मंगलवार, 12 जुलाई 2022

रावण गन्धर्वों की नगरी में

 विकल और व्यथित रावण कन्धे पर परशु रखे, खिन्न मन, वन-वन भटकता घूमता रहा - कामोन्मत्त-सा, मदगन्धमत्त गजेन्द्र-सा, जिसकी हथिनी मर गई हो। कभी वह प्रलाप करता, कभी लम्बी-लम्बी सांसें खींचता । कभी किसी शिला-खण्ड पर निश्चेष्ट पड़ा रहता, कभी किसी सागर-सरोवर के तट पर बैठ उसकी लहरें गिनता। भूख-प्यास का भी उसे ज्ञान न रहा । शरीर-विन्यास का उसे विचार न रहा। केवल मायावती की मोहिनी मूर्ति उसके नेत्रों में बसी थी। उसी को अपने प्राणों में लय किए, वह मत्त मातंग-सा राक्षसेन्द्र रावण, अपनी स्वर्ण-लंका, रक्ष-साम्राज्य और उदग्र बाहुबल को भी भूल गया।


घूमता भटकता वह गन्धर्वों के देश में जा पहुंचा।  यह प्रदेश सिन्धु नदी के दोनों ओर होने से अति रमणीय था। यहां पर मनोरम वनोद्यान देख वह हर्षित हुआ। उद्यान में अनेक जाति के वृक्ष लगे थे, जिनके सुवासित मारुत ने उसके जलते हुए हृदय को शीतल कर दिया। वहां के सुपुष्पित लतागुल्म और मनोरम निर्झरों को देख वह प्रहर्षित हुआ। वहीं उसने गन्धर्वों के राजा मित्रावसु को देखा। मित्रावसु के साथ उसकी पुत्री चित्रांगदा  थी। चित्रांगदा का रूप पार्वती के समान दिव्य था। उस नवल रूप-यौवन सम्पन्ना अनिन्द्य सुन्दरी गन्धर्व-बाला को देख रावण स्तम्भित रह गया। उसका रूप संसार के नेत्रों को आनन्द देने वाला था। मित्रावसु ने अर्ध-विक्षिप्तावस्था में रावण को उस अगम गन्धर्व-क्षेत्र में विचरण करते देख, उसके निकट आकर कहा-

 “तू कौन है आयुष्मान्, वीर गन्धर्वों के इस अगम क्षेत्र में कैसे निर्भय घूम रहा है? क्या तू आसन्न विपत्ति से सावधान है?"


रावण ने गन्धर्वो के राजा को और उनकी कन्या को देखकर खिन्न मन से कहा- 

“ मुझ विपन्न - विदग्ध, दुर्भाग्य- पीड़ित जन से आपका क्या प्रयोजन है? मनोरम स्थान समझ, हैममारुत से अपने विदग्ध प्राणों को शीतल करने यहां चला आया हूं। यह यदि अगम क्षेत्र है तो मैं अभी चला जाता हूं। आप रुष्ट न हों। विशेषकर इस सुन्दरी को तो मैं क्रुद्ध करना ही नहीं चाहता। मैं जाता हूं, आपका कल्याण हो !”


रावण के ऐसे वचन सुनकर मित्रावसु गन्धर्वराज ने हंसकर कहा-

 “तेरी वाणी दृढ़ है, दृष्टि में तेज है, अचल गात है, प्रलम्ब बाहु हैं, प्रशस्त ललाट है, विशाल वृक्ष है, क्षीण कटि है, तू निस्सन्देह श्रेष्ठ कुल का पुरुष है। परन्तु खिन्न है, यह तेरे भारी-भारी प्रश्वासों से मैंने जान लिया। मैं गन्धर्वों का राजा मित्रावसु गन्धर्व हूं और यह मेरी प्रिय पुत्री चित्रांगदा है। मैं तुझ पर प्रसन्न हूं। कह, मैं तेरा क्या प्रिय करूं?"

 रावण ने गन्धर्वो के राजा के ये वचन सुनकर कहा-

 "सुनकर संप्रहर्षित हुआ। मैं विश्रवा का पुत्र पौलस्त्य रावण हूं। लंका का अधीश्वर हूं। किन्तु आप ज्येष्ठ हैं, पूज्य  हैं। मैं आपका अभिवादन करता हूं, और आपकी पुत्री कमल नयनी, पुष्पलतिका-सी इस बाला का अभिनन्दन करता हूं।"

 “स्वस्ति, पौलस्त्य रावण, तेरा यश मैंने सुना है। तेरा शौर्य भी मुझे अविदित नहीं है, परन्तु तू क्लिन्न-क्लान्त क्यों है?"

 “भाग्यदोष से मैं प्रियजन - विछोह से दुखित हूं, मैं बड़ा भाग्यहीन हूं।”


“पौलस्त्य, इस गन्धर्व-लोक में तेरा स्वागत है। प्रसन्न हो ! यह मेरी प्राणाधिका पुत्री चित्रांगदा है। यह तेरा मनोरंजन करेगी। तेरे प्रियजन - विछोह से विदग्ध हृदय को आप्यायित करेगी। इसे मैं तुझे देता हूं। तू, समिधा ला, अग्न्याधान कर।'


रावण ने समिधा ला अग्न्याधान किया। गन्धर्व ने अग्नि की साक्षी में अपनी अनिन्द्य सुन्दरी कन्या रावण को प्रदान कर दी। कन्या रावण को देकर गन्धर्वराज चला गया। चित्रांगदा पुष्पभार से लदी लता-सी लज्जावगुण्ठिता रावण के पास खड़ी रही। रावण ने कहा- 

"कह कल्याणी, अब तेरा क्या प्रिय करूं?"

चित्रांगदा ने कहा-  

"हे नरशार्दूल, अब खिन्नता त्याग दीजिए। आपको किस प्रिय का विछोह हुआ, मुझसे कहिए और किस सेवा से आप संप्रहर्षित होंगे, यह बताइए ।” 

रावण ने कहा- 

“विचित्र संयोग है, प्रिय ! प्रत्येक दुःख की चिकित्सा है। अन्धकार के बाद प्रकाश है। निराशा के बाद आशा है। मैं तो तेरे दर्शनों ही से सम्पन्न हो गया। तेरे सान्निध्य का सुख अवर्णनीय है।"

 “वह सामने एक सरोवर है। चलिए, वहां आप विश्राम करें। वहीं मेरी सखियां भी हैं। आपको अर्घ्य पाद्य से सत्कृत करेंगी।" 

रावण ने सरोवर-तट पर जाकर देखा – उसमें नीलमणि-सा स्वच्छ जल भरा है। बड़े-बड़े रक्तकमल खिल रहे हैं, उन पर भौर गुञ्जार रहे हैं। लता - पुष्षों से स्थान सुशोभित है। वह बाला एक लता-मण्डप में पुष्पों के एक बिछौने पर बैठ गई। उस समय उसकी ऐसी शोभा प्रतीत हुई मानो शरत् काल के मेघों पर विराजमान चन्द्रमा की कला हो । उसकी इस दिव्य सुषमा को देखकर रावण आश्चर्य और उत्कण्ठा से भौचक रह गया। इसी समय उसे प्रतीत हुआ कि मानो आकाश से उतरता हुआ तेजपुंज आ रहा है। उसने सुन्दरी चित्रांगदा से पूछा - 

"प्रिये, यह क्या चमत्कार है?"


