गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 6 भाग 17

  

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।

यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति।। 20।।


और हे अर्जुन, जिस अवस्था में योग के अभ्यास से निरुद्ध हुआ चित्त उपराम हो जाता है और जिस अवस्था में परमेश्वर के ध्यान से शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा परमात्मा को साक्षात करता हुआ सच्चिदानंदघन परमात्मा में ही संतुष्ट होता है।

योग से उपराम हुआ चित्त!

इस सूत्र में, कैसे योग से चित्त उपराम हो जाता है और जब चित्त उपराम को उपलब्ध होता है, तो प्रभु में कैसी प्रतिष्ठा होती है, उसकी बात कही गई है।

चित्त के संबंध में दोत्तीन बातें स्मरणीय हैं।

एक, चित्त तब तक उपराम नहीं होता, जब तक चित्त का विषयों की ओर दौड़ना सुखद है, ऐसी भ्रांति हमें बनी रहती है। तब तक चित्त उपराम, तब तक चित्त विश्रांति को नहीं पहुंच सकता है। जब तक हमें यह खयाल बना हुआ है कि विषयों की ओर दौड़ता हुआ चित्त सुखद प्रतीतियों में ले जाएगा, तब तक स्वाभाविक है कि चित्त दौड़ता रहे।

चित्त के दौड़ने का नियम है। जहां सुख मालूम होता है, चित्त वहां दौड़ता है। जहां दुख मालूम होता है, चित्त वहां नहीं दौड़ता है। जहां भी सुख मालूम हो, चाहे भ्रांत ही सही, चित्त वहां दौड़ता है। जैसे पानी गङ्ढों की तरफ दौड़ता है, ऐसा चित्त सुख की तरफ दौड़ता है। दुख के पहाड़ों पर चित्त नहीं चढ़ता, सुख की झीलों की तरफ भागता है। चाहे वे झील कितनी ही मृग-मरीचिकाएं क्यों न हों; चाहे पहुंचकर झील पर पता चले कि वहां कुछ भी नहीं है--न झील है, न गङ्ढा है, न पानी है। लेकिन जहां भी चित्त को दिखाई पड़ता है सुख, चित्त वहीं दौड़ता है। चित्त की दौड़ सुखोन्मुख है।

और दौड़ जब तक है, तब तक चित्त विश्राम को उपलब्ध नहीं होता, तब तक तो वह श्रम में ही लगा रहता है। एक सुख से जैसे ही मुक्त हो पाता है--मुक्त होने का अर्थ? अर्थ यह नहीं कि एक सुख को जान लेता है। जैसे ही पता चलता है कि यह सुख सुख सिद्ध नहीं हुआ, मन तत्काल दूसरे सुखों की ओर दौड़ना शुरू कर देता है। दौड़ जारी रहती है। मन अगर जी सकता है, तो दौड़ने में ही जी सकता है। अगर गहरी बात कहनी हो, तो कह सकते हैं कि दौड़ का नाम ही मन है। चेतना की दौड़ती हुई स्थिति का नाम मन है और चेतना की उपराम स्थिति का नाम आत्मा है।

करीब-करीब चित्त की स्थिति वैसी है, जैसे साइकिल आप चलाते हैं रास्ते पर। जब तक पैडल चलाते हैं, साइकिल चलती है; पैडल बंद कर लेते हैं, थोड़ी ही देर में साइकिल रुक जाती है। साइकिल को चलाना जारी रखना हो, तो पैरों का चलते रहना जरूरी है। चित्त का चलना जारी रखना हो, तो सुखों की खोज जारी रखना जरूरी है। अगर एक क्षण को भी ऐसा लगा कि सुख कहीं भी नहीं है, तो चित्त विश्राम में आना शुरू हो जाता है।


जीवन दुख है, ऐसा साक्षात्कार न हो, तो चित्त उपराम में नहीं जा सकेगा। ऐसा साक्षात्कार हुआ, कि चित्त की दौड़ अपने से ही खो जाती है। उसको पैडल मिलने बंद हो जाते हैं। फिर आपके पैर उसे गति नहीं देते, ठहर जाते हैं। और चित्त चल नहीं सकता आपके बिना सहयोग के। आपके बिना कोआपरेशन के चित्त दौड़ नहीं सकता।

