गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 3 भाग 16

  

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचार।

असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः।। १९।।

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।

लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि।। २०।।



इससे तू अनासक्त हुआ निरंतर कर्तव्य-कर्म का अच्छी प्रकार आचरण कर, क्योंकि अनासक्त पुरुष कर्म करता हुआ परमात्मा को प्राप्त होता है।

जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्तिरहित कर्म द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं, इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखता हुआ भी तू कर्म करने को ही योग्य है।



अनासक्तिपूर्वक--कृष्ण कह रहे हैं कि इस भांति तू कर्म से मत भाग; भागने की मत सोच। न तो वह संभव है, न उपादेय। संभव भी यही है, उपादेय भी यही कि तू अनासक्त कर्म में प्रवृत्त हो।

इस अनासक्त शब्द को थोड़ा समझें। साधारणतः हमारे जीवन में अनासक्त होने का कोई अनुभव नहीं होता। इसलिए यह शब्द बहुत विजातीय है। यह हमारे अनुभव में कहीं होता नहीं। इसलिए इसे और भी ठीक से समझना पड़ेगा।

हमारे अनुभव में दो शब्द आते हैं, आसक्त और विरक्त; अनासक्त कभी नहीं आता। या तो हम किसी चीज की तरफ आकर्षित होते हैं और या किसी चीज से विकर्षित होते हैं। सुंदर हुआ कुछ, तो आकर्षित होते हैं; कुरूप हुआ कुछ, तो विकर्षित होते हैं। सुंदर हुआ, तो आसक्ति बनती है मन में पाने की। सुंदर नहीं हुआ, तो विरक्ति बनती है मन में छोड़ने की। या तो हम दौड़ते हैं किसी चीज को पाने के लिए और या हम दौड़ते हैं किसी चीज से बचने के लिए। ये दो हमारे अनुभव हैं। या तो हम किसी चीज की तरफ जाते हैं या किसी चीज की तरफ से जाते हैं। बाकी अनासक्ति बड़ी और बात है, इन दोनों से अलग।

अनासक्ति इन दोनों का मध्यबिंदु है, दि मिडिल प्वाइंट। ठीक इन दोनों के बीच में, जहां न तो अट्रैक्शन काम करता और न रिपल्सन काम करता है। बहुत अदभुत बिंदु है अनासक्ति का, जहां से न तो हम किसी चीज के लिए आतुर होकर पागल होते हैं और न आतुर होकर बचने के लिए पागल होते हैं। नहीं, जहां हम किसी चीज के प्रति कोई रुख ही नहीं लेते; जहां किसी चीज के प्रति हमारी कोई दृष्टि ही नहीं रहती; हम बस साक्षी ही होते हैं। अनासक्त का अर्थ है, विरक्त भी नहीं, आसक्त भी नहीं।


विरक्त होना बहुत आसान है, आसक्ति का ही दूसरा हिस्सा है, इसलिए। और जिस चीज में भी हमारी आसक्ति होती है, उसमें ही आज नहीं कल हमारी विरक्ति अपने आप हो जाती है। आज एक मकान में बहुत आसक्ति है, कल वह मिल जाएगा, परसों उसमें रहेंगे, दस दिन बाद भूल जाएगा, आसक्ति खो जाएगी। फिर धीरे-धीरे विरक्ति आ जाएगी। जिस दिन आपको कोई दूसरा मकान दिख जाएगा आसक्ति को पकड़ने के लिए, उसी दिन इस मकान से विरक्ति हो जाएगी। जिस चीज से भी हम आकर्षित होते हैं, किसी न किसी दिन उससे विकर्षित होते हैं। जो चीज भी हमें खींचती है, किसी दिन हम उससे हटते हैं। आकर्षण और विकर्षण एक ही प्रक्रिया के दो हिस्से हैं। अनासक्ति इस पूरी प्रक्रिया के पार है, ट्रांसेंडेंट है। इन दोनों प्रक्रियाओं के ऊपर, अलग, अतीत है।

अनासक्त का मतलब कि न हमें अब खींचती है चीज, न हमें हटाती है; न हमें बुलाती है, न हमें भगाती है। हम खड़े रह गए। बुद्ध ने इस अनासक्ति के लिए उपेक्षा शब्द का प्रयोग किया है। अर्थ यही है, न इस तरफ, न उस तरफ; दोनों तरफ से उपेक्षा है। न आसक्ति, न विरक्ति, दोनों तरफ से इंडिफरेंस है। न तो धन खींचता, न धन भगाता। कृष्ण ने अनासक्ति का प्रयोग किया है, महावीर ने वीतराग शब्द का प्रयोग किया है। राग, विराग, वीतराग। महावीर ने वीतराग शब्द का प्रयोग किया है, जहां न राग हो, न विराग हो, वीतराग हो। दोनों के पार हो जाए। बुद्ध कहते हैं, जहां न आकर्षण, न जहां विकर्षण; उपेक्षा हो, इंडिफरेंस हो; दोनों बराबर हो जाएं। कृष्ण कहते हैं, अनासक्ति, जहां न आसक्ति हो, न विरक्ति हो; दोनों ही न रह जाएं।

लेकिन आसक्त भी कर्म करता और विरक्त भी कर्म करता। अनासक्त क्या करेगा? आसक्त भी कर्म करता, विरक्त भी कर्म करता; यद्यपि जो कर्म आसक्त करता, विरक्त उससे उलटे कर्म करता। अगर आसक्त धन कमाने का काम करता, तो विरक्त धन छोड़ने का, त्यागने का काम करता। अगर आसक्त पदों का लोलुप होता और पदों की सीढ़ियां चढ़ने के लिए दीवाना होता, तो विरक्त पदों से भागने के लिए आतुर और उत्सुक होता, सीढ़ियां उतरने को। आसक्त और विरक्त दोनों कर्म में रत होते, लेकिन दोनों के रत होने का ढंग विपरीत होता, एक-दूसरे की तरफ पीठ किए होते। अनासक्त क्या करेगा?

अनासक्त न तो आसक्त की तरह कर्म करता और न विरक्त की तरह। अनासक्त के कर्म करने की क्वालिटी बदल जाती है। इसे समझ लें।

विरक्त का काम करने का रुख, दिशा बदल जाती है, उलटी हो जाती है। भीतरी चित्त जरा भी नहीं बदलता, कर्म की दिशा प्रतिकूल हो जाती है। अगर आसक्त सीधा खड़ा है, तो विरक्त शीर्षासन लगाकर खड़ा हो जाता है। और कोई फर्क नहीं होता, भीतर आदमी वही का वही होता है। क्वालिटी जरा भी नहीं बदलती, गुण जरा भी नहीं बदलता, भीतर आदमी वही का वही होता है।

एक आदमी है, उसके सामने रुपया ले जाओ, तो उसके मुंह में पानी आने लगता है। एक दूसरा आदमी है, उसके पास रुपया ले जाओ, तो वह आंख बंद कर लेता है और राम-राम जपने लगता है। ये दोनों एक-से आदमी हैं। रुपया दोनों के लिए  महत्वपूर्ण है। हां, एक के लिए महