मंगलवार, 12 जुलाई 2022

रावण गन्धर्वों की नगरी में

 विकल और व्यथित रावण कन्धे पर परशु रखे, खिन्न मन, वन-वन भटकता घूमता रहा - कामोन्मत्त-सा, मदगन्धमत्त गजेन्द्र-सा, जिसकी हथिनी मर गई हो। कभी वह प्रलाप करता, कभी लम्बी-लम्बी सांसें खींचता । कभी किसी शिला-खण्ड पर निश्चेष्ट पड़ा रहता, कभी किसी सागर-सरोवर के तट पर बैठ उसकी लहरें गिनता। भूख-प्यास का भी उसे ज्ञान न रहा । शरीर-विन्यास का उसे विचार न रहा। केवल मायावती की मोहिनी मूर्ति उसके नेत्रों में बसी थी। उसी को अपने प्राणों में लय किए, वह मत्त मातंग-सा राक्षसेन्द्र रावण, अपनी स्वर्ण-लंका, रक्ष-साम्राज्य और उदग्र बाहुबल को भी भूल गया।


घूमता भटकता वह गन्धर्वों के देश में जा पहुंचा।  यह प्रदेश सिन्धु नदी के दोनों ओर होने से अति रमणीय था। यहां पर मनोरम वनोद्यान देख वह हर्षित हुआ। उद्यान में अनेक जाति के वृक्ष लगे थे, जिनके सुवासित मारुत ने उसके जलते हुए हृदय को शीतल कर दिया। वहां के सुपुष्पित लतागुल्म और मनोरम निर्झरों को देख वह प्रहर्षित हुआ। वहीं उसने गन्धर्वों के राजा मित्रावसु को देखा। मित्रावसु के साथ उसकी पुत्री चित्रांगदा  थी। चित्रांगदा का रूप पार्वती के समान दिव्य था। उस नवल रूप-यौवन सम्पन्ना अनिन्द्य सुन्दरी गन्धर्व-बाला को देख रावण स्तम्भित रह गया। उसका रूप संसार के नेत्रों को आनन्द देने वाला था। मित्रावसु ने अर्ध-विक्षिप्तावस्था में रावण को उस अगम गन्धर्व-क्षेत्र में विचरण करते देख, उसके निकट आकर कहा-

 “तू कौन है आयुष्मान्, वीर गन्धर्वों के इस अगम क्षेत्र में कैसे निर्भय घूम रहा है? क्या तू आसन्न विपत्ति से सावधान है?"


रावण ने गन्धर्वो के राजा को और उनकी कन्या को देखकर खिन्न मन से कहा- 

“ मुझ विपन्न - विदग्ध, दुर्भाग्य- पीड़ित जन से आपका क्या प्रयोजन है? मनोरम स्थान समझ, हैममारुत से अपने विदग्ध प्राणों को शीतल करने यहां चला आया हूं। यह यदि अगम क्षेत्र है तो मैं अभी चला जाता हूं। आप रुष्ट न हों। विशेषकर इस सुन्दरी को तो मैं क्रुद्ध करना ही नहीं चाहता। मैं जाता हूं, आपका कल्याण हो !”


रावण के ऐसे वचन सुनकर मित्रावसु गन्धर्वराज ने हंसकर कहा-

 “तेरी वाणी दृढ़ है, दृष्टि में तेज है, अचल गात है, प्रलम्ब बाहु हैं, प्रशस्त ललाट है, विशाल वृक्ष है, क्षीण कटि है, तू निस्सन्देह श्रेष्ठ कुल का पुरुष है। परन्तु खिन्न है, यह तेरे भारी-भारी प्रश्वासों से मैंने जान लिया। मैं गन्धर्वों का राजा मित्रावसु गन्धर्व हूं और यह मेरी प्रिय पुत्री चित्रांगदा है। मैं तुझ पर प्रसन्न हूं। कह, मैं तेरा क्या प्रिय करूं?"

 रावण ने गन्धर्वो के राजा के ये वचन सुनकर कहा-

 "सुनकर संप्रहर्षित हुआ। मैं विश्रवा का पुत्र पौलस्त्य रावण हूं। लंका का अधीश्वर हूं। किन्तु आप ज्येष्ठ हैं, पूज्य  हैं। मैं आपका अभिवादन करता हूं, और आपकी पुत्री कमल नयनी, पुष्पलतिका-सी इस बाला का अभिनन्दन करता हूं।"

 “स्वस्ति, पौलस्त्य रावण, तेरा यश मैंने सुना है। तेरा शौर्य भी मुझे अविदित नहीं है, परन्तु तू क्लिन्न-क्लान्त क्यों है?"