इसलिए आप ऐसा कभी मत कहना कि मैं क्या करूं! यह चित्त भटका रहा है। ऐसा कभी भूलकर मत कहना। क्योंकि आपके सहयोग के बिना चित्त भटका नहीं सकता। आपका सहयोग अनिवार्य है। आपका सहयोग टूटा कि चित्त की गति टूटी।

हां, थोड़ी देर मोमेंटम चल सकता है। साइकिल के पैडल बंद कर दिए, तो भी दस-बीस गज साइकिल चल सकती है। लेकिन बंद करते ही पैर साइकिल के प्राण छूटने शुरू हो जाएंगे। पुरानी गति से दस-बीस कदम चल सकती है; लेकिन वह चलना सिर्फ मरना ही होगा। साइकिल की गति मरती चली जाएगी।

जीवन दुख है, इसकी प्रतीति। पूछेंगे हम कि कैसे इसकी प्रतीति हो? बड़ा गलत सवाल पूछते हैं। इसकी प्रतीति प्रतिपल हो रही है। लेकिन उस प्रतीति से आप कभी कोई निर्णय नहीं लेते। प्रतीति की कोई कमी नहीं है। पूरा जीवन इसका ही अनुभव है कि जीवन दुख है, लेकिन निष्कर्ष नहीं लेते। और निष्कर्ष न लेने की तरकीब यह है कि अगर एक सुख दुख सिद्ध होता है, तो आप कभी ऐसा नहीं सोचते कि दूसरा सुख भी दुख सिद्ध होगा।

नहीं; दूसरे का मोह कायम रहता है। वह भी दुख सिद्ध हो जाता है, तो तीसरे पर मन सरक जाता है; और तीसरे का मोह कायम रहता है। हजार बार अनुभव हो, फिर भी निष्पत्ति हम नहीं ले पाते कि जीवन दुख है। हां, ऐसा लगता है कि एक सुख दुख सिद्ध हुआ, लेकिन समस्त सुख दुख सिद्ध हो गया है, ऐसी निष्पत्ति हम नहीं ले पाते।

यह निष्पत्ति कब लेंगे? हर जन्म में वही अनुभव होता है। पीछे जन्मों को छोड़ भी दें, तो एक ही जन्म में लाख बार अनुभव होता है। ऐसा मालूम पड़ता है कि मनुष्य निष्पत्तियां लेने वाला प्राणी नहीं है; वह कनक्लूजन लेता ही नहीं है! और निरंतर वही भूलें करता है, जो उसने कल की थीं। बल्कि कल की थीं, इसलिए आज और सुगमता से करता है। भूल से एक ही बात सीखता है, भूल को करने की कुशलता! भूल से कोई निष्पत्ति नहीं लेता, सिर्फ भूल को करने में और कुशल हो जाता है।

एक बार क्रोध किया; पीड़ा पाई, दुख पाया, नर्क निर्मित हुआ; उससे यह निष्कर्ष नहीं लेता कि क्रोध दुख है। न, उससे सिर्फ अभ्यास मजबूत होता है। कल क्रोध करने की कुशलता और बढ़ जाती है। कल फिर दुख, पीड़ा। तब एक नतीजा फिर ले सकता है कि क्रोध दुख है। वह नहीं लेता, बल्कि दुबारा क्रोध करने से दुख का जो आघात है, मन उसके लिए तैयार हो जाता है, और कम दुख मालूम पड़ता है। तीसरी बार और कम, चौथी बार और कम। धीरे-धीरे दुख का अभ्यासी हो जाता है। और यह अभ्यास इतना गहरा हो सकता है कि दुख की प्रतीति ही क्षीण हो जाए; मन की संवेदना ही क्षीण हो जाए।

अगर आप दुर्गंध के पास बैठे रहते हैं, बैठे रहते हैं--एक दफा, दो दफा, तीन दफा--धीरे-धीरे नाक की संवेदना क्षीण हो जाएगी, दुर्गंध की खबर देनी बंद हो जाएगी। अगर आप शोरगुल में जीते हैं, तो पहले खबर देगा मन कि बहुत शोरगुल है, बहुत उपद्रव है। फिर धीरे-धीरे-धीरे खबर देना बंद कर देगा, संवेदनशीलता कुंठित हो जाएगी। ऐसा भी हो सकता है कि फिर बिना शोरगुल के बैठना आपको मुश्किल हो जाए।

