गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 5 भाग 19

  

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्।

स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते।। 21।।


और बाहर के विषयों में आसक्तिरहित पुरुष अंतःकरण में जो भगवत्ध्यान जनित आनंद है, उसको प्राप्त होता है और वह पुरुष सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा रूप योग में एकीभाव से स्थित हुआ अक्षय आनंद को अनुभव करता है।



बाह्य विषयों में अनासक्त हुआ! वही बात एक दूसरे आयाम से पुनः कृष्ण कहते हैं।

कृष्ण जैसे व्यक्तियों की भी कठिनाइयां हैं। जो बात एक बार कही जा सकती है, वह भी हजार बार कहनी पड़ती है। फिर भी जरूरी नहीं है कि सुनने वाले ने सुनी हो। हजार बार कहकर भी डर यही है कि नहीं सुनी जाएगी।

बहुत-बहुत मार्गों से वे वही-वही, फिर-फिर अर्जुन से कहते हैं। शायद एक आयाम से समझ में न आई हो, दूसरे आयाम से समझ में आ जाए। शायद हृदय के द्वार से खयाल में न आई हो, बुद्धि के द्वार से खयाल में आ जाए। शायद हृदय और बुद्धि दोनों की बात गहरी पड़ गई हो, तो वस्तुओं के मार्ग से समझ में आ जाए।

आब्जेक्टिव वर्ल्ड है हमारे चारों तरफ; वस्तुओं का जगत है। दो वस्तुओं के बीच जो अनासक्त है! वस्तुओं के बीच, जहां इंद्रियां आकर्षित होकर टिकती हैं, आसक्ति के गृह बनाती हैं, घर बनाती हैं, वहां जो अनासक्त-भाव से जीता है, वह भी, वह भी वहीं पहुंच जाता है, सच्चिदानंद स्वरूप ब्रह्म में।

किसी भी द्वार से तटस्थ हो जाना सूत्र है। किसी भी व्यवस्था से  चुनावरहित हो जाना मार्ग है। किसी भी ढंग, किसी भी विधि, किसी भी मार्ग से दो के बीच अकंप हो जाना सूत्र है--स्वर्ण सूत्र।

वस्तुएं भी निरंतर बुला रही हैं। मन आसक्त कब होता है? वस्तुओं को देखने से नहीं होता मन आसक्त। रास्ते से गुजरते हैं आप, दुकान पर दिखाई पड़ा है कुछ; शो रूम में, शो केस में कुछ दिखाई पड़ता है। दिखाई पड़ने से मन आसक्त नहीं होता। आंख खबर दे देती है कि देखते हैं, शो रूम में हीरे का हार है! आंख का खबर देना फर्ज है। आंख ठीक है, तो खबर देगी। जितनी ठीक है, उतनी ठीक खबर देगी। आंख खबर दे देती है मस्तिष्क को। मस्तिष्क भीतर मन को खबर दे देता है कि हार है। इतनी खबर से कहीं भी कोई आसक्ति नहीं हुई जा रही है।

लेकिन मन ने कहा, है, सुंदर है--शुरू हुई यात्रा। अभी बहुत सूक्ष्म है। कहा, सुंदर है--यात्रा शुरू हुई। क्योंकि सुंदर जैसे ही मन कहता है, मन के किसी कोने में धुआं उठने लगता है पाने का। जैसे ही कहा, सुंदर है, पाने की आकांक्षा ने निर्माण करना शुरू कर दिया। अभी आप कहेंगे कि नहीं अभी तो सिर्फ एक एस्थेटिक जजमेंट हुआ, एक सौंदर्यगत निर्णय किया। इसमें क्या बात है! कहा कि सुंदर है।