 “भाग्यदोष से मैं प्रियजन - विछोह से दुखित हूं, मैं बड़ा भाग्यहीन हूं।”


“पौलस्त्य, इस गन्धर्व-लोक में तेरा स्वागत है। प्रसन्न हो ! यह मेरी प्राणाधिका पुत्री चित्रांगदा है। यह तेरा मनोरंजन करेगी। तेरे प्रियजन - विछोह से विदग्ध हृदय को आप्यायित करेगी। इसे मैं तुझे देता हूं। तू, समिधा ला, अग्न्याधान कर।'


रावण ने समिधा ला अग्न्याधान किया। गन्धर्व ने अग्नि की साक्षी में अपनी अनिन्द्य सुन्दरी कन्या रावण को प्रदान कर दी। कन्या रावण को देकर गन्धर्वराज चला गया। चित्रांगदा पुष्पभार से लदी लता-सी लज्जावगुण्ठिता रावण के पास खड़ी रही। रावण ने कहा- 

"कह कल्याणी, अब तेरा क्या प्रिय करूं?"

चित्रांगदा ने कहा-  

"हे नरशार्दूल, अब खिन्नता त्याग दीजिए। आपको किस प्रिय का विछोह हुआ, मुझसे कहिए और किस सेवा से आप संप्रहर्षित होंगे, यह बताइए ।” 

रावण ने कहा- 

“विचित्र संयोग है, प्रिय ! प्रत्येक दुःख की चिकित्सा है। अन्धकार के बाद प्रकाश है। निराशा के बाद आशा है। मैं तो तेरे दर्शनों ही से सम्पन्न हो गया। तेरे सान्निध्य का सुख अवर्णनीय है।"

 “वह सामने एक सरोवर है। चलिए, वहां आप विश्राम करें। वहीं मेरी सखियां भी हैं। आपको अर्घ्य पाद्य से सत्कृत करेंगी।" 

रावण ने सरोवर-तट पर जाकर देखा – उसमें नीलमणि-सा स्वच्छ जल भरा है। बड़े-बड़े रक्तकमल खिल रहे हैं, उन पर भौर गुञ्जार रहे हैं। लता - पुष्षों से स्थान सुशोभित है। वह बाला एक लता-मण्डप में पुष्पों के एक बिछौने पर बैठ गई। उस समय उसकी ऐसी शोभा प्रतीत हुई मानो शरत् काल के मेघों पर विराजमान चन्द्रमा की कला हो । उसकी इस दिव्य सुषमा को देखकर रावण आश्चर्य और उत्कण्ठा से भौचक रह गया। इसी समय उसे प्रतीत हुआ कि मानो आकाश से उतरता हुआ तेजपुंज आ रहा है। उसने सुन्दरी चित्रांगदा से पूछा - 

"प्रिये, यह क्या चमत्कार है?"


चित्रांगदा ने कहा- 

“आर्यपुत्र, ये सब विद्याधरी, गन्धर्वी, अप्सराएं, नाग- कन्याएं मेरी सखियां हैं।” 

वे सब अपने हाथों में कोई ताजा कमल फूल, कोई गन्ध-पराग, कोई अंगराग, कोई वीणा-मृदंग षट्खंजरीक, कोई गोरोचन, कोई मयूरपुच्छ लिए वहां आ पहुंचीं। उस सजीव रूप- सागर को देख रावण विमूढ़ हो गया। उन सुन्दरियों के बीच घिरी हुई चित्रांगदा नक्षत्रों के बीच में चन्द्रकला के समान सुशोभित होने लगी। वह उत्फुल्ल शतदल कमल के समान प्रसन्नवदना, चलचंचल मकरन्द-लोलुप भ्रमरलोचना, हंसगामिनी, कमल-गन्धा चित्रांगदा गन्धर्वराज्य- कन्या, काम-संजीवनी-सी प्रतीत हो रही थी। उसके लहरों के समान मनोहर त्रिवलियुक्त मन्दोदर को देख रावण इस प्रकार चलायमान हो गया जैसे समुद्र चन्द्रकला को देख चलायमान हो जाता है। रावण अपने चारों ओर कपूर चन्दन तथा अगर के वृक्षों से आती हुई सुगन्ध से मत्त हो गया। उसने आनन्दातिरेक से विभोर होकर चित्रांगदा से पूछा - 

"प्रिये, इस मनोरम स्थान का नाम क्या है?" 