चित्रांगदा ने कहा- 

“आर्यपुत्र, ये सब विद्याधरी, गन्धर्वी, अप्सराएं, नाग- कन्याएं मेरी सखियां हैं।” 

वे सब अपने हाथों में कोई ताजा कमल फूल, कोई गन्ध-पराग, कोई अंगराग, कोई वीणा-मृदंग षट्खंजरीक, कोई गोरोचन, कोई मयूरपुच्छ लिए वहां आ पहुंचीं। उस सजीव रूप- सागर को देख रावण विमूढ़ हो गया। उन सुन्दरियों के बीच घिरी हुई चित्रांगदा नक्षत्रों के बीच में चन्द्रकला के समान सुशोभित होने लगी। वह उत्फुल्ल शतदल कमल के समान प्रसन्नवदना, चलचंचल मकरन्द-लोलुप भ्रमरलोचना, हंसगामिनी, कमल-गन्धा चित्रांगदा गन्धर्वराज्य- कन्या, काम-संजीवनी-सी प्रतीत हो रही थी। उसके लहरों के समान मनोहर त्रिवलियुक्त मन्दोदर को देख रावण इस प्रकार चलायमान हो गया जैसे समुद्र चन्द्रकला को देख चलायमान हो जाता है। रावण अपने चारों ओर कपूर चन्दन तथा अगर के वृक्षों से आती हुई सुगन्ध से मत्त हो गया। उसने आनन्दातिरेक से विभोर होकर चित्रांगदा से पूछा - 

"प्रिये, इस मनोरम स्थान का नाम क्या है?" 

चित्रांगदाने कहा- 

“स्वामिन्, यह क्रमसर तीर्थ है। अब आप इस पुनीत सरोवर में स्नान कर अपना श्रम दूर कीजिए।”

 इतना कहकर उसने सखियों को संकेत किया। अब वे सब घेरकर रावण को सरोवर के तट पर ले गईं। उन दिव्यांगनाओं के साथ रावण ने यथेष्ट जल-विहार किया। फिर उन दिव्यांगनाओं ने रावण को नवीन वस्त्राभरण धारण कराए। प्रियतमा गन्धर्वनन्दिनी-सहित उसे दिव्यासन पर बैठाकर स्वर्णथालों में विविध प्रकार के स्वादिष्ट भुने मांस, मिष्टान्न, पकवान परोसे। सुगन्धित मसालेदार मद्य मणिकांचन पात्रों में भर भरकर पीने को दिया। रावण उन दिव्यांगनाओं के सान्निध्य में, उस मनोरम उपवन में, स्वादिष्ट उत्तम भोजन और सुगन्धित मद्य पाकर भूल गया असुरपुरी के अन्धकूप की वेदना और परम रूपवती मायावती को।


इसी प्रकार सेवा-सत्कार, स्नान- अर्चना, आहार-विहार से सब भांति तृप्त कर, रावण की सब क्लान्ति हरण कर चित्रांगदा उसे दिव्य कनकरथ में बैठाकर अपने मणिमहल में ले गई। वह मणिमहल भी बड़ा विचित्र था। उसमें अनेक गुप्त और मांगलिक भवन थे। सूर्य के समान तेजस्वी उसका प्रकाश था। उसमें इन्द्रनील और महानील मणियों की वेदियां रची थीं जिनमें सोने की सीढ़ियां बनी थीं। वेदियों में सोने की जालियां लगी थीं। उसका फर्श स्फटिक मणि का था, जिसके जोड़ों में हाथीदांत लगा था। सीधे, चिकने और बहुत ऊंचे अनेक मणिमय खम्भों से उसकी शोभा अकथनीय हो गई थी। छत में और दीवारों में मोती मूंगा - माणिक्य और चांदी-सोने का काम किया हुआ था। उसमें बहुमूल्य बिछौने बिछे थे। उस मणिमहल में अनगिनत दिव्यांगनाएं रंग-बिरंगे सुन्दर वस्त्र पहने अपनी रूप - छूटा से दिशाओं को आलोकित करतीं, कण्ठों में पुष्पहार पहने इधर-उधर अस्त-व्यस्त भाव से आ जा रही थीं। उनके तेज तथा उनके पहने हुए रत्नाभरणों के प्रकाश से वह मणिमहल जगमगा रहा था। ठौर-ठौर पर अनेक मोहक और अद्भुत पक्षी स्वर्ण-पिंजरों में टंगे थे।


उनके कलरव से मणिमहल मुखरित हो रहा था। धीरे-धीरे सन्ध्या का अतिक्रमण हुआ। रात्रि हुई। महल अनगिनत सुगन्धित तेलों के दीपों तथा रत्नदीपों से आलोकित हो उठा। सखियां चित्रांगदा और रावण को अब अपने शयनागार में ले गईं। वहां एक बहुत ऊंचा अद्भुत पलंग बिछा था, जिस पर बहुमूल्य कोमल वस्त्र बिछा था। उस पर चन्द्रमा के समान एक छत्र लगा था। चित्रांगदा पति के अंक में उस शय्या पर जा बैठी। दिव्यांगनाएं चन्दन और मयूरपुच्छ की पंखियां लेकर उनकी हवा करने लगीं। कुछ चरण- सेवा में आ लगीं; कुछ मरकत के पात्रों में सुवासित मद्य ढाल-ढालकर देने लगीं; कुछ स्वर्ण थालों में शूकर- हरिण और भैंसे का भूना मांस और विविध भोज्य पदार्थ ला- लाकर निवेदित करने लगीं। कुछ अंगराग, गन्ध-द्रव्य अंगों और वस्त्रों पर लगाने लगीं, कुछ केशर-कस्तूरी मिश्रित ताम्बूल अर्पण करने लगीं। कुछ ने कोमल तन्तुवाद्य संभाले, कुछ ने मधुर कंठ से आलाप लेना आरम्भ किया। कुछ मृदंग ले बैठीं। कुछ नृत्य करने लगीं। इस प्रकार रावण उस सुख सागर में जैसे खो गया। उसने विविध रास-रंग विहार किया। सब दिव्यांगनाओं ने चित्रांगदा की अनुमति पाकर स्वच्छन्द आहार पान किया। सुवासित मद्य पी-पीकर तथा भुने हुए स्वादिष्ट मांस खा-खाकर वे सब भी असंयत होने लगीं। वे परस्पर एक-दूसरे का आलिंगन करने, हंसने, चूमने और ठिठोलियां करने लगीं।

