के पार, द्वैत के पार। समत्वबुद्धिरूपी योग को!

हमारी बुद्धि सदा असम्यक है। असम्यक बुद्धि का अर्थ है कि कभी इस तरफ डोल जाती है, कभी उस तरफ डोल जाती है। 

हमारी बुद्धि नट जैसी है।बारीक रस्सी पर , कभी धर्म की तरफ डोलते, कभी अधर्म की तरफ; कभी हिंसा की तरफ, कभी अहिंसा की तरफ; कभी पदार्थ की तरफ, कभी परमात्मा की तरफ। लेकिन डोलते ही रहते हैं, समत्व को उपलब्ध नहीं होते। ऐसे नहीं, जैसे कोई व्यक्ति जमीन पर खड़ा है; डोलता ही नहीं--स्ट्रेट, सीधा। जैसे दीए की लौ ऐसे कमरे में हो, जहां के सब द्वार बंद हैं। हवा का कोई झोंका भीतर नहीं आता। ज्योति सीधी है; जरा भी कंपती नहीं; खड़ी है!




बुद्धि जब ऐसी खड़ी होती है, अन-डोली, अन-वेवरिंग, कंपनमुक्त, मध्य में; न बाएं, न दाएं; न इस पक्ष में, न उस पक्ष में; जब मध्य में, समत्व को, समता को, समाधि को बुद्धि उपलब्ध होती है, तब वह समत्व बुद्धि को उपलब्ध हुआ व्यक्ति ही इस जगत के जाल, झंझट, समस्याओं की गांठ को काट पाता है। अन्यथा वह खुद ही उलझ जाता है, अपने ही कंपन से उलझ जाता है। हम अपने ही कंपन से उलझते चले जाते हैं, चौबीस घंटे।

कभी अपने मन की इस असम्यक, असम अवस्था की परीक्षा करना, निरीक्षण करना। देखना सुबह से एक दिन सांझ तक कि मन कैसा डोलता है! कितना डोलता है!


 मन से संशय नहीं कट सकता। संशय तो कटेगा, समत्व होगा तब; समता होगी तब; बीच में कोई ठहरेगा तब; संतुलन होगा तब; बैलेंस होगा तब--तब कटेगा।

तो कृष्ण कहते हैं, समत्व बुद्धि को उपलब्ध हो और ज्ञान की तलवार से संशय को काट डाल अर्जुन!

ज्ञान सच में ही तलवार है। शायद वैसी कोई और तलवार नहीं है। क्योंकि जितना सूक्ष्म ज्ञान काटता है, उतना सूक्ष्म और कोई तलवार नहीं काटती।

अभी वैज्ञानिकों ने कुछ किरणें खोज निकाली हैं, जो बड़ी शीघ्रता से, तेजी से काटती हैं; डायमंड को भी काटती हैं। लेकिन फिर भी ज्ञान की तलवार की बारीकी ही और है। संशय को वे भी नहीं काट सकते; डायमंड को काट सकते होंगे।

संशय बहुत अदभुत है। गहरे से गहरे और बारीक से बारीक अस्त्र को भी बेकार छोड़ जाता है; कटता ही नहीं। सिर्फ ज्ञान से कटता है।

ज्ञान का अर्थ? ज्ञान का अर्थ है, समत्वबुद्धिरूपी योग। वही, जब बुद्धि सम होती है, तो ज्ञान का जन्म होता है। बुद्धि की समता का बिंदु ज्ञान के जन्म का क्षण है। जहां बुद्धि संतुलित होती है, वहीं ज्ञान जन्म जाता है। और जहां बुद्धि असंतुलित होती है, वहीं अज्ञान जन्म जाता है। जितनी असंतुलित बुद्धि, उतना घना अज्ञान। जितनी संतुलित बुद्धि, उतना गहरा ज्ञान। पूर्ण संतुलित बुद्धि, पूर्ण ज्ञान। पूर्ण असंतुलित बुद्धि, पूर्ण अज्ञान। पूर्ण असंतुलित बुद्धि होती है विक्षिप्त की, पागल की, इसलिए उसके संशय का कोई हिसाब ही नहीं है। पागल, विक्षिप्त का संशय पूर्ण है। अपने पर ही संशय करता है पागल।

विक्षिप्त इस स्थिति में पहुंच जाता है कि वह दूसरे पर संशय करता है, ऐसा नहीं; अपने पर भी संशय करता है। अपने पर भी!

विक्षिप्त का संशय पूर्ण हो जाता है, ज्ञान शून्य हो जाता है। विमुक्त का संशय शून्य हो जाता है, ज्ञान पूर्ण हो जाता है।

दो छोर हैं, विक्षिप्त और विमुक्त। और हम बीच में हैं, नट की तरह डोलते हुए। हम अपनी रस्सी पकड़े हुए हैं, कभी विक्षिप्त की तरफ डोलते, कभी विमुक्त की तरफ।

सुबह मंदिर जाते हैं, तो देखें चाल। फिर लौटकर बाजार जाते हैं, तब देखें अपनी चाल। सुबह जब मंदिर का घंटा बजाते हैं प्रभु को कहने को कि आ गया, मैं आया, तब देखें भाव। फिर उसी मंदिर से लौटकर भागते हैं दुकान की तरफ, तब देखें आंखें। तब बड़ी हैरानी होती है कि एक आदमी, इतना फर्क! वही बैठा है गंगा के किनारे तिलक-चंदन लगाए, पूजा-पाठ, प्रार्थना! वही बैठा है दफ्तर में; वही बैठा है नेता की कुर्सी पर, तब उसकी स्थिति!

एक ही आदमी सुबह से सांझ तक कितने चेहरे बदल लेता है! चेहरे बदलते हैं इसलिए कि भीतर बुद्धि बदल जाती है। करीब-करीब पारे की तरह है हमारी बुद्धि। वह जो थर्मामीटर में पारा होता है--ऊपर-नीचे, ऊपर-नीचे। लेकिन वह बेचारा तापमान की वजह से होता है! हम? हम तापमान की वजह से नहीं होते। हम अपनी ही वजह से होते हैं। क्योंकि हमारे पास ही कोई कृष्ण खड़ा है, कोई बुद्ध, कोई महावीर। उसका पारा जरा भी यहां-वहां नहीं होता; ठहरा ही रहता है; समत्व को उपलब्ध हो जाता है।

ज्ञान की तलवार से संशय को काट डाल अर्जुन। और मजा ऐसा है कि अगर अर्जुन इतना भी तय कर ले कि हां, मैं काटने को राजी हूं, तो कट गया। क्योंकि संशय तय नहीं करने देता। इतना भी तय कर ले...।

कृष्ण भी जो कह रहे हैं अर्जुन से कि तू उठाकर तलवार काट डाल संशय को, अगर अर्जुन कहे कि अच्छा मैं राजी काटने को, तो कट जाएगा संशय। सिर्फ इतना कहे कि मैं राजी। वह संशय वही तो नहीं कहने देता कि मैं राजी। वह फिर नए सवाल उठाएगा। गीता अभी आगे और भी चलेगी। वह नए सवाल उठाएगा।

आदमी का मन उत्तर से बचता है, सवालों को गढ़ता है। आदमी का मन, फिर से कहता हूं, उत्तर से बचता है, सवालों को गढ़ता है। आमतौर से जो लोग सवाल पूछते हैं, वे इसलिए नहीं कि उत्तर मिल जाए, बल्कि इसलिए कि कहीं उत्तर न मिल जाए; इसलिए सवाल पूछे चले जाओ!

अर्जुन पूछता चला जाएगा सवाल पर सवाल। उत्तर कृष्ण हजार बार दे चुके हैं इसके पहले भी, हजार बार देंगे इसके बाद भी; लेकिन अर्जुन सवाल उठाए चला जाता है। इसके पहले कि कृष्ण का उत्तर हो, वह नए सवाल खड़े कर देता है। सवाल पुराने ही हैं; नया कोई सवाल नहीं है। सवाल वही है; शब्द बदल जाते हैं; आकार बदल जाता है। कृष्ण के उत्तर भी नए नहीं हैं। उत्तर एक ही है। अगर अर्जुन कहता, मैं डाल-डाल, तो कृष्ण कहते, मैं पात-पात। ठीक, तुम उधर सवाल खड़ा करते हो, हम इधर जवाब देते हैं!

लेकिन अथक है कृष्ण का परिश्रम! इतना परिश्रम बहुत कम गुरुओं ने लिया है। अथक है परिश्रम! उत्तर मिल जाए अर्जुन को, इसकी चेष्टा सतत कृष्ण करते चले जाते हैं।

जो व्यक्ति भी ज्ञान की तलवार उठा ले--समत्व बुद्धि की--संशय को काट डाले, लास्ट बैरियर, संशय के साथ ही आखिरी बाधा गिर जाती है और वे द्वार खुल जाते हैं जो कि परमात्मा के हैं, आनंद के, मुक्ति के, परम शांति के, परम निर्वाण के हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

गीता दर्शन अध्याय 4 भाग 39

 

योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम्।

आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय।। 41।।


योग- कर्मयोग में भक्ति से संन्यस्त- जिसने त्याग दिये हैं; कर्माणम्- कर्मफलों को ज्ञान ज्ञान से; सञ्छिन्न- काट दिये हैं; संशयम्- सन्देह को आत्म-वन्तम्- आत्मपरायण को न कभी नहीं; कर्माणि - कर्म निबध्नन्ति बांधते हैं; धनञ्जय- हे सम्पत्ति के विजेता ।


हे धनंजय, समत्वबुद्धिरूप योग द्वारा भगवत अर्पण कर दिए हैं संपूर्ण कर्म जिसने और ज्ञान द्वारा नष्ट हो गए हैं सब संशय जिसके, ऐसे परमात्मपरायण पुरुष को कर्म नहीं बांधते हैं।



संशयरहित जो हो गया, कर्म जिसने अपने समर्पित कर दिए प्रभु को, बेशर्त दान है जिसका स्वयं का समग्र को; अपनी तरफ जो शून्य हो रहा; कह दिया प्रभु को पूर्ण जिसने; ऐसे पुरुष को--समर्पित, शून्य हुए, विनम्र, निःसंशय, भगवत्प्रेम से भरे हुए--ऐसे पुरुष को कर्म नहीं बांधते हैं।

कृष्ण बार-बार अर्जुन को हजार-हजार मार्गों से कह रहे हैं कि अर्जुन, तू वह राज समझ ले, जिससे कर्म करते हुए भी बंधन नहीं बनता है।




समर्पण कर दिए जिसने सब कर्म प्रभु को, उसे बंधन नहीं होता है। फिर बंधेगा, तो प्रभु; खुलेगा, तो प्रभु। अपनी तरफ से उसने सारा बोझ उसे दे दिया है।

समर्पण ही लेकिन कठिनाई है। अहंकार बाधा है। अहंकार कहता है, मैं हूं। समर्पण कहेगा, तू है। अहंकार कहता है, मैं सब कुछ। समर्पण कहता है, मैं कुछ भी नहीं। और अहंकार इतना चालाक है, इतने सूक्ष्म हैं मार्ग उसके, इतनी महीन हैं तरकीबें उसकी; इतने होशियार, इतने गणित का खेल है उसका, कि जब अहंकार कहता है, मैं कुछ भी नहीं, तब भी वह कहता है, मैं कुछ हूं! कुछ भी नहीं हूं। मैं कुछ हूं। ना-कुछ होने में भी अहंकार खड़ा हो जाता है। समर्पण अति कठिन है।

रूमी ने एक छोटा-सा गीत लिखा है, वह इस सूत्र को समझाने को कहूं। रूमी ने लिखा है कि प्रेमी अपनी प्रेयसी के द्वार पर गया। खटखटाया द्वार। जैसा कि प्रेमियों का मन आमतौर से होता है, अपेक्षाओं से भरा, ऐसा ही उसका भी भरा है। खटखटाया द्वार; आवाज नहीं दी। क्योंकि सोचा उस प्रेमी ने, मेरी खटखटाहट को भी तो पहचान लेगी प्रेयसी! मेरी खटखटाहट नहीं पहचानेगी क्या? मेरे पदचाप नहीं पहचानेगी क्या? प्रतीक्षा की होगी मेरी, तो जरूर मेरे पदचापों की आहट भी मिल गई होगी। और चाहा होगा मुझे, तो मेरे खटखटाने का ढंग भी तो मेरा है! नहीं दी आवाज; सिर्फ द्वार खटखटाया।

भीतर से पूछा उसकी प्रेयसी ने, कौन है द्वार पर! प्रेमी को दुख हुआ। प्रेमी को सुख मुश्किल से ही होता है। अपेक्षाएं होती हैं बहुत, उसी अनुपात में दुख भी बरसते हैं। दुख हुआ, पहचानी नहीं! प्रेम का सुख ही रिकग्नीशन है, कोई पहचाने! आना था दौड़ते हुए; खोलना था द्वार। कहना था कि पदचाप पड़े थे राह पर, तभी जान गई कि तुम आते हो। खटखटाया था द्वार, तभी खुल जाने थे द्वार और कहना था, तुम! आवाज तुम्हारी पहचानती हूं। लेकिन भीतर से पूछती है, कौन हो?

दुखी हुआ मन। कहा, मैं हूं। पहचाना नहीं? प्रेयसी ने कहा, जब तक तुम हो, तब तक प्रेम के द्वार खुलना भी चाहें, तो खुलेंगे कैसे? जाओ। जब बचो न, तब आ जाना।

प्रेम के द्वार अहंकार के लिए कभी नहीं खुलते हैं। हालांकि अहंकार प्रेम के द्वार निरंतर ठकठकाता है और खुलवाना चाहता है। अहंकार प्रेम के ऊपर सदा बलात्कार है। सदा! तोड़ देना चाहता है। खुलते तो कभी नहीं, तोड़ देता है। लेकिन तोड़े गए द्वार, खुले हुए द्वार नहीं हैं। और तोड़े गए द्वार को जिसने खुला हुआ द्वार समझा, वह पागल है। क्योंकि जब द्वार खुलते हैं प्रेम के अपने से, तब उसका रस, उसका रहस्य और ही है। और जब तोड़े जाते हैं, तब उसका विरस, उसकी अर्थहीनता और ही है।

सोचा प्रेमी ने कि ठीक ही है बात। जब तक मैं हूं, तब तक प्रेम कैसा? क्योंकि प्रेम तो तभी है, जब तू ही है, मैं नहीं हूं। लौट गया।

पुराना प्रेमी रहा होगा; ओल्ड फैशन्ड! नए ढंग का होता, बहुत उपद्रव मचाता। कहानी पुरानी है, रूमी ने लिखी है। और फिर उस तरह के प्रेमी ने लिखी, जो प्रभु के द्वार की बात कर रहा है।

लौट गया प्रेमी। वर्ष आए और गए। वर्षाएं आईं और बीतीं; पतझड़ हुए और चुके; वसंत खिले और मिटे। न मालूम कितने चांद पूरे हुए और अस्त हुए। न मालूम कितना समय बीता! निश्चय ही अहंकार को मिटाना लंबी यात्रा है; आर्डूअस है; तपश्चर्यापूर्ण है।

फिर वर्ष, वर्ष, वर्ष बीतने के बाद पता भी न रहा कि कितना समय बीता; वह प्रेमी वापस आया। द्वार खटखटाए। फिर वही आवाज भीतर से, कौन हो? लेकिन अब प्रेमी ने कहा, तू ही है। और रूमी कहता है, द्वार खुल गए। तू ही है--द्वार खुल गए। समर्पण हुआ। छोड़ा मैं को। प्रेम के द्वार खुले।

लेकिन शायद इस पृथ्वी के लिए तो ठीक है कि जिसे हम प्रेम करें, उसके सामने मैं को छोड़ दें और तू को मान लें, तो द्वार खुल जाएं। लेकिन रूमी तो अब कहीं खोजे से मिलेगा नहीं, अन्यथा उससे कहता कि अगर मेरा वश चले, तो कविता अभी भी पूरी नहीं करूंगा। कहलाता फिर भी मैं कि प्रेमी ने कहा, तू है, तो प्रेयसी ने कहा, लौट जाओ फिर, और कुछ दिन प्रतीक्षा करो। क्योंकि जब तक तू का खयाल है, तब तक मैं कहीं न कहीं छिपा ही होगा। तू का खयाल भी मैं के कहीं छिपे होने की खबर है; अन्यथा तू का भी पता नहीं चलता। अगर मैं होता, तो लौटा देता।

समर्पण अहंकार का पूर्ण विसर्जन है, इतना पूर्ण कि तू कहने की भी जगह न रह जाए। तू कहने की भी जगह न रह जाए। लेकिन दूर की हुई यह बात। पहले तो हम तू कहने के योग्य बनें; मैं को छोड़ें! फिर हम तू से भी मुक्त हों; तू को भी छोड़ें। तब, कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, फिर कर्म का कोई भी बंधन नहीं है। फिर कर्म नहीं बांधते हैं। फिर व्यक्ति मुक्त ही है। फिर उसकी मुक्ति को कुछ भी नहीं छू पाता। फिर उसकी मुक्ति अग्नि जैसी है। कुछ भी फेंको कचरा उसमें, जलकर राख हो जाता है।

अग्नि निर्दोष, क्वांरी है वर्जिन बच जाती है पीछे। अग्नि सदा ही क्वांरी बच जाती है। अग्नि क्वांरी ही बच जाती है, उसका क्वांरापन अदभुत है। कुछ भी डालो उसमें, हो जाता है राख; अग्नि क्वांरी की क्वांरी वापस खड़ी हो जाती है--शुद्ध, ताजी।

जो व्यक्ति अहंकार को छोड़ देता, वह अग्नि की तरह क्वांरा और ताजा और शुद्ध हो जाता है। प्रभु के साथ मिलकर एक, इतना शुद्ध हो जाता है, फिर कुछ भी उसे अशुद्ध नहीं कर पाता है। इतना स्वतंत्र हो जाता है कि फिर कोई बंधन उसे बांध नहीं पाते हैं। इतना मुक्त कि फिर कोई कारागृह उसके लिए कारागृह नहीं बन सकता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल 

गीता दर्शन अध्याय 4 भाग 38


 संशयात्मा विनश्यति


अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।। 40।।


अज्ञः- मूर्ख, जिसे शास्त्रों का ज्ञान नहीं है; च तथा; अश्रद्दधानः- शास्त्रों में श्रद्धा से विहीन, च-भी; संशय-- शंकाग्रस्त; आत्मा - व्यक्ति; विनश्यति - गिर जाता है; न नः अयम्-इस; लोक:- जगत में; अस्ति - है; न-न तो; परः- अगले जीवन में; न-नहीं; सुखम् सुख, संशय-संशयग्रस्त; आत्मनः - व्यक्ति के लिए।


और हे अर्जुन भगवत विषय को न जानने वाला तथा श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता है। उनमें भी संशययुक्त पुरुष के लिए तो न सुख है और न यह लोक है, न परलोक है। अर्थात यह लोक और परलोक दोनों ही उसके लिए भ्रष्ट हो जाते हैं।



संशय से भरा हुआ, संशय से ग्रस्त व्यक्तित्व विनाश को उपलब्ध हो जाता है। भगवत्प्रेम से रहित और संशय से भरा न इस लोक में सुख पाता, न उस लोक में। विनाश ही उसकी नियति है।

दो बातें ठीक से समझ लेनी इस श्लोक में जरूरी हैं।




एक तो भगवत्प्रेम से रहित, दूसरा संशय से भरा हुआ। दोनों एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। संशय से भरा हुआ व्यक्ति भगवत्प्रेम को उपलब्ध नहीं होता है। भगवत्प्रेम को उपलब्ध व्यक्ति संशयात्मा नहीं होता है। लेकिन दोनों को कृष्ण ने अलग-अलग कहा, क्योंकि दोनों के तल अलग-अलग हैं।