चित्रांगदाने कहा- 

“स्वामिन्, यह क्रमसर तीर्थ है। अब आप इस पुनीत सरोवर में स्नान कर अपना श्रम दूर कीजिए।”

 इतना कहकर उसने सखियों को संकेत किया। अब वे सब घेरकर रावण को सरोवर के तट पर ले गईं। उन दिव्यांगनाओं के साथ रावण ने यथेष्ट जल-विहार किया। फिर उन दिव्यांगनाओं ने रावण को नवीन वस्त्राभरण धारण कराए। प्रियतमा गन्धर्वनन्दिनी-सहित उसे दिव्यासन पर बैठाकर स्वर्णथालों में विविध प्रकार के स्वादिष्ट भुने मांस, मिष्टान्न, पकवान परोसे। सुगन्धित मसालेदार मद्य मणिकांचन पात्रों में भर भरकर पीने को दिया। रावण उन दिव्यांगनाओं के सान्निध्य में, उस मनोरम उपवन में, स्वादिष्ट उत्तम भोजन और सुगन्धित मद्य पाकर भूल गया असुरपुरी के अन्धकूप की वेदना और परम रूपवती मायावती को।


इसी प्रकार सेवा-सत्कार, स्नान- अर्चना, आहार-विहार से सब भांति तृप्त कर, रावण की सब क्लान्ति हरण कर चित्रांगदा उसे दिव्य कनकरथ में बैठाकर अपने मणिमहल में ले गई। वह मणिमहल भी बड़ा विचित्र था। उसमें अनेक गुप्त और मांगलिक भवन थे। सूर्य के समान तेजस्वी उसका प्रकाश था। उसमें इन्द्रनील और महानील मणियों की वेदियां रची थीं जिनमें सोने की सीढ़ियां बनी थीं। वेदियों में सोने की जालियां लगी थीं। उसका फर्श स्फटिक मणि का था, जिसके जोड़ों में हाथीदांत लगा था। सीधे, चिकने और बहुत ऊंचे अनेक मणिमय खम्भों से उसकी शोभा अकथनीय हो गई थी। छत में और दीवारों में मोती मूंगा - माणिक्य और चांदी-सोने का काम किया हुआ था। उसमें बहुमूल्य बिछौने बिछे थे। उस मणिमहल में अनगिनत दिव्यांगनाएं रंग-बिरंगे सुन्दर वस्त्र पहने अपनी रूप - छूटा से दिशाओं को आलोकित करतीं, कण्ठों में पुष्पहार पहने इधर-उधर अस्त-व्यस्त भाव से आ जा रही थीं। उनके तेज तथा उनके पहने हुए रत्नाभरणों के प्रकाश से वह मणिमहल जगमगा रहा था। ठौर-ठौर पर अनेक मोहक और अद्भुत पक्षी स्वर्ण-पिंजरों में टंगे थे।


उनके कलरव से मणिमहल मुखरित हो रहा था। धीरे-धीरे सन्ध्या का अतिक्रमण हुआ। रात्रि हुई। महल अनगिनत सुगन्धित तेलों के दीपों तथा रत्नदीपों से आलोकित हो उठा। सखियां चित्रांगदा और रावण को अब अपने शयनागार में ले गईं। वहां एक बहुत ऊंचा अद्भुत पलंग बिछा था, जिस पर बहुमूल्य कोमल वस्त्र बिछा था। उस पर चन्द्रमा के समान एक छत्र लगा था। चित्रांगदा पति के अंक में उस शय्या पर जा बैठी। दिव्यांगनाएं चन्दन और मयूरपुच्छ की पंखियां लेकर उनकी हवा करने लगीं। कुछ चरण- सेवा में आ लगीं; कुछ मरकत के पात्रों में सुवासित मद्य ढाल-ढालकर देने लगीं; कुछ स्वर्ण थालों में शूकर- हरिण और भैंसे का भूना मांस और विविध भोज्य पदार्थ ला- लाकर निवेदित करने लगीं। कुछ अंगराग, गन्ध-द्रव्य अंगों और वस्त्रों पर लगाने लगीं, कुछ केशर-कस्तूरी मिश्रित ताम्बूल अर्पण करने लगीं। कुछ ने कोमल तन्तुवाद्य संभाले, कुछ ने मधुर कंठ से आलाप लेना आरम्भ किया। कुछ मृदंग ले बैठीं। कुछ नृत्य करने लगीं। इस प्रकार रावण उस सुख सागर में जैसे खो गया। उसने विविध रास-रंग विहार किया। सब दिव्यांगनाओं ने चित्रांगदा की अनुमति पाकर स्वच्छन्द आहार पान किया। सुवासित मद्य पी-पीकर तथा भुने हुए स्वादिष्ट मांस खा-खाकर वे सब भी असंयत होने लगीं। वे परस्पर एक-दूसरे का आलिंगन करने, हंसने, चूमने और ठिठोलियां करने लगीं।