दिव्य गन्धर्व-कन्या चित्रांगदा के साथ रति-विलास कर श्रान्त श्रमित रावण सो गया। मदिरा से मत्त दिव्यांगनाएं भी उस केलि भवन में, जहां जिसे स्थान मिला, सो गईं। अर्धरात्रि अब व्यतीत हो रही थी। हास-विलास-क्रीड़ा और विहार से वे थक गई थीं। मदिरा के प्रभाव से बेसुध हो वे सब इधर-उधर सो गईं। वह केलि भवन उस समय शरत्कालीन आकाश की शोभा धारण कर रहा था। किसी स्त्री के केश खुलकर बिखर गए, किसी के फूलों के गजरे टूटकर गिर पड़े, किसी के आभूषण इधर-उधर बिखर गए । मद्यपान के प्रभाव और नृत्य की थकावट से चूर-चूर हो दिव्यांगनाएं अचेत सोई पड़ी थीं। बहुतों के वस्त्रादि उनके शरीर से पृथक् हो गए थे। बहुतों के कण्ठहार टूट-टूटकर भूमि पर बिखरे पड़े थे। कुछ सुन्दरियों के हार उनके स्तनों के बीच में पड़े उनकी सांस के साथ ऊपर-नीचे हो रहे थे। उनके मुंह से मदिरा की मंदिर गन्ध आ रही थी। अनेक प्रमदाएं मदिरा से मदोन्मत्त हो परस्पर आलिंगन कर एक-दूसरे से लिपटी पड़ी थीं। इस समय वे एक गुंथी हुई सुन्दर फूलों की माला-सी सज रही थीं। रात गल रही थी, सब कोई सो रहे थे। केवल कक्ष में सोने के आधारों पर रखे हुए मणिदीप ही उन सुन्दर रमणियों के रूप-सागर को देख रहे थे। इन दिव्यांगनाओं में कोई गोरी, कोई काली, कोई सांवली और कोई स्वर्णवर्णा थी। इन सुन्दरियों के कानों के हीरे के कुण्डलों की अमन्द आभा से वह कमरा ऐसा जगमग कर रहा था, मानो तारागण के प्रकाश से आकाश देदीप्यमान हो रहा हो। नशे की झोंक में वे गन्धर्व बालाएं जहां थीं, वहीं सो गई थीं। उनकी बगल में दोनों ओर अनेक वस्तुएं पड़ी थीं। मृदंगवाली मृदंग के साथ, वीणावाली वीणा को अंक में लिए और डिमडिम बजानेवाली डिमडिम के साथ सोई पड़ी थी।


राक्षसराज रावण सो रहा था। वह उस समय सघन घनश्याम जलधर की शोभा धारण किए हुए था। उसके शरीर पर सुगन्धित रक्तचन्दन का लेप हो रहा था। उसके मदरंजित निमीलित लाल नेत्र और विशाल भुजाएं, उस समय अत्यन्त शोभनीय प्रतीत हो रही थीं। पर्यंक पर फैली हुई उसकी भुजाएं, जिनमें स्वर्ण के भुजबंध बंधे थे, खड़े हुए क्रुद्ध भुजंग के समान दीख रही थीं। उसके स्कन्ध वृषभ के समान थे। उसकी सांस के साथ पान, पूग और मद्य की गन्ध आ रही थी उसका स्वर्ण मुकुट अपने स्थान से हट गया था। सोते हुए रावण के मुख पर उसके कर्ण-कुण्डल बड़े सुन्दर लग रहे थे। सोया हुआ रावण ऐसा प्रतीत होता था, जैसे गंगा में गजराज पड़ा सो रहा हो। रावण की बगल में ही चित्रांगदा सोई पड़ी थी। उसकी सुषमा निराली थी। उसके गौर वर्ण पर पुष्पाभरण अपूर्व शोभा विस्तार कर रहे थे। उसका लावण्य अपूर्व था। उसके अंग पर मकड़ी के जाले के समान महीन वस्त्र थे, जिनमें छन-छनकर उसका स्वर्णगात अपूर्व शोभा विस्तार कर रहा था। कमल की पंखुड़ी के समान उसके लाल अधर मन्द-मन्द हिल रहे थे। वह कोई सुख-स्वप्न देख रही थी ।   ऐसा प्रतीत होता था जैसे चन्द्रमा की चांदनी वहां सिमटी पड़ी हो।

आचार्य चतुरसेन शास्त्री 




सहगमन

 भूलुण्ठिता मायावती की उपेक्षा कर शम्बर रणक्षेत्र की ओर चल दिया था। जाने से पूर्व उसने मायावती से भेंट भी नहीं की। वह पुंश्चली थी। मानवती और भावकु मायावती पति की इस अवज्ञा, अपने पाप और रावण के अपराध से अभिभूत हो, चैतन्य आते ही मृत्यु की कामना करने लगी। शम्बर को वह प्यार करती थी। शम्बर ने भी माया को सदैव प्राणाधिक समझा था। उसके जीवन में यह प्रथम ही क्षण था जब उसकी अवज्ञा हुई अप्रतिष्ठा हुई। परन्तु वह जितना ही विचार करती, उसे अपना अपराध गुरुतर प्रतीत होता जाता था। उसने यह निर्णय किया कि वह पति से दण्ड की याचना करेगी, फिर अग्नि प्रवेश करेगी। उसने मौन धारण किया, आहार भी ग्रहण नहीं किया, श्रृंगार और विलास उसने त्याग दिया। वह समरांगण से पति के लौट आने की प्रतीक्षा करने लगी। सूखे मृणाल की भांति वह सुकुमारी मायावती मुरझाकर श्रीहीन हो गई। इसी समय उसे युद्धक्षेत्र से पति के निधन की दारुण सूचना मिली। मायावती सुनकर काठ हो गई। राजमहल क्रन्दन से भर गया। नगरी में विषाद छा गया। उस दिन नगरी में किसी ने दीप नहीं जलाया। किसी ने भोजन नहीं किया। उस दिन पौरवधुओं का श्रृंगार नहीं हुआ।


सम्राट् के शव को योद्धा रणांगण से ले आए। प्रतिमागृह में राजशव की प्रतिष्ठा हुई। शव का संस्कार कर, उसे अगरु कस्तूरी-चन्दन- गोरोचन से चर्चित कर श्वेत कौशेय से आच्छादित कर, , उसके चारों ओर सहस्र घृत के दीप जलाए गए। शोकपूर्ण वाद्य गर्भगृहों में बजने लगे। असुर पुरोहितों ने मन्त्रपाठ करना आरम्भ किया। बलि, अर्चना और अन्त्येष्टि के अन्य उपचार सम्पन्न होने लगे। मायावती ने असुरराज महिषी की गरिमा धारण की। अश्रुविमोचन नहीं किया। सहमरण को सन्नद्ध होकर चिता तैयार करने की आज्ञा दी। मज्जन किया, शृंगार किया, अंगराग लगाया और मंगलचिह्न अंग पर धारण किए। फिर वह पति के सिर को गोद में लेकर बैठ गई। अगरु और चन्दन की चिता रचकर तैयार की गई थी। घृत और कपूर स्थान-स्थान पर उसमें रख दिए गए थे। असुर-पुरोहित मन्त्रपाठ कर रहे थे, और असुर - प्रमुख बलि- पशु ला- लाकर डाल रहे थे।