संशय का तल है मन और भगवत्प्रेम का तल है आत्मा। लेकिन मन से संशय न जाए, तो आत्मा के तल पर भगवत्प्रेम का अंकुरण नहीं होता। और आत्मा में भगवत्प्रेम का अंकुरण हो जाए, तो मन संशयरहित होता है। दोनों ही गहरे में एक ही अर्थ रखते हैं। लेकिन दोनों की अभिव्यक्ति का तल भिन्न-भिन्न है।

इसलिए यह भी ठीक से समझ लेना जरूरी है कि जब कहते हैं कि संशयात्मा--संशय से भरी हुई आत्मा--विनष्ट हो जाती है, तो ठीक से समझ लेना, संशयात्मा का तल आत्मा नहीं है; तल मन है। आत्मा में तो संशय होता ही नहीं है। लेकिन जिसके मन में संशय है, उसे मन ही आत्मा मालूम होती है। इसलिए कृष्ण ने संशयात्मा प्रयोग किया है।

जिसके मन में संशय है, इनडिसीजन है, वह मन के पार किसी आत्मा को जानता नहीं; वह मन को ही आत्मा जानता है। और ऐसा मन को ही आत्मा जानने वाला व्यक्ति विनाश को उपलब्ध होता है।

संशय क्या है? संशय का, पहला तो खयाल कर लें, अर्थ डाउट नहीं है, संदेह नहीं है। संशय का अर्थ इनडिसीजन है। अनिश्चय आत्मा, जिसका कोई भी निश्चय नहीं है; संकल्पहीन, जिसका कोई संकल्प नहीं है; निर्णयरहित, जिसका कोई निर्णय नहीं है; विललेस, जिसके पास कोई विल नहीं है। संशय चित्त की उस दशा का नाम है, जब मन  यह या वह, इस भांति सोचता है।

जब चित्त ऐसे संशय से बहुत गहन रूप से भर जाता है, तो विनाश को उपलब्ध होता है। क्यों? क्योंकि जो यही तय नहीं कर पाता कि करूं या न करूं, वह कभी नहीं कुछ कर पाता। जो यही तय नहीं कर पाता कि यह हो जाऊं या वह हो जाऊं, वह कभी भी कुछ नहीं हो पाता।

सृजन के लिए निर्णय चाहिए, असंशय निर्णय चाहिए। विनाश के लिए अनिर्णय काफी है। विनाश के लिए निर्णय नहीं करना पड़ता।

किसी भी व्यक्ति को स्वयं को नष्ट करना हो, तो इसके लिए किसी निर्णय की जरूरत नहीं होती। सिर्फ बिना निर्णय के बैठे रहें, विनाश अपने से घटित हो जाता है। किसी को पर्वत शिखर पर चढ़ना हो, तो श्रम पड़ता है, निर्णय लेना पड़ता है। लेकिन पत्थर की भांति पर्वत शिखर से लुढ़कना हो घाटियों की तरफ, तब किसी निर्णय की कोई जरूरत नहीं होती और श्रम की भी कोई जरूरत नहीं होती।

इस जगत में पतन सहज घट जाता है, बिना निर्णय के। इस जगत में विनाश स्वयं आ जाता है, बिना हमारे सहारे के। लेकिन इस जगत में सृजन हमारे संकल्प के बिना नहीं होता है। इस जगत में कुछ भी निर्मित हमारी पूरी की पूरी श्रम, शक्ति, चित्त, शरीर, सबके समाहित लग जाए बिना, इस जगत में कुछ निर्मित नहीं होता है। विनाश अपने से हो जाता है। बनाना हो, बनाना अपने से नहीं होता है।

संशय से भरा हुआ चित्त विनाश को उपलब्ध हो जाता है। इसका अर्थ है कि संशय से भरे चित्त को विनाश के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता है। विनाश आ जाता है, संशय से भरा हुआ चित्त देखता रहता है। घर में लगी हो आग, संशय से भरी आत्मा की क्या स्थिति होगी? बाहर निकलूं या न निकलूं? घर में लगी है आग, बाहर निकलूं या न निकलूं? संशय से भरे चित्त की यह स्थिति होगी।

आग नहीं रुकेगी आपके संशय के लिए, न आपके निर्णय के लिए। आग बढ़ती रहेगी। और संशय से भरा चित्त ऐसा होता है कि जितनी बढ़ेगी आग, उतना प्रगाढ़ हो जाएगा उसका भीतर का खंडन। उतना ही विचार तेज चलने लगेगा, निकलूं न निकलूं! आग नहीं रुकेगी। विनाश फलित होगा। वह आदमी घर के भीतर मरेगा। हम सब जिस जीवन में खड़े हैं--पदार्थ के, संसार के--वह आग लगे घर से कम नहीं है।


संशय से भरा हुआ चित्त समय को गंवा देता है, इसलिए विनष्ट होता है। समय एक अवसर है, एक अपरचुनिटी। और ऐसा अवसर, जो मिल भी नहीं पाता और खो जाता है। क्षण आता है हाथ में; दो क्षण कभी एक साथ नहीं आते। एक क्षण से ज्यादा इस पृथ्वी पर शक्तिशाली से शक्तिशाली मनुष्य के पास भी कभी ज्यादा नहीं आता। एक ही क्षण आता है हाथ में, बारीक क्षण। जान भी नहीं पाते कि आया और निकल जाता है।

संशय से भरा हुआ व्यक्ति जीवन के सभी क्षणों को गंवा देता है। क्योंकि संशय के लिए काफी समय चाहिए, और क्षण एक ही होता है हाथ में। जब तक वह सोचता है, तब तक क्षण चला जाता है। जब तक वह सोचता है, फिर क्षण चला जाता है। अंततः मृत्यु ही आती है संशय के हाथ में; जीवन पर पकड़ नहीं आ पाती; जीवन खो जाता है। जीवन खो जाता है निर्णय में ही कि करूं, न करूं।

असल में निःसंशय व्यक्ति कभी नहीं पछताता। जीवन का अंतिम जोड़ हमारे किए हुए का जोड़ कम, हमारे लिए गए निःसंशय निर्णय का जोड़ ज्यादा है। जिंदगी के अंत में, जो किया, वह खो जाता है; लेकिन जिसने किया, जिस मन ने, करने, और करने, और करने, और निर्णय लेने की क्षमता और संकल्प का बल और असंशय रहने की योग्यता इकट्ठी होती चली जाती है। वही अंतिम हमारे हाथ में संपदा होती है। हमारे निःसंशय किए गए निर्णय की क्षमता ही हमारी आत्मा होती है।


कृष्ण जब कहते हैं, संशयात्मा विनाश को उपलब्ध हो जाता है, तो वे और भी गहरे अवसर की बात कर रहे हैं। कृष्ण तो परम अवसर की बात कर रहे हैं कि जीवन एक परम अवसर है, इस परम अवसर में कोई चाहे तो परम उपलब्धि को पा सकता है--आनंद को, एक्सटैसी को, हर्षोन्माद को। उस उपलब्धि को पा सकता है कि जहां सब जीवन का कण-कण नाच उठता और अमृत से भर जाता है; जहां जीवन का सब अंधेरा टूट जाता; और जहां जीवन के सब फूल सुवासित हो खिल उठते हैं; जहां जीवन का प्रभात होता है और आनंद के गीत का जन्म होता है।

उस परम उपभोग के क्षण को हम चूक रहे हैं प्रतिपल, संशय के कारण। संशय कठिनाई में डालता है। जब भी कोई अवसर आता, हम बैठकर सोचते हैं, करें न करें!

एक और मजे की बात है। जब क्रोध आता है, तब कभी इतना सोचते हैं? जब घृणा आती है कभी, तब कभी इतना सोचते हैं? जब वासना उठती है मन में, तब कभी इतना सोचते हैं? नहीं, बुरे में तो हम बड़े असंशय चित्त से लागू होते हैं। बुरा आ जाए द्वार पर, तो हम कहते हैं, आओ, स्वागत है! तैयार ही खड़े थे द्वार पर हम। शुभ आए, तो बहुत सोचते हैं!

यह भी बहुत मजे की बात है कि आदमी बुरे को करने में संशय नहीं करता, शुभ को करने में संशय करता है। क्यों? क्योंकि बुरे को करना पतन की तरह है; पहाड़ से पत्थर की तरह नीचे ढुलकना है। उसमें कुछ करना नहीं पड़ता। पत्थर तो महज जमीन की कशिश से खिंचा चला आता है। लेकिन शुभ, पर्वत शिखर की चढ़ाई है, गौरीशंकर की। चढ़ना पड़ता है। कदम-कदम भारी पड़ते हैं। और जैसे-जैसे शिखर पर ऊपर बढ़ती है यात्रा, वैसे-वैसे भारी पड़ते हैं। फिर एक-एक बोझ निकालकर फेंकना पड़ता है। अगर बहुत सोना-चांदी ले आए कंधे पर, तो छोड़ना पड़ता है। गौरीशंकर के शिखर तक जाने के लिए कंधे पर सोने-चांदी के बोझ को नहीं ढोया जा सकता। धीरे-धीरे शिखर तक पहुंचते-पहुंचते सब फेंक देना पड़ता है। वस्त्र भी बोझिल हो जाते हैं। ठीक ऐसे ही शुभ की यात्रा है। एक-एक चीज छोड़ते जानी पड़ती है।

अशुभ की यात्रा, सब पकड़ते चले जाओ; बीच में पड़े हुए पत्थरों के साथ भी आलिंगन कर लो। वे भी लुढ़कने लगेंगे। सब इकट्ठा करते चले आओ। बढ़ाते चले जाओ। कुछ छोड़ना नहीं पड़ता। पकड़ते चले जाओ, बढ़ाते चले जाओ। और गङ्ढे में गिरते चले जाओ! जमीन खींचती चली जाती है।

क्रोध के लिए कोई सोचता नहीं। अगर कोई आदमी क्रोध के लिए दो क्षण सोच ले, तो क्रोध से भी बच जाएगा। और दो क्षण अगर संन्यास के लिए भी सोच ले, तो संन्यास से भी चूक जाएगा।

अशुभ के साथ जितना सोचें, उतना अच्छा। शुभ के साथ जितना निःसंशय हों, उतना अच्छा।

फिर यह भी ध्यान रख लें कि अशुभ को करके भी कुछ नहीं मिलता, अशुभ में सफल होकर भी कुछ नहीं मिलता और शुभ में असफल होकर भी बहुत कुछ मिलता है। शुभ के मार्ग पर असफल हुआ भी बहुत सफल है। अशुभ के मार्ग पर सफल हुआ भी बिलकुल असफल है। नहीं; जीवन के अंत में कुछ हाथ आता नहीं है।


असफलता भी शुभ के मार्ग पर बड़ी सफलता है। साधु के पास कुछ भी नहीं होता, फिर भी बंधे हाथ जाता है; बहुत कुछ लेकर जाता है। कम से कम अपने को लेकर जाता है। आत्मा को विनष्ट करके नहीं जाता; आत्मा को निर्मित करके, सृजन करके, क्रिएट करके जाता है। इस पृथ्वी पर इस जीवन में उससे बड़ी कोई उपलब्धि नहीं है कि कोई अपने को पूरा जानकर और पाकर जाता है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, संशय विनाश कर देता है अर्जुन! और अर्जुन बड़े संशय से भरा हुआ है। अर्जुन एकदम ही संशय से भरा हुआ है। उसे कुछ सूझ नहीं रहा है, क्या करे, क्या न करे! बड़ा डांवाडोल है उसका चित्त। अर्जुन शब्द का भी मतलब डांवाडोल होता है। ऋजु कहते हैं सरल को, सीधे को; अऋजु कहते हैं इरछे-तिरछे को, विषम को।

जो भी डांवाडोल है, इरछा-तिरछा होता है। वह ऐसे चलता है, जैसे शराबी चलता है। एक पैर इधर पड़ता है, एक पैर उधर पड़ता है। कभी बाएं घूम जाता है, कभी दाएं घूम जाता है। गति सीधी नहीं होती।

निःसंशय चित्त की गति स्टे्रट, सीधी होती है। संशय से भरे चित्त की गति सदा डांवाडोल होती है। रखता है पैर, नहीं रखना चाहता। फिर उठा लेता है। फिर रखता है; फिर नहीं रखना चाहता। अर्जुन वैसी ही स्थिति में है।

फिर कृष्ण साथ में यह भी कहते हैं, भगवत्प्रेम को उपलब्ध!

जगत में तीन प्रकार के प्रेम हैं। एक, वस्तुओं का प्रेम। जिससे हम सब परिचित हैं। जिससे हम सब परिचित हैं। अधिकतर हम वस्तुओं के प्रेम से ही परिचित हैं। दूसरा, व्यक्तियों का प्रेम। कभी लाख में एकाध आदमी व्यक्ति के प्रेम से परिचित होता है। लाख में एक कह रहा हूं। सिर्फ इसलिए कि आपको अपने को बचाने की सुविधा रहे! समझें कि दूसरे, मैं तो लाख में एक हूं ही!

नहीं; इस तरह बचाना मत।

आदमी अपने को बचाने के लिए बड़ा आतुर है। तो अगर मैं कहूं, लाख में एक; आप कहेंगे, बिलकुल ठीक। छोड़ा अपने को। आपको भर नहीं छोड़ रहा हूं, खयाल रखना।

लाख में एक आदमी व्यक्ति के प्रेम को उपलब्ध होता है। शेष आदमी वस्तुओं के प्रेम में ही जीते हैं। आप कहेंगे, हम व्यक्तियों को प्रेम करते हैं। लेकिन मैं आपसे कहूंगा, वस्तुओं की भांति, व्यक्तियों की भांति नहीं।


हम व्यक्तियों को प्रेम भी करते हैं, मालिक हो जाते हैं। मालिक व्यक्तियों का कोई नहीं हो सकता। सिर्फ वस्तुओं की मालकियत होती है। अगर कोई पत्नी पति को पजेस करती है, कहती है, मालकियत है। कोई पति कहता है पत्नी को कि मेरी हो; तो फर्नीचर में और पत्नी में बहुत भेद नहीं रह जाता है। उपयोग हो गया, लेकिन व्यक्ति का सम्मान न हुआ। उस दूसरे व्यक्ति की निज आत्मा का कोई आदर न हुआ।

वस्तुओं को ही हम प्रेम करते हैं, इसलिए व्यक्तियों को भी प्रेम करते हैं, तो उनको भी वस्तु बना लेते हैं।

दूसरा प्रेम, व्यक्तियों का जो प्रेम है, वह कभी लाख में एक आदमी को, मैंने कहा, उपलब्ध होता है। व्यक्ति के प्रेम का अर्थ है, दूसरे का अपना मूल्य है; मेरी उपयोगिता भर मूल्य नहीं है उसका। मैं उसका उपयोग कर लूं--इतना ही उसका मूल्य नहीं है। उसका अपना निज मूल्य है। वह मेरा साधन नहीं है। वह स्वयं अपना साध्य है।


गहरे से गहरा सूत्र है कि दूसरा व्यक्ति अपना साध्य है स्वयं। मैं उससे प्रेम करता हूं एक व्यक्ति की भांति, एक वस्तु की भांति नहीं। इसलिए मैं उसका मालिक कभी भी नहीं हो सकता हूं।

लेकिन व्यक्ति के प्रेम को ही हम उपलब्ध नहीं होते।

फिर तीसरा प्रेम है, भगवत्प्रेम। वह अस्तित्व का प्रेम है,  वस्तुओं के प्रति प्रेम, मकान, धन-दौलत, पद-पदवी! व्यक्तियों के प्रति प्रेम, मनुष्य! अस्तित्व के प्रति प्रेम, भगवत्प्रेम है। समग्र अस्तित्व को प्रेम।

अब इसको थोड़ा ठीक से देख लेना जरूरी है। जब हम वस्तुओं को प्रेम करते हैं, तो हमें सारे जगत में वस्तुएं ही दिखाई पड़ती हैं, कोई परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि जिसे हम प्रेम करते हैं, उसे ही हम जानते हैं। प्रेम जानने की आंख है। प्रेम के अपने ढंग हैं जानने के। सच तो यह है कि प्रेम ही इंटिमेट नोइंग है। आंतरिक, आत्मीय जानना प्रेम ही है।

इसलिए जब हम किसी व्यक्ति को प्रेम करते हैं, तभी हम जानते हैं। क्योंकि जब हम प्रेम करते हैं, तभी वह व्यक्ति हमारी तरफ खुलता है। जब हम प्रेम करते हैं, तब हम उसमें प्रवेश करते हैं। जब हम प्रेम करते हैं, तब वह निर्भय होता है। जब हम प्रेम करते हैं, तब वह छिपाता नहीं है। जब हम प्रेम करते हैं, तब वह उघड़ता है, खुलता है; भीतर बुलाता है, आओ; अतिथि बनो! ठहराता है हृदय के घर में।

जब कोई व्यक्ति प्रेम करता है किसी को, तभी जान पाता है। अगर अस्तित्व को कोई प्रेम करता है, तभी जान पाता है परमात्मा को। भगवत्प्रेम का अर्थ है, जो भी है, उसके होने के कारण प्रेम।

जो व्यक्ति सिर्फ वस्तुओं को प्रेम करता है, उसके लिए सारा जगत मैटीरियल हो जाता है, वस्तु मात्र हो जाता है। व्यक्ति में भी वस्तु दिखाई पड़ती है। और भगवत चैतन्य तो कहीं दिखाई नहीं पड़ सकता।

भगवत चैतन्य को अनुभव करने के लिए पहले वस्तुओं के प्रेम से व्यक्तियों के प्रेम तक उठना पड़ता है; फिर व्यक्तियों के प्रेम से अस्तित्व के प्रेम तक उठना पड़ता है। जो व्यक्ति व्यक्तियों को प्रेम करता है, वह मध्य में आ जाता है। एक तरफ वस्तुओं का जगत होता है, दूसरी तरफ भगवान का अस्तित्व होता है, पूरा अस्तित्व। इन दोनों के बीच खड़ा हो जाता है। उसे दोनों तरफ दिखाई पड़ने लगता है। एक तरफ वस्तुओं का संसार है और एक तरफ अस्तित्व का लोक है। फिर वह आगे बढ़ सकता है।

व्यक्ति का प्रेम भी भगवत्प्रेम की शुरुआत है। व्यक्ति का प्रेम एक छोटी-सी खिड़की है, झरोखा, जिसमें से हम किसी एक व्यक्ति में से परमात्मा को देखते हैं। खिड़की! 