नहीं; लेकिन बहुत गहरे में, सूक्ष्म में जैसे ही कहा, सुंदर है--पहले हमें यही पता चलता है कि सुंदर है और फिर पता चलता है कि पाना है। लेकिन अगर स्थिति को ठीक से समझें, तो पहले मन के गहरे में इच्छा आ आती है, पाना है; और तब बुद्धि कहती है, सुंदर है। ऊपर से देखने पर पहले तो हमें यही पता चलता है कि सुंदर है। फिर पीछे से छाया की तरह सरकती हुई कोई वासना आती है और कहती है, पाओ! लेकिन आध्यात्मिक जितने खोजी हैं, वे कहते हैं कि पहले तो मन के गहरे में वासना सरक जाती है और कहती है, पाओ। उस खबर को सुनकर भीतर से मन कहता है, सुंदर है।

इसमें दो तरह समझ लें। मन को दो तरह की खबरें मिलती हैं। मन बीच में खड़ा है। बाहर शरीर है; भीतर आत्मा है। शरीर खबर देता है, हीरे का हार है सुंदर। शरीर खबर देता है, विषय की, वस्तु की। आत्मा के भीतर से खबर आती है, वासना की, वृत्ति की, चाह की--पाना है। दोनों का मिलन होता है मन पर, और आसक्ति निर्मित होती है।

अनासक्ति का अर्थ है, बाहर से तो खबर आए--आनी ही चाहिए, नहीं तो जीना असंभव हो जाएगा। अगर आंखें ठीक से न देखेंगी, कान ठीक से न सुनेंगे, हाथ ठीक से स्पर्श न करेंगे, तो जीना कठिन हो जाएगा। अस्वस्थ होगी वैसी देह। देह स्वस्थ होगी, तो खबर पूरी होगी। लेकिन भीतर से कोई वासना आकर मन के दरवाजे पर मिलेगी नहीं। बाहर से खबर आएगी। समझी जाएगी। सुनी जाएगी। आगे बढ़ जाया जाएगा। भीतर से कोई आया नहीं मिलने को; खबर बेकार चली गई।

और ध्यान रहे, एक क्षण को भी खबर बेकार चली जाए, तो फिर मिलन नहीं होगा। यह भी आप खयाल में ले लें। एक क्षण भी चूक हो जाए, क्रासिंग न हो पाए; बाहर से शरीर खबर लाए, इंद्रियां कहें, सुंदर है हार; और उसी क्षण भीतर अगर आप जागे रहें और देखते रहें कि कोई वासना आकर इस इनफर्मेशन, इस सूचना से मेल नहीं करती, तो बस एक क्षण में विदा हो जाएगी। वह एक क्षण ही चूक जाता है, बेहोश...।

वह क्षण हम कैसे चूकते हैं? उसके चूकने की भी व्यवस्था है। जैसे ही हार दिखाई पड़ा कि हमारी पूरी अटेंशन, पूरा ध्यान हार पर चला जाता है। वह जो भीतर से वासना आती है, वह अंधेरे में चुपचाप चली आती है। उसे कोई पहरेदार नहीं मिलता।

साधक के लिए इस प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। जब हीरे के हार की खबर दी आंखों ने, तब तत्काल आंख बंद करके ध्यान ले जाएं भीतर, कि भीतर से कौन आ रहा है! बाहर से तो खबर आ गई; अब भीतर से कौन आ रहा है! ध्यान को ले जाएं भीतर। देखें, कोई वृत्ति सरकती है? कोई मांग, कोई इच्छा पैदा होती है? भीतर पहुंच जाएं।

और बड़े मजे की बात है। बुद्ध ने कहा है कि जैसे किसी घर पर पहरेदार न हो, तो चोर घुस जाते हैं, ऐसे ही जिस आत्मा के द्वार पर ध्यान न हो, तो वृत्तियां घुस जाती हैं। जिस घर के द्वार पर पहरेदार न हो, तो चोर घुस जाते हैं! ध्यान पहरेदार है, अटेंशन।

तो कृष्ण कहते हैं, वस्तुओं में अनासक्त!

