गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 6 भाग 21

 


 संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।

मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः।। 24।।

शनैः शनैरुपरमेद्बुद्धया धृतिगृहीतया।

आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्।। 25।।


इसलिए मनुष्य को चाहिए कि संकल्प से उत्पन्न होने वाली संपूर्ण कामनाओं को निःशेषता से अर्थात वासना और आसक्ति सहित त्यागकर और मन के द्वारा इंद्रियों के समुदाय को सब ओर से ही अच्छी प्रकार वश में करके, क्रम-क्रम से अभ्यास करता हुआ उपरामता को प्राप्त होवे तथा धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा मन को परमात्मा में स्थित करके परमात्मा के सिवाय और कुछ भी चिंतन न करे।



परमात्मा के सिवाय और कुछ भी चिंतन न करे, यही इस सूत्र का सार है। शेष सब कृष्ण ने पुनः दोहराया है। कामनाओं को वश में करके, मन के पार होकर, इंद्रियों के अतीत उठकर, संकल्प-विकल्प से दूर होकर--सब जो उन्होंने पहले कहा है, पुनः दोहराया है। और अंत में, सदा परमात्मा के चिंतन में लीन रहे।

दो बातें। एक, कृष्ण क्यों बार-बार वही-वही बात दोहराते हैं? इतना रिपीटीशन, इतनी पुनरुक्ति क्यों है?  इतने दोहराने की बात क्या हो सकती है? इस दोहराने का...कृष्ण भी क्या गीता में कुछ सूत्र दोहराए चले जा रहे हैं। फिर, और फिर, और फिर। बात क्या है? अर्जुन बहरा है?

होना चाहिए। सभी श्रोता होते हैं। सुनता हुआ मालूम पड़ता है, शायद सुन नहीं पाता। बिलकुल दिखाई पड़ता है कि सुन रहा है, लेकिन कृष्ण को दिखाई पड़ता होगा उसके चेहरे पर कि नहीं सुना। फिर दोहराना पड़ता है।

ये किताबें लिखी गई नहीं हैं, बोली गई हैं। दुनिया में जो भी श्रेष्ठतम सत्य हैं, वे लिखे हुए नहीं हैं, बोले हुए हैं। वह चाहे कुरान हो, कि चाहे बाइबिल, कि चाहे गीता, चाहे धम्मपद। जो भी श्रेष्ठतम सत्य इस जगत में कहे गए हैं, वे बोले गए सत्य हैं। वे किसी के लिए एड्रेस्ड हैं। कोई सामने मौजूद है, जिसकी आंखों में कृष्ण देख रहे हैं कि कहा मैंने जरूर, लेकिन सुना नहीं।

जीसस तो बहुत जगह बाइबिल में कहते हैं--बहुत जगह कहते हैं--कान हैं तुम्हारे पास, लेकिन सुन सकोगे क्या? आंख है तुम्हारे पास, लेकिन देख सकोगे क्या? बार-बार कहते हैं कि जिनके पास कान हों, वे सुन लें। जिनके पास आंख हो, वे देख लें। तो क्या अंधों और बहरों के बीच बोलते होंगे?

नहीं; इतने अंधे और बहरे तो कहीं भी नहीं खोजे जा सकते कि सारी बाइबिल उन्हीं के लिए उपदेश दी जाए। हमारे जैसे ही लोगों के बीच बोल रहे होंगे, जिनके कान भी ठीक मालूम पड़ते हैं, आंख भी ठीक मालूम पड़ती है, फिर भी कहीं कोई बात चूक जाती है। तो कृष्ण और बुद्ध जैसे आदमी को दोहराना पड़ता है। बार-बार वही बात दोहरानी पड़ती है। फिर नए कोण से वही बात कहनी पड़ती है। शायद सुन ली जाए।

और एक कारण है। सुनने के भी क्षण हैं, मोमेंट्स। नहीं कहा जा सकता कि किस क्षण आपकी चेतना द्वार दे देगी। किस क्षण आप उस स्थिति में होंगे कि आपके भीतर शब्द प्रवेश कर जाए, नहीं कहा जा सकता।


ठीक ऐसे ही व्यक्ति की चेतना में कोई क्षण होते हैं, जब द्वार खुलता है।

तो कृष्ण जैसे व्यक्ति तो कहे चले जाते हैं सत्य को। अर्जुन के चारों तरफ गुंजाते चले जाते हैं सत्य को। पता नहीं कब, किस क्षण में अर्जुन की चेतना उस बिंदु पर आ जाए, उस टयूनिंग पर, जहां आवाज सुनाई पड़ जाए और सत्य भीतर प्रवेश कर जाए! इसलिए इतना दोहराना पड़ता है।

पर दोहराने में भी हर बार वे कोई एक नई बात साथ में जोड़ते चले जाते हैं। हर बार कोई एक नया सत्य, कोई एक नया इंगित। नहीं तो अर्जुन भी उनसे कहेगा कि आप क्या वही-वही बात दोहराते हैं!

मजा यह है कि जो बिलकुल नहीं सुनते, वे भी इतना तो समझ ही लेते हैं कि बात दोहराई जा रही है। जिनकी समझ में कुछ भी नहीं आता, वे भी शब्द तो सुन ही लेते हैं। उनको यह तो पता चल ही जाता है कि आपने यही बात पहले कही थी, वही बात आप अब भी कह रहे हैं। शब्द पुनरुक्त हो रहे हैं, यह जानने के लिए समझ आवश्यक नहीं है, केवल स्मृति काफी है।

तो इसलिए कृष्ण फिर वही शब्द दोहराते हैं, लेकिन फिर कुछ नया इशारा जोड़ते हैं। शायद उस नए इशारे से कुंजी पकड़ में आ जाए और अर्जुन का ताला खुल जाए। इसमें नया शब्द जोड़ते हैं, प्रभु का सतत चिंतन।

इसमें दो बातें समझने जैसी हैं। एक तो, प्रभु का

जिसे हम नहीं जानते, उसका चिंतन कैसे करेंगे? जिसे हम जानते ही नहीं, उसका हम चिंतन कैसे करेंगे? क्या करेंगे चिंतन?