व्यक्ति से प्रेम करने में डर लगता है। क्योंकि व्यक्ति स्वतंत्रता मांगेगा। वस्तुओं से प्रेम करना बड़ा सुविधापूर्ण है; स्वतंत्रता नहीं मांगते। तिजोरी में बंद किया; ताला डाला; आराम से सो रहे हैं। रुपए तिजोरी में बंद हैं। न भागते, न निकलते; न विद्रोह करते, न बगावत करते; न कहते कि आज इरादा नहीं है चलने का हमारा, आज नहीं चलेंगे! नहीं; जब चाहो, तब हाजिर होते हैं; जैसा चाहो, वैसा हाजिर होते हैं। वस्तुएं गुलाम हो जाती हैं, इसलिए हम वस्तुओं को चाहते हैं।

जो आदमी भी दूसरे की स्वतंत्रता नहीं चाहता, वह आदमी व्यक्ति को प्रेम नहीं कर पाएगा। और जो व्यक्ति को प्रेम नहीं कर पाएगा, वह भगवत्प्रेम के झरोखे पर ही नहीं पहुंचा, तो भगवत्प्रेम के आकाश में तो उतरने का उपाय नहीं है।

भगवत्प्रेम का अर्थ है, सारा जगत एक व्यक्तित्व है, भगवत्प्रेम का अर्थ है, जगत नहीं है, भगवान है। इसका मतलब समझते हैं? अस्तित्व नहीं है, भगवान है। क्या मतलब हुआ इसका? इसका मतलब हुआ कि हम पूरे अस्तित्व को व्यक्तित्व दे रहे हैं। हम पूरे अस्तित्व को कह रहे हैं कि तू भी है; हम तुझसे बात भी कर सकते हैं।

इसलिए भक्त--भक्त का अर्थ है, जगत को जिसने व्यक्तित्व दिया। भक्त का अर्थ है, जगत को जिसने भगवान कहा। भक्त का अर्थ है, ऐसा प्रेम से भरा हुआ हृदय, जो इस पूरे अस्तित्व को एक व्यक्ति की तरह व्यवहार करता है। सुबह उठता है, तो सूरज को हाथ जोड़कर नमस्कार करता है। सूरज को नमस्कार नासमझ नहीं कर रहे हैं। हालांकि बहुत-से नासमझ कर रहे हैं। लेकिन जिन्होंने शुरू किया था, वे नासमझ नहीं थे।

फिर सूरज का भी व्यक्तित्व था। तो हमने कहा, सूर्य देवता है; रथ पर सवार है; घोड़ों पर जुता हुआ है; दौड़ता है आकाश में। सुबह होता, जागता; सांझ होता, अस्त होता। ये बातें वैज्ञानिक नहीं हैं; ये बातें धार्मिक हैं। ये बातें पदार्थगत नहीं हैं; ये बातें आत्मगत हैं।

नदियों को नमस्कार किया; व्यक्तित्व दे दिया। वृक्षों को नमस्कार किया; व्यक्तित्व दे दिया। सारे जगत को व्यक्तित्व दे दिया। कहा कि तुममें भी व्यक्तित्व है। आज भी आप कभी किसी पीपल के पास नमस्कार करके गुजर जाते हैं। लेकिन आपने खयाल नहीं किया होगा कि जो आदमी, आदमियों को वस्तु जैसा व्यवहार करता है, उसका पीपल को नमस्कार करना एकदम सरासर झूठ है। पीपल को तो वही नमस्कार कर सकता है, जो जानता है कि पीपल भी व्यक्ति है, वह भी परमात्मा का हिस्सा है; उसके पत्ते-पत्ते में भी उसी की छाप है। कंकड़-कंकड़ में भी उसी की पहचान है। जगह-जगह वही है अनेक-अनेक रूपों में। चेहरे होंगे भिन्न; वह जो भीतर छिपा है, भिन्न नहीं है। आंखें होंगी अनेक, लेकिन जो झांकता है उनसे, वह एक है। हाथ होंगे अनंत, लेकिन जो स्पर्श करता है उनसे, वह वही है।

मैंने कहा, गीत गाता हुआ, वाणी से नहीं। ऐसे भी गीत हैं, जो प्राणों से गाए जाते हैं। ऐसे भी गीत हैं, जो शून्य में उठते और शून्य में ही खो जाते हैं। वह तो मौन था, शब्द से तो चुप था। पर गीत गाता हुआ, नाचता हुआ, अपने समग्र अस्तित्व से पूर्णिमा के चांद को धन्यवाद देता हुआ!


इस खिड़की में से भी वह उसी को देख पाया। इस भाला भोंकती हुई खिड़की में से भी उसी का दर्शन हुआ। भगवत्प्रेम को उपलब्ध हुआ होगा, तभी ऐसा हो सकता है, अन्यथा नहीं हो सकता है।भगवत्प्रेम का अर्थ है, सारा जगत व्यक्ति है। व्यक्तित्व है जगत के पास अपना, उससे बात की जा सकती है। इसलिए भक्त बोल लेता है उससे।


जब जीसस सूली पर लटके और उन्होंने ऊपर आंख उठाकर कहा कि हे प्रभु, माफ कर देना इन सबको, क्योंकि इन्हें पता नहीं कि ये क्या कर रहे हैं; तब यह आकाश से नहीं कहा होगा। आकाश से कोई बोलता है? यह आकाश में उड़ते पक्षियों से नहीं कहा होगा। पक्षियों से कोई बोलता है? भीड़ खड़ी थी नीचे, उसने भी आकाश की तरफ देखा होगा; लेकिन आकाश में चलती हुई सफेद बदलियों के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा होगा। नीला आकाश--खाली और शून्य। हंसे होंगे मन में कि पागल है। लेकिन जीसस के लिए सारा जगत प्रभु है। कह दिया, क्षमा कर देना इन्हें, क्योंकि इन्हें पता नहीं कि ये क्या कर रहे हैं।

भगवत्प्रेम हो, तो व्यक्ति और परम-व्यक्ति के बीच चर्चा हो पाती है, संवाद हो पाता है, आदान-प्रदान हो पाता है। और उससे मधुर संवाद, उससे मीठा लेन-देन, उससे प्रेमपूर्ण पत्र-व्यवहार और कोई भी नहीं है। प्रार्थना उसका नाम है। भगवत्प्रेम में वह घटित होती है।

तो कृष्ण कहते हैं, संशयमुक्त, भगवत्प्रेम से भरा हुआ व्यक्ति इस लोक में भी आनंद को उपलब्ध होता है, परलोक में भी। संशय से भरा हुआ, भगवत्प्रेम से रिक्त, इस लोक में भी दुख पाता है, उस लोक में भी।

दुख हमारा अपना अर्जन है, हमारी अपनी अघनग है। हमारा अपना अर्जित है दुख। दुख पाना हमारी नियति नहीं, हमारी भूल है। दुख पाने के लिए हमारे अतिरिक्त और कोई उत्तरदायी नहीं है, और कोई रिस्पांसिबल नहीं है। दुखी हैं, तो कारण है कि संशय को जगह देते हैं। दुखी हैं, तो कारण है कि व्यक्ति को खोजा नहीं; परम व्यक्ति की तरफ गए नहीं।

आनंदित जो होता है, उसके ऊपर परमात्मा कोई विशेष कृपा नहीं करता है। वह केवल उपयोग कर लेता है जीवन के अवसर का और प्रभु के प्रसाद से भर जाता है।

गङ्ढे हैं। वर्षा होती है, तो गङ्ढों में पानी भर जाता है और झीलें बन जाती हैं। पर्वत के शिखरों पर भी वर्षा होती है, लेकिन पर्वत के शिखरों पर झील नहीं बनती। पानी नीचे बहकर गङ्ढों में पहुंचकर झील बन जाती है। पर्वत शिखरों पर भी वर्षा होती है, लेकिन वे पहले से ही भरे हुए हैं, उनमें जगह नहीं है कि पानी भर जाए। झीलों पर वर्षा होती है, तो भर जाता है। झीलें खाली हैं, इसलिए भर जाता है।

जो व्यक्ति संशय से भरा है, भगवत्प्रेम से खाली है, उसके पास संशय का पहाड़ होता है। ध्यान रखें, बीमारियां अकेली नहीं आतीं; बीमारियां सदा समूह में आती हैं। बीमारियां भीड़ में आती हैं। ऐसा नहीं होता है कि किसी आदमी में एक संशय मिल जाए। जब संशय होता है, तो अनेक संशय होते हैं। संशय भी भीड़ में आते हैं, एक नहीं आता। स्वास्थ्य अकेला आता है, बीमारियां भीड़ में आती हैं। श्रद्धा अकेली आती है, संशय बहुवचन में आते हैं।

संशय से भरा हुआ आदमी पहाड़ बन जाता है संशय का। उस पर भी प्रभु का प्रसाद बरसता है, लेकिन भर नहीं पाता। संशयमुक्त झील बन जाता है--गङ्ढा, खाली, शून्य--प्रभु के प्रसाद को ग्रहण करने के लिए गर्भ बन जाता है। स्वीकार कर लेता है।

इसलिए ध्यान रखें, निरंतर भक्तों ने अगर भगवान को प्रेमी की तरह माना, तो उसका कारण है। अगर भक्त इस सीमा तक चले गए कि अपने को स्त्रैण भी मान लिया और प्रभु को पति भी मान लिया, तो उसका भी कारण है।   और वह कारण है, गङ्ढा बनना है, ग्राहक बनना है, रिसेप्टिव बनना है। स्त्री ग्राहक है, रिसेप्टिव है; गर्भ बनती है; स्वीकार करती है। नए को अपने भीतर जन्म देती है, बढ़ाती है। अगर भक्तों को ऐसा लगा कि वे प्रेमिकाएं बन जाएं प्रभु की, तो उसका कारण है। इसीलिए कि वे गङ्ढे बन जाएं, प्रभु उनमें भर जाए।

लेकिन जो अहंकार के शिखर हैं, वे खाली रह जाते हैं। और जो विनम्रता के गङ्ढे हैं, वे भर जाते हैं।

प्रभु का प्रसाद प्रतिपल बरस रहा है। उसके प्रसाद की उपलब्धि आनंद है, उसके प्रसाद से वंचित रह जाना संताप है, दुख है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल 

गीता दर्शन अध्याय 4 भाग 37

इंद्रियजय और श्रद्धा


श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।

ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।। 39।।


श्रद्धा - वान् - श्रद्धालु व्यक्ति; लभते प्राप्त करता है; ज्ञानम् - ज्ञान; तत् परः - उसमें अत्यधिक अनुरक्त; संयत- संयमित इन्द्रियः - इन्द्रियाँ ज्ञानम् - ज्ञान; लब्ध्वा प्राप्त करके; पराम् - दिव्य; शान्तिम् - शान्ति; अचिरेण शीघ्र ही अधिगच्छति प्राप्त करता है।


और हे अर्जुन, जितेंद्रिय, तत्पर हुआ श्रद्धावान पुरुष ज्ञान को प्राप्त होता है। ज्ञान को प्राप्त होकर तत्क्षण भगवत्प्राप्तिरूप परम शांति को प्राप्त हो जाता है।


जितेंद्रिय हुआ पुरुष, श्रद्धावान चित्त वाला ज्ञान को उपलब्ध होता है; ज्ञान से परम शांति को, परम प्रभु को उपलब्ध होता है।

पहली बात, जितेंद्रिय हुआ पुरुष--इंद्रियों को जिसने जीता, ऐसा पुरुष।

साधारणतः सोचते हैं हम कि जितेंद्रिय होगा वह, जो इंद्रियों से लड़ेगा, उन्हें हराएगा। यहीं भूल हो जाती है। जो इंद्रियों से लड़ेगा, वह हारेगा; जितेंद्रिय कभी भी नहीं हो सकेगा। इंद्रियों को जीतने का सूत्र इंद्रियों से लड़ना नहीं, इंद्रियों को जानना है। इंद्रियां जीती जाती हैं इंद्रियों के साक्षात्कार से। जो पुरुष इंद्रियों से लड़ने में लग जाता, वह इंद्रियों से निरंतर हारता है। जो लड़ेगा, वह हारेगा। जो जानेगा, वह जीतेगा।

ज्ञान विजय है। इंद्रियों का ज्ञान विजय है।

लड़ने से ज्यादा से ज्यादा दमन हो सकता है, सप्रेशन, रिप्रेशन हो सकता है। जिसे हम दबाते हैं, वह लौट-लौटकर उभरता है। जिसे हम दबाते हैं, उसे हम और शक्ति देते हैं। क्रोध को दबाया, तो और गहन हिंसा होकर प्रकट होगा। काम को दबाया, तो और विकृत, विषाक्त होकर प्रकट होगा। अहंकार को दबाया, तो एक कोने से दबाएंगे, दस कोनों से निकलना शुरू होगा।

इंद्रियों को दबाया नहीं जा सकता। क्यों? क्योंकि दबाता वही है, जो इंद्रियों को जानता नहीं है। जो जानता है, वह दबाता ही नहीं है। क्योंकि जो जान लेता है, इंद्रियां उसके वश में हो जाती हैं।

बेकन ने कहा है, नालेज इज़ पावर, ज्ञान शक्ति है।

यह तो उसने विज्ञान की दृष्टि से कहा है, साइंस की दृष्टि से। यह तो उसने कहा है कि हम जितना जान लेंगे प्रकृति को, उतने ही हम शक्तिशाली हो जाएंगे। लेकिन उसका यह वचन अंतःप्रकृति के लिए भी सत्य है।

आकाश में चमकती है बिजली, सदा से चमकती रही है। जब तक नहीं जानते थे उसे, तब तक प्राण थरथराते थे और घबड़ाहट ही पैदा होती थी। जो नहीं जानते थे, वे सोचते थे कि इंद्र हमारे पापों के लिए, दंड देने के लिए टंकार कर रहा है। इंद्र हमें दंड देने के लिए शक्ति को फेंक रहा है। स्वाभाविक! गड़गड़ाहट बिजली की, चमकती हुई उसकी अग्नि, रात के अंधेरे में प्राणों को थर्रा जाती हो, आश्चर्य नहीं है।

क्या यह संभव था कि वे लोग, जो नहीं जानते थे कि विद्युत क्या है, अगर आकाश की बिजली से लड़ते, तो कभी जीत पाते? कभी भी नहीं जीत पाते। आकाश की बिजली से लड़ते, तो मरते, टूटते, नष्ट होते। लड़ भी न पाते; जीतने का तो उपाय नहीं था। लेकिन जिन्होंने आकाश की बिजली के राज को समझने की कोशिश की, रहस्य को जानने की, उसकी सीक्रेट-की, उसकी कुंजी को खोज लेने की, वे मालिक हो गए। आज बिजली, वही बिजली, जो आकाश में कंपती, गर्जन करती, प्राणों को घबड़ा जाती थी, वही बिजली अब घरों में प्रकाश बनकर, आपके हाथ में सेवक बनकर काम करती है। वही बिजली चाकर हो गई है! जो दंड देती मालूम पड़ती थी, वही सेवक हो गई है।

बेकन ने कहा था नालेज इज़ पावर, बहिर्प्रकृति के संबंध में। जो-जो हम जान लेते हैं, उसके हम मालिक हो जाते हैं। जाना कि मालिक हुए। नहीं जाना कि गुलामी भाग्य में होगी; गुलामी ही फिर नियति है। जान लिया हमने जिस-जिस बात को, उस-उस के हम मालिक होते चले गए। अंतःप्रकृति के संबंध में भी यही सत्य है।

इसलिए जब कृष्ण कहते हैं, जितेंद्रिय पुरुष, तो भूलकर यह मत समझ लेना, जैसा आमतौर से समझा जाता है कि वह पुरुष, जिसने अपनी इंद्रियों पर काबू पा लिया। नहीं, जितेंद्रिय पुरुष वह है, जिसने अपनी इंद्रियों के सब सीक्रेट, सब राज जान लिए। जानते ही मालिक हो गया है, जितेंद्रिय हो गया है।

इंद्रियां हार जाती हैं ज्ञान से; इंद्रियां प्रबल हो जाती हैं अज्ञान से। इंद्रियों से लड़ता है जो, वह इंद्रियों के ही चक्कर में पड़ता है। जितेंद्रिय होने का मार्ग, अंतःप्रकृति का ज्ञान है।

उदाहरण के लिए, आप जानते हैं, क्रोध क्या है? आकाश में गूंजती, आकाश में कंपती बिजली से कम रहस्यपूर्ण नहीं है। आपकी अंतःप्रकृति में बिजली कौंध गई है। जानते हैं, क्रोध क्या है? जानते नहीं हैं। किया होगा बहुत बार; क्योंकि आकाश में बिजली को बहुत बार चमकते देखा हो, तो भी हम जान नहीं लेते हैं। देख लेना, जान लेना नहीं है। पता हो जाना, जान लेना नहीं है।

क्रोध का पता है कि भीतर कौंधता है, लेकिन क्रोध क्या है? यह अंतःआकाश में कौंध गई बिजली क्या है, जानते हैं? नहीं जानते। और अगर लड़ने गए, तो हारेंगे क्रोध से, जीतेंगे नहीं। कैसे जीतेंगे? जिसे जानते नहीं, उसे जीतने का उपाय नहीं है।

लेकिन क्रोध से हम लड़ते हैं। लड़कर हम क्या कर सकते हैं? हम इतना ही कर सकते हैं कि जब क्रोध आए, तो हम दबाएं। दबेगा कहां? और भीतर! दमन सब भीतर ही चला जाता है। उठेगा, हम दबा देंगे; और अंतःपुरों में प्रविष्ट हो जाएगा; और गहरे प्रकोष्ठों में दब जाएगा। फिर वहां प्रतीक्षा करेगा। रोज-रोज दबाएंगे, इकट्ठा होता जाएगा।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो लोग हत्याएं कर देते हैं, आमतौर से वे लोग होते हैं, जो रोज क्रोध नहीं करते हैं। जो लोग छोटी-छोटी बात में क्रोध कर लेते हैं, उनके बाबत एक भविष्यवाणी की जा सकती है कि हत्यारे वे नहीं हो सकते हैं। रोज-रोज निकल जाता है; इतना इकट्ठा नहीं हो पाता है कि हत्या कर पाएं। हत्या करने के लिए बहुत क्रोध इकट्ठा होना चाहिए। विस्फोट होता है । रोज-रोज निकल जाता है, तो लीकेज, विस्फोट होने का मौका नहीं आ पाता। रोज-रोज भाप निकल जाती है।


इसलिए भले हैं वे लोग, जो रोज छोटा-मोटा क्रोध करके निपट लेते हैं। भले इस अर्थों में हैं कि उनसे बहुत बड़े खतरे की संभावना नहीं है। लेकिन खतरनाक हैं वे लोग, जो भले दिखाई पड़ते हैं। क्योंकि वे इकट्ठा करते हैं। दस-पंद्रह दिन, महीना, दो महीना, वर्ष, दो वर्ष कोई इकट्ठा कर ले, तो फिर विस्फोट होता है। वह विस्फोट फिर इतना गहन हो जाता है, वह इतना इंटेंस हो जाता है कि वह आदमी खुद ही नहीं जानता कि क्या हो रहा है। हो जाता है।

दुनिया के बड़े से बड़े पाप, इकट्ठे पाप का विस्फोट हैं। छोटे-छोटे उपद्रव कर लेने वाले लोग महापाप नहीं कर पाते हैं। रोज-रोज बह जाता है सब; कभी गंगा नहीं बन पाती। उनका काम झरने का ही होता है, उससे कुछ बहता नहीं, कोई पूर, बाढ़ नहीं आती। इकट्ठा हो जाता है जब बहुत, तब बाढ़ आती है। और जब भीतर बहुत इकट्ठा हो जाता है, इतना कि जितने भी सेफ्टी वाल्व्स हैं--भीतर बहुत सेफ्टी वाल्व्स हैं--उन सबको तोड़कर जब विस्फोट होता है, तो व्यक्तित्व सदा के लिए खंड-खंड, कांच के टुकड़ों जैसा हो जाता है, जिसका फिर जोड़ना मुश्किल होता है। स्प्लिट, सीजोफ्रेनिक हो जाता है। सब टूट जाता है। नहीं भी टूटे, और धीरे-धीरे कोई रोज बहाता रहे क्रोध को, तो भी शक्ति क्षीण होती है। क्योंकि क्रोध हमारी ही शक्ति है, जिससे हम परिचित नहीं।

