गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 5 भाग 24

  

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।

अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्।। 26।।


और काम-क्रोध से रहित, जीते हुए चित्त वाले परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार किए हुए ज्ञानी पुरुषों के लिए, सब ओर से शांत परब्रह्म परमात्मा ही प्राप्त है।



काम और क्रोध के बाहर हुए पुरुष को सब ओर से परमात्मा ही प्राप्त है। काम और क्रोध से मुक्त हुई चेतना को!

काम के संबंध में सदा ऐसे लगता है कि मैं कभी-कभी कामी होता हूं, सदा नहीं। क्रोध के संबंध में भी ऐसा लगता है कि मैं कभी-कभी क्रोधी होता हूं, सदा नहीं। इससे बहुत ही भ्रांत निर्णय हम अपने बाबत लेते हैं। स्वभावतः, यह निर्णय बहुत स्टेटिस्टिकल है। अंकगणित इसका समर्थन करता है।

चौबीस घंटे में आप चौबीस घंटे क्रोध में नहीं होते। चौबीस घंटे में कभी किसी क्षण क्रोध आता है, फिर क्रोध चला जाता है। स्वभावतः, हम सोचते हैं कि जब क्रोध नहीं रहता, तब तो हम अक्रोधी हो जाते हैं। ऐसा ही काम भी कभी आता है चौबीस घंटे में; वासना कभी पकड़ती है। फिर हम दूसरे काम में लीन हो जाते हैं, और खो जाती है। तो मन को ऐसा लगता है कि कभी-कभी वासना होती है, बाकी तो हम निर्वासना में ही होते हैं। दो-चार क्षणों के लिए वासना पकड़ती है, बाकी चौबीस घंटे तो हम वासना के बाहर हैं। क्षण दो क्षण को क्रोध पकड़ता है, वैसे तो हम अक्रोधी हैं। लेकिन इस भ्रांति को समझ लेना। यह बहुत खतरनाक भ्रांति है।

जो आदमी चौबीस घंटे क्रोध की अंडर करेंट, अंतर्धारा में नहीं है, वह क्षणभर को भी क्रोध नहीं कर सकता है। और जो आदमी चौबीस घंटे काम से भीतर घिरा हुआ नहीं है, वह क्षणभर को भी कामवासना में ग्रसित नहीं हो सकता है।


जब कोई आपको गाली देता है, तो क्रोध निकल आता। जब कोई गाली नहीं देता, तो क्रोध नहीं निकलता। गाली सिर्फ बाल्टी का काम करती है। क्रोध आप में चौबीस घंटे भरा हुआ है।

जब कोई विषय, वासना का कोई आकर्षक बिंदु आपके आस-पास घूम आता है, तब आप एकदम आकर्षित हो जाते हैं। बाल्टी पड़ गई; वासना बाहर आ गई!

सुंदर स्त्री पास से निकली, सुंदर पुरुष पास से निकला, कि सुंदर कार गुजरी, कुछ भी हुआ, जिसने मन को खींचा। वासना बाहर निकल आई। आप सोचते हैं, कभी-कभी आ जाती है। यह कोई बीमारी नहीं है। एक्सिडेंट है। कभी-कभी हो जाती है। घटना है, कोई स्वभाव नहीं है।

लेकिन सूखे कुएं में जैसे बाल्टी डालने से कुछ भी नहीं निकलता, ऐसे ही जिनके भीतर वासना से मुक्ति हो गई है, कुछ भी डालने से वासना नहीं निकलती है।

तो पहली तो यह भ्रांति छोड़ देना जरूरी है, तो ही इस सूत्र को समझ पाएंगे, काम-क्रोध से मुक्त! नहीं तो सभी लोग समझते हैं कि हम तो मुक्त हैं ही। कभी-कभी स्थितियां मजबूर कर देती हैं, इसलिए क्रोध से भर जाते हैं! जो जानते हैं, वे कहेंगे, एक क्षण को भी क्रोध से भर जाते हों, तो जानना कि सदा क्रोध से भरे हुए हैं। एक क्षण को भी वासना पकड़ती हो, तो जानना कि सदा वासना से भरे हुए हैं। उस एक क्षण को एक क्षण मत मान लेना, नहीं तो एक क्षण के मुकाबले सैकड़ों घंटे वासनारहित मालूम पड़ेंगे और आपको भ्रम पैदा होगा अपने बाबत कि मैं तो वासना से मुक्त ही हूं। और हर आदमी इस जगत में जो सबसे बड़ा धोखा दे सकता है, वह अपनी ही गलत इमेज, अपनी ही गलत प्रतिमा बनाकर दे पाता है।