वस्तुओं में अनासक्त वही होगा, जो वृत्तियों के प्रति जागरूक है, जो वासना के प्रति होशपूर्वक है, जागा हुआ है। जो देखता है कि ठीक; आंख ने खबर दी कि हार सुंदर है। अब भीतर से क्या आता है, उसे देखता है। और अगर कोई व्यक्ति जागकर वृत्तियों को देखने लगे, तो इंद्रियां खबर देती हैं, लेकिन वृत्तियों को उठने का मौका नहीं मिल पाता। एक क्षण की चूक--चूक हो गई। तब तक सूचना खो गई, और आपका होश आपकी शक्ति को बचा गया। आसक्ति निर्मित नहीं हुई।

वृत्ति और इंद्रिय की सूचना के मिलन से आसक्ति निर्मित होती है। इन दोनों का सेतु बन जाए, तो आसक्ति निर्मित होती है। इनका सेतु न बन पाए, तो अनासक्ति निर्मित हो जाती है।

वस्तुओं में जो अनासक्त है! वस्तुओं के बीच जो होशपूर्वक चल रहा है!

चारों तरफ हजार-हजार आकर्षण हैं। इंद्रियों पर लाखों आघात पड़ रहे हैं रोज। कहीं से आवाज कान में आती। कहीं से आंख में रोशनी आती। कहीं से स्पर्श हाथ को मिलता। कहीं से गंध मिलती। कहीं से स्वाद का स्मरण आता। कहीं से कुछ, कहीं से कुछ।

चारों तरफ से अनंत-अनंत आघात पड़ रहे हैं आपके ऊपर। और आपकी वृत्तियां हैं कि तत्काल हर आघात को पकड़ लेती हैं। फिर वासना का और आसक्ति का गहन जाल निर्मित हो जाता है। फिर एक कारागृह बन जाता है भीतर, जिसमें आप बंद होकर जीते हैं। फिर जिंदगी दुख बन जाती है--मांग, मांग; भीख, भीख! यह चाहिए, यह चाहिए, यह चाहिए! और सब मिल जाए, फिर भी कुछ मिलता हुआ मालूम नहीं पड़ता। क्योंकि जब तक एक चीज मिल पाती है, तब तक वासना ने नए बीज बो लिए होते हैं और तब तक आसक्ति ने नए मार्ग बना लिए होते हैं। इधर मिल नहीं पाता, तब तक आप न मालूम और कितने बीज बो चुके!

फिर यह पूरी जिंदगी वृत्तियों के बीच, जैसे कि पानी की लहरों पर कोई कागज की नाव पड़ी हो, ऐसी हो जाती है। कागज की नाव सागर की लहरों पर! हर लहर धकाती है, हर लहर डुबाती है, धक्के और धक्के। फिर पूरा जीवन वृत्तियों की लहरों पर धक्के खाने में बीतता है। रोज करो पूरी आसक्ति, और नई आसक्ति निर्मित होती चली जाती है। जीवन एक दुख-स्वप्न से ज्यादा नहीं है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं कि अगर आनंद की यात्रा करनी हो, अगर उस आनंद को पाना हो, जिसे हम प्रभु कहते, परमात्मा कहते, तो वृत्तियों को ठहराना, जगाना, चेतना को होश से भरना, वस्तुओं में आकर्षित मत होना, आसक्त मत बनना।

कैसे टूटेगी लेकिन यह आसक्ति? एक तो मैंने आपसे कहा कि जब भी आसक्ति निर्मित हो...।

ध्यान रहे, मन के जगत के लिए एक परम सूत्र आपसे कहता हूं, एक अल्टिमेट फार्मूला, और वह यह है कि मन के जगत में किसी चीज को मिटाना बहुत कठिन है, बनने न देना बहुत सरल है। मिटाना बहुत कठिन है, बनने न देना बहुत सरल है।