क्रोध वही शक्ति है, जो क्षमा बन जाती है। काम वही शक्ति है, जो ब्रह्मचर्य बनती है। लोभ वही शक्ति है, जो दान बनती है। घृणा वही शक्ति है, जो प्रेम में रूपांतरित होती है। तो जो रोज घृणा कर लेता है, माना कि कभी इतनी घृणा इकट्ठी नहीं कर पाता कि हत्या कर दे, कि छुरा भोंक दे, लेकिन जो रोज घृणा करता है, वह प्रेम करने के लायक शक्ति उसके पास बचती नहीं है। क्योंकि वही शक्ति प्रेम बनती है। जो रोज क्रोध कर लेता है, क्षमा करने योग्य उसके पास ऊर्जा, एनर्जी नहीं होती। बह जाती है सब। लीकेज से भी बह जाती है। विस्फोट से इकट्ठी बहती है, लीकेज से धीरे-धीरे बहती है; लेकिन आदमी रिक्त हो जाता है।

रोज क्रोध, रोज घृणा, रोज लोभ करने वाला आदमी ठीक वैसा है, जैसे किसी आदमी ने कुएं में बाल्टी डाली, जिसमें हजार छेद हैं। पानी तो भरता हुआ दिखाई पड़ता है; जब तक बाल्टी पानी में डूबी रहे, तब तक लगता है, भरा। पानी के ऊपर उठी बाल्टी कि लगा कि निकला। कुएं में शोरगुल बहुत होता है; आवाज बहुत होती है; वर्षा मच जाती है; हजार-हजार छेद से बाल्टी के पानी टपकने लगता है; लेकिन जब तक हाथ में आती है बाल्टी, तब तक रिक्त हो गई होती है।

जीवन में शोरगुल बहुत है हमारे, वैसा ही जैसे हजार छिद्रों वाली बाल्टी में पानी भरने पर कुएं में होता है। बड़ी वर्षा मालूम होती है। लेकिन जब मृत्यु के क्षण में हाथ लगती है बाल्टी जीवन की, तो उसमें बूंद भी नहीं बचती; सब रिक्त और खाली होता है।

दो खतरे हैं इंद्रियों के साथ। एक भोग का खतरा है। भोग का खतरा हजार छिद्रों वाली बाल्टी बन जाता है। दूसरा दमन का खतरा है। दमन का खतरा ऐसा है, जैसे चाय की केटली का मुंह किसी ने बंद कर दिया हो और ऊपर से पत्थर रख दिया हो और नीचे से आग भी दिए जा रहे हैं! तब फूटेगी केटली।

कृष्ण जब कहते हैं जितेंद्रिय, या महावीर जब कहते हैं जितेंद्रिय, या बुद्ध जब कहते हैं जितेंद्रिय, तो उनकी बात को समझना अत्यंत ही कठिन हुआ है। हम तत्काल जितेंद्रिय का अर्थ लेते हैं, दमन। क्योंकि हम भोग में खड़े हैं। हमारा मन दूसरी अति में अर्थ ले लेता है। भोग से हम परेशान हैं। जैसे ही हम सुनते हैं, जीतो इंद्रिय को; हम कहते हैं, दबाओ इंद्रिय को। जीत बन जाती है दमन, हमारे मन में। और तभी भूल हो जाती है।

जितेंद्रिय का अर्थ है, जानो इंद्रिय को। एक-एक इंद्रिय के रस को पहचानने से, परिचित होने से; एक-एक इंद्रिय की शक्ति के भीतर प्रवेश करने से, जीत फलित होती है। ज्ञान विजय बन जाता है। ज्ञान ही विजय है। कैसे जानेंगे?

कामवासना उठती है हजार बार। थोड़े अनुभव नहीं हैं। एक पुरुष अपने जीवन में, साधारण स्वस्थ पुरुष, चार हजार संभोग कर सकता है, करता है। चार हजार बार काम के अनुभव से गुजरता है एक पुरुष। स्त्री तो लाख बार गुजर सकती है। उसकी क्षमता गहन है। इसलिए पुरुष वेश्याएं नहीं हो सके; स्त्रियां वेश्याएं हो सकीं।

लाख बार भी काम के अनुभव से गुजरकर यह पता नहीं चलता कि यह काम-ऊर्जा, यह सेक्स-एनर्जी क्या है? क्योंकि हम कभी काम पर ध्यान नहीं करते। कभी हम सेक्स पर मेडिटेशन नहीं करते।

इस जगत में जो भी ज्ञान उपलब्ध होता है, वह ध्यान से उपलब्ध होता है--जो भी ज्ञान! चाहे विज्ञान की प्रयोगशाला में उपलब्ध होता हो; और चाहे योग की अंतःप्रयोगशाला में उपलब्ध होता हो। जो भी ज्ञान जगत में उपलब्ध होता है, वह ध्यान से उपलब्ध होता है। ध्यान ज्ञान को पाने का इंस्ट्रूमेंट, उपाय, विधि, मेथड है।

कभी आपने ध्यान किया है सेक्स पर?

आप कहेंगे, बहुत बार किया है। चिंतन किया है, ध्यान नहीं किया। सोचते तो बहुत हैं; जितना करते नहीं, उतना सोचते हैं। काम के अनुभव से जितना गुजरते हैं, उससे लाख गुना ज्यादा काम के विचार से गुजरते हैं। चौबीस घंटे घूम-फिरकर काम मन में सरकता रहता है।

चिंतन तो किया है, ध्यान नहीं किया। चिंतन का अर्थ है, जो भीतर वासना घटती है, उसके साथ ही बह जाते हैं; दूर खड़े होकर देख नहीं पाते। मन में उठा काम का विचार, तो आप भी काम के विचार के साथ आइडेंटिफाइड हो जाते हैं; तादात्म्य हो जाता है। आप ही काम हो जाते हैं, यू बिकम दि सेक्स। फिर ऐसा नहीं होता कि काम की ऊर्जा उठी है, मैं दूर खड़ा देखता हूं, क्या है?

एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला में प्रवेश करता है, परीक्षण करता, खोज करता, प्रयोग करता, निरीक्षण करता, दूर खड़े होकर देखता, क्या हो रहा है? अगर वैज्ञानिक जो कर रहा है, उसके साथ आइडेंटिफाइड हो जाए...जैसे एक वैज्ञानिक एक केमिकल पर, एक रासायनिक द्रव्य पर खोज कर रहा है। वह खुद को ही समझ ले कि मैं ही रासायनिक द्रव्य हूं, तो हो गई खोज! फिर कभी नहीं होगी। वह आदमी ही खो गया, जो खोज कर सकता था। केमिकल द्रव्य खोज कर सकते होते, तो उन्होंने कभी की खोज कर ली होती। वैज्ञानिक की शर्त यह है कि वह आब्जर्व कर सके, निरीक्षण कर सके! आब्जर्वेशन विज्ञान का मूल आधार है।

जिसे विज्ञान आब्जर्वेशन कहता है, निरीक्षण कहता है, उसे ही योग, धर्म, ध्यान कहता है। वह धर्म की पारिभाषिक शब्दावली ध्यान है। ध्यान का मतलब है, जो भी देख रहे हैं, उससे दूर खड़े होकर देख सकें, टु बी ए विटनेस। एक गवाह की तरह देख सकें; सम्मिलित न हो जाएं।

जिस इंद्रिय के साथ आपका एकात्म हो जाता है, उसे आप कभी न जान पाएंगे। जिस इंद्रिय के रस के साथ आप इतने डूब जाते हैं कि भूल जाते हैं कि मैं देखने वाला हूं, बस, फिर ध्यान नहीं हो पाता। फिर कभी इंद्रियों के रस का ज्ञान नहीं हो पाता।

क्रोध उठे, तो क्रोध से जरा दूर खड़े होकर देखें, क्या है? लेकिन हम भगवान पर तो ध्यान करते हैं, जिसका हमें कोई पता नहीं। जिसका हमें पता नहीं, उस पर तो ध्यान होगा कैसे। ध्यान तो उस पर हो सकता है, जिसका हमें पता है। भगवान पर ध्यान करते हैं, जिसका हमें कोई पता नहीं है। क्रोध पर, काम पर कभी ध्यान नहीं करते, जिसका हमें पता है।

और मजा यह है कि जो काम, क्रोध और बाकी इंद्रियों के समस्त उपद्रव के प्रति, ऊर्जा के प्रति, विस्फोट के प्रति ध्यान करने में समर्थ हो जाता है; जैसे-जैसे उसका ध्यान बढ़ता है इंद्रियों पर, वैसे-वैसे इंद्रियां विजित होती चली जाती हैं, हारती चली जाती हैं। वह जीतता चला जाता है; उतना रिकवर करता चला जाता है; उतनी जमीन वापस लेता चला जाता है। उतनी-उतनी इंद्रिय अपनी ताकत छोड़ती चली जाती है, जहां-जहां ध्यान की किरण प्रवेश कर जाती है।

क्रोध को जिसने जान लिया, वह क्रोध नहीं कर सकता। काम को जिसने जान लिया, वह कामातुर नहीं हो सकता। लोभ को जिसने जान लिया, वह लोभ में नहीं पड़ सकता। अहंकार को जिसने पहचाना, वह अहंकार के बाहर है। करना क्या है?

लड़ना नहीं है, जानना है। रोज आता है क्रोध, परमात्मा की बड़ी कृपा है। आता है इसलिए, कि करो ध्यान। उठता है काम, बड़ी अनुकंपा है प्रभु की। उठता है इसलिए, कि करो ध्यान। जिंदगी में लाख मौके मिलते हैं। लेकिन हम चूकने में बड़े कुशल हैं! हम चूकते ही चले जाते हैं। हजार बार रखा जाता है हमारे सामने निशान लगाने के लिए, लेकिन हम धनुष-बाण ही नहीं उठाते। हम चूकते ही चले जाते हैं! पूरी जिंदगी--एक जिंदगी नहीं, अनंत जिंदगी चूकते चले जाते हैं। फिर तो हम चूकने के अभ्यस्त हो जाते हैं। अभ्यास इतना गहरा हो जाता है...।

 एक सर्कस में ऐसा हुआ। एक आदमी रोज ही अपनी पत्नी को तख्ते पर रखकर और तीर से निशाना लगाता था। तीस तीर मारता था। लेकिन तीर ऐसे कि हाथ को छूकर तख्ते में चुभ जाते; कान को छूते हुए गुजरते और तख्ते में चुभ जाते। सिर को छूते हुए निकलते और तख्ते में चुभ जाते। पूरी पत्नी को चारों तरफ से तीरों से भर देता; लेकिन जरा भी पत्नी को खरोंच न लगती। ऐसा उसका तीस साल का अभ्यास था। तीस साल से वह यही काम कर रहा था।

एक दिन--ऐसे दिन बहुत आए थे, जब पत्नी से दिन में कलह हो गई थी। कई बार उसके मन में भी होता था कि आज तीर मार ही दूं बीच में ही, छाती में ही चुभ जाए। लेकिन अपने को सम्हाल गया था। सांझ होते-होते क्रोध चला गया था। एक दिन सांझ को इतना झगड़ा हो गया कि जब वह आया मंच पर और पत्नी खड़ी हुई तख्ते पर, तो उसने कहा, अब बहुत हो गया। उठाया तीर, आंख बंद कर लीं; क्योंकि अभ्यास इतना गहरा था कि आंख खुली रही, तो संभावना यही है कि तीर तख्ते में लगेगा, पत्नी में नहीं लगेगा। तीस साल का अभ्यास! आंख बंद कर लीं, कि आंख बंद करके मारूंगा तीर, तब तो लगने ही वाला है। आंख बंद कीं। सांस रोक ली। मारा तीर। हाल में तालियां बजीं। घबड़ाकर आंख खोली। तीर पत्नी को छूता हुआ तख्ते में लग गया था। तीस तीर आंख बंद करके मारे उसने, लेकिन तीर अपनी जगह पहुंचते रहे! बंद आंख से भी तीर पत्नी में न लग सका। अभ्यास गहरा था; तीस साल का था। बंद आंख में भी काम कर गया।

हमारा तो जन्मों का, लाखों जन्मों का अभ्यास है चूकने का। उठा क्रोध--चूके, भूले कि ध्यान का मौका आया; अपरचुनिटी टु मेडिटेट।

इस सूत्र के साथ मैं आपसे कहना चाहता हूं, जब क्रोध उठे, तब उसकी फिक्र छोड़ दें, जिस पर क्रोध उठा; क्योंकि उसकी फिक्र की, तो चूके। उसकी फिक्र में ही चूकते हैं। किसी ने गाली दी; गाली की फिक्र छोड़ें; गाली देने वाले की फिक्र छोड़ें। इस वक्त तो उसको कहें कि अभी ठहरो जरा; मैं अपना काम करके आधा घंटे में लौटकर आता हूं। द्वार बंद करें, आंख बंद करें। बहुत मौका तो यही है कि आंख बंद करके भी वही होगा, जो उस सर्कस के आदमी का हुआ। जन्मों का अभ्यास है! आंख बंद करके भी क्रोध वही करेगा, जो सामने करता, आंख खोलकर करता।

नहीं; आंख बंद करें। भूलें बाहर को। धन्यवाद दें, जिसने क्रोध को उठाया, क्योंकि एक मौका दिया ध्यान का। आंख बंद करें और देखें कि क्रोध क्या है? कहां है? कैसे उठता? कैसे गहन होता? कैसे छा जाता है पूरे प्राणों पर धुएं की भांति? कैसे पकड़ लेता? कैसे खून-खून गरम हो जाता? कैसे रक्त का कण-कण विषाक्त हो जाता? कैसे सारा शरीर उत्तप्त और फीवरिश हो जाता? कैसे मन बेहोश हो जाता? देखें, और बहुत हैरान होंगे।

जैसे-जैसे देखने की क्षमता बढ़ेगी, जैसे-जैसे पहचानने की सामर्थ्य बढ़ेगी, जैसे-जैसे साक्षी जगेगा, वैसे-वैसे क्रोध तिरोहित होगा। किसी दिन जब पूरे क्रोध को आमने-सामने देख पाएंगे, इन इट्स टोटल नैकेडनेस, क्रोध को उसकी पूरी ही नग्नता में, रोएं-रोएं में जब क्रोध को पहचान पाएंगे, हृदय के कोने-कोने में, चेतन-अचेतन में सब तरफ जब क्रोध को देख पाएंगे कि यह रहा क्रोध, उसी दिन पाएंगे कि क्रोध रूपांतरित हो गया और क्षमा का जन्म हुआ है, उसी दिन क्षमा जन्म जाएगी। वही ऊर्जा जो ध्यान के अभाव में क्रोध है, वही ऊर्जा ध्यान के साथ क्षमा बन जाती है।

अगर मुझसे पूछें, तो गणित के सूत्र में ऐसा कहूं, क्रोध + ध्यान = क्षमा; काम + ध्यान = ब्रह्मचर्य; लोभ + ध्यान = दान। फिर गणित को आप फैला लें। जहां ध्यान जुड़ा, वहीं रूपांतरण है। क्योंकि ध्यान के साथ आता ज्ञान; ज्ञान विजय है।

जितेंद्रिय पुरुष वह है, जिसने अपनी इंद्रियों के सब कोने-कातर, जिसने अपनी इंद्रियों के सब छिपे प्रकट-अप्रकट रूप जाने, पहचाने; जिसने अपनी इंद्रियों की प्रयोगशाला में उतरकर साक्षी का अनुभव किया, वह विजेता हो जाता है। ऐसा जितेंद्रिय पुरुष उपलब्ध होता है शांति को।

लेकिन एक और शर्त कृष्ण कहते हैं, श्रद्धावान भी। यह शब्द भी थोड़ा कठिन है। जैसे जितेंद्रिय शब्द के साथ भ्रांतियां जुड़ी हैं, वैसे ही श्रद्धा के साथ और भी गहरी जुड़ी हैं। क्योंकि जितेंद्रिय होने की कोशिश कम ही लोग करते हैं, इसलिए भ्रांति कम है। श्रद्धावान होने की कोशिश सभी लोग करते हैं, इसलिए भ्रांति और भी ज्यादा है।

श्रद्धा शब्द अध्यात्म के पास बहुत गहराइयों से जुड़ा है। हम सब जीते हैं सतह पर, गहराइयों का हमें कोई पता नहीं है। इसलिए हम सतह पर श्रद्धा का अनुवाद करते हैं। और जो हमारा अनुवाद है, वह बड़ा खतरनाक है। श्रद्धा का हमारा जो अनुवाद है, वह विश्वास है, बिलीफ है।

जो आदमी विश्वास करता है, हम कहते हैं, श्रद्धावान है। विश्वास श्रद्धा नहीं है। विश्वास श्रद्धा तो है ही नहीं; श्रद्धा के ठीक विपरीत है। भाषाकोश में नहीं है। वहां तो लिखा है, श्रद्धा यानी विश्वास, विश्वास यानी श्रद्धा। विश्वास श्रद्धा के बिलकुल विपरीत है, जब मैं ऐसा कहता हूं, तो चौंकेंगे आप। लेकिन कहने का कारण है।

विश्वास वह आदमी करता है, जिसके भीतर अविश्वास है। और श्रद्धा उस आदमी में होती है, जिसके भीतर अविश्वास नहीं है। विश्वास हमारा कृत्य है, हमारे द्वारा किया गया काम है। श्रद्धा हमारी अनुपस्थिति में घटी घटना है। हैपनिंग है, डूइंग नहीं।

विश्वास हम करते हैं। क्यों करते हैं? क्योंकि संदेह के साथ जीना कठिन है। बहुत कठिन है। संदेह के साथ जीने से ज्यादा तपश्चर्या कोई और नहीं है। संदेह के साथ जीना बहुत आर्डुअस है। चौबीस घंटे संदेह में नहीं जी सकते हैं। कहां-कहां संदेह करेंगे? इंच-इंच पर संदेह खड़ा है। अगर संदेह करेंगे, तो पैर भी न उठा सकेंगे; श्वास भी न ले सकेंगे; भोजन भी न कर सकेंगे। संदेह करेंगे, तो जीना क्षणभर भी मुश्किल है।

संदेह कठिन है, बहुत कठिन है। संदेह करेंगे, तो पिता को मानना पिता मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि खुद तो कोई पता नहीं है कि वह पिता है। ऐसा लोग कहते हैं कि पिता है। खुद का तो कोई अनुभव नहीं है कि वह पिता है। मां को मां मानना मुश्किल हो जाएगा! संदेह करेंगे, तो मित्रता बनानी असंभव है। क्योंकि सब मित्रताएं अपरिचित, अनजान के प्रति भरोसे से पैदा होती हैं। संदेह करेंगे, तो सारा जगत शत्रु हो जाएगा। संदेह करेंगे, तो रात सो भी न सकेंगे। संदेह करेंगे, तो एक कौर भी मुंह में न डाल सकेंगे, क्योंकि जहर की संभावना सदा है। संदेह करेंगे, तो जी ही न सकेंगे; मर जाएंगे; जहां खड़े हैं, वहीं गिर जाएंगे।

संदेह के साथ बड़ी कठिनाई है। इसलिए विश्वास से हम संदेह को दबाते हैं। विश्वास के साथ जीया जा सकता है आसानी से। विश्वास कनवीनिएंट है, सुविधापूर्ण है। संदेह बहुत इनकनवीनिएंट है, बहुत असुविधापूर्ण है।

जिंदगी चलती है विश्वास के सहारे। मानना पड़ता है कि कोई पिता है। मानना पड़ता है कि कोई गुरु है। मानना पड़ता है कि कुछ ऐसा है, कुछ वैसा है। सब मानकर चलता है।