हम सब अपनी गलत प्रतिमाएं बनाए रखते हैं। और जो प्रतिमा हम बना लेते हैं, उसके लिए जस्टीफिकेशंस खोजते रहते हैं।

अरस्तू ने कहा है कि आदमी बुद्धिमान प्राणी है। रेशनल एनिमल कहा है। लेकिन अब? अब जो जानते हैं, वे कहते हैं, आदमी रेशनल एनिमल है, यह कहना तो मुश्किल है; रेशनलाइजिंग एनिमल है। बुद्धिमान तो नहीं मालूम पड़ता, लेकिन हर चीज को बुद्धिमानी के ढंग से बताने की चेष्टा में रत जरूर रहता है। हर चीज को बुद्धियुक्त ठहरा लेता है।


क्रोध के कारण होते कम, खोजे ज्यादा जाते हैं। और हमारे भीतर क्रोध इकट्ठा होता रहता है पीरियाडिकल। अगर आप अपनी डायरी रखें, तो बहुत हैरान हो जाएंगे। आप डायरी रखें कि ठीक कल आपने कब क्रोध किया; परसों कब क्रोध किया। एक छः महीने की डायरी रखें और ग्राफ बनाएं। तब आप बहुत हैरान हो जाएंगे। आप प्रेडिक्ट कर सकते हैं कि कल कितने बजे आप क्रोध करेंगे। करीब-करीब पीरियाडिकल दौड़ता है। आप अपनी कामवासना की डायरी रखें, तो आप बराबर प्रेडिक्ट कर सकते हैं कि किस दिन, किस रात, आपके मन को कामवासना पकड़ लेगी।

शक्ति रोज इकट्ठी करते चले जाते हैं आप, फिर मौका पाकर वह फूटती है। अगर मौका न मिले, तो मौका बनाकर फूटती है। और अगर बिलकुल मौका न मिले, तो फ्रस्ट्रेशन में बदल जाती है। भीतर बड़े विषाद और पीड़ा में बदल जाती है।

क्रोध और काम हमारी स्थितियां हैं, घटनाएं नहीं। चौबीस घंटे हम उनके साथ हैं। इसे जो स्वीकार कर ले, उसकी जिंदगी में बदलाहट आ सकती है। जो ऐसा समझे कि कभी-कभी क्रोध होता है, वह अपने से बचाव कर रहा है। वह खुद को समझाने के लिए धोखेधड़ी के उपाय कर रहा है। जो स्वीकार कर ले, वह बच सकता है।

परमात्मा के जगत में भी केवल वे ही लोग संसार के बाहर जा पाते हैं, जो अपनी वास्तविक स्थिति को स्वीकार करने में समर्थ हैं। अपने को जो धोखा देगा, देता रहे। परमात्मा को धोखा नहीं दिया जा सकता है।

काम और क्रोध हमारे पास चौबीस घंटे मौजूद हैं। उनकी अंतर्धारा बह रही है। जैसे नील नदी बहती है सैकड़ों मील तक जमीन के नीचे, खो जाती है। पता ही नहीं चलता, कहां गई! नीचे बहती रहती है। लेकिन बहती रहती है। ऐसे ही चौबीस घंटे नदी आपके क्रोध की, काम की, नीचे बहती रहती है। जरा भीतर डुबकी लेंगे, तो फौरन पाएंगे कि मौजूद है। कभी-कभी उभरकर दिखती है, नहीं तो अंडरग्राउंड है। जमीन के अंदर चलती रहती है। जब प्रकट होती है, उसको आप मत समझना कि यही क्रोध है। अगर उतना ही क्रोध होता, तो हर आदमी मुक्त हो सकता था। वह तो सिर्फ क्रोध की एक झलक है। जब प्रकट होती है, तब मत समझना कि इतना ही काम है। उतना ही काम होता, तो बच्चों का खेल था। भीतर बड़ी अंतर्धारा बह रही है।

कृष्ण कहते हैं, इन दोनों से जो मुक्त हो जाता है, इनके जो पार हो जाता है, वही केवल शांत ब्रह्म को उपलब्ध होता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल

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