अभी मनोवैज्ञानिक और फिजियोलाजिस्ट, शरीरशास्त्री भी एक नियम पर पहुंच गए, जो कि योग की तो बहुत पुरानी खोज है, लेकिन अभी शरीरशास्त्रियों को पहली दफा खयाल में आया। वह भी मैं आपसे कहना चाहता हूं। वह यह खयाल में उनको आना शुरू हुआ, खासकर रूस में पावलव को यह खयाल में आया कि शरीर में दो तरह के यंत्र एक साथ काम कर रहे हैं। एक तो यंत्र है वालंटरी, स्वेच्छा से चलता है। एक ऐसी यांत्रिक व्यवस्था है, जो नान-वालंटरी है, स्वेच्छा के बाहर चलती है।

जैसे खून बह रहा है आपके शरीर में; आपकी स्वेच्छा का कोई हिस्सा नहीं है। आपको पता ही नहीं चलता; खून बहता रहता है। तीन सौ साल पहले तक तो यह भी पता नहीं था कि शरीर में खून बहता है। लोग समझते थे, भरा हुआ है; बहता नहीं है! बहने का कोई पता ही नहीं चलता। आपको पता चलता है कि खून बह रहा है शरीर में? बड़ी गति से बह रहा है! गंगा बहुत धीमी बह रही है। जब तक मैंने आपसे यह बात की, आपके पैर में जो खून था, वह सिर में आ गया। तेजी से बह रहा है। सतत गति है खून की। परिभ्रमण चल रहा है। उसी परिभ्रमण से वह स्वच्छ है, ताजा है।

यह खून आपकी स्वेच्छा के बाहर है। आपकी इच्छा नहीं चल सकती इसमें, वालंटरी नहीं है। लेकिन योग कहता है कि अगर थोड़े प्रयोग किए जाएं, तो यह भी स्वेच्छा के भीतर आ जाता है। और योग ने इस तरह के प्रयोग करके सारे जगत में दिखा दिए हैं। नाड़ी की गति कम-ज्यादा हो जाती है स्वेच्छा से, थोड़े अभ्यास से। आप भी थोड़ा प्रयोग करेंगे, तो सफल हो सकते हैं। बहुत कठिन नहीं है।

कभी नाड़ी अपनी नाप लें। पाया कि सौ चल रही है एक मिनट में। तब पांच मिनट बैठकर संकल्प करें कि अब एक सौ पांच चले। पांच मिनट बाद फिर से नापें। और आप पाएंगे कि अब एक सौ पांच नहीं, तो एक सौ तीन तो चलने ही लगी। दो-चार-दस दिन में एक सौ पांच चलने लगेगी। फिर कम भी कर सकते हैं। तब थोड़ी-सी स्वेच्छा के भीतर आ गई। आपने संकल्प का थोड़ा विस्तार किया।


कुछ चीजें हमारी स्वेच्छा से चलती हैं। यह मेरा हाथ है; ऊपर उठाता हूं, नीचे गिराता हूं। मेरी इच्छा से उठता है। न उठाऊं, तो नहीं उठता है। अब एक नई बात खोज में आई है और वह यह कि कोई भी वृत्ति जो स्वेच्छा से उठाई जाती है, एक सीमा के बाद नान-वालंटरी हो जाती है। एक सीमा तक स्वेच्छा के भीतर होती है।

समझें, जैसे एक व्यक्ति को कामवासना भर गई। तो कामवासना एक सीमा तक स्वेच्छा के भीतर होती है। अगर आप इस स्वेच्छा की सीमा के भीतर जाग गए, तो आप कामवासना को शिथिल करके वापस सुला देंगे। लेकिन एक सीमा के बाद वह स्वेच्छा के बाहर चली जाती है। और जो नान-वालंटरी मैकेनिज्म है शरीर का, वह पकड़ लेता है। जब नान-वालंटरी मैकेनिज्म पकड़ लेता है, जब स्वेच्छा के बाहर का यंत्र पकड़ लेता है, तो फिर आपके हाथ के बाहर हो गई बात। अब आप नहीं रोक सकते। अब बात बाहर चली गई।