हम अपने मन से दो ही स्थितियां पैदा कर पाते हैं--अभ्यास गलत का। क्योंकि हम गलत करते हैं, उसका अभ्यास होता है। और दूसरा, कुशलता। और भी कुशल हो जाते हैं वही करने में। लेकिन जो निष्पत्ति लेनी चाहिए, वह हम कभी नहीं लेते।

योग का आधारभूत वही है कि जीवन दुख है। तभी चित्त उपराम होगा। यह तो पहली प्रतीति है कि जीवन दुख है।

दूसरी बात आपसे कहूं। जैसे ही आपको यह स्पष्ट हो जाएगा कि जीवन दुख है, आप जीवन के अतिक्रमण की चेष्टा में संलग्न हो जाएंगे। क्योंकि दुख के बीच कोई भी विश्राम को उपलब्ध नहीं हो सकता। अगर यह प्रतीत हो जाए कि पूरा जीवन दुख है, तो आप इस जीवन से छलांग लगाने की कोशिश में लग जाएंगे। क्योंकि दुख के साथ ठहर जाना असंभव है।

सुख के साथ हम ठहर सकते हैं, चाहे भ्रांत ही क्यों न हो। चाहे चेहरे पर ही क्यों न सिर्फ सुख मालूम पड़ता हो और भीतर सब दुख छिपा हो, लेकिन फिर भी हम रात ठहर सकते हैं, इस सुख को हम बिस्तर में सुला सकते हैं अपने साथ। चाहे चेहरा ही सुख का क्यों न हो, भीतर सब दुख ही क्यों न भरा हो, रात हम इस सुख के साथ सो सकते हैं। लेकिन अगर चौंककर रात में पता चल जाए कि दुख है, तो हम छलांग लगाकर बिस्तर के बाहर हो जाएंगे। दुख के साथ जीना असंभव है।

तो पहला आर्य-सत्य, बुद्ध कहते हैं, जीवन दुख है। दूसरा आर्य-सत्य, बुद्ध कहते हैं कि दुख से मुक्ति का उपाय है। जैसे ही प्रतीत हो, वैसे ही उपाय की खोज शुरू हो जाती है कि दुख से मुक्ति का उपाय क्या!

ध्यान रखें, हम सुख खोजते हैं, बुद्ध दुख से मुक्ति खोजते हैं। इन दोनों की दिशाएं बिलकुल अलग हैं।

सुख की खोज संसार है। दुख से मुक्ति की खोज योग है। सुख की खोज संसार है। दुख से मुक्ति की खोज, बहुत निगेटिव खोज है योग की। और संसारी की खोज बड़ी पाजिटिव मालूम पड़ती है। लगता है, हम सुख को खोज रहे हैं। योग कहता है, दुख से मुक्ति खोजी जा सकती है। और जब दुख से मुक्ति हो जाती है, तो जो शेष रह जाता है, वही आनंद है। क्योंकि वह स्वभाव है। सिर्फ व्यर्थ को हटा देना है, जो स्वभाव है, वह प्रकट हो जाएगा।

तो बुद्ध कहते हैं, दूसरा आर्य-सत्य भिक्षुओ, दुख से मुक्ति का उपाय है। लेकिन वह उपाय तुम्हारी समझ में तभी आएगा, जब दुख तुम्हारी प्रतीति, साक्षात्कार बन जाए।

सच तो यह है, प्रतीति से ही उपाय निकलता है। आपके घर में आग लग गई है, तो आप उपाय खोजते हैं घर के बाहर निकलने का? आप शास्त्र पढ़ते हैं, कि कोई किताब देखें, जिसमें घर में आग लगती हो, तो निकलने की विधियां लिखी हों? कि किसी गुरु के चरणों में जाएं और उससे पूछें कि घर में आग लगी है, निकलने का उपाय क्या है? कि भगवान से प्रार्थना करें कि घर में आग लगी है, घुटने टेककर भगवान से कहें कि हे प्रभु, रास्ता बता, घर में आग लगी है!