इस मानने के बीच में श्रद्धा का हम अर्थ कर लेते हैं, विश्वास। तब जैसे हम पिता को मानते हैं, जैसे हम मित्र को मान लेते हैं, वैसे ही हम परमात्मा को भी मान लेते हैं। संदेह का कीड़ा भीतर सरकता रहता, ऊपर विश्वास का पलस्तर बिछा देते हैं; ऊपर से विश्वास की पर्त फैला देते हैं। भीतर संदेह की आग जलती रहती, ऊपर से विश्वास का आवरण छा देते हैं।

इसलिए विश्वासी के भीतर जरा-सा छेद करो, जरा-सी सर्जरी और संदेह बाहर आ जाएगा। स्किन डीप, चमड़ी से ज्यादा गहरा नहीं होता विश्वास। और श्रद्धा? श्रद्धा गहराई का नाम है। विश्वास? विश्वास चमड़ी का नाम है। विश्वास ऊपर की चमड़ी है, जो काम चलाने के लिए पैदा की गई है।

ठीक है, मां को मान लेने में हर्जा भी नहीं है। न भी हो, तो कुछ हर्जा नहीं है। झूठ भी हो, और मां का काम कर दिया हो, तो बात हो गई। सच में पिता पिता न हो, कोई और ही पिता रहा हो, फर्क क्या पड़ता है? इट मेक्स नो डिफरेंस। और अभी तो थोड़ा-बहुत फर्क पड़ भी जाता होगा, भविष्य में बिलकुल नहीं पड़ेगा। क्योंकि आर्टिफीशियल इनसेमिनेशन हो सकता है।

मैं आज मर जाऊं, दस हजार साल बाद मेरा बेटा पैदा हो सकता है। वीर्यकण को संरक्षित किया जा सकता है, दस हजार साल बाद इंजेक्ट कर दोगे, बच्चा पैदा हो जाएगा। फिर जो इंजेक्शन लगाएगा, वही फादर हुआ! वैसे अभी भी पिता जो है, वह इंजेक्शन लगाने से ज्यादा काम नहीं कर रहा है। पर वह नेचरल इंजेक्शन है। वह आर्टिफीशियल होगा। इससे ज्यादा कुछ है नहीं मामला। तो चल जाता है; चल जाता है काम। इससे कोई बहुत दिक्कत नहीं आती है। इससे कोई जीवन की अतल गहराइयों का लेना-देना नहीं है। जो फादर्ली है, वह फादर है। जो पितृत्व दिखला रहा है, पिता है। जो मातृत्व दिखला रही है, वह मां है।

बहुत दिन तक जरूरी नहीं है; क्योंकि स्त्रियां बहुत दिन तक बच्चे रखने को राजी नहीं होंगी नौ महीने। जिस दिन स्त्री की इक्वालिटी पुरुष से पूरी हो जाएगी, उस दिन स्त्रियां नौ महीने बच्चे को पेट में रखने के लिए कांस्टीटयूशनली गलत कहेंगी। गलत है। क्योंकि पुरुष तो अलग हो जाता है। भागीदार दोनों बराबर हैं। नौ महीने स्त्री ढोती है बेटे को! कुछ आश्चर्य नहीं कि भविष्य की कोई क्रांतिकारी सरकार साढ़े चार-चार महीने का बंटाव करे! अब हो सकता है। अब कठिनाई नहीं है। और या फिर स्त्री को नौ महीने के लिए मुक्त करे और बच्चे इनक्यूबेटर में, मशीन के गर्भ में रखे जाएं और बड़े हों।

इस सदी के पूरे होते-होते बच्चे स्त्रियों के पेट में नहीं रहेंगे। कभी कोई सोच नहीं सकता था कि स्त्रियां बच्चों को दूध पिलाने से इनकार कर देंगी। अमेरिका में उन्होंने कर दिया है। क्योंकि दूध पिलाने से उनकी उम्र जल्दी ढल जाती है; शरीर दीन दिखाई पड़ने लगता है; शरीर की चुस्ती खो जाती है। नौ महीने बच्चे को पेट में रखने से और भारी नुकसान शरीर को होते हैं। व्यवस्था हुई जाती है, फिर इनक्यूबेटर ही मां होगा, इंजेक्टर पिता होगा!

कोई फर्क नहीं पड़ता है। अभी भी वही है। अभी भी जिसको हम मां कहते हैं, उसने इनक्यूबेटर का काम किया है। उसके पेट में प्राकृतिक इंतजाम हैं, जिसमें बच्चा नौ महीने रह लेता है। कल हम कृत्रिम इंतजाम कर लेंगे। शायद उससे भी बेहतर कर लेंगे।

यह कामचलाऊ जगत है। कठिनाई नहीं आती कि मित्र को मित्र मान लिया। बहुत से बहुत क्या करेगा! रात में सामान लेकर नदारद हो जाएगा। विश्वास से चलता है जगत। इसी विश्वास को हम परमात्मा में भी लगाते हैं, तब भूल शुरू होती है।

कृष्ण का अर्थ, जब वे कहते हैं श्रद्धावान, तो विश्वासी नहीं है। कृष्ण का क्या अर्थ होगा श्रद्धावान से? श्रद्धावान को समझने के लिए दोत्तीन बातें विश्वास के संबंध में और खयाल में रख लें।

विश्वास के पीछे सदा संदेह है, स्मरण रखें। संदेह को दबाने और मिटाने के लिए किया गया है विश्वास। संदेह के खिलाफ इंतजाम है विश्वास। संदेह भीतर सरक रहा है।

एक आदमी कहता है, मैं ईश्वर में विश्वास करता हूं। उससे पूछें कि थोड़ा गहरे खोजो। सच विश्वास करते हो? अगर वह ईमानदार हो, आनेस्ट हो, नीयत उसकी साफ हो, तो पाएगा भीतर कि भीतर विश्वास नहीं है। विश्वासी से विश्वासी को पता चल जाता है कि भीतर कहीं संदेह का कण है; कहीं शक उठता है कि है ईश्वर या नहीं! है भी? आत्मा है? मृत्यु के बाद बचता है कुछ? प्रश्न उठते हैं भीतर। वहां संदेह है।

श्रद्धावान का अर्थ है, संशयहीन, संदेहहीन नहीं। संदेह का अर्थ है, डाउट; संशय का अर्थ है, इनडिसीजन। श्रद्धावान का अर्थ है, संशयहीन, संदेहहीन नहीं।

संदेह तो मनुष्य के साथ है। प्रश्न तो मनुष्य के साथ है, जिज्ञासा तो मनुष्य के साथ है। संदेह जिज्ञासा बने, शुभ है। संदेह विश्वास बने, खतरनाक है। संदेह अविश्वास बने, तो भी खतरनाक है। संदेह की सम्यक यात्रा इंक्वायरी है, जिज्ञासा है।

संदेह की असम्यक यात्रा दो तरह से हो सकती है। अगर राइटिस्ट हो, दक्षिणपंथी हो, पुराणपंथी हो, तो संदेह विश्वास बन जाता है। अगर लेफ्टिस्ट हो, वामपंथी हो, पुराण विरोधी हो, नवीनपंथी हो, तो संदेह अविश्वास बन जाता है। लेकिन अगर व्यक्ति न दक्षिणपंथी हो, न वामपंथी हो; संदेह का सम्यक उपयोग करना जानता हो, तो संदेह जिज्ञासा बनता है, प्रश्न बनता है, खोज बनता है, इंक्वायरी बनता है।

जिसने विश्वास से दबाया संदेह को, वह तथाकथित झूठा आस्तिक बन जाता है। जिसने अविश्वास से दबाया संदेह को...।

ध्यान रहे, अविश्वास भी संदेह को दबाने की तरकीब है। एक आदमी को विश्वास नहीं आता; संदेह उठता है कि ईश्वर है? एक आदमी कहता है, है! और पर्त बना लेता है ऊपर होने की, और भूल जाता है। झंझट के बाहर हो जाता है। जिज्ञासा को मिटा देता है। कहता है, है। दूसरा आदमी कहता है, नहीं है। वह भी एक पर्त बना लेता है, न होने की। वह भी झंझट को मिटा देता है; इंक्वायरी को समाप्त कर देता है, जिज्ञासा बंद हो जाती है। है, तो भी जिज्ञासा बंद हो जाती है। नहीं है, तो भी जिज्ञासा बंद हो जाती है। जो है, ऐसा मान लिया, उसकी खोज की जरूरत नहीं रहती। जो नहीं है, ऐसा मान लिया, उसकी भी खोज की जरूरत नहीं रह जाती।

नहीं; संदेह बननी चाहिए जिज्ञासा। हमें पता नहीं कि है; हमें यह भी पता नहीं कि नहीं है। झूठे आस्तिक व्यर्थ; झूठे नास्तिक व्यर्थ। नास्तिक और आस्तिक का एक गहरा तालमेल जिज्ञासा बनाता है। पूछता है आदमी, है? प्रश्नवाची होती है उसकी जिज्ञासा। न स्वीकार, न अस्वीकार। पूछता है।

संदेह गहरे में जाए, तो एग्नास्टिक बनाता है। अज्ञेय है, अननोन है, जो भी है। मुझे पता नहीं है। संदेह गहरा जाए, तो अहंकार को तोड़ता है; क्योंकि मुझे पता नहीं है; मैं अज्ञानी हूं।

आस्तिक भी ज्ञानी बन जाता, विश्वास पकड़कर; नास्तिक भी ज्ञानी बन जाता, अविश्वास पकड़कर। सिर्फ रहस्य में वह प्रवेश करता है, जो कहता है, मैं अज्ञानी हूं। मुझे पता नहीं कि है या नहीं है। सिर्फ प्रश्न का पता है; मुझे कुछ पता नहीं है।

यह तो संदेह का सम्यकरूप है, राइट डाउट। श्रद्धा का इससे कोई संबंध नहीं है। श्रद्धा का संबंध दूसरी बात से है।

एक और वृत्ति है मनुष्य के भीतर, संशय की, इनडिसीजन की, कि आदमी सदा डांवाडोल होता है। डांवाडोल होने का अर्थ है, कुछ भी, कुछ भी संकल्प नहीं बन पाता। क्षणभर बाएं चला जाता है, क्षणभर दाएं चला जाता है।

ध्यान रखें, मैंने कहा कि आस्तिक, झूठे विश्वास को पकड़कर जो बनता है, वह दक्षिणपंथी है। उसने एक एक्सट्रीम पकड़ ली; अब वह पकड़े रहेगा, वह छोड़ेगा नहीं। दूसरे ने दूसरी एक्सट्रीम, अति पकड़ ली--वामपंथी, अविश्वास की। वह कहता है, नहीं है। एक कम्युनिस्ट है; कहता है, नहीं है। उसने पकड़ ली एक अति। ये एक अर्थ में डिसीसिव हैं; इनमें संशय नहीं है। ऊपर से दिखाई नहीं पड़ता; भीतर संदेह है; संशय नहीं दिखाई पड़ता।

आस्तिक कहता है, बिलकुल है; जान लगा दूंगा अपनी। और कई आस्तिकों ने, जिन्हें बिलकुल पता नहीं था, जान लगा दी। और अपनी तो कम लगाई, दूसरों की ज्यादा लगवा दी! कई नास्तिक जान लगा दिए हैं। अपनी कम, दूसरों की ज्यादा लगा दिए हैं।

और ध्यान रखें, जो आदमी भी कहता है, जान लगा दूंगा, वह खतरनाक है। क्योंकि जो जान लगा सकता है, वह जान ले सकता है। जो आदमी भी कहता है कि जिंदगी लगा दूंगा, शहीद हो जाऊंगा, उससे जरा सावधान रहना। क्योंकि शहीद होने के पहले, वह दस-पचास को शहीद करवाएगा, तभी शहीद हो सकता है। शहीद खतरनाक है। शहीदी का भाव खतरनाक है। क्योंकि जब वह अपनी जान लगा देता है, दो कौड़ी की समझता है अपनी जान, तो आपकी कितनी कौड़ी की समझेगा? किसी मूल्य की नहीं समझता है। आपको आदमी उतना ही मूल्य देता है, जितना अपने को देता है; उससे ज्यादा नहीं देता।

आस्तिक संशयहीन दिखाई पड़ता है, संदेह भीतर होता है। इसलिए उसका निःसंशय होना, सच्चा नहीं हो सकता; भीतर का कीड़ा धक्का देता रहता है। उसी को दबाने के लिए वह बिलकुल पक्का मजबूती से खड़ा रहता है कि मैं मानता हूं कि ईश्वर है। और अगर किसी ने कहा, नहीं है, तो ठीक नहीं होगा। जब कोई कहे कि किसी ने कहा कि नहीं है, तो ठीक नहीं होगा, तब समझ लेना कि उसके भीतर संशय का कीड़ा है।

शास्त्र हैं ऐसे, जो कहते हैं, विरोधी की बात मत सुनना। बड़े कमजोर शास्त्र हैं! क्योंकि विरोधी की बात के सुनने में डर क्या है? डर यही है कि भीतर का अपना संशय कहीं विरोधी की बात सुनकर ऊपर न आ जाए। और कोई डर नहीं है।

नास्तिक भी घबड़ाता है। वह भी अपने अविश्वास को जोर से पकड़ता है। नास्तिक और आस्तिक डागमेटिस्ट होते हैं, पक्के रूढ़ि को पकड़े होते हैं। ऊपर से दिखता है, संशय बिलकुल नहीं है; लेकिन भीतर संदेह का कीड़ा है। इसलिए वे निःसंशय हो नहीं सकते। निःसंशय कौन हो सकता है?

निःसंशय वही हो सकता है, जिसने संदेह को दबाया नहीं, संदेह को रूपांतरित किया, ट्रांसफार्म किया और जिज्ञासा बनाई। जिसने जिज्ञासा बनाई संदेह को, अब वह निःसंशय हो सकता है। संशय तो उसी को पैदा होता है, जिसका कोई विश्वास है। जिसका कोई भी विश्वास नहीं है, उसके संशय का कोई उपाय नहीं है। संदेह बन जाए जिज्ञासा, तो संशय बन जाता है श्रद्धा।

ध्यान रहे, अगर मैं कुछ मानता हूं, तो संशय हो सकता है। अगर मैं कुछ भी नहीं मानता, तो संशय नहीं होता। संशय मानने से पैदा होता है। अगर मैं कुछ भी नहीं मानता--यह भी नहीं, वह भी नहीं; हां भी नहीं, नहीं भी नहीं; स्वीकार भी नहीं, अस्वीकार भी नहीं--अगर मैं कुछ भी नहीं मानता, तब संशय पैदा नहीं होता।

संदेह बने जिज्ञासा, तो संशय बनता है श्रद्धा। श्रद्धा उसके ही पास होती है, जिसके पास जिज्ञासा होती है। कठिन लगेगी यह बात। पर जीवन में जटिलताएं हैं।

जिज्ञासावान श्रद्धावान होता है। और श्रद्धावान ही जिज्ञासा कर सकता है। तब श्रद्धा का क्या अर्थ हुआ?

श्रद्धा का सिर्फ इतनी ही अर्थ हुआ कि इस आदमी के पास कोई विश्वास नहीं, कोई अविश्वास नहीं; यह मुक्त मन है, ओपन माइंड। श्रद्धावान वलनरेबल है, खुला हुआ है।

विश्वास क्लोज करते हैं, श्रद्धा खोलती है। श्रद्धा एक ओपनिंग है। विश्वास को पकड़ा हुआ आदमी ऐसा है, जैसे फूल की बंद कली। श्रद्धा को उपलब्ध हुआ आदमी ऐसा है, जैसे खिला हुआ फूल--प्रकाश को सब तरफ से झेलता हुआ; निःसंशय; सूर्य के साक्षात्कार में तत्पर; खोज को निकला; सूर्य के सामने नग्न उघाड़ा। श्रद्धावान का अर्थ है, नग्न, उघाड़ा, दिगंबर, निर्वस्त्र। कोई क्लोजिंग नहीं है। कोई ढांक नहीं है मन के ऊपर। कोई आवरण नहीं है। कोई पर्त नहीं है। विश्वास की नहीं, अविश्वास की नहीं। सब तरफ से खुला हुआ है। सब दीवालें तोड़ दी हैं। खुले आकाश के नीचे खड़ा है।

कौन खड़ा हो सकता है खुले आकाश के नीचे? जरा-सा भी संदेह हो, तो खुले आकाश के नीचे खड़ा नहीं हो सकता; अपने घर के भीतर छिपकर बैठेगा। संदेह डराता है। संशय हो, तो हजार इंतजाम करके बाहर आएगा। निःसंशय हो, तो आ जाता है बाहर।

ऐसा निःसंशय चित्त, श्रद्धावान चित्त, ऐसा खुला मन फूल की तरह, सूर्य के समक्ष; ऐसा ही खुला मन, प्रभु के समक्ष, सत्य के समक्ष, अस्तित्व के समक्ष, श्रद्धावान है। जिसने अपनी अश्रद्धा को दबाने के लिए कोई विश्वास नहीं पकड़ा; जिसने अपने संदेह को दबाने के लिए विश्वास-अविश्वास के जाल में नहीं उलझा; जिसने कहा, मैं नहीं जानता, अज्ञानी हूं; अस्तित्व के सामने अज्ञानी की तरह जो खड़ा है, वह श्रद्धावान है।

अस्तित्व के समक्ष जो किसी भी तरह के ज्ञान को पकड़कर खड़ा होता है, वह श्रद्धावान नहीं है। अस्तित्व के समक्ष जो किसी तरह के सिद्धांत को पकड़कर खड़ा होता है कि सत्य मुझे मालूम है, वह अस्तित्व को जानने से डरता है, इसलिए सिद्धांत की आड़ में खड़ा होता है। और अस्तित्व को जानेगा नहीं कभी; सिद्धांत को ही अस्तित्व पर थोपेगा। कहेगा कि अस्तित्व ऐसा होना चाहिए, जैसा मेरा विश्वास है।

श्रद्धावान कहेगा, जैसा हो अस्तित्व, मैं वैसा ही उसे पा जाने को तत्पर और खुला हूं। मेरा कोई विश्वास नहीं, मेरा कोई सिद्धांत नहीं, मेरा कोई शास्त्र नहीं। मैं अज्ञानी हूं। मुझे कुछ पता नहीं। तो प्रभु मुझे जहां ले जाए। जिसे कुछ पता नहीं, वह जाने का आग्रह नहीं करता कि मैं यहां पहुंचूंगा, तो प्रभु मुझे वहां ले चलो। जिसका कोई विश्वास नहीं, वह अस्तित्व से कहता है, जहां ले जाओ, वही मंजिल है। जहां डूब जाए नाव, वही किनारा है। ऐसी, ऐसी चित्त दशा--जहां डूब जाए नाव, वही किनारा है। कोई किनारे का मुझे पता नहीं कि कहां ले चलो। नहीं; किसी लक्ष्य का मुझे पता नहीं कि कौन लक्ष्य है। किसी प्रयोजन का मुझे पता नहीं कि क्या प्रयोजन है। मुझे पता नहीं, मैं कौन हूं। मुझे पता नहीं, जगत क्या है। मुझे कुछ भी पता नहीं। इग्नोरेंस टोटल है, अज्ञान पूर्ण है। ऐसे पूर्ण अज्ञान में मैं कैसे कहूं कि मुझे कहां ले जाओ? मैं कैसे कहूं कि मुझे उस मंजिल पर पहुंचा दो? मैं कैसे हूं कि मैं वहां जाना चाहता हूं? मैं प्रभु को कैसे आदेश दूं?

