शुक्रवार, 9 सितंबर 2022

बस की सीट


प्रेरक कहानी 

 महलों मे भी एक दिन कबूतर अपना घोंसला बना लेते है ...!

          

सेठ घनश्याम के दो पुत्रों में जायदाद और ज़मीन का बँटवारा चल रहा था और एक चार पट्टी के कमरे को लेकर विवाद गहराता जा रहा था , एक दिन दोनों भाई मरने मारने पर उतारू हो चले, तो पिताजी बहुत जोर से हँसे। 

पिताजी को हँसता देखकर दोनों भाई  लड़ाई को भूल गये और पिताजी से हँसी का कारण पूछा।  

 तो पिताजी ने कहा-- 

"इस छोटे से ज़मीन के टुकड़े के लिये इतना लड़ रहे हो, छोड़ो इसे, आओ मेरे साथ,एक अनमोल बेहद कीमती खजाना दिखाता हूँ मैं तुम्हें !आज वो खजाना हमारे पास क्यों नहीं है ! यह भी जानना तुम्हारे लिए बहुत जरूरी है!"

   पिता घनश्याम जी और दोनों पुत्र पवन और मदन उनके साथ रवाना हुये !

पिताजी ने कहा -

"देखो यदि तुम फिर से आपस में लड़े तो फिर मैं तुम्हे उस खजाने तक नहीं लेकर जाऊँगा और बीच रास्ते से ही लौटकर आ जाऊँगा ! 

 अब दोनो पुत्रों ने खजाने के चक्कर मे एक समझौता किया कि चाहे कुछ भी हो जाये, पर हम लड़ेंगे नहीं, प्रेम से यात्रा पे चलेंगे !

   गाँव जाने के लिये एक बस मिली, पर सीट दो की ही मिली, और वो तीन थे, अब पिताजी के साथ थोड़ी देर पवन बैठे तो थोड़ी देर मदन ऐसे चलते-चलते लगभग दस घण्टे का सफर तय किया फिर गाँव आया।      

घनश्याम दोनों पुत्रों को लेकर एक बहुत बड़ी हवेली पर गये  हवेली चारों तरफ से सुनसान थी। घनश्याम ने जब देखा कि  हवेली मे जगह-जगह कबूतरों ने अपना घोंसला बना रखा है तो घनश्याम वहीं पर बैठकर रोने लगे।    

दोनों पुत्रों ने पूछा -

"क्या हुआ पिताजी, आप रो क्यों रहे है ?"

तो रोते हुये उस वृद्ध पिता ने कहा -

"जरा ध्यान से देखो इस घर को, जरा याद करो वो बचपन, जो तुमने यहाँ बिताया था, तुम्हें याद है पुत्रों, इस हवेली के लिये मैंने अपने भाई से बहुत लड़ाई की थी,सो ये हवेली तो मुझे मिल गई, पर मैंने उस भाई को हमेशा के लिये खो दिया, क्योंकि वो दूर देश में जाकर बस गया और फिर वक्त बदला और एक दिन हमें भी ये हवेली छोड़कर जाना पड़ा ! अच्छा, तुम ये बताओ बेटा कि बस में जिस सीट पर हम बैठकर आये थे, क्या वो बस की सीट हमें मिल जायेगी ? और यदि मिल भी जाये तो क्या वो सीट हमेशा-हमेशा के लिये हमारी हो सकती है ? मतलब कि उस सीट पर हमारे सिवा कोई न बैठे !"

तो दोनों पुत्रों ने एक साथ कहा कि 

"ऐसा कैसे हो सकता है, बस की यात्रा तो चलती रहती है और उस सीट पर सवारियाँ बदलती रहती हैं !पहले कोई और बैठा था, आज हम बैठे ! फिर कोई और बैठा होगा और पता नहीं कल कोई और बैठेगा। और वैसे भी उस सीट में क्या धरा है, जो थोड़ी सी देर के लिये हमारी थी !"

  पिताजी फिर हँसे ! फिर रोये और फिर वो बोले -

"देखो यही तो मैं तुम्हे समझा रहा हूँ कि जो थोड़ी देर के लिये तुम्हारा है, तुमसे पहले उसका मालिक कोई और था ! बाद में पता नहीं कब कौन होगा? बस थोड़ी सी देर के लिये तुम हो और थोड़ी देर बाद कोई और हो जायेगा।बस बेटा, एक बात ध्यान रखना कि इस थोड़ी सी देर के लिये कहीं अनमोल रिश्तों की आहुति न दे देना, यदि कोई प्रलोभन आये तो इस घर की इस स्थिति को देख लेना कि अच्छे-अच्छे महलों में भी एक दिन कबूतर अपना घोंसला बना लेते है।बस बेटा, मुझे यही कहना था कि बस की उस सीट को याद कर लेना, जिसकी रोज सवारियां बदलती रहती हैं ! उस सीट की खातिर अनमोल रिश्तों की आहुति न दे देना, जिस तरह से बस की यात्रा में तालमेल बिठाया था, बस वैसे ही जीवन की यात्रा में भी तालमेल बिठा लेना !" 

 दोनों पुत्र पिताजी का अभिप्राय समझ गये, और पिता के चरणों में गिरकर रोने लगे !


शिक्षा :-


*मित्रों, जो कुछ भी ऐश्वर्य - सम्पदा हमारे पास है, वो सब कुछ बस थोड़ी देर के लिये ही है, थोड़ी-थोड़ी देर मे यात्री भी बदल जाते है और मालिक भी। रिश्ते बड़े अनमोल होते हैं ! छोटे से ऐश्वर्य या सम्पदा के चक्कर मे कहीं किसी अनमोल रिश्तें को न खो देना ....!*


 Mansi Dwivedi की प्रस्तुति !!*





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