घर में अगर आग लगी है और इसकी प्रतीति हो गई। हां, प्रतीति न हो, तो बात अलग है। तब, लगी न लगी बराबर है। घर में आग लगी है, इसकी प्रतीति उपाय बन जाती है। आप छलांग लगाकर बाहर हो जाएंगे। खिड़की से कूद सकते हैं, दरवाजे से निकल सकते हैं, छत से कूद सकते हैं। यह प्रतीति उपाय खोज लेगी। जैसे ही यह प्रतीति हुई कि घर में आग लगी है, आपकी पूरी चेतना संलग्न हो जाएगी और उपाय खोज लेगी।

अगर ठीक समझा जाए, तो इस बात का साक्षात्कार कि घर जल रहा है, आपके निकलने का मार्ग बन जाता है। लेकिन हमें लगता ही नहीं कि घर जल रहा है। हां, कोई बुद्ध, कोई कृष्ण कहते हैं, घर जल रहा है। तो हम कहते हैं कि महाराज, आप ठीक कहते हैं! क्योंकि हम में इतनी भी हिम्मत नहीं कि हम बुद्ध और कृष्ण से कह सकें कि आप गलत कहते हैं। किस मुंह से कहें कि गलत कहते हैं? कहीं गहरे में तो हम भी जानते हैं कि ठीक ही कहते हैं। जीवन में सिवाय दुख के कुछ हाथ तो लगा नहीं; सिवाय आग और राख के कुछ हाथ तो लगा नहीं। सिवाय लपटों में झुलसने के और कुछ हाथ तो लगा नहीं।

इसलिए गहरे मन में हम जानते तो हैं कि ठीक कहते हैं। इसलिए हिम्मत भी नहीं होती कि बुद्ध को कह दें कि गलत कहते हैं। जीवन सुख है। किस चेहरे से कहें? चेहरे पर एक भी रेखा नहीं बताती कि जीवन सुख है। अनुभव का एक टुकड़ा नहीं बताता कि जीवन सुख है। और बुद्ध से किस मुंह से कहें, क्योंकि बुद्ध के रोएं-रोएं से आनंद झलक रहा है। तो बुद्ध से किस मुंह से कहें कि जीवन सुख है!

अगर जीवन सुख है, तो बुद्ध ही कहते, तो कह सकते थे। लेकिन बुद्ध तो कहते हैं कि जीवन दुख है। और हम, जो कि दुख में डूबे खड़े हैं सराबोर, हम किस मुंह से कहें कि जीवन सुख है! तो बुद्ध को इनकार भी नहीं कर सकते कि आप गलत कहते हैं। लेकिन हमारी प्रतीति भी नहीं होती कि जीवन दुख है।

तो हम कहते हैं कि आप ठीक कहते हैं। समय पर, अनुकूल समय पर मैं भी इस घर को छोड़ दूंगा। कृपा करके, जब तक अभी इस घर में हूं, मुझे इतना बताएं कि कैसे इस घर में शांति से रहूं! और वह रास्ता भी बता दें, क्योंकि फिर दुबारा आप मिलें न मिलें, जब मुझे प्रतीति हो कि घर में आग लगी है, तो मुझे वह मेथड, वह विधि भी बता दें कि घर के बाहर कैसे निकलूं!

बुद्ध कहा करते थे कि जो आदमी पूछता है कि घर में आग लगी हो, तो मुझे रास्ता बता दें कि कैसे निकलूं, वह सिर्फ इतनी ही खबर देता है कि उसे पता नहीं है कि घर में आग लगी है। और कुछ पता नहीं देता। क्योंकि जिसके घर में आग लगी है, वह विधि की बात नहीं पूछता। वह छलांग लगाकर बाहर निकल जाता है। बताने वाला पीछे रह जाए; जिसको पता चला, घर में आग लगी है, वह मकान के बाहर हो जाएगा।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, योग से उपराम को उपलब्ध हुआ चित्त। योग उपाय है, विधि है, मेथड है। योग नाव है, साधन है, जिससे दुख-मुक्ति हो सकती है। सुख नहीं मिलेगा।

इसलिए जो व्यक्ति योग के पास सुख की खोज में आए हों, वे गलत जगह आ गए हैं। योग से सुख नहीं मिलेगा। जब मैं ऐसा कहता हूं, तो इसलिए कह रहा हूं कि आप सुख की तलाश में योग के पास न जाएं। योग से दुख-मुक्ति मिलेगी। इसलिए अगर आपको जीवन दुख प्रतीत हो गया हो, तो योग आपके काम का हो सकता है।