दूसरी बात, चिंतन का अर्थ?

चिंतन का अर्थ विचार नहीं है। क्योंकि विचार तो उसका ही होता है, जो ज्ञात है, नोन है। अज्ञात का कोई विचार नहीं होता।

चिंतन का कुछ और अर्थ है। वह समझ में आ जाए तो प्रभु का चिंतन खयाल में आ जाए। समझें, आपको प्यास लगी है। आप पच्चीस काम में लगे रहें, तो भी प्यास का चिंतन भीतर चलता रहेगा। विचार नहीं। विचार तो आप दूसरा कर रहे हैं। हो सकता है, हिसाब लगा रहे हैं, खाता-बही कर रहे हैं, किसी से बात कर रहे हैं। लेकिन भीतर एक अनुधारा, एक अनुचिंतन, एक बारीक अंडर करेंट, भीतर प्यास की चलती रहेगी। कोई भीतर बार-बार कहता रहेगा, प्यास लगी है, प्यास लगी है, प्यास लगी है।

यह मैं आपसे कह रहा हूं, इसलिए शब्द का उपयोग कर रहा हूं। वह जो आपके भीतर है, वह शब्द का उपयोग नहीं करेगा। वह तो प्यास की ही चोट करता रहेगा कि प्यास लगी है। शब्द का उपयोग नहीं करेगा, वह यह नहीं कहेगा कि प्यास लगी है। प्यास ही लगती रहेगी। फर्क आप समझ रहे हैं?

अगर आप कहें कि प्यास लगी है, प्यास लगी है, प्यास लगी है, तो यह विचार हुआ। और अगर प्यास ही लगती रहे; सब काम जारी रहे, विचार जारी रहे और भीतर एक खटक, एक चोट, द्वार पर कोई कुंडी खटखटाता रहे, शब्द में नहीं, अनुभव में; प्यास, प्यास भीतर उठती रहे, तो चिंतन हुआ।

प्रभु का विचार तो हम कर ही नहीं सकते। लेकिन प्रभु की प्यास हम सबके भीतर है। हालांकि हममें से बहुत कम लोगों ने पहचाना है कि प्रभु की प्यास हमारे भीतर है। लेकिन हम सबके भीतर है। कोई आदमी प्रभु-प्यास के बिना पैदा ही नहीं होता, हो नहीं सकता।

हां, यह हो सकता है कि वह अपनी प्रभु-प्यास की व्याख्या कुछ और कर ले। और वह प्रभु-प्यास की व्याख्या करके कुछ और खोजने निकल जाए। मिस-इंटरप्रिटेशन हो सकता है; लेकिन प्यास सदा मौजूद रहती है।

अगर एक आदमी धन की तलाश में जाता है, तो बहुत ठीक से समझें तो भी वह प्रभु की तलाश में ही जाता है, गलत दिशा में। क्योंकि धन से लगता है, प्रभुता मिल जाएगी। धन से लगता है, प्रभुता मिल जाएगी। बहुत होगा धन, तो दीनता न रह जाएगी; प्रभु हो जाएंगे; मालकियत हो जाएगी।

एक आदमी पद की तलाश करता है कि राष्ट्रपति हो जाऊं; राष्ट्रपति के सिंहासन पर बैठ जाऊं। गलत व्याख्या कर रहा है वह। मन में तो परम पद पर पहुंचने की आकांक्षा है कि उस पद पर पहुंच जाऊं, जिसके ऊपर कोई पहुंचने की जगह न रह जाए। लेकिन वह यहीं की छोटी-बड़ी कुर्सियां चढ़ रहा है! बड़ी से बड़ी कुर्सी पर खड़े होकर भी पाएगा, कहीं नहीं पहुंचा। सिर्फ एक जगह पहुंचा है, जहां से अब कोई गिराएगा--सिर्फ एक जगह पहुंचा है। क्योंकि नीचे दूसरे चढ़ रहे हैं। वे टांगें खींच रहे हैं।

उसको वे पालिटिक्स कहते हैं; या और कुछ नाम दें। एक-दूसरे की टांग को खींचने का नाम पालिटिक्स! और जितने ऊपर आप गए, उतने ज्यादा लोग आपकी टांग खींचेंगे। क्योंकि आप अकेले रह जाएंगे और चढ़ने वाले बहुत हो जाएंगे।


 खटक का नाम चिंतन है। उस खटक का, कि प्रभु हुए बिना कोई उपाय नहीं, कि प्रभु से एक हुए बिना कोई उपाय नहीं, कि प्रभु की गोद में पड़े बिना कोई उपाय नहीं, कि प्रभु की शरण में गए बिना कोई उपाय नहीं, कि प्रभु के साथ लीन हुए बिना कोई उपाय नहीं।

ऐसी जब प्यास--शब्द नहीं, ऐसी प्यास--जब भीतर सरकने लगती है, तो उसका नाम प्रभु का सतत चिंतन है।

कृष्ण कहते हैं, ऐसे सतत चिंतन को जो उपलब्ध होता है, समस्त वासनाओं को क्षीण करके और समस्त इंद्रियों के पार उठकर, परम है सौभाग्य उसका, वह योगीजन उस सबको पा लेता है, जो पा लेने योग्य है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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