अभी रावण अन्धकूप में बन्दी था। मायावती ने उसे बन्धनमुक्त करके अपने सम्मुख लाने की आज्ञा दी। सम्मुख आने पर मायावती ने कहा-

“राक्षसेन्द्र, अब तुम अपनी पुरी को लौट जाओ, मैं तुम्हें क्षमा करती हूं और तुमसे क्षमा-याचना करती हूं। क्षमा करती हूं तुम्हारे अपराध-अविनय- अनीति-आचरण के लिए और क्षमा-याचना करती हूं कि अतिथि और आत्मीय से मेरे पति ने विग्रह किया, इसलिए इस असुरपुरी में तथा असुरराज महालय में तुम्हारे लिए कुछ भी अदेय नहीं है। रत्न, मणि, माणिक्य, दासी, दास जो कुछ तुम्हें रुचे, ले जाओ। तुम मेरी छोटी बहन के पति हो, मुझे उसी के समान प्रिय हो, जाओ मेरा आशीर्वाद मन्दोदरी से कहना। और कहना - उसकी बहन ने उसके लिए सत्पथप्रदर्शित किया है।”


इतना कहकर मायावती मौन हो गई। उसने नेत्र बन्द कर लिए। रावण ने कहा—

“देवि, इस असुर्-निकेतन में यदि सत्य ही मेरे लिए कुछ भी अदेय नहीं है, तो तुम अपने ही को मुझे दे दो। इसके बदले में मेरा लंका का सम्पूर्ण साम्राज्य, मेरा यह अधम शरीर, मन-वचन-प्राण तुम्हारा है, तुम्हीं इसकी यथार्थ स्वामिनी हो। इस भयानक विचार को तुम त्याग दो। मुझ अनुगत दास पर प्रसन्न हो, अपने स्वर्णगात का यों दाह न करो। मैं मर्यादा के प्रतिकूल नहीं कह रहा हूं।"

 किन्तु माया ने उत्तर नहीं दिया। रावण ने आर्तभाव से कहा-

 “प्रसीदतु, प्रसीदतु !”

 उसने कातर हो दोनों हाथ पसार दिए ।


मायावती ने नेत्र खोले। उसने कहा- 

"हे विश्रवा मुनि के पुत्र, यह काम विकार का काल नहीं है। मैं जिस पुरुष की पत्नी हूं, उसी के साथ सहगमन करूंगी। जाओ तुम, आयुष्मान्, तुम्हारा कल्याण हो- शिवास्ते सन्तु पन्थानः !”

 माया ने दोनों हाथ आकाश में उठा दिए। रावण ने अश्रुविमोचन करते हुए कहा-

 “प्रसीदतु, प्रसीदतु!”


माया ने उसी भांति आंखें बन्द करके कहा- 

"माभूत्, माभूत् !” 

रावण श्रद्धा से झुक गया। उसने माया की तीन परिक्रमाएं कीं। फिर दीर्घ निःश्वास लेकर बोला- 

“तब जाता हूं देवि, देवों और मानवों के रक्त से बन्धुवर शम्बर का तर्पण करने।”


और वह चल दिया। आंखों में अन्धकार और हृदय में तूफान भरे, अज्ञात दिशा की ओर अपने भीषण कुठार को कन्धे पर धरे।


आचार्य चतुरसेन शास्त्री 




शम्बर – संग्राम


मायावती की ओर ध्यान देने का शम्बर को समय नहीं मिला। इसी समय चर ने उसे सूचना दी कि देवों और आर्यों की सेनाएं वैजयन्तीपुरी की सीमा लांघ चुकी हैं। गिरिव्रज में आ पहुंची हैं। शम्बर ने भी तत्क्षण ही असुरों को सन्नद्ध होने का संकेत किया। भेरी, मुरज और शंख बजने लगे। दुंदुभि धमक उठी। हाथी चिंघाड़ने लगे। घोड़े हिनहिनाने लगे। असुरवाहिनी बरसाती नदी के वेग के समान दुर्मद शत्रुओं का दर्प चूर्ण करने बढ़ चली। सिंहल के विराट हाथी पर छत्र- चंवर लगाकर असुर सम्राट् बैठा । वैजयन्तीपुरी और गिरिव्रज के बीच का मार्ग सेना से आपूर्यमाण हो गया। उसकी सेना में दस हजार रथ और साठ हजार योद्धा असुर थे। उसके मित्र, बान्धव और सेनापतियों में हृष्टरोमा, महाकाम, सिंहदंष्ट्र प्रकम्पन, तन्तुकच्छ, दुरारोह, सुभाय, वज्रपंजर, धूम्रकेतु, प्रमथन और विकटाक्ष अत्यन्त पराक्रमी थे। छत्तीस छत्रधारी राजा असुर सम्राट् के नीचे युद्ध करने जा रहे थे।


गिरिव्रज की उपत्यका में पांचालपति दिवोदास और महाकोशल स्वामी के राजसिंह आर्येन्द्र दशरथ अजेय की संयुक्त वीरवाहिनी शत्रु की प्रतीक्षा कर रही थी। दिवोदास की सेना में देव, नाग, गन्धर्व और आदित्य आदि सभी सुभट थे। सुबाहु, निर्घात, मुष्टिक, गोहर, प्रलंब, प्रमाथ, कटकपिगल आदि एक सहस्र अर्धरथ थे। अंकुटी, सोमिल, देवशर्मा, पितृ शर्मा, उग्रभट, महाभट, कुमारक, वीरस्वामी, सुराधर, भण्डीर, सिंहदत्त, क्रूरकर्मा, शबरक, हरदत्त, आदि अर्धसहस्र पूर्णरथ थे । यज्ञसेन, इन्द्रवर्मा, विरोचन, कुम्भीर, दर्पित, प्रकंपन आदि तीन सौ द्विरथ और बाहुंशाल, विशाख, प्रचण्ड आदि दो सौ त्रिरथ थे। प्रवीर, वीरवर्मा, अमराम, चंद्रदत्त, सिंहभट, व्याघ्रभट आदि एक सौ पंचरथ थे। उग्रवर्मा अकेला षड्ररथ था। राजा सहस्रायु का पुत्र शतानीक महारथों के यूथ का स्वामी था। इनके अतिरिक्त महारथों के यूथपति, अतिरथों के यूथपति, पूर्णरथों के यूथप अनेक थे। इन सब यूथपतियों के अधिपति अयोध्यानाथ दशरथ थे।