लेकिन हममें से अधिक लोग योग के पास सुख की तलाश में जाते हैं। हम योग को भी अपने सांसारिक चित्त की दौड़ के लिए एक साधन बनाना चाहते हैं! हम योग से भी चित्त की साइकिल को पैडल देना चाहते हैं! तब हम बड़ा कंट्राडिक्टरी, बड़ा व्यर्थ का, बड़ा स्वविरोधी काम कर रहे हैं। हम चाहते हैं, योग से धन मिल जाए। और ऐसे लोग मिल जाते हैं, जो कहेंगे, हां मिल जाएगा! हम चाहते हैं, योग से शांति मिल जाए, ताकि शांति के द्वारा हम धन और यश और कामनाओं की दौड़ को ज्यादा आसानी से पूरा कर सकें!

हम योग को भी संसार का एक वाहन बनाना चाहते हैं। यह नहीं होगा। क्योंकि योग दूसरा सूत्र है। पहला सूत्र तो है, दुख का अनिवार्य बोध, तभी उपाय का बोध पैदा होता है।


यह तीसरा सत्य तो केवल वे ही लोग उदघोषित कर सकते हैं, जो प्रमाण हैं। दो तक, पहला और दूसरा सत्य तो हम समझ सकते हैं बुद्धि से, लेकिन तीसरा सत्य बुद्धि का सवाल नहीं रह जाता, प्रमाण का सवाल है। लेकिन एक बात हम तीसरे सत्य के संबंध में भी समझ सकते हैं। और वह यह कि जब अशांत चित्त होता है जगत में, तो शांत हो सके, इसकी असंभावना नहीं है। जब कोई आदमी बीमार हो सकता है जगत में, तो स्वस्थ हो सके, इसकी असंभावना क्यों कर है? जब दुखी हो सकता है कोई, तो दुख के पार हो सके, इसकी असंभावना क्या है?

और अगर बुद्धि से ही केवल सोचें, तो भी यह साफ होता है कि दुख का बोध ही यह बताता है कि हम दुख के बोध के पार हैं। अन्यथा बोध किसे होगा? और बोध भी तभी होता है, जब विपरीत हो, नहीं तो बोध नहीं होता है। अगर आपके भीतर आनंद जैसी कोई चीज न हो, तो आपको दुख का कभी भी पता नहीं चल सकता। कैसे चलेगा? किसको चलेगा? कौन जानेगा कि यह दुख है?

जो जानता है, उसे दुख की चोट पड़नी चाहिए, उसे दुख में अपने से विपरीत कुछ दिखाई पड़ना चाहिए। इसीलिए तो दुख अप्रीतिकर है। एक अनुभव तो हमारा है कि जीवन अशांति से भरा हुआ है। दूसरा अनुभव हमारा नहीं है कि जीवन एक शांति का झरना भी हो सकता है; कि जीवन के रोएं-रोएं में एक शांति की गूंज भी हो सकती है; कि प्राण एक झील बन सकते हैं, जहां एक भी तरंग न उठती हो अशांति की।


यह योग क्या है, जिससे चित्त उपराम को पहुंच जाए? तो तीन बातें आपसे कहूं, जिनसे योग की प्रक्रिया का आप उपयोग भी कर सकें और चित्त उपराम को पहुंच सके।

एक, जब भी मन किसी चीज में कहे, सुख है, तो मन से एक बार और पूछना कि सच? पुराना अनुभव ऐसा कहता है? किसी और व्यक्ति का अनुभव ऐसा कहता है? पृथ्वी पर कभी किसी ने कहा है कि इस बात से सुख मिल सकेगा? अनंत-अनंत लोगों का अनुभव क्या कहता है? खुद के जीवन का अनुभव क्या कहता है? बार-बार अनुभव किया है, उसका क्या निष्कर्ष है? एक बार प्रश्न जरूर पूछ लेना। जब मन कहे, इसमें सुख है। ठिठककर, खड़े होकर पूछ लेना, सच सुख है?