दिव्य गन्धर्व-कन्या चित्रांगदा के साथ रति-विलास कर श्रान्त श्रमित रावण सो गया। मदिरा से मत्त दिव्यांगनाएं भी उस केलि भवन में, जहां जिसे स्थान मिला, सो गईं। अर्धरात्रि अब व्यतीत हो रही थी। हास-विलास-क्रीड़ा और विहार से वे थक गई थीं। मदिरा के प्रभाव से बेसुध हो वे सब इधर-उधर सो गईं। वह केलि भवन उस समय शरत्कालीन आकाश की शोभा धारण कर रहा था। किसी स्त्री के केश खुलकर बिखर गए, किसी के फूलों के गजरे टूटकर गिर पड़े, किसी के आभूषण इधर-उधर बिखर गए । मद्यपान के प्रभाव और नृत्य की थकावट से चूर-चूर हो दिव्यांगनाएं अचेत सोई पड़ी थीं। बहुतों के वस्त्रादि उनके शरीर से पृथक् हो गए थे। बहुतों के कण्ठहार टूट-टूटकर भूमि पर बिखरे पड़े थे। कुछ सुन्दरियों के हार उनके स्तनों के बीच में पड़े उनकी सांस के साथ ऊपर-नीचे हो रहे थे। उनके मुंह से मदिरा की मंदिर गन्ध आ रही थी। अनेक प्रमदाएं मदिरा से मदोन्मत्त हो परस्पर आलिंगन कर एक-दूसरे से लिपटी पड़ी थीं। इस समय वे एक गुंथी हुई सुन्दर फूलों की माला-सी सज रही थीं। रात गल रही थी, सब कोई सो रहे थे। केवल कक्ष में सोने के आधारों पर रखे हुए मणिदीप ही उन सुन्दर रमणियों के रूप-सागर को देख रहे थे। इन दिव्यांगनाओं में कोई गोरी, कोई काली, कोई सांवली और कोई स्वर्णवर्णा थी। इन सुन्दरियों के कानों के हीरे के कुण्डलों की अमन्द आभा से वह कमरा ऐसा जगमग कर रहा था, मानो तारागण के प्रकाश से आकाश देदीप्यमान हो रहा हो। नशे की झोंक में वे गन्धर्व बालाएं जहां थीं, वहीं सो गई थीं। उनकी बगल में दोनों ओर अनेक वस्तुएं पड़ी थीं। मृदंगवाली मृदंग के साथ, वीणावाली वीणा को अंक में लिए और डिमडिम बजानेवाली डिमडिम के साथ सोई पड़ी थी।


राक्षसराज रावण सो रहा था। वह उस समय सघन घनश्याम जलधर की शोभा धारण किए हुए था। उसके शरीर पर सुगन्धित रक्तचन्दन का लेप हो रहा था। उसके मदरंजित निमीलित लाल नेत्र और विशाल भुजाएं, उस समय अत्यन्त शोभनीय प्रतीत हो रही थीं। पर्यंक पर फैली हुई उसकी भुजाएं, जिनमें स्वर्ण के भुजबंध बंधे थे, खड़े हुए क्रुद्ध भुजंग के समान दीख रही थीं। उसके स्कन्ध वृषभ के समान थे। उसकी सांस के साथ पान, पूग और मद्य की गन्ध आ रही थी उसका स्वर्ण मुकुट अपने स्थान से हट गया था। सोते हुए रावण के मुख पर उसके कर्ण-कुण्डल बड़े सुन्दर लग रहे थे। सोया हुआ रावण ऐसा प्रतीत होता था, जैसे गंगा में गजराज पड़ा सो रहा हो। रावण की बगल में ही चित्रांगदा सोई पड़ी थी। उसकी सुषमा निराली थी। उसके गौर वर्ण पर पुष्पाभरण अपूर्व शोभा विस्तार कर रहे थे। उसका लावण्य अपूर्व था। उसके अंग पर मकड़ी के जाले के समान महीन वस्त्र थे, जिनमें छन-छनकर उसका स्वर्णगात अपूर्व शोभा विस्तार कर रहा था। कमल की पंखुड़ी के समान उसके लाल अधर मन्द-मन्द हिल रहे थे। वह कोई सुख-स्वप्न देख रही थी ।   ऐसा प्रतीत होता था जैसे चन्द्रमा की चांदनी वहां सिमटी पड़ी हो।

आचार्य चतुरसेन शास्त्री 




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