अश्रद्धावान आदेश देता है अस्तित्व को। श्रद्धावान अपना हाथ पकड़ा देता अस्तित्व को, ऐसे ही जैसे छोटा बच्चा अपने बाप के हाथ में हाथ दे देता है। फिर वह यह भी नहीं पूछता, कहां जा रहे हैं? कहां ले चल रहे हैं? क्या है लक्ष्य? भटका तो न देंगे? नहीं; वह छोटा बच्चा हाथ दे देता है।

कभी अपने खयाल किया! छोटा बच्चा बाप के हाथ में हाथ देकर निश्चिंत चलता है। वह श्रद्धावान है, विश्वासी नहीं। क्योंकि विश्वास तो तभी होता है, जब संदेह आ जाए; उसके पहले नहीं होता। वह श्रद्धावान है। बाप उसे रास्ते से मोड़ता है, तो मुड़ जाता है; सीधा जाता है, तो सीधा जाता है। बाप उसे कंधे पर उठा लेता है, तो कंधे पर बैठ जाता है। वह यह नहीं पूछता कि कहां पहुंचेंगे? कहीं भटका तो न दोगे? रास्ते में कोई दुर्घटना तो न करवा दोगे? जरा हाथ सम्हलकर पकड़ना। वह सारी फिक्र छोड़ देता है। वह हाथ छोड़ देता है।

श्रद्धावान का अर्थ है, ऐसा व्यक्ति, जिसे ज्ञान का दंभ नहीं। ज्ञान का दंभी कभी श्रद्धावान नहीं होता। दिखाई पड़ते हैं वही लोग श्रद्धावान। ज्ञान का दंभी कभी श्रद्धावान नहीं होता। तथाकथित पंडित कभी श्रद्धावान नहीं होते। अश्रद्धा के कारण ही पांडित्य का जाल बिछाए रहते हैं।

श्रद्धावान होता है बालक की भांति। कहता है, मुझे कुछ पता नहीं, इसलिए जहां पहुंच जाऊं, वही मंजिल है। न पहुंचूं, तो वही मंजिल है। जो मिल जाए, वही उपलब्धि है; जो न मिले, वह भी उपलब्धि है। वैसा श्रद्धावान चित्त कहता है, जहां डूब जाए नाव, जहां लग जाए, वही किनारा है। ऐसा असंशय, ऐसा मुक्त, ऐसा खुला हुआ व्यक्ति, ऐसा निरहंकारी, ऐसा विनम्र, ऐसा आग्रहशून्य, श्रद्धावान है।

कृष्ण कहते हैं, जितेंद्रिय पुरुष और श्रद्धावान...।

क्योंकि जितेंद्रिय हो जाए कोई और श्रद्धावान न हो, तो अहंकार को उपलब्ध हो सकता है। जितेंद्रिय हो जाए कोई, जीत ले अपनी इंद्रियों को और श्रद्धा न हो, तो इंद्रियों की जीत अहंकार को और प्रगाढ़ कर जाएगी, और अकड़ आ जाएगी भारी, कि मैंने क्रोध को जीत लिया; कि मैंने काम को जीत लिया; कि मैं ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हुआ हूं; कि मैं त्याग पा गया; कि मैं संन्यासी हूं; कि मैं साधु हूं; कि मैं तपस्वी हूं।

जिसको श्रद्धा न हो साथ, अगर वह इंद्रियों को जीत ले, तो वह वैसे ही भ्रम में पड़ जाएगा, जैसे बहिर्प्रकृति को जीतकर वैज्ञानिक भ्रम में पड़ जाता है कि मैं सब कुछ हूं; सुप्रीम हो गया! अंतःप्रकृति को जीतकर भी अहंकार आ सकता है, अगर श्रद्धा न हो। इंद्रियों की विजय भी अहंकार की विजय बन सकती है। हो सकता है। और अहंकार की विजय आत्मा की हार है।

इसलिए कृष्ण तत्काल जोड़ देते हैं, इतना ही कहकर छोड़ नहीं देते, जितेंद्रिय पुरुष; श्रद्धावान भी। वह कंडीशन गहरी है। वह पूरी न हो, तो जितेंद्रिय पुरुष अहंकारी हो सकता है।

अक्सर ऐसा होता है। जो आदमी थोड़ा-बहुत क्रोध करता है, वह उतना अहंकारी नहीं होता, जितना जो क्रोध नहीं करता, वह होता है। क्यों? क्योंकि जो क्रोध करता है, क्रोध उसे विनम्र भी कर जाता है; यह भी बता जाता है कि अपनी सामर्थ्य कितनी है! जरा-सी बात में तो अपनी केटली गरम हो जाती है; पतला है चद्दर, बहुत मोटा नहीं है। जो आदमी जरा-जरा सी बात में, क्षुद्र-क्षुद्र बात में होश खो देता है, उसे यह भी तो पता चलता है कि अपनी सीमा क्या है!

ध्यान रहे, जो आदमी क्रोध कर लेता, काम के वशीभूत हो जाता, लोभ कर लेता, वह जानता है--वह जानता है कि अपनी सीमा है। और ध्यान रहे, ऐसा आदमी बहुत अहंकारी नहीं हो सकता।

 क्योंकि अहंकार को खड़े होने के लिए उसके पास बहुत फाउंडेशंस नहीं होते। जरा-जरा सी बात में तो सब गड़बड़ हो जाता है! अपने पर ही तो भरोसा नहीं है। अहंकार क्या करें? और जो आदमी क्रोध करता, लोभ करता, बेईमानी भी कर लेता, वह दूसरों के प्रति भी दयावान होता है। क्योंकि वह जानता है, हम भी कमजोर हैं, दूसरे भी कमजोर हैं।

इसलिए साधु-संत अक्सर कठोर और क्रूर हो जाते हैं। क्योंकि वे क्रोध कभी नहीं करते; इसलिए दूसरा अगर क्रोध कर ले, तो उसकी गर्दन में फांसी लगाने की इच्छा पैदा हो जाती है। क्योंकि उन्होंने कभी वासना नहीं की; तो दूसरे के मन में वासना आ जाए, तो नर्क में डालने की इच्छा हो जाती है। साधु-संत, तथाकथित, श्रद्धावान नहीं, लेकिन जो किसी तरह इंद्रियों को जीतने की चेष्टा में लगे रहते हैं; खतरनाक हो जाता है उनका मामला बहुत बार। इसलिए साधु-संत को दयावान पाना जरा कठिन है।

साधु और दयावान पाना जरा कठिन है! इसका मतलब यह हुआ कि साधु पाना कठिन है। रास्ते पर चलते हुए जिस आदमी के मन में लोभ नहीं आया, क्रोध नहीं आया, वासना नहीं आई, काम नहीं आया, वह दूसरे के प्रति कभी भी दयावान हो नहीं पाता। क्योंकि वह कहता है, जो मुझे नहीं हुआ, वह तुम्हें हो रहा है! पापी हो।

लेकिन जिसके मन में सब हुआ, जो दूसरे को हो रहा है, वह अनिवार्य रूप से, अनिवार्य रूप से विनम्र हो जाता है। और जानता है कि मुझ पर मेरा ही वश नहीं; अगर दूसरे का वश नहीं, तो कुछ नर्क में जाने की बात नहीं हो गई है! यह स्वभाव है मनुष्य का, टु इर इज़ ह्यूमन। वह इस बात को समझ पाता है कि भूल आदमी से होती है।

जितेंद्रिय पुरुष अगर श्रद्धावान न हो, तो खतरे हैं। इसलिए कृष्ण तत्काल जोड़ते हैं, जितेंद्रिय और श्रद्धावान। श्रद्धावान होगा, तो जितेंद्रिय होकर, उसकी जो जितेंद्रिय से उपलब्ध शक्ति है, वह अहंकार को नहीं, आत्मा को मिलेगी। जितेंद्रिय, श्रद्धावान, शांति को उपलब्ध हो जाता है, परम शांति को उपलब्ध होता है।

शांति क्या है? दि सुप्रीम साइलेंस, अल्टिमेट साइलेंस, यह परम शांति क्या है?

अशांति क्या है? अशांति है चित्त का कंपन, उत्तेजना। उत्तेजित चित्त-दशा अशांति है। जैसे झील--आंधियों के थपेड़ों में; तूफान में चट्टानों से टकराती हुई लहरें, हवा से जोर मारती लहरें; सब उद्विग्न, उदभ्रांत--ऐसा चित्त अशांत है। शांत चित्त--झील की तरह मौन; हवाओं के थपेड़े नहीं; लहरों का शोरगुल नहीं; कोई संघर्ष नहीं; मौन।

सुख में भी उत्तेजना है, दुख में भी उत्तेजना है। इसलिए शांति सुख और दुख के पार है। सुखी आदमी शांत नहीं होता; सुखी आदमी भी अशांत होता है। दुखी आदमी भी शांत नहीं होता; दुखी आदमी भी अशांत होता है। क्योंकि सुख की अपनी उत्तेजना है; प्रीतिकर लगती है, यह हमारी धारणा है। दुख की अपनी उत्तेजना है; अप्रीतिकर लगती है, यह हमारी धारणा है।

और इसलिए जो एक को दुख है, वह दूसरे को सुख भी हो सकता है। और इसलिए जो एक को सुख है, वह दूसरे को दुख भी हो सकता है। और इसलिए जो आज आपको सुख है, वह कल दुख हो सकता है। और इसलिए जो आज आपको दुख है, वह कल सुख हो सकता है। कनवर्टिबल है; सुख दुख में बदल सकते हैं। क्योंकि दोनों उत्तेजनाएं हैं। सिर्फ दृष्टिकोण से फर्क पड़ता है कि क्या सुख और क्या दुख।

सुख में भी हार्ट फेल हो जाते सुना जाता है। सुख में भी हृदय-गति बंद हो जाती है। निश्चित ही, सुख बड़ी तीव्र उत्तेजना होगी। मिलता नहीं है हम सबको सुख, इसलिए सबका नहीं होता। मिलता ही कम है। या मिलता है, तो इतना रत्ती-रत्ती मिलता है कि हम इम्यून हो जाते हैं; हम समर्थ हो जाते हैं झेलने में। इकट्ठा मिल जाए, लाटरी की तरह मिल जाए, कि दस लाख रुपए की लाटरी मिल गई किसी को, तो खतरा है। लाटरी तो मिलेगी, लाटरी पाने वाला नहीं बचेगा।

सुख इकट्ठा आ जाए, तो तोड़ जाता है, दुख से भी ज्यादा तोड़ जाता है। क्योंकि दुख परिचित है, उसके हम इम्यून हैं, वह रोज आता है। इसलिए कितना भी आ जाए, दुख में हार्ट फेल होते हुए नहीं सुने जाते। बड़े से बड़ा दुख आदमी झेल जाता है; हृदय-गति बंद नहीं होती। क्योंकि दुख इतने हैं जीवन में, हमारी दृष्टि ऐसी गलत है कि अधिक दुख हमने बना रखे हैं, तो हम झेल जाते हैं! लेकिन सुख? हमारी दृष्टि ऐसी है कि सुख हमने बनाए नहीं। कभी कोई सुख अगर हमारी दृष्टि के अनुकूल पड़कर हम पर छा जाता है, तो खतरा है। फिर सुख की उत्तेजना भी थोड़ी देर में अप्रीतिकर हो जाती है। सब उत्तेजनाएं अप्रीतिकर हो जाती हैं।

सब सुख दुख हो जाते हैं। और सब दुख भी अभ्यास से सुख हो जाते हैं। एक आदमी पहली दफा सिगरेट पीता है, तो सुख नहीं मिलता, सिर्फ तिक्तता पहुंच जाती है मुंह में। गंदा धुआं; खांसी, और बदबू; और घबड़ाहट; बेचैनी! पहली दफा आदमी शराब पीता है, तो कभी सुख नहीं मिलता। लेकिन शराब पिलाने वाले कहते हैं, टेस्ट पैदा करना पड़ता है, ट्रेन करना पड़ता है। वे कहते हैं कि ऐसे थोड़े ही है, यह कोई साधारण चीज थोड़े ही है। यह शास्त्रीय संगीत जैसी चीज है। अभ्यास से स्वाद का जन्म होता है। मुंह में कड़वाहट छूट जाती है, छाती तक जलन पहुंच जाती है, श्वास की पूरी नली विरोध और बगावत करती है, पहले दिन शराब पीने पर। लेकिन अभ्यास से शराब प्रीतिकर हो जाती है।

सुख भी उत्तेजना, दुख भी उत्तेजना, इसलिए उत्तेजनाएं एक-दूसरे में बदल सकती हैं, बदल जाती हैं।

शांति, परम शांति वह है, जहां कोई उत्तेजना नहीं है--न सुख की, न दुख की। जहां सुख भी नहीं, जहां दुख भी नहीं, ऐसा जहां परम शांत हुआ चित्त, वहीं आनंद फलित होता है, वहीं प्रभु का द्वार खुलता है, वहीं परम सत्य में प्रवेश होता है।

जितेंद्रिय हुआ, श्रद्धा से युक्त, शांत हुआ मन, परम सत्य, निगूढ़ सत्य में प्रविष्ट हो जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल 


गीता दर्शन अध्याय 4 भाग 36


 ज्ञान पवित्र करता है


न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।

तत्स्वयं योगसंसिद्धिः कालेनात्मनि विन्दति।। 38।।


न- कुछ भी नहीं, हि- निश्चय ही; ज्ञानेन ज्ञान से; सदृशम् - तुलना में पवित्रम् - पवित्र, इह - इस संसार में; विद्यते-है; तत्-उसः स्वयम्- अपने आप योग- भक्ति में; संसिद्धः- परिपक्व होने परः कालेन यथासमय आत्मनि-अपने आप में, अन्तर में विन्दति - आस्वादन करता है।


इसलिए इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निस्संदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने काल से अपने आप समत्व बुद्धिरूप योग के द्वारा अच्छी प्रकार शुद्धांतःकरण हुआ पुरुष आत्मा में अनुभव करता है।


ज्ञान से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। ज्ञान के सदृश कुछ भी नहीं है। ज्ञान से ज्यादा पवित्र करने वाला कोई स्रोत, कोई झरना नहीं है। ज्ञान है मुक्ति। ज्ञान है अमृत।

ज्ञान की यह जो पवित्र करने की क्षमता है, यह जो ज्ञान की स्वच्छ करने की क्षमता है, यह जो ज्ञान की  रूपांतरित करने की शक्ति है, इसके संबंध में कृष्ण कह रहे हैं। तीन बातें कह रहे हैं। ज्ञान से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं। ज्ञान के सदृश पवित्र करने वाला कुछ भी नहीं। ज्ञान को उपलब्ध हुआ आत्मा में प्रवेश कर जाता है। इन तीनों को अलग-अलग समझें।

अपवित्रता क्या है?  अपवित्र क्यों है मनुष्य? कौन-सी है गंदगी उसके प्राणों पर, जो भारी है। कौन-सा है अस्वच्छ कचरा, जो उसके चित्त पर बोझ है? कौन-सी अशुचि है? कौन है, क्या है, जो उसे रुग्ण और बीमार किए है?

मन में जैसे ही उठती है वासना, वैसे ही अशुचि प्रवेश कर जाती है। मन में जैसे ही उठती है कामना, वैसे ही मन गंदगी से भर जाता है। मन में जैसे ही उठी इच्छा कि ज्वर प्रवेश कर जाता है। उत्तप्त हो जाता है सब। अस्वस्थ हो जाता है सब। कंपनशील हो जाता है सब। कामना ही अशुचि है, अस्वच्छता है, अपवित्रता है।

जब भी मन में कुछ चाह उठती है, तब देखें। भीतर से सुगंध खो जाती और दुर्गंध शुरू हो जाती है। जब भी मन में कोई चाह उठती है, तब भीतर से शांति खो जाती और अशांति के वर्तुल खड़े हो जाते हैं, भंवर खड़े हो जाते हैं। जब भी मन में कोई चाह उठती है, तभी दीनता पकड़ लेती है। आदमी भिखारी की तरह भिक्षापात्र लेकर खड़ा हो जाता है, भिक्षु हो जाता है।

जब भी मन में चाह उठती है, तभी दूसरे से तुलना शुरू हो जाती है; ईष्या निर्मित होती है। और ईर्ष्या से ज्यादा गंदी और कोई चीज नहीं है चित्त में। जलन से, प्रतिस्पर्धा से, तुलना से भरा हुआ मन ही कुरूप है।

जैसे ही वासना उठती मन में, हिंसा उठती है। क्योंकि वासना को पूरा हिंसा के बिना किया नहीं जा सकता। फिर जो पाना है, वह किसी भी तरह पाना है। फिर चाहे कुछ भी हो, फिर उसे पा ही लेना है। फिर अंधा होता आदमी। जब वासना घनी होती है, तब ब्लाइंडनेस पैदा होती है। अंधा होता है। फिर आंख बंद करके दौड़ता पागल की तरह! क्योंकि अकेला ही नहीं दौड़ रहा है; और बहुत अंधे भी दौड़ रहे हैं। कोई और न छीन ले! संघर्ष होता। वैमनस्य होता। क्रोध होता। घृणा होती।

और मजा यह है कि सफल हो जाए वासना,  तो भी विषाद हाथ में आता है। और असफल हो जाए वासना, तो भी विषाद हाथ में आता है। दोनों ही स्थिति में अंततः दुख के आंसू हाथ में पड़ते हैं।

इसे थोड़ा खयाल में ले लेना जरूरी है। क्योंकि हमारा मन कहेगा, नहीं; अगर सफल हो जाए, फिर क्या? फिर तो सब ठीक है!

यही है राज कि सफल होकर भी वासना कहीं भी नहीं ठीक करती। असफल होकर तो करती ही नहीं; सफल होकर भी नहीं करती।

ध्यान रखें, आंसू आनंद में भी उठ सकते हैं। लेकिन आनंद के आंसू बड़े पवित्र होते हैं, उनकी सुवास की कोई सीमा नहीं है। दुख में भी आंसू गिरते हैं, तब उनकी अपवित्रता, उनकी गंध का कोई हिसाब नहीं है। आंसू वही होते हैं; भीतर का चित्त बदला होता है।

वासना, कामना, इच्छा कीड़ा है, जो भीतर गंदगी को पैदा करता है। हम सब हजार इच्छाओं में जीते हैं, हजार तरह की गंदगियों में जीते हैं।

ज्ञान की स्वच्छ करने की शक्ति यही है कि ज्ञान के उतरते ही इच्छा तिरोहित होती है। इच्छा की जगह अस्तित्व शुरू होता है।  फिर मांगता नहीं कि क्या मिले; जो मिला है, उसे परम प्रभु को धन्यवाद देकर चुपचाप स्वीकार करता है। दौड़ता नहीं है उसका चित्त कल के लिए; आज काफी है, पर्याप्त है। आज ही मिल गया है, यही क्या कम है। आज हूं, इतनी भी तो मेरी पात्रता नहीं है। जो मिला, वह मेरी योग्यता कहां है?

लेकिन कोई हममें से नहीं सोचता यह कि जो हमें मिला, उसकी हमारी योग्यता है? अगर मुझे आंखें न मिली होतीं, तो क्या मैं कह सकता था कि मेरी योग्यता है, मुझे आंखें दो! अगर मेरे पास हाथ न होते, तो क्या था प्रमाण मेरे पास कि मेरी योग्यता है, मुझे हाथ दो! अगर मैं जीवित ही न होता, तो क्या था उपाय कि मैं कहता कि मैं जीवन का अधिकारी हूं, मुझे जीवन दो! जो हमें मिला है, उसका हमें कोई हिसाब नहीं है, उसका कोई अनुग्रह नहीं है। क्योंकि वासना उसे दिखाई ही नहीं पड़ने देती, जो है। वासना कहती है वह, जो नहीं है।

बहुत कुछ है, जो नहीं है। अनंत है विस्तार जीवन का। सभी कुछ मेरे पास नहीं है। यद्यपि मेरे पास जो है, वह सभी कुछ से जरा भी कम नहीं है। लेकिन उसको देखे कौन? उसकी तरफ नजर कौन उठाए?