और जल्दी न करना; क्योंकि मन कहेगा कि कहां की बातों में पड़े हो; सुख का क्षण चूक जाएगा! किन बातों में पड़े हो; अवसर खो जाएगा! जल्दी न करना। मन इसीलिए जल्दी करता है कि अगर आप थोड़ी देर, एक क्षण के लिए भी सजग होकर रुक गए, तो सुख दिखाई नहीं पड़ेगा, दुख का दर्शन हो जाएगा।

जब किसी हाथ में सुख मालूम पड़े और हाथ हाथ को लेने को उत्सुक हो जाए हाथ में, तक एक क्षण को सोचना कि बहुत हाथ हाथ में लिए, सुख पाया है? जब राह चलता कोई व्यक्ति सुंदर मालूम पड़े, तो एक क्षण रुककर अपने मन से पूछना कि सच में सौंदर्य पास आ जाए, तो कोई सुख पाया है? जब किसी फूल को तोड़ लेने का मन हो जाए, तो पूछना कि बहुत बार फूल तोड़े, फिर उनका किया क्या? थोड़ी देर में मसलकर रास्तों पर फेंक दिए! जब भी नई कोई गति मन में पैदा हो, तब एक क्षण ठिठककर खड़े होना।

वह क्षण अवेयरनेस का, जागरूकता का, साक्षी का, जीवन दुख है, इसकी प्रतीति को गहरा करेगा। और जैसे-जैसे यह प्रतीति गहरी होगी, वैसे-वैसे उपराम अवस्था आएगी।

दूसरा सूत्र, जब भी कोई दुख आए, तब गौर से खोजना कि पहले जब इसे सोचा था, तो यह दुख था? जब भी कोई दुख आए, तो सोचना लौटकर पीछे कि जब पहली दफा इसे चाहा था, तो यह दुख था? नहीं; तब यह सुख था। अगर यह दुख होता, तो हम चाहते ही न। जब पहली दफे आलिंगन को हाथ फैलाए थे, तो यह दुख था? अगर दुख होता, तो हम भाग गए होते; आलिंगन के लिए हाथ न फैलाए होते। यह तो अब आलिंगन में बंधकर पता चलता है कि दुख है। तो जब भी दुख आए, तो लौटकर देखना कि जब इसे चाहा था, तब यह दुख था?

और तब पता चलेगा इस क्षण में, फिर जागरूकता के क्षण में पता चलेगा कि सब दुख सुखों की तरह प्रतीत होते हैं, सुखों की तरह निमंत्रण देते हैं; बाद में दुख की तरह सिद्ध होते हैं। और यह भी प्रतीत होगा कि सब दुख अपने बुलाए आते हैं, हम खुद ही उनको बुलाकर आते हैं। कोई दुख बिना बुलाए नहीं आता। और हम बुलाकर इसीलिए आते हैं कि हमने सोचा था, सुख है। एक क्षण जब दुख के साथ ऐसा खड़े होकर देखेंगे, तो फिर पुनः मालूम पड़ेगा, जीवन सब दुख है।


और तीसरी बात--सुख के साथ सोचना, दुख के साथ सोचना और अनुभव होगा दुख है--तब तीसरा सूत्र! जब भी अनुभव हो कि जीवन दुख है--और ऐसे अनुभव कई बार होते हैं, हम फिर उन्हें खो देते हैं, कई बार सूत्र हाथ में आता है और छूट जाता है--जब ऐसा अनुभव हो गहरा कि सच में जीवन दुख है और कोई सुख नहीं, तब पीछे लौटकर एक बार देखना कि यह कौन है, जिसे पता चलता है कि जीवन दुख है, सुख नहीं? यह कौन है? यह कौन है, जो सुख चाहता है और दुख पाता है? यह कौन है, जो दुखों में झांकता है तो पाता है, अपना ही निमंत्रण है सुख को दिया गया? यह कौन है, जो सुख की कामना होती है, तो प्रश्न उठाता है कि क्या सच में ही सुख मिलेगा?