दोनों ही पक्षों के भट आमने-सामने हो युद्ध करने को विकल हो उठे। आर्यों के प्रधान सेनापति ने महाशुचि व्यूह का निर्माण किया। उस व्यूह के दक्षिण पाश्र्व पर साठ अतिरथ यूथप और वाम पाश्र्व में साठ पंचरथ यूथप अपने यूथ सहित आसीन हुए। मध्य में गज-सैन्य और केन्द्र में पांचालपति दिवोदास और उसकी देवसेना । अग्रभाग में दशरथ अपने दस सहस्र अतिरथों के साथ। शम्बर ने अपनी सेना का अर्धचन्द्र व्यूह रचा। उसके मध्य में गज-सैन्य के साथ वह स्वयं रहा।


व्यूहबद्ध होने के बाद ही दोनों सेनाओं में रणवाद्य बज उठे। देखते-ही-देखते दोनों ओर से शस्त्र चलने लगे। जय-जयकार का महाशब्द होने लगा। बाणों से आकाश छिप गया। शस्त्रों के परस्पर टकराने से आग निकलने लगी। हाथी, घोड़े और सुभट मर-मरकर गिरनेलगे। उनसे रुधिर की नदी बह चली, मृत वीरों के शरीर ग्राह-से तैरने लगे। कोई सुभट सुभट से द्वन्द्व करने लगा। किसी ने अर्धचन्द्र बाण से किसी का सिर काट लिया। किसी के मर्मस्थल में बाण घुस जाने से वह चीत्कार कर घूर्णित-सा भूमि पर गिर गया। देवों की विकट मार से विकल होकर असुर इधर-उधर भागने लगे। यह देख शम्बर ने बाणों की विकट वर्षा का दिवोदास के सारथी को मार दिया। उसके घोड़े भी मर गए। यह देख असुरों ने बड़ा भारी जयनाद दिया। इस पर दिवोदास रथ से कूदकर शम्बर के रथ पर चढ़ गया।


उसने उसका धनुष काट दिया तथा ध्वजा गिरा दी। यह देख बड़े-बड़े विकट असुरों ने पांचालपति को घेर लिया। विद्याधरों के राजा विकृतदंष्ट्र पंचरथ ने यह देखा तो वह समुद्र गर्जना की भांति महानाद करता हुआ असुरों के दल पर पिल पड़ा। गन्धर्वों का विकट विक्रम देख असुर भयभीत होकर भागने लगे। शम्बर ने यह देखा तो हुंकार भरकर अपना रथ उसी ओर बढ़ाया और प्रबल पराक्रम से उनके सारथी, ध्वजा, रथ तथा घोड़ों को मार कुण्डल समेत उसका सिर काट लिया।


महाराज दशरथ के साथ कैकेयी धनुष-बाण ले राजा के पृष्ठ की रक्षा कर रही थी। महाराज दशरथ अपने यूथपों को ललकारकर विकृतदंष्ट्र का बदला लेने आगे बढ़े। उनका क्रोध देख और प्रचण्ड बाण-वर्षा से व्याकुल हो असुर चीत्कार कर भागने लगे। कुछ बाणों से विद्ध हो-होकर मरने लगे। इस पर कंकट-अंकुरी, प्रचण्ड और कालकम्पन-इन चार असुर यूथपतियों ने बाण - वर्षा से दशरथ के रथ की धज्जियां उड़ा दीं। घोड़े मार डाले, चक्र तोड़ डाले। इस पर महाराज दशरथ रथ से कूदकर खड्ग और चक्र चलाने लगे। असुर यूथपतियों मैंने उन्हें चारों ओर से दबोच लिया। उनका अंग बाणों से बिंधकर छलनी हो गया। इस पर विकट साहसकर रानी कैकेयी ने एक हाथ में चक्र को संभालकर घायल राजा को रथ पर बैठाकर बाण-वर्षा करनी आरम्भ कर दी।

पांचालपति दिवोदास ने दूर से महाराज दशरथ का यह संकट देखा। वह अपने दस सहस्र अतिरथों को ललकारकर उधर बढ़ा। उसने विकट पराक्रम से दशरथ का मूर्च्छित शरीर अपने रथ पर डाल, उन्हें निरापद स्थान में भेज दिया। फिर वह दूसरे रथ पर आरूढ़ हुआ, जिसमें सोलह श्यामकर्ण घोड़े जुते थे। अब उसने कालचक्र धनुष पर विकट महास्त्र चढ़ाकर उसका प्रहार किया। यह महास्त्र असुर यूथपतियों को काट-काटकर ढेर करने लगा। इस समय तक हाथी, घोड़े और योद्धा इतने मर चुके थे कि चारों ओर रणस्थली में कबन्ध दीख पड़ते थे। इस प्रकार असुरों का मर्दन देख असुरराज शम्बर दिवोदास के रथ की ओर बढ़ा। उसका सूर्य के समान ज्वलन्त रथ अपनी सहस्रों घंटियों की रणत्कार से रण-निमन्त्रण देता हुआ-सा पांचालपति के सम्मुख आ खड़ा हुआ। अब दोनों महावीरों ने ऐसा विकट युद्ध किया कि असुर, देव, गन्धर्व, मनुष्य सब कोई हाथ रोककर उनका द्वन्द्व देखने लगे। देखते ही-देखते दोनों के रथों के सारथी मर गए। रथों की धज्जियां उड़ गईं और दोनों विरथ हो परस्पर खड्ग- युद्ध करने लगे। दोनों ने एक प्रहर प्रचण्ड युद्ध किया। उससे शरीर से रक्त की सहस्र धाराएं बह चलीं। इसी समय अवसर पाकर दिवोदास ने शम्बर का सिर काट लिया। सिर कटने पर भी दो मुहूर्त तक उसका कबन्ध लड़ा। असुर का कबन्ध गिरते ही देवों ने विजय- शंखध्वनि की । असुर भयभीत होकर रक्त के कीचड़ में लथपथ युद्ध भूमि से भाग चले। इसी समय सूर्य अस्ताचल को गए। पांचालपति दिवोदास विजय के नगाड़े बजाता हुआ पीछे लौटा।

आचार्य चतुरसेन शास्त्री 




मायावती भाग 2

 वज्र-गर्जना के समान शम्बर के शब्द दोनों के कानों में पड़े। असुरराज कह रहा था-

“अरे विश्रवा मुनि के पुत्र, तेरे शस्त्र कहां हैं, शस्त्र ले। तू कुलीन है, प्रजापति का वंशधर है, लोकपाल का भाई है। मैं तेरा निरस्त्र वध नहीं करूंगा।" 

असुर सम्राट् के ये वाक्य सुनते ही मायावती मूर्च्छित हो गई। रावण ने उसे छोड़ दिया। वह नीची आंखें करके शम्बर के आगे खड़ा हो गया।

शम्बर ने कहा- "शस्त्र ग्रहण कर रावण!"