वासना हमें बुरी तरह भिखारी बना देती है।

ज्ञान स्वच्छ करता है वासना से; तृप्त करता है, जो है, उसमें। दौड़ाता नहीं उसके पीछे, जो नहीं है। हृदय से आलिंगन करा देता है उसका, जो है। अदभुत है तृप्ति, संतुष्टि फिर। उस संतुष्टि में वासना के सारे रोग और सारे विकार विदा हो जाते हैं; मन स्वच्छ हो जाता है। एकदम स्वच्छ और ताजा हो जाता है।

क्षण में जो जीता है, कल का जिसे हिसाब नहीं है, बीते कल का; आने वाले कल की जिसे अपेक्षा नहीं है; जो अभी और यहीं है, उसकी स्वच्छता का कोई अंत नहीं है। वह पवित्रतम है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, ज्ञान की तरह पवित्र करने वाला, ज्ञान के सदृश पवित्र करने वाली कोई कीमिया, कोई केमिस्ट्री नहीं है।

इसलिए अगर बुद्ध की आंखों में पवित्रता दिखाई पड़ती है ऐसी, कि जिससे झीलें भी झेंप जाएं। कि बुद्ध के चेहरे पर रेखाएं दिखाई पड़ती हैं ऐसी, कि छोटे बच्चे भी, नवजात शिशु भी शर्माएं। कि बुद्ध के चलने में चारों तरफ हवा बहती है स्वच्छता की, निर्मल, कि मलय पर्वत से उठी हुई सुगंधित हवाएं भी फिर से विचार करें कि वे मलय पर्वत से आती हैं या कहीं और से! अगर महावीर की नग्नता में भी पवित्रतम के दर्शन होते हैं, तो उसका कारण है। अगर जीसस सूली पर लटके हैं और मृत्यु के क्षण में भी उनके भीतर से जीवन की ऊर्जा ही झलकती और प्रकट होती है।

ज्ञान ही एकमात्र पवित्रता है कृष्ण कहते हैं, ज्ञान से ऊपर कुछ भी नहीं।

है भी नहीं। परम शिखर जीवन के अनुभव का, जान लेना है। निकृष्टतम खाई अज्ञान की, न जानने में पड़े रहना है। आत्म-अज्ञान गहनतम नर्क है; आत्म-ज्ञान श्रेष्ठतम स्वर्ग है। जो नहीं जानता अपने को, उससे नीचे और कुछ नहीं हो सकता। जो जान लेता अपने को, उसके ऊपर कुछ और नहीं है।

दो ही छोर हैं, अज्ञान और ज्ञान। इन दो के अतिरिक्त और कोई पोल्स नहीं हैं अस्तित्व के। एक तरफ अज्ञान का छोर है, जहां हम अपने को नहीं जानते। और जो अपने को नहीं जानता, वह और कुछ क्या जानेगा, खाक! कैसे जानेगा? उपाय क्या है? जो अपने को ही नहीं जानता, वह और क्या जानेगा? उसका सब जानना धोखा है। और जो अपने को जान लेता है, उसे और कुछ जानने को बचता नहीं। जिसने अपने को जान लिया, उसने सब जान लिया।

जाना जिसने स्वयं को, जाना उसने सब। स्वयं को जाना, तो सर्वज्ञ हुआ। सभी कुछ जान लिया। क्यों? इतना बड़ा वक्तव्य!  ऐसा निरपेक्ष वक्तव्य, कि जिसने अपने को नहीं जाना, उसने कुछ भी नहीं जाना। निश्चय ही, क्योंकि जानने की पहली किरण स्वयं से अगर न टूटे, तो और कहीं से नहीं टूट सकती।

जिसके अपने ही घर का दीया बुझा है, जिसको अपना बुझा दीया ही जिंदगी बनी है, अपना दीया जलाने का स्मरण भी जिसे नहीं आया अब तक, उसे कहीं और प्रकाश कहां हो सकता है? उसके हाथ में भी प्रकाश दे दो, तो बेमानी है।

अज्ञानी के हाथ में सारे जगत का ज्ञान दे दें, तो खतरा ही है। अज्ञानी के हाथ में ज्ञान न हो, वही बेहतर। आज यही तो हुआ है सारी दुनिया में। विज्ञान ने ज्ञान की राशि लगा दी अज्ञानी के हाथ में। यहां ज्ञान की जो बात कृष्ण कह रहे हैं, वह आत्मज्ञान है। स्वयं का ज्ञान प्राथमिक, मूलभूत ज्ञान है। उस ज्ञान को पा लेने से, कृष्ण कहते हैं, आत्मा में प्रवेश हो जाता है।

यह आखिरी बात भी समझ लेनी जैसी है।

आत्मा में प्रवेश हो जाता है। आत्मा से एकता हो जाती है। आत्मा में द्वार मिल जाता है। आत्मा ही हो जाता है, वैसा जानने वाला। तो क्या हम आत्मा नहीं हैं? हम सभी आत्मा हैं। सब किताबों में लिखा है! खुद कृष्ण ही कहते हैं कि सबके भीतर आत्मा है, वह मरती नहीं। जब हम सभी आत्मा हैं, तो अब ज्ञान की और क्या जरूरत है?

आपके घर में खजाना गड़ा है और आपको पता नहीं कि कहां गड़ा है। कुछ मतलब है? कोई बाजार में क्रेडिट मिलेगी उसकी? भिखमंगा हूं मैं और घर में खजाना गड़ा है। मेरा भिखमंगापन मिटेगा इससे? गड़ा रहे घर में खजाना; मुझे कुछ पता नहीं है, वह कहां है! जो खजाना पता न हो, वह न होने के बराबर है। जिसका पता हो, वही है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो जान लेता, वही आत्मा को उपलब्ध होता है। ज्ञान ही आत्मा है। अज्ञान का क्या अर्थ है, कि आत्मा है? सुनी हुई बातों की, खबरों की कोई कीमत है!

हम सबने सुना है, आत्मा है, बड़े निश्चिंत हैं। सोचते हैं, है ही। फर्क क्या है हममें और ज्ञानी में? थोड़ा ही फर्क है कि वह जानता है और हम नहीं जानते। फर्क कुछ भी नहीं है, हम सोचते हैं। फर्क बहुत बड़ा है। क्योंकि यह न जानना, न होने के बराबर है,  बिलकुल समतुल।

जब तक अज्ञान है, तब तक अनात्मा है। जब ज्ञान है, तभी आत्मा है। ज्ञान के पहले यह कहना कि मेरे भीतर आत्मा है, धोखा है बड़े से बड़ा। दूसरे के लिए नहीं, अपने लिए धोखा है। क्योंकि हो सकता है, दोहराते-दोहराते कि मैं आत्मा हूं, मैं यह भूल ही जाऊं कि मुझे पता नहीं है और मैं उधार शब्द दोहरा रहा हूं!

इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो जानता है, वही आत्मा को उपलब्ध होता है, वही प्रवेश कर पाता है, वही आत्मा हो पाता है।

आत्मा होना खेल नहीं है, बड़ी से बड़ी तपश्चर्या है। स्वयं को जानना लंबी यात्रा है। लेकिन दूसरे के उधार शब्दों को कंठस्थ कर लेना बड़ी सुगम बात है। स्कूल के बच्चे कर सकते हैं। बूढ़े भी वही करते रहते हैं।

 धर्म गणित की भांति नहीं है कि सीख लिया, दो और दो चार। धर्म फिजिक्स की भांति, भौतिकशास्त्र की भांति नहीं है कि सीख लिया, ग्रेविटेशन क्या है, गुरुत्वाकर्षण क्या है; कि न्यूटन के कानून क्या हैं; कि आइंस्टीन की रिलेटिविटी, सापेक्षता क्या है। सीख लिया, पढ़ लिया और सीख गए और जान गए। धर्म विज्ञान, साहित्य, काव्य, गणित, भाषा--इनमें से किसी की भांति नहीं है।

धर्म है प्रेम की भांति। वही जानता है, जो करता है। वही जानता है, जो धर्म हो जाता है। 

आत्मा शब्द थोड़ा-सा गलत है। उसमें अपने का खयाल पैदा होता है। आत्मा यानी मेरी, अपनी, स्वयं की! आत्मा शब्द थोड़ा-सा गलत है। 

आत्मा यानी परमात्मा। जैसे ही किसी ने जाना कि मैं क्या हूं, वैसे ही उसने जाना कि मैं सब हूं।

जैसे ही बूंद ने पहचाना कि मैं कौन हूं, कि बूंद ने समझा कि मैं सागर हूं। जब तक बूंद ने नहीं जाना कि मैं कौन हूं, तब तक वह बूंद है। जिस दिन जाना कि मैं कौन हूं, उस दिन वह सागर है। क्योंकि एक छोटी-सी बूंद में पूरा का पूरा सागर मौजूद है। एक छोटी-सी बूंद के गुणधर्म को हम समझ लें, पूरे सागर का गुणधर्म समझ में आ जाता है। छोटी-सी बूंद  छोटा-सा सागर। कहीं सागर छोटे हुए! सागर तो पूरा है। छोटा-सा दिखाई पड़ता है। है पूरा का पूरा।

आत्मा का जानना यानी परमात्मा का जानना है।

इसलिए ज्ञान सर्वोच्च है, क्योंकि उसी से हम सर्वोच्च शिखर परमात्मा को स्पर्श कर पाते हैं। अज्ञान निकृष्ट है, क्योंकि उसी के कारण हम सर्वोच्च के प्रति पीठ कर पाते हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल 

गीता दर्शन अध्याय 4 भाग 35

 
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि।। 36।।


अपि-भी; चेत्-यदि असि तुम हो पापेभ्यः पापियों से सर्वेभ्य:- समस्त पाप-कृत् सम:- सर्वाधिक पापी; सर्वम्- ऐसे समस्त पापकर्म ज्ञान -प्लवेन - दिव्यज्ञान की नाव द्वारा; एव - निश्चय ही; वृजिनम्-दुखों के सागर को; सन्तरिष्यसि पूर्णतया पार कर जाओगे।


यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।। 37।।


यथा- जिस प्रकार से एधांसि ईंधन को समिद्धः- जलती हुई अग्रिः- अग्नि; भस्म - सात्- राख; कुरुते - कर देती है; अर्जुन- हे अर्जुन, ज्ञान- अग्निः- ज्ञान रूपी अग्निः सर्व कर्माणि - भौतिक कर्मों के समस्त फल को भस्मसात्- भस्म, राख कुरुते करती है; तथा उसी प्रकार से ।


और यदि तू सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी ज्ञानरूप नौका द्वारा निस्संदेह संपूर्ण पापों को अच्छी प्रकार तर जाएगा।

क्योंकि हे अर्जुन, जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्मसात कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि संपूर्ण कर्मों को भस्मसात कर देता है।


यह सूत्र बहुत अदभुत है और आपके बहुत काम का भी। यह प्रश्न सनातन है, सदा ही पूछा जाता है।

बहुत हैं पाप आदमी के, अनंत हैं, अनंत जन्मों के हैं। गहन, लंबी है शृंखला पाप की। इस लंबी पाप की शृंखला को क्या ज्ञान का एक अनुभव तोड़ पाएगा? इतने बड़े विराट पाप को क्या ज्ञान की एक किरण नष्ट कर पाएगी?

जो नीतिशास्त्री हैं--नीतिशास्त्री अर्थात जिन्हें धर्म का कोई भी पता नहीं, जिनका चिंतन पाप और पुण्य से ऊपर कभी गया नहीं--वे कहेंगे, जितना किया पाप, उतना ही पुण्य करना पड़ेगा।  एक-एक पाप को एक-एक पुण्य से काटना पड़ेगा, तब बैलेंस, तब ऋण-धन बराबर होगा; तब हानि-लाभ बराबर होगा और व्यक्ति मुक्त होगा।
जो नीतिशास्त्री हैं,  जिन्हें आत्म-अनुभव का कुछ भी पता नहीं, जिन्हें आत्मा का कुछ भी पता नहीं; जो सिर्फ  कर्म का हिसाब-किताब रखते हैं; वे कहेंगे, एक-एक पाप के लिए एक-एक पुण्य से साधना पड़ेगा। अगर अनंत पाप हैं, तो अनंत पुण्यों के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं।

लेकिन तब मुक्ति असंभव है। दो कारणों से असंभव है। एक तो इसलिए असंभव है कि अनंत शृंखला है पाप की, अनंत पुण्यों की शृंखला करनी पड़ेगी। और इसलिए भी असंभव है कि कितने ही कोई पुण्य करे, पुण्य करने के लिए भी पाप करने पड़ते हैं।





जीने में ही पाप हो जाएगा। पुण्य करने के लिए ही पाप हो जाएगा। कम से कम जीएंगे तो पुण्य करने के लिए! तब तो यह अनंत वर्तुल है,  दुष्टचक्र है; इसके बाहर आप जा नहीं सकते। अगर पुण्य से पाप को काटने की कोशिश की, तो पुण्य करने में पाप हो जाएगा। फिर उस पाप को काटने की पुण्य से कोशिश की, तो फिर उस पुण्य करने में पाप हो जाएगा। हर बार पाप को काटना पड़ेगा। हर बार पुण्य से काटेंगे। पुण्य नए पाप करवा जाएगा। यह वर्तुल कभी अंत नहीं होगा। 

इसलिए नैतिक व्यक्ति कभी मुक्त नहीं हो सकता। नैतिक दृष्टि कभी मुक्ति तक नहीं जा सकती। नैतिक दृष्टि तो चक्कर में ही पड़ी रह जाती है।

कृष्ण एक बहुत ही और दृष्टि की बात कर रहे हैं। और जो भी जानते हैं, वे वही बात करेंगे। कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, तू अगर सब पापियों में भी सबसे बड़ा पापी है,  अस्तित्व में जितने पापी हैं, उनमें तू सबसे बड़ा पापी है, तो भी ज्ञान की एक घटना तेरे सब पापों को क्षीण कर देगी। क्या मतलब हुआ इसका?

इसका मतलब यही हुआ कि पाप की कोई सघनता नहीं होती, पाप की कोई डेंसिटी नहीं होती। पाप है अंधेरे की तरह। एक घर में अंधेरा है हजार साल से, दरवाजे बंद हैं और ताले बंद हैं। हजार साल पुराना अंधेरा है। तो क्या आप दीया जलाएंगे, तो अंधेरा कहेगा, इतने से काम नहीं चलता! आप हजार साल तक दीए जलाएं, तब मैं कटूंगा!

नहीं; आपने दीया जलाया कि हजार साल पुराना अंधेरा गया। वह यह नहीं कह सकता है कि मैं हजार साल पुराना हूं। वह यह भी नहीं कह सकता है कि हजार सालों में बहुत सघन, कनडेंस्ड हो गया हूं, इसलिए दीए की इतनी छोटी-सी ज्योति मुझे नहीं तोड़ सकती!

हजार साल पुराना अंधेरा और एक रात का पुराना अंधेरा एक ही बराबर डेंसिटी के होते हैं। या कहना चाहिए कि नो डेंसिटी के होते हैं; उनमें कोई सघनता नहीं होती। अंधेरे की पर्तें नहीं होतीं; क्योंकि अंधेरे का कोई अस्तित्व नहीं होता। बस, आज आपने जलाई काड़ी, अंधेरा गया--अभी और यहीं।

हां, अगर कोई अंधेरे को पोटलियों में बांधकर फेंकना चाहे, तो फिर नैतिकवादी का काम कर रहा है । वह कहता है, जितना अंधेरा है, उसको बांधो टोकरी में, बाहर फेंक कर आओ। फेंकते रहो टोकरी बाहर और भीतर, अंधेरा अपनी जगह रहेगा। आप चुक जाओगे, अंधेरा नहीं चुकेगा।

पाप को पुण्य से नहीं काटा जा सकता, क्योंकि पुण्य भी सूक्ष्म पाप के बिना नहीं हो सकता। पाप को तो सिर्फ ज्ञान से काटा जा सकता है, क्योंकि ज्ञान बिना पाप के हो सकता है।

ध्यान रखें, पाप को पुण्य से नहीं काटा जा सकता, क्योंकि पुण्य बिना पाप के नहीं हो सकता है। पाप को सिर्फ ज्ञान से काटा जा सकता है, क्योंकि ज्ञान बिना पाप के हो सकता है। ज्ञान कोई कृत्य नहीं है कि जिसमें पाप करना पड़े। ज्ञान अनुभव है। कर्म बाहर है, ज्ञान भीतर है। ज्ञान तो ज्योति के जलने जैसा है। जला, कि सब अंधेरा गया।

फिर तो ऐसा भी पता नहीं चलता कि मैंने कभी पाप किए थे। क्योंकि जब मैं ही चला जाए, तो सब खाते-बही भी उसी के साथ चले जाते हैं। फिर आदमी अपने अतीत से ऐसे ही मुक्त हो जाता है, जैसे सुबह सपने से मुक्त हो जाता है। क्या कभी आपने ऐसा सवाल नहीं उठाया, सुबह हम उठते हैं, रातभर सपना देखा, तो जरा-सा किसी ने हिलाकर उठा दिया, इतने से हिलाने से रातभर का सपना टूट सकता है?

नहीं, जरा-सा किसी ने हिलाया; पलक खुली; सपना गया। फिर आप यह नहीं कहते कि अब रातभर इतना सपना देखा, तो अब सपने के विरोध में इतना ही यथार्थ देखूंगा, तब सपना मिटेगा। सपना टूट जाता है।

पाप सपने की भांति है। ज्ञान की जो सर्वोच्च घोषणा है, वह है कि पाप स्वप्न की भांति है। फिर पुण्य भी स्वप्न की भांति है। और सपने सपने से नहीं काटे जाते हैं। सपने सपने से काटेंगे, तो भी सपना देखना जारी रखना पड़ेगा।

सपने सपने से नहीं कटते, क्योंकि सपनों को सपनों से काटने में सपने बढ़ते हैं। और सपने यथार्थ से भी नहीं काटे जा सकते; क्योंकि जो झूठ है, वह सच से काटा नहीं जा सकता। जो असत्य है, वह सत्य से काटा नहीं जा सकता। वह इतना भी तो नहीं है कि काटा जा सके। वह सत्य की मौजूदगी पर नहीं पाया जाता है; काटने को भी नहीं पाया जाता है।

इसलिए कृष्ण कहते कि कितना ही बड़ा पापी हो तू, सबसे बड़ा पापी हो तू, तो भी मैं कहता हूं अर्जुन, कि ज्ञान की एक किरण तेरे सारे पापों को सपनों की भांति बहा ले जाती है। सुबह जैसे कोई जाग जाता--रात समाप्त, सपने समाप्त, सब समाप्त। जागे हुए आदमी को सपनों से कुछ लेना-देना नहीं रह जाता।

इसलिए जब पहली बार भारत के ग्रंथ पश्चिम में अनुवादित हुए, तो उन्होंने कहा, ये ग्रंथ तो अनैतिक मालूम होते हैं। जीसस ने कहा, सीक यी फर्स्ट दि किंगडम आफ गॉड एंड आल एल्स शैल बी एडेड अनटु यू। जीसस ने कहा कि सिर्फ प्रभु के राज्य को खोज लो और शेष सब तुम्हें मिल जाएगा। वही जो कृष्ण कह रहे हैं कि सिर्फ प्रकाश की किरण को खोज लो और शेष सब, जो तुम छोड़ना चाहते हो, छूट जाएगा; जो तुम पाना चाहते हो, मिल जाएगा।

भारतीय चिंतन  अनैतिक नहीं है, अतिनैतिक  है, नीति के पार जाता है। यह वक्तव्य अतिनैतिक है। यह नीति-अनीति के पार चला जाता है, पुण्य-पाप के पार चला जाता है।

हरिओम सिगंल 

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

गीता दर्शन अध्याय 4 भाग 34

 मोह का टूटना


यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।

येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि।। 35।।

यत् जिसे; ज्ञात्वा जानकर न कभी नहीं पुनः- फिर; मोहम्-मोह को एवम् - इस प्रकार; यास्यसि प्राप्त होगे; पाण्डव- हे पाण्डवपुत्र; येन- जिससे; भूतानि जीवों को अशेषेण-समस्त; द्रक्ष्यसि - देखोगे; आत्मनि-परमात्मा में; अथ उ- अथवा अन्य शब्दों में, मयि मुझमें।


कि जिसको जानकर तू फिर इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगा; और हे अर्जुन, जिस ज्ञान के द्वारा सर्वव्यापी अनंत चेतनरूप हुआ अपने अंतर्गत समष्टि बुद्धि के आधार संपूर्ण भूतों को देखेगा और उसके उपरांत मेरे में अर्थात सच्चिदानंद स्वरूप में एकीभाव हुआ सच्चिदानंदमय ही देखेगा।


ज्ञान का पहला आघात मोह पर होता है। ज्ञान की पहली चोट ममत्व पर होती है। या उलटा कहें, तो ममत्व के विदा होते ही ज्ञान की किरण, पहली किरण, फूटती है। मोह के नाश होते ही ज्ञान के सूर्य का उदय होता है। ये दोनों घटनाएं युगपत हैं, साइमल्टेनियस हैं। इसलिए दोनों तरह से कहा जा सकता है, प्रकाश के फूटते ही अंधकार विलीन हो जाता, या ऐसा कहें कि जहां अंधकार विलीन हुआ, हम जानते हैं कि प्रकाश फूट गया है।

कृष्ण कहते हैं, सम्यक विनम्रता से पूछे गए प्रश्न के उत्तर में ज्ञानीजन से जो उपलब्ध होता, उससे मोह-नाश होता है अर्जुन।

मोह-नाश का क्या अर्थ है? मोह क्या है?