जब किसी भी क्षण में, तीव्रता के किसी क्षण में चेतना जागकर जाने कि सब दुख है, तब पीछे लौटकर पूछना कि यह कौन है, जो जानता है कि सब दुख है? तब एक नया जानना शुरू होगा। तब एक नया अनुभव शुरू होगा; एक नया संबंध बनेगा, एक नई पहचान, एक नया परिचय--उससे, जो भीतर है, जो सब जानता है और सबके पीछे खड़ा रहता है। उससे परिचय हो जाए, तो तत्काल उपराम हो जाता है; चित्त एकदम विश्राम को उपलब्ध हो जाता है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, योग से शांत हुआ चित्त प्रभु को, परमात्मा को, परम सत्य को पा लेता है।

यह तो मैंने योग की आंतरिक विधि आपसे कही। शायद यह एकदम कठिन मालूम पड़े। शायद थोड़ी जटिल मालूम पड़े कि कैसे हो पाएगा? यह कब हो पाएगा? जिंदगी की धारा में इतनी व्यस्तता है, चौबीस घंटे इतने उलझे हैं कि कहां रुककर सोचेंगे? कहां रुककर खड़े होंगे? जिंदगी तो बहाए लिए जाती है, भीड़ चारों तरफ धक्का दिए चली जाती है। कहां है वह क्षण, जहां हम सोचें कि दुख क्या है? सुख क्या है? मैं कौन हूं? इसकी फुरसत नहीं है।

जब ऐसा लगे, तो फिर फुरसत खोजनी पड़े। फिर आप जीवन की धारा में खड़े न हो पाएं, तो घर के एक कोने में घड़ीभर के लिए अलग ही वक्त निकाल लें। बाजार में न जाग पाएं, दुकान में न जाग पाएं, तो घर में एक कोना खोज लें और घड़ीभर का वक्त निकाल लें। तय ही कर लें कि चौबीस घंटे में एक घंटा इस चित्त के उपराम होने के लिए दे देंगे।

और एक घंटा कुछ न करें। इन तीन बातों का चिंतन गहरे में ले जाएं। जीवन दुख है। सब सुख दुखों को निमंत्रण हैं और वह कौन है, जो इन्हें जानता है! एक घंटा रोज। और जीवन के अंत में आप पाएंगे कि बाकी कई घंटे बेकार गए, यही एक घंटा काम पड़ा है।

लेकिन लोग मुझे आकर कहते हैं कि नहीं, इतना समय कहां? और बहुत हैरानी मालूम पड़ती है कि जो लोग यह कहते हैं कि इतना समय कहां, वे ही लोग दूसरी दफे कहते हुए सुने जाते हैं कि समय नहीं कटता है! वे ही लोग! समय नहीं कटता है, तो ताश खेलना पड़ता है। समय नहीं कटता है, तो शतरंज बिछानी पड़ती है। समय नहीं कटता है, तो उसी अखबार को, जिसे दिन में छः दफे पढ़ चुके हैं, फिर सातवीं दफे पढ़ना पड़ता है। समय नहीं कटता है, तो वे ही बातें, जो हजार दफे कर चुके लोगों से, फिर-फिर करनी पड़ती हैं। समय नहीं कटता है, तो उसी आदमी के पास चले जाना पड़ता है, जिससे आखिर में यह कहते लौटते हैं कि बहुत बोर करता है। फिर उसी के पास चले जाना पड़ता है! फिर वही फिल्म देख लेते हैं। फिर वही सब कर लेते हैं और कहते हैं, समय नहीं कटता! और जब प्रभु-स्मरण की कोई बात कहे, तो तत्काल कहते हैं, समय कहां!

ये दोनों बातें एक साथ चलती हैं। तो ऐसा मालूम होता है कि मन धोखा दे रहा है। मन धोखा दे रहा है। जब भी प्रभु-स्मरण की बात चलती है, तो मन कहता है, समय कहां है! और जब प्रभु-स्मरण की बात नहीं कहता, तो मन कहता है कि इतना समय है, कुछ काटने का उपाय करो।

तो अपने मन को थोड़ा समझने की कोशिश करना कि मन प्रवंचक है, डिसेप्टिव है। कोई दूसरा आपको न समझा सकेगा; आप ही अपने मन को देखना कि किस तरह के धोखे देता है।

सच में ही समय नहीं है? इतना दरिद्र आदमी पृथ्वी पर नहीं है, जिसके पास एक घंटा न हो, जो प्रभु को दिया जा सके। है ही नहीं ऐसा कोई आदमी। आठ घंटे हम नींद को दे देते हैं बिना कठिनाई के, बिना अड़चन के। अगर सारा हिसाब लगाने जाएं, तो अगर साठ साल आदमी जीए, तो बीस साल सोता है। और अगर हिसाब लगाएं, तो बाकी बीस साल दफ्तर जाना, घर आना, दाढ़ी बनाना, स्नान करना, भोजन करना, इनमें खो देता है। बाकी जो बीस साल बचते हैं, उनको समय काटने में लगाता है। समय काटने में, कि समय कैसे कटे!