"नहीं, आप मेरा निरस्त्र ही वध कीजिए।"

“यह मेरे कुल की मर्यादा नहीं।”

 “किन्तु मैं शस्त्र ग्रहण नहीं करूंगा।"

“तो मल्लयुद्ध कर।”

 शम्बर ने अपने हाथ का शूल दूर फेंक दिया। परन्तु रावण उसी भांति सिर नीचा किए खड़ा रहा। शम्बर ने कहा- 

“मैं विलम्ब और आज्ञा की अवज्ञा सहन नहीं कर सकता, रावण ।”


“मैं आपसे युद्ध नहीं करूंगा।"


“नहीं कैसे करेगा रे, लम्पट, परस्त्रीगामी, चोर !" 

असुर ने एक लात मारी। लात खाकर रावण भूमि पर जा गिरा। असुर ने कहा-

 "युद्ध कर!"


"नहीं, किन्तु तुम अब मेरा वध करो असुरराज।" 

"वध नहीं, पाद - प्रहार करूंगा।"

"पाद - प्रहार नहीं। अनुग्रह मांगता हूं, तुम मेरा वध करो।”


परन्तु असुर ने फिर रावण की छाती पर लात मारी। इस बार रावण लात खाकर गिरा नहीं। दो कदम पीछे हट गया। उसने कहा-

 "असुर शम्बर, अब बस करो। बहुत हुआ। दोष-निवारण हो गया। मैं तुम्हें क्षमा करता हूं, अब मुझे जाने दो।”


“तू ऐसा जघन्य अपराध करके जीवित जाएगा मेरी पुरी से !”

 “किन्तु मैंने तुम्हारा कोई अपराध ही नहीं किया।"


“अरे लम्पट, अपराध नहीं किया? तूने क्या मेरी पत्नी से बलात्कार की चेष्टा नहीं की?"


“स्त्री और पृथ्वी वीरभोग्या हैं फिर असुरों की स्त्रियों पर किसी का एकाधिकार नहीं, वे सभी के लिए हैं । " 

“किन्तु मेरी यह लात केवल तेरे लिए है।”

 असुर ने फिर रावण के वक्ष पर लात मारी। इस बार रावण ने असुर का पैर पकड़कर उसे अपने सिर के चारों ओर घुमाकर दूर फेंक दिया। शम्बर घूमते हुए चक्र की भांति एक धनुष दूर जा गिरा। इस बीच रावण ने अपना कुठार उठा लिया।


शम्बर भी उठकर शूल लेकर रावण पर झपटा। उसने भरपूर वेग से शूल रावण के ऊपर फेंका। शूल रावण के पाश्र्व में घुस गया। पर रावण ने परशु सिर पर घुमाकर असुर पर आघात किया । असुर घूमकर वार बचा गया, किन्तु वह घुटनों के बल गिर गया। रावण ने फिर परशु का प्रहार किया। असुर ने लेटकर प्रहार बचा, रावण के पैरों में घुस, उसे गिरा दिया। परशु हाथ से छूट गया। दोनों योद्धा परस्पर गुंथ गए। दोनों एक-दूसरे पर लात-मुक्कों का प्रहार करने लगे। दोनों एक-दूसरे को दलमल करने लगे। दोनों के शरीर और नाक-मुंह से रक्त झरने लगा। लड़ते-लड़ते ही दोनों योद्धा फिर खड़े हो गए। असुर ने विकराल खड्ग उठाया। रावण ने अपना परशु लिया। दोनों घात-प्रतिघात करने लगे। रावण प्रबल पराक्रम से भिड़ गया। अन्त में असुर ने खड्ग का रावण के सिर पर प्रहार किया। उस प्रहार से रावण का किरीट गिर गया और वह बेसुध होकर कटे वृक्ष की भांति धरती पर गिर गया। शम्बर ने उसके हाथ-पैर बांधकर अन्धकूप में डलवा दिया।


आचार्य चतुरसेन शास्त्री




मायावती

अपराह्न की मनोरम वेला में मायावती अन्तःपुर की मदनवाटिका के माधवी मण्डप में अकेली ही कुछ विचारमग्न-सी बैठी थी। आयु उसकी अभी अट्ठाईस ही वर्ष की थी, परन्तु अपनी आयु से वह बहुत कम दीख पड़ती थी। उसका रंग तप्त कांचन के समान देदीप्यमान था ही, उसकी भाव-भंगिमा भी बड़ी मोहक थी। उसका शरीर उठानदार था, कद कुछ लम्बा था। ऐसा प्रतीत होता था जैसे अंग से रक्त फूटकर बाहर निकलना चाहता है। लावण्य और स्वास्थ्य की कोमलता का उसके शरीर में कुछ ऐसा सामंजस्य था कि किसी भी तरह सुषमा का वर्णन नहीं किया जा सकता। उसके नेत्र काले और बड़े थे। कोये दूध जैसे सफेद थे । दृष्टि में कुछ ऐसी मादक भाव-भंगिमा थी कि जिससे उसकी आग्रही और अनुरागपूर्ण भावना का प्रकटीकरण होता था। केश उसके भौरे के समान, दो भागों में बंटे थे। उनमें बड़ी कारीगरी से मोती गूंथे गए थे। ध्यान से देखने पर उसकी बाकी भौंहें कुछ घनी प्रतीत होती थीं। कान छोटे, पतले और कोमल थे। शंख के समान कण्ठ, भरावदार उन्नत उरोज और छरहरी देह थी। उसकी देह की सुडौलता देखते ही बनती थी । वह ग्रीष्मकालीन बहुत ही महीन कौशेय शरीर पर धारण किए हुए थी, जिसमें से छन-छनकर उसके शरीर की लावण्य-छटा दुगुनी चौगुनी दीख पड़ रही थी। उसके छोटे-छोटे सुन्दर पैरों में पड़े सुनहरी उपानहों के लाल माणिक्य नेत्रों में चकाचौंध उत्पन्न कर रहे थे।


शम्बर एक प्रतापी पुरुष अवश्य था पर उसकी अवस्था पचास वर्ष से अधिक थी। वह राजकीय आवश्यकता और युद्धों से घिरा रहता था। यद्यपि वह प्रेमी, भावुक और स्वच्छ हृदय का पुरुष था; परन्तु सच्चे अर्थों में मायावती की मांग का वह पूरक न था। वह एक अच्छा पति था, पर मायावती की उद्दाम वासना पति के स्थान पर प्रेमी चाहती थी। इतने बड़े राज्य का अधिपति पचास वर्ष की ढलती आयु में प्रेमी नहीं हो सकता था। मायावती को कोई संतान भी नहीं हुई थी, इससे भी उसकी वह पिपासा भड़की हुई थी। फिर भी मायावती के चरित्र में कोई दोष न था । उसकी मानसिक भूख मन ही में थी। अपनी मर्यादा, चरित्र तथा दायित्व का उसे पूरा ज्ञान था।