पहला मोह तो यह है कि मैं रहूं। गहरा मोह यह है कि मैं रहूं। जीवन की अभीप्सा; जीता रहूं; कैसे भी सही, जीऊं जरूर, रहूं जरूर; मिट न जाऊं--लस्ट फार लाइफ; जिजीविषा।

जीने का मोह पहला और गहरा मोह है। शेष सब मोह उसके आस-पास निर्मित होते हैं। यदि कोई मकान को मोह करता, तो मकान को कोई मोह नहीं करता। मकान का मोह--मैं रह सकूं ठीक से, मैं बच सकूं ठीक से, सरवाइव कर सकूं--उसी मोह का विस्तार है। कोई धन को मोह करता। धन का मोह अपने में व्यर्थ है। अपने में उसकी कोई जड़ नहीं। उसकी रूट्स, उसकी जड़ उस मैं के बचाए रखने में ही है। धन न होगा, तो बचूंगा कैसे? धन होगा, तो बचने की चेष्टा कर सकता हूं।

अगर और संक्षिप्त में कहें, तो मोह मृत्यु के विरुद्ध संघर्ष है। पति पत्नी को मोह करता; पत्नी पति को मोह करती; बाप बेटे को मोह करता, बेटा बाप को मोह करता। वे सब  बचने के उपाय हैं। मिट न जाऊं, बचूं सदा--जीने की ऐसी जो आकांक्षा है, वह मोह का गहरा रूप है। फिर बाकी सब आकांक्षाएं मोह की इसी आकांक्षा से पैदा होती हैं।

कभी-कभी हैरानी होती है। राह पर देखकर कभी अंधे, लंगड़े, लूले, भिखारी को, मन में सवाल उठा होगा, किसलिए जीना चाहता है? अंग-अंग गल गए हैं! किसलिए जीना चाहता है? कभी सवाल उठा होगा। उसी लिए, जिस लिए हम जीना चाहते हैं। अंग गल जाएं, लेकिन जीने का मोह नहीं गलता। आंखें चली जाएं, पैर टूट जाएं, आदमी सड़ता हो, फिर भी जीने का मोह नहीं पिघलता!

कई बार लगता है कि बूढ़े कहते हुए सुनाई पड़ते हैं कि अब तो परमात्मा उठा ही ले। तो आप यह मत समझना कि वे सच ही उठ जाने को तैयार हैं। अगर आप सब मिलकर कोशिश करने लगें कि ठीक; उठवाए देते हैं! तब आपको पता चलेगा कि वे जब यह कह रहे हैं कि अब तो परमात्मा उठा ही ले, तो वे सिर्फ एक शिकायत कर रहे हैं कि इस तरह जिंदा रखने में कोई मजा नहीं; और तरह जिंदा रखे। गहरे में मरने की आकांक्षा उनकी भी नहीं है।


यह खयाल रख लें, अगर परमात्मा हमारी सारी प्रार्थनाएं सुन ले, तो हम प्रार्थना करना सदा के लिए बंद कर दें। नहीं सुनता है, इसलिए किए चले जाते हैं। शायद इसीलिए नहीं सुनता है, क्योंकि हम अपने ही खिलाफ प्रार्थनाएं किए चले जाते हैं। क्योंकि पूरी कर दे, तो हम फिर भी शिकायत करेंगे कि तूने पूरी क्यों कर दी? हमारा यह मतलब थोड़े ही था! जब एक आदमी कहता है, हे प्रभु, अब तो उठा लो! तो उसका मतलब यह नहीं है कि उठा लो। उसका मतलब है, इस भांति जिंदा मत रखो, ढंग से जिंदा रखो! सांकेतिक भाषा में बोल रहा है।

कोई मरना नहीं चाहता।

आप कहेंगे, कुछ लोग आत्मघात कर लेते हैं। निश्चित कर लेते हैं। लेकिन कभी आपने खयाल किया कि आत्मघात कौन लोग करते हैं! वे ही लोग, जिनका जीवन का मोह बहुत गहन होता है। यह बहुत उलटी बात मालूम पड़ेगी।

एक आदमी किसी स्त्री को प्रेम करता है और वह स्त्री इनकार कर देती है, वह आत्महत्या कर लेता है। वह असल में यह कह रहा था कि जीऊंगा इस शर्त के साथ, यह स्त्री मिले; यह कंडीशन है मेरे जीने की। और अगर ऐसा जीना मुझे नहीं मिलता--उसका जीने का मोह इतना सघन है--कि अगर ऐसा जीवन मुझे नहीं मिलता, तो वह मर जाता है। वह मर रहा है सिर्फ जीवन के अतिमोह के कारण। कोई मरता नहीं है।

एक आदमी कहता है, महल रहेगा, धन रहेगा, इज्जत रहेगी, तो जीऊंगा; नहीं तो मर जाऊंगा। वह मरकर यह नहीं कह रहा है कि मृत्यु मुझे पसंद है। वह यह कह रहा है कि जैसा जीवन था, वह मुझे नापसंद था। जैसा जीना चाहता था, वैसे जीने की आकांक्षा मेरी पूरी नहीं हो पाती थी। वह मृत्यु को स्वीकार कर रहा है, ईश्वर के प्रति एक गहरी शिकायत की तरह। वह कह रहा है, सम्हालो अपना जीवन; मैं तो और गहन जीवन चाहता था। और भी, जैसी मेरी आकांक्षा थी, वैसा।

एक व्यक्ति किसी स्त्री को प्रेम करता है, वह मर जाती है। वह दूसरी स्त्री से विवाह करके जीने लगता है। इसका जीवन के प्रति ऐसी गहन शर्त नहीं है, जैसी उस आदमी की, जो मर जाता है।

जिनकी जीवन की गहन शर्तें हैं, वे कभी-कभी आत्महत्या करते हुए देखे जाते हैं। और कई बार आत्महत्या इसलिए भी आदमी करता देखा जाता है कि शायद मरने के बाद इससे बेहतर जीवन मिल जाए। वह भी जीवन की आकांक्षा है। वह भी बेहतर जीवन की खोज है। वह भी मृत्यु की आकांक्षा नहीं है। वह इस आशा में की गई घटना है कि शायद इस जीवन से बेहतर जीवन मिल जाए। अगर बेहतर जीवन मिलता हो, तो आदमी मरने को भी तैयार है। मृत्यु के प्रति उन्मुखता नहीं है; हो नहीं सकती। जीवन का मोह है।

जीवन के इस मोह की फिर बहुत शाखाएं फैल जाती हैं। वे सभी चीजें, जो जीने में सहयोगी होती हैं, महत्वपूर्ण बन जाती हैं। इसलिए धन इतना महत्वपूर्ण है। लोग कहते हैं कि धन में कुछ भी नहीं रखा। गलत कहते हैं। मोह का प्राण है वहां। मोह की आत्मा धन में बसती है।

इतना धन क्यों महत्वपूर्ण हो गया है? क्या लोग पागल हैं? नहीं; लोग पागल नहीं हैं। धन के बिना जीना बहुत कठिन है। जीने की आकांक्षा जितनी प्रबल है, धन पर पकड़ भी उतनी ही प्रबल होती है। धन पर प्रबल पकड़ सिर्फ जीने की प्रबल पकड़ की सूचना देती है।

अगर महावीर या बुद्ध जैसे लोग सब धन छोड़कर चले जाते हैं, तो धन छोड़कर नहीं जाते हैं। अगर गहरे में देखें, तो जीवन का जो आग्रह है, वह छूटने की वजह से धन छूट जाता है। धन को करेंगे भी क्या बचाकर? कल हुआ जीवन, तो ठीक है; न हुआ, तो ठीक है। नहीं हुआ तो उतना ही ठीक है, जितना हुआ तो ठीक है।


ध्यान रखें, भय भी तो यही है कि मिट न जाएं। मोह यह है कि बचाएं अपने को; भय यह है कि मिट न जाएं। इसलिए भय मोह के सिक्के का दूसरा हिस्सा है। जो आदमी निर्भय होना चाहता है, वह अमोही हुए बिना नहीं हो सकता। अभय अमोह के साथ ही आता है।


कृष्ण कहते हैं, ज्ञान की धारा जब बहती, तो सबसे पहले मोह को नष्ट करती है अर्जुन। मोह को इसलिए नष्ट करती है कि मोह अज्ञान है।

अज्ञान को अगर हम समझें, तो कहें, अव्यक्त मोह है। और मोह को अगर ठीक समझें, तो कहें, व्यक्त अज्ञान है। जब अज्ञान व्यक्त होता, तब मोह की तरह फैलता है--व्यक्त अज्ञान, मैनीफेस्टेड इग्नोरेंस। जब तक भीतर छिपा रहता अज्ञान, तब तक ठीक; जब वह फूटता और फैलता हमारे चारों तरफ, तब मोह का वर्तुल बनता है। फिर मेरे मित्र, प्रियजन, पति, पत्नी, पिता, पुत्र, मकान, धन, दौलत--फैलता चला जाता है।

और मोह के फैलाव का कोई अंत नहीं है। इनफिनिट है उसका विस्तार। अनंत फैल सकता है। चांदत्तारे भी मिल जाएं, तो तृप्त नहीं होगा। और आगे भी चांदत्तारे हैं, वहां भी फैलना चाहेगा।

क्यों? इतना अनंत क्यों फैलना चाहता है मोह? इसलिए फैलना चाहता है कि जहां तक मोह नहीं फैल पाता, वहीं से भय की संभावना है। जो मेरा नहीं है, उसी से डर है। इसलिए सभी को मेरे बना लेना चाहता है। जो मकान मेरा नहीं है, वहीं से खतरा है। जो जमीन मेरी नहीं है, वहीं से शत्रुता है। जो चांदत्तारा मेरा नहीं है, वहीं से मौत आएगी। तो जहां तक मेरे का फैलाव है, वहां तक मैं सम्राट हो जाता हूं; उसके बाहर मैं फिर भी भिखारी हूं। इसलिए मेरे को फैलाता चला जाता है आदमी।


मोह दुख के अतिरिक्त और कहीं ले जाता नहीं। अब ऐसा समझें, अज्ञान छिपा हुआ मोह है। अज्ञान प्रकट होता है, तो मोह बनता है। मोह सफल होता है, तो दुख बनता है; असफल होता है, तो दुख बनता है।


इसलिए कृष्ण कहते हैं कि ज्ञान की पहली धारा का जब आघात होता है, तो सबसे पहले मोह छूट जाता, टूट जाता, बिखर जाता। जैसे सूरज की किरणें आएं और बर्फ पिघलने लगे, ऐसे मोह का फ्रोजन बर्फ का पत्थर जो छाती पर रखा है, वह ज्ञान की पहली धारा से पिघलता शुरू होता है। और जब मोह पिघल जाता है, जब मोह मिट जाता है, तब व्यक्ति जानता है कि मैं जिसे बचा रहा था, वह तो था ही नहीं। जो नहीं था, उसको बचाने में लगा था, इसलिए परेशान था।

जो नहीं है, उसको बचाने में लगा हुआ आदमी परेशान होगा ही। जो है ही नहीं, उसे कोई बचाएगा कैसे? मैं हूं ही नहीं अलग और पृथक इस विश्व की सत्ता से। उसी को बचाने में लगा हूं। वही मेरी पीड़ा है।

एक लहर अपने को बचाने में लग जाए, फिर दिक्कत में पड़ेगी। क्योंकि लहर सागर से अलग कुछ है भी नहीं। उठी है, तो भी सागर के कारण है, तो भी सागर के कारण; मिटेगी, तो भी सागर के कारण। नहीं थी, तब भी सागर में थी; है, तब भी सागर में है; नहीं हो जाएगी, तब भी सागर में होगी।

लेकिन एक लहर अगर सोचने लगे कि मैं अलग हूं; बस, लहर आदमी हो गई! अब लहर वही सब करेगी, जो आदमी करेगा। अब लहर सब तरफ से अपने को बचाने की कोशिश करेगी। भयभीत होगी मिट न जा, डरेगी। इस डर की कोशिश में लहर क्या कर सकती है? फ्रोजन हो जाए, बर्फ बन जाए, तो बच सकती है। सिकुड़ जाए, मर जाए। क्योंकि लहर तभी तक जिंदा है, जब तक बर्फ नहीं बनी। सब तरफ से सिकुड़ जाए, सख्त हो जाए।

अहंकार फ्रोजन हो जाता है। अहंकार सिकुड़कर पत्थर का बर्फ बन जाता है। पानी नहीं रह जाता, तरल नहीं रह जाता, लिक्विड नहीं रह जाता, बहाव नहीं रह जाता।

अहंकार में बिलकुल बहाव नहीं होता है। प्रेम में बहाव होता है। इसलिए जब तक अहंकार होता है, तब तक प्रेम पैदा नहीं होता।

यह भी खयाल रख लें कि प्रेम और मोह बड़ी अलग बातें हैं। अलग ही नहीं, विपरीत। जिनके जीवन में मोह है, उनके जीवन में प्रेम पैदा नहीं होता। और जिनके जीवन में प्रेम है, वह तभी होता है, जब मोह नहीं होता। लेकिन हम प्रेम को मोह कहते रहते हैं।

असल में हम मोह को प्रेम कहकर बचाते रहते हैं। धोखा देने में हमारा कोई मुकाबला नहीं है! हम मोह को प्रेम कहते हैं। बाप बेटे से कहता है कि मैं तुझे प्रेम करता हूं। पत्नी पति से कहती है कि मैं तुझे प्रेम करती हूं। मोह है।


इसलिए उपनिषद कहते हैं कि सब अपने को प्रेम करते हैं सिर्फ। अपने को जो सहारा देता है बचने में, उसको भी प्रेम करते हुए मालूम पड़ते हैं। वह सिर्फ मोह है। प्रेम तो तभी हो सकता है, जब दूसरा भी अपना ही मालूम पड़े। प्रेम तो तभी हो सकता है, जब प्रभु का अनुभव हो, अन्यथा नहीं हो सकता है। प्रेम केवल वे ही कर सकते हैं, जो नहीं रहे। बड़ी उलटी बातें हैं।

जो नहीं बचे, वे ही प्रेम कर सकते हैं। जो हैं, बचे हैं, वे सिर्फ मोह ही कर सकते हैं। क्योंकि बचने के लिए मोह ही रास्ता है। प्रेम तो मिटने का रास्ता है। प्रेम तो पिघलना है। इसलिए प्रेम वह नहीं कर सकता, जिसको अपने को बचाना है।

इसलिए देखें, जितना आदमी जीवन को बचाने की चेष्टा में रत होगा, उतना प्रेम शून्य हो जाएगा। तिजोड़ी बड़ी होती जाएगी, प्रेम रिक्त होता जाएगा। मकान बड़ा होता जाएगा, प्रेम समाप्त होता जाएगा।

दीन-दरिद्र के पास प्रेम दिखाई भी पड़ जाए; समृद्ध के पास प्रेम की खबर भी नहीं मिलेगी। क्यों? क्या हो गया? असल में समृद्ध होने की जो तीव्र चेष्टा है, वह भी मैं को बचाने की है, मोह को बचाने की है। मोह जहां है, वहां प्रेम पैदा नहीं हो पाता।

कृष्ण कहते हैं, जब मोह पिघल जाता है अर्जुन, तो व्यक्ति मेरे साथ एकाकार हो जाता है; सच्चिदानंद से एक हो जाता है। फिर भेद नहीं रह जाता। भेद ही मोह का है। भेद ही, मैं हूं, इस घोषणा का है। अभेद, मैं नहीं हूं, तू ही है, इस घोषणा का है।

लेकिन यह घोषणा प्राणों से उठनी चाहिए, कंठ से नहीं। तू ही है, यह घोषणा प्राणों से आनी चाहिए, कंठ से नहीं। यह घोषणा हृदय से आनी चाहिए, मस्तिष्क से नहीं। यह घोषणा रोएं-रोएं से आनी चाहिए, खंड अस्तित्व से नहीं। उस क्षण में एकात्म फलित होता, अद्वैत फलित होता, दुई गिर जाती। परम हर्षोन्माद का क्षण है वह--परम हर्षोन्माद का, अल्टिमेट एक्सटैसी का। नाच उठता है फिर रोआं-रोआं; गीत गा उठते हैं फिर श्वास के कण-कण। लेकिन गीत--अनगाए, आदमी के ओंठों से अस्पर्शित, जूठे नहीं। नृत्य--अनजाना, अपरिचित; ताल-सुर नहीं, व्यवस्था संयोजन नहीं।


कृष्ण कहते हैं, ज्ञान की धारा में टूटा मोह और व्यक्ति परम में निमज्जित हो जाता है। वही है परम अभिप्राय जीवन का, होने का।

मोह है, हमारी अहंकार की कुचेष्टा। मोह है, अपने ही हाथों अपने ही आस-पास परकोटा बनाना। बंद करना अपने को, सूर्य के प्रकाश से। तोड़ना अपने को, जगत के अस्तित्व से। बनाना अंधा अपने को, प्रभु के प्रसाद से।

इसलिए कृष्ण ने पहले सूत्र में कहा, दंडवत करके, विनम्रता से, छोड़कर अपने को, जब कोई किसी ज्ञान की धारा के निकट झुकता है और धारा उसमें बह जाती है, तब उसके भीतर सब मोह हट जाता है, मोह का तम कट जाता है। उस प्रकाश के क्षण में वह अपने को मेरे साथ एक ही जान पाता है, अर्जुन!


(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल 

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...