जब आपको क्रोध उठता है, जब उसकी पहली झलक भीतर आनी शुरू होती है कि उठा, अभी वह स्वेच्छा के भीतर है। लेकिन जब खून में एड्रिनल तत्व छूट गया और खून में जहर पहुंच गया और खून ने क्रोध को पकड़ लिया, फिर आपके हाथ के बाहर हो गया। लेकिन पहले, जब आप में क्रोध उठता है, तो थोड़ी देर तक एड्रिनल ग्रंथियां, जिनमें जहर भरा हुआ है आपके शरीर में, प्रतीक्षा करती हैं कि शायद यह आदमी अभी भी रुक जाए। शायद रुक जाए। आप नहीं रुकते, बढ़ते चले जाते हैं। फिर मजबूरी में जहर की ग्रंथियों को जहर छोड़ देना पड़ता है। जहर के छूटते ही अब आपके हाथ के बाहर हो गया।

ठीक वैसे ही कामवासना में भी वीर्य की ग्रंथियां एक सीमा तक प्रतीक्षा करती हैं कि शायद यह आदमी रुक जाए। एक सीमा के बाद जब देखती हैं कि यह आदमी रुकने वाला नहीं है, तो वीर्य की ग्रंथियां वीर्य को छोड़ देती हैं। फिर स्वेच्छा के बाहर हो गया।

शरीर की सारी व्यवस्था, मन की सारी व्यवस्था एक सीमा के बाद स्वेच्छा के बाहर हो जाती है। तो अगर आपको अनासक्त होना हो, तो जब स्वेच्छा के भीतर चल रहा है काम, तभी जाग जाना जरूरी है। जब स्वेच्छा के बाहर चला गया, तब जागने से पछतावे के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, प्रायश्चित्त के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।

इसलिए जितने जल्दी हो सके, जैसे ही आपको लगे कि कोई चीज सुंदर मालूम पड़ी कि फौरन भीतर जाएं और देखें कि वासना और वृत्तियां उठ रही हैं। यही मौका है। जरा-सी चूक, और वृत्तियां आसक्ति को निर्मित कर लेंगी।

निर्मित आसक्ति को विघटित करना बहुत कठिन है, अनिर्मित आसक्ति को बनने देने से रोकना बहुत सरल है। जब तक नहीं बनी है, अगर जाग गए, तो नहीं बनेगी। बन गई, जाग भी गए, तो बहुत कठिनाई हो जाएगी। बहुत कांप्लेक्स, बहुत जटिल हो जाएगी। और यह हमेशा बेहतर है, प्रिवेंशन इज़ बेटर दैन क्योर। अच्छा है, रोक लें पहले, बजाय पीछे चिकित्सा करनी पड़े। अच्छा है, बीमारी पकड़े, उसके पहले सम्हल जाएं; बजाय इसके कि बीमारी पकड़ जाए और फिर बिस्तर पर लगें और चिकित्सा हो।

आसक्ति के निर्मित होने के पहले ही जाग जाना जरूरी है। कृष्ण तीसरी बात कहते हैं कि अर्जुन, अगर वस्तुओं में तू अनासक्त रह सके, तो भी वहीं पहुंच जाएगा।

कहीं से भी दो विपरीत को खोज लेना और दो के बीच में तटस्थ हो जाना। न इस तरफ झुकना, न उस तरफ। समस्त योग का सार इतना ही है, दो के बीच में जो ठहर जाता, वह जो दो के बाहर है, उसको उपलब्ध हो जाता है। द्वैत में जो तटस्थ हो जाता, अद्वैत में गति कर जाता है। द्वैत में ठहरी हुई चेतना अद्वैत में प्रतिष्ठित हो जाती है। द्वैत में भटकती चेतना, अद्वैत से च्युत हो जाती है। बस, इतना ही।

लेकिन मजबूरी है--चाहे शिव की हो, और चाहे कृष्ण की हो, या किसी और की हो--वही बात फिर-फिर कहनी पड़ती है। फिर-फिर कहनी पड़ती है। कहनी पड़ती है इसलिए, इस आशा में कि शायद इस मार्ग से खयाल में न आया हो, किसी और मार्ग से खयाल आ जाए

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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