रावण की अवस्था अभी लगभग मायावती के बराबर ही थी। कहना चाहिए, एकाध वर्ष कम ही थी। रावण निर्द्वन्द्व, हंसमुख, विनोदी, वीर और साहसी था। उल्लास और आकांक्षाओं से उसके रक्त की प्रत्येक बूंद भरपूर थी । माया को देखते ही रावण के नेत्रों में मद छा गया । माया उसकी साली-पत्नी की बड़ी बहन थी, अतः माया से वह न केवल खुलकर हास्य-विनोद ही करता, व्यंग्य-विनोद भी करने लगा। रावण के स्वभाव, विनय, स्वास्थ्य, सौन्दर्य और पौरुष-इन सब पर मायावती विमोहित हो गई। एक अज्ञात आकर्षण रावण के प्रति उसके मन में उत्पन्न हो गया। वह रावण को चाहने भी लगी और प्यार भी करने लगी।

माधवी-मण्डप में अकेली वह असुर सम्राज्ञी रावण ही के विचार में कुछ अनमनी सी बैठी थी। उसका मन परस्पर विरोधी भावों से आन्दोलित हो रहा था। उसके आग्रही स्वभाव और दुर्दमनीय इन्द्रिय-लालसा का नारी धर्मनीति से द्वन्द्व चल रहा था। उसका प्रेमी रमणी - हृदय परस्पर विरोधी आवेगों से अधीर हो रहा था । एकाध बार रावण से उसकी कुछ एकान्त वार्ता हुई थी। असुरराज शम्बर ने उसका आत्मीय की भांति अपने घर में स्वागत किया था और सम्राज्ञी से अपने बहनोई का सब भांति सत्कार कर उसे संतुष्ट रखने का बारंबार अनुरोध किया था। उस समय असुरराज पर देवों और आर्यों का एक अभियान होने वाला था। उसके लिए समूची असुरपुरी वैजयन्ती में भारी तैयारियां हो रही थीं। दूर-दूर के असुर भट सन्नद्ध होकर रणरंग मचाने वैजयन्ती में आ रहे थे । असुर सम्राट् इस बार शत्रु से कठिन मोर्चा लेने की भीषण तैयारियों में लगे थे। उसका प्रबल शत्रु देव मित्र पांचाल - नरेश दिवोदास था। यह एक निर्णायक युद्ध का सूत्रपात था, इसी से असुरराज इस युद्ध की ओर से बेखबर नहीं था। इसी से उसने अपने साढ़ू लंकापति रावण के आतिथ्य का भार अपनी पत्नी मायावती पर डाल दिया था। शम्बर मायावती को अत्यन्त प्रेम करता था । उन दिनों असुर, दैत्यों और दानवों की अपेक्षा संस्कृति में आर्यों से अधिक साम्य रखते थे। वे अपने को आर्यों ही की शाखा में मानते थे। इसी से विवाह मर्यादा उनमें आर्यों ही के समान थी। मायावती भी आर्य-ललना की भांति स्त्री-नीति तथा स्त्री- धर्म को समझती थी, यद्यपि आर्य-ललना होने से वह अपने अवरोध में स्वतन्त्र थी- बन्धनमुक्त थी। उन दिनों असुर महिलाएं आर्यपत्नियों से अधिक स्वाधीनता तथा समानता का उपभोग करती थीं।


मायावती जैसी आग्रही स्वभाव की थी, वैसी ही मानवती भी थी। जब वह अपनी गर्वीली चाल से हंसिनी अथवा हथिनी की भांति चलती थी, तब उसकी शोभा देखते ही बनती थी। इस समय अपने मन की चंचलता को छिपाने के लिए उसने सभी दासी-चेटियों को अलग कर दिया था। केवल एक दानवी किंकरी नंगी तलवार लिए लतागृह के द्वार पर पहरा दे रही थी। अपराह्न की सुनहरी धूप छन छनकर लता मण्डप में आ रही थी। इसी समय रावण भी उपवन में घूमता हुआ वहीं आ पहुंचा। किंकरी को नंगी तलवार लिए मण्डप के द्वार पर खड़ी देख उसने अनुमान किया कि अवश्य ही मायावती मण्डप में है। वह तेजी से कदम बढ़ाकर उसी ओर चला। किंकरी को देखकर उसने हंसकर कहा-

 “लता मण्डप में यदि स्वामिनी हैं तो उनकी सेवा में रावण का अभिवादन निवेदन कर दे। "


किंकरी ने जब मायावती को रावण की विज्ञप्ति की, तो उसकी बड़ी-बड़ी चमकीली आंखों में एक मद आ गया। उत्तेजना के मारे उसके उरोज उन्नत अवनत होने लगे। वह सम्भ्रम उठ खड़ी हुई। किंकरी पीछे हट चली गई। इसी समय रावण ने हंसते-हंसते मण्डप में प्रवेश करते हुए कहा- 

"देवी प्रसन्न हों, इस मंगलमयी सान्ध्य वेला में वनश्री की शोभा को आपने अपनी उपस्थिति से कैसा सजीव कर दिया है! ऐसा प्रतीत होता है कि इस माधवी लता से आवेष्टित मण्डप में छन-छनकर जो अस्तंगत मरीचिमाली की स्वर्णिम रश्मिराशि एकत्र हो गई है, उसे किसी जादूगर ने जैसे एकत्र कर मूर्त्त रूप दे दिया है।”

 "ओह, लंकेश्वर केवल वीर शिरोमणि ही नहीं हैं-चाटुकार भी वैसे ही हैं। इसी गुण ने शायद मन्दोदरी को मोह लिया है कि कभी वह अपने आत्मीयों को याद भी नहीं करती।”


“परन्तु आपकी आनन्द और श्रद्धा की मूर्ति तो उसी ने मेरे हृदय में अंकुरित की है। तभी तो आपके चरणों में श्रद्धांजलि अर्पण करने इतनी दूर आया हूं।" 

“जाइए, बातें न बनाइए। श्रद्धांजलि उन्हीं चरणों में अर्पित कीजिए जो नूपुरध्वनि से लंका के मणिमहालय को मुखरित करते हैं। अपात्र में दान करने से पुण्यक्षय होता है   ऐसा नीतिकारों का वचन है । "

“आपका वचन प्रमाण है । किन्तु अभयदान मिले तो कुछ निवेदन करूं!”

मायावती हंस दी। उसने हाथ उठाकर अभिनय-सा करते हुए कहा- "अभय, लंकाधिपति, आपको अभय!"

 “तो मुझे कहने दीजिए कि रावण लंकाधिपति नहीं, आपका दास है। उसे इन चरणों में श्रद्धांजलि अर्पित करने दीजिए।”

 हठात् रावण मायावती के सम्मुख घुटनों के बल बैठ गया। मायावती ने भयभीत होकर इधर-उधर देखा। उसका मुंह लज्जा से लाल हो गया। उसने कहा-

 “उठिए, यह आप क्या कर रहे हैं?"