तो आप कोई जिंदगी काटने के लिए आए हुए हैं, कि किस तरह काट दें! तो एकदम से ही काट डालिए। छलांग लगा जाइए किसी पहाड़ से, समय एकदम कट जाएगा। तो ये ग्रेजुअल स्युसाइड, ये धीरे-धीरे आत्महत्या को आप कहते हैं जीवन? यह रोज-रोज धीरे-धीरे काटने को?

समय काटने का अर्थ है, जीवन को काट रहे हैं। क्योंकि समय जीवन है, और एक गया हुआ क्षण वापस नहीं लौटता। और आप कहते हैं, समय काटना है! होटल में बैठकर काटेंगे। मित्रों से गपशप करके काटेंगे। और एक क्षण गया हुआ वापस नहीं लौटता। एक क्षण कटा हुआ पुनः नहीं मिलेगा। और एक क्षण कटा कि एक क्षण जीवन की रेत खिसक गई, जीवन कम हुआ।

बड़ा मजेदार है आदमी। एक तरफ कहता है कि उम्र कैसे बढ़ जाए! सारे पश्चिम में चिकित्सक लगे हैं खोजने में, उम्र कैसे बढ़ जाए! उम्र बढ़ जाए, तो पूछता है, समय कैसे कटे! क्या, कर क्या रहे हैं? चिकित्सक उम्र बढ़ाते चले जाते हैं और आदमी मनोरंजन के साधन खोजता है कि समय कैसे कटे!

अब अमेरिका में बहुत चिंता है इस बात की। क्योंकि एक तरफ लोग मांग करते हैं कि काम के घंटे कम करो। घंटे कम हो गए हैं। कभी बारह घंटे थे; आठ घंटे हुए, छः घंटे हुए, पांच घंटे हुए। पांच घंटे काम के हो गए हैं। आदमी कहता है, और घंटे कम करो। काम कम। संभावना है कि जैसे ही सब आटोमैटिक हो जाए, यंत्रचालित हो जाए, तो समय और भी कम हो जाए। शायद आधा घंटा, घंटाभर एक आदमी काम कर आए, तो बहुत हो।

अब उस स्थिति में हम आ गए कि जब हमारी हजारों साल की आकांक्षा पूरी होती है कि हम काम से मुक्त होते हैं। करीब-करीब उस अवस्था में, जिसमें देवता अगर स्वर्ग में रहते होंगे, तो आदमी पहुंच गया। काम नहीं करना पड़ेगा। तो अब अमेरिका के सभी चिंतक परेशान हैं कि समय कैसे कटे! समय को कैसे काटिएगा? काम तो काट दिया, अब समय को काटिए!

और डर इस बात का है कि काम से इतना नुकसान कभी नहीं हुआ था, जितना खाली समय बच जाएगा, तो हो जाने वाला है। क्योंकि खाली आदमी क्या करेगा? वह खाली आदमी उपद्रव करेगा। वह उपद्रव कर रहा है। इसलिए जितना समृद्ध समाज, उतना उपद्रवी, उतने हत्यारे, उतने डकैत, उतने चोर, उतने बेईमान पैदा कर देता है। उसका कारण है कि वे क्या करें? समय कहां काटें? खाली बैठे रहें?

लेकिन उन आदमियों से भी अगर कहो कि प्रभु-स्मरण एक घंटा, तो वे भी तत्काल उत्तर देते हैं--बिना सोचे यह उत्तर आता है--समय कहां है!

नहीं; ऐसा लगता है कि मन आत्मवंचक है। इस आत्मवंचना को समझने की जरूरत है। और जब मन कहे, समय कहां है, तो सच में चौबीस घंटे का ब्यौरा लगाकर देखना कि सच में समय नहीं है? समय बहुत है।

और एक मजे की बात है समय के संबंध में कि सबके पास बराबर है। कोई गरीब-अमीर नहीं है। सबके पास बराबर है। यद्यपि सभी समय का बराबर उपयोग नहीं करते हैं।


(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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