मंगलवार, 12 जुलाई 2022

सहगमन

 भूलुण्ठिता मायावती की उपेक्षा कर शम्बर रणक्षेत्र की ओर चल दिया था। जाने से पूर्व उसने मायावती से भेंट भी नहीं की। वह पुंश्चली थी। मानवती और भावकु मायावती पति की इस अवज्ञा, अपने पाप और रावण के अपराध से अभिभूत हो, चैतन्य आते ही मृत्यु की कामना करने लगी। शम्बर को वह प्यार करती थी। शम्बर ने भी माया को सदैव प्राणाधिक समझा था। उसके जीवन में यह प्रथम ही क्षण था जब उसकी अवज्ञा हुई अप्रतिष्ठा हुई। परन्तु वह जितना ही विचार करती, उसे अपना अपराध गुरुतर प्रतीत होता जाता था। उसने यह निर्णय किया कि वह पति से दण्ड की याचना करेगी, फिर अग्नि प्रवेश करेगी। उसने मौन धारण किया, आहार भी ग्रहण नहीं किया, श्रृंगार और विलास उसने त्याग दिया। वह समरांगण से पति के लौट आने की प्रतीक्षा करने लगी। सूखे मृणाल की भांति वह सुकुमारी मायावती मुरझाकर श्रीहीन हो गई। इसी समय उसे युद्धक्षेत्र से पति के निधन की दारुण सूचना मिली। मायावती सुनकर काठ हो गई। राजमहल क्रन्दन से भर गया। नगरी में विषाद छा गया। उस दिन नगरी में किसी ने दीप नहीं जलाया। किसी ने भोजन नहीं किया। उस दिन पौरवधुओं का श्रृंगार नहीं हुआ।


सम्राट् के शव को योद्धा रणांगण से ले आए। प्रतिमागृह में राजशव की प्रतिष्ठा हुई। शव का संस्कार कर, उसे अगरु कस्तूरी-चन्दन- गोरोचन से चर्चित कर श्वेत कौशेय से आच्छादित कर, , उसके चारों ओर सहस्र घृत के दीप जलाए गए। शोकपूर्ण वाद्य गर्भगृहों में बजने लगे। असुर पुरोहितों ने मन्त्रपाठ करना आरम्भ किया। बलि, अर्चना और अन्त्येष्टि के अन्य उपचार सम्पन्न होने लगे। मायावती ने असुरराज महिषी की गरिमा धारण की। अश्रुविमोचन नहीं किया। सहमरण को सन्नद्ध होकर चिता तैयार करने की आज्ञा दी। मज्जन किया, शृंगार किया, अंगराग लगाया और मंगलचिह्न अंग पर धारण किए। फिर वह पति के सिर को गोद में लेकर बैठ गई। अगरु और चन्दन की चिता रचकर तैयार की गई थी। घृत और कपूर स्थान-स्थान पर उसमें रख दिए गए थे। असुर-पुरोहित मन्त्रपाठ कर रहे थे, और असुर - प्रमुख बलि- पशु ला- लाकर डाल रहे थे।


अभी रावण अन्धकूप में बन्दी था। मायावती ने उसे बन्धनमुक्त करके अपने सम्मुख लाने की आज्ञा दी। सम्मुख आने पर मायावती ने कहा-

“राक्षसेन्द्र, अब तुम अपनी पुरी को लौट जाओ, मैं तुम्हें क्षमा करती हूं और तुमसे क्षमा-याचना करती हूं। क्षमा करती हूं तुम्हारे अपराध-अविनय- अनीति-आचरण के लिए और क्षमा-याचना करती हूं कि अतिथि और आत्मीय से मेरे पति ने विग्रह किया, इसलिए इस असुरपुरी में तथा असुरराज महालय में तुम्हारे लिए कुछ भी अदेय नहीं है। रत्न, मणि, माणिक्य, दासी, दास जो कुछ तुम्हें रुचे, ले जाओ। तुम मेरी छोटी बहन के पति हो, मुझे उसी के समान प्रिय हो, जाओ मेरा आशीर्वाद मन्दोदरी से कहना। और कहना - उसकी बहन ने उसके लिए सत्पथप्रदर्शित किया है।”


इतना कहकर मायावती मौन हो गई। उसने नेत्र बन्द कर लिए। रावण ने कहा—

“देवि, इस असुर्-निकेतन में यदि सत्य ही मेरे लिए कुछ भी अदेय नहीं है, तो तुम अपने ही को मुझे दे दो। इसके बदले में मेरा लंका का सम्पूर्ण साम्राज्य, मेरा यह अधम शरीर, मन-वचन-प्राण तुम्हारा है, तुम्हीं इसकी यथार्थ स्वामिनी हो। इस भयानक विचार को तुम त्याग दो। मुझ अनुगत दास पर प्रसन्न हो, अपने स्वर्णगात का यों दाह न करो। मैं मर्यादा के प्रतिकूल नहीं कह रहा हूं।"

 किन्तु माया ने उत्तर नहीं दिया। रावण ने आर्तभाव से कहा-

 “प्रसीदतु, प्रसीदतु !”

 उसने कातर हो दोनों हाथ पसार दिए ।


मायावती ने नेत्र खोले। उसने कहा- 

"हे विश्रवा मुनि के पुत्र, यह काम विकार का काल नहीं है। मैं जिस पुरुष की पत्नी हूं, उसी के साथ सहगमन करूंगी। जाओ तुम, आयुष्मान्, तुम्हारा कल्याण हो- शिवास्ते सन्तु पन्थानः !”

 माया ने दोनों हाथ आकाश में उठा दिए। रावण ने अश्रुविमोचन करते हुए कहा-

 “प्रसीदतु, प्रसीदतु!”


माया ने उसी भांति आंखें बन्द करके कहा- 

"माभूत्, माभूत् !” 

रावण श्रद्धा से झुक गया। उसने माया की तीन परिक्रमाएं कीं। फिर दीर्घ निःश्वास लेकर बोला- 

“तब जाता हूं देवि, देवों और मानवों के रक्त से बन्धुवर शम्बर का तर्पण करने।”


और वह चल दिया। आंखों में अन्धकार और हृदय में तूफान भरे, अज्ञात दिशा की ओर अपने भीषण कुठार को कन्धे पर धरे।


आचार्य चतुरसेन शास्त्री 




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