“आराधना कर रहा हूं उस देवी की, जिसकी अप्रतिम छवि मेरे रक्त के प्रत्येक बिन्दु में व्याप्त हो गई है। क्षमा करो सुन्दरी, यह रावण आपका दास है।" 

इतना कहकर उसने उसके दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर होठों से लगा लिए।


हठात् रावण के इस आचरण से मायावती विचलित-विस्मित हो गई। वह भीत चकित हरिणी की भांति कांपने लगी। उसके मुंह से बात न निकली। एक अकथनीय आनन्द से वह विह्वल हो उठी, पर तुरन्त ही सावधान होकर उसने अपना हाथ खींच लिया और कहा- 

“यह क्या लंकेश्वर?” 

“स्वीकार करता हूं, मैंने अपराध किया है। किन्तु यह आपकी इस अतुलनीय रूप माधुरी का सत्कार है। इस दिव्य ज्योति की मानसी पूजा है। आप रुष्ट क्यों हो गईं?”


“रुष्ट नहीं हूं, परन्तु आप मर्यादा से बाहर आचरण कर रहे हैं।"

 “देवी प्रसन्न हों, निस्सन्देह अकिंचन आपकी कृपा के योग्य नहीं, पर इस दिव्य सौंदर्य की पूजा से तो आप मुझ दास को वंचित मत कीजिए।”

 “यह क्या आप व्यंग्य कर रहे हैं लंकेश?”

 मायावती ने अपनी प्रशंसा सुनकर असंयत होकर धड़कते हुए हृदय से कहा।


"नहीं देवी, मैं सच कह रहा हूं। मैं चाटुकारिता नहीं करता। मैं आप पर मुग्ध हूं, मेरा हृदय आप पर न्योछावर है।"


"यह तो आप मन्दोदरी के प्रति अन्याय कर रहे हैं। " 

“मन्दोदरी को निस्सन्देह मैं प्राणों से अधिक प्यार करता हूं, पर आपके दिव्य रूप की तो मैं पूजा करता हूं, परन्तु आपके क्रोध से भय खाता हूं।" 

मायावती के आग्रहशील हृदय में प्रवृत्ति की लहरें उमड़ने लगीं। उसने मन्द-मन्द मुस्कराकर कहा- 

“वीरध्वज लंकेश भी भय खाते हैं स्त्रियों से, यह तो लंकेश के लिए प्रशंसा की बात नहीं है।" 

रावण के नेत्रों की तृष्णा उभर आई, उसने कहा- 

“आह्, तब आप मुझ पर एकदम निर्दय नहीं हैं ।”

“यह आपने कैसे समझ लिया?"


“आपके इस चन्द्रच्छटा-सम उज्ज्वल हास से ।”

 “किन्तु मैं ऐसी अकृतज्ञ नहीं हूं कि आपकी स्तुति के लिए आपका आभार न मानूं।”


“यह तो मेरे अन्तःकरण की श्रद्धा है।"

 फिर एकाएक उत्तेजित होकर उसने कहा- 

“सच तो यह है कि मेरा मन तुम पर अनुरक्त है सुन्दरी! कहो, वह कौन बड़भागी है। जिसके लिए तुमने यह साज सजा है? वह कौन भाग्यवान् है जो तुम्हारे इन कमल-सी सुगन्ध वाले अधर-पल्लवों का चुम्बन करेगा? स्वर्णघट के समान तुम्हारे यह भरे हुए कठोर कुच आज किसके आलिंगन की प्रतीक्षा में हैं? प्रिये, आज तुम मुझे रति दो। मैं लंका का स्वामी, पौलस्त्य रावण काम पीड़ित हो तुमसे नम्रतापूर्वक रतिदान मांग रहा हूं। मैं जब से यहां आया हूं तेरी मनोहारी मूर्ति हृदय में रख, रात-दिन उसकी आराधना करता हूं।"

 इतना कहकर रावण अत्यन्त उदग्र भाव से दोनों हाथ फैलाकर मायावती को अपने आलिंगन में बांधने को आगे बढ़ा। उसका यह भाव देख और उसका अभिप्राय समझ मायावती थर-थर कांपने लगी। उसने कहा-

 “लंकेश, यह तुम क्या कह रहे हो? तुम मेरी छोटी भगिनी के पति, मेरे सम्बन्धी हो । मैं धर्म से तुम्हारी ज्येष्ठा हूं। सोचो तो, मेरे पति यह सुनेंगे तो क्या कहेंगे! तुम्हारे भाई कुबेर लोकपाल त्रिलोक में विख्यात हैं। तुम भी धर्माधर्म को समझते हो ऋषिकुमार हो। इसलिए ऐसा न करो। जो मेरा पति है, उसी के लिए मैं शृंगार करती हूं। मैं असुर कुल की स्त्री हूं-पत्नी हूं! तुम्हारी रक्ष-संस्कृति है, मेरे सत्त्व की तुम रक्षा करो। कहो वयं रक्षामः।”


रावण ने हंसकर कहा- 

“कहीं असुर-रमणियों के भी पति हुआ करते हैं? फिर यह एकान्त रति का नियम तो मानवों में है। इसलिए मेरी अभिलाषा तुम्हें पूर्ण करनी पड़ेगी । "

 इतना कहकर रावण ने झपटकर मायावती को अपने अंकपाश में दबोच लिया। मायावती बाज के पंजे में दबी हुई कबूतरी की भांति छटपटाने लगी। उसका श्रृंगार अस्तव्यस्त हो गया, वस्त्र फट गए। केश बिखर गए। वह केले के पत्ते के समान कांपने लगी। मायावती की दुर्दमनीय प्रवृत्ति भी तीव्र अभिलाषाग्नि से उद्दीप्त हो उठी। कांपते हुए मृदु मन्द स्वर में कहा-

 “नहीं, नहीं मत करो, ऐसा मत करो!”

 इस पर रावण ने उसे और भी कसकर अपनी बलिष्ठ भुजाओं में भर लिया और उसके होठों के निकट अपने उत्तप्त होंठ ले जाकर कहा- 

“प्रिये, तू मेरी आराध्या है!”

 उसने अपने अधर मायावती के अधरों से मिला दिए। मायावती भी आवेश में आ रावण के अंक में समा गई। वह भूल गई अपना स्त्री- धर्म, राजपद-मर्यादा, असुरराजमहिषी का गौरवमय पद। अपने पति असुरराज को वह भूल गई। कर्त्तव्याकर्त्तव्य को भूल गई । विश्व की सब बातों को भूल गई। उसने उन्मत्त हो, सब कुछ भूल, उस नायक के आलिंगन में अधखुले नेत्रों के साथ अपना शरीर अर्पित कर दिया।

आचार्य चतुरसेन शास्त्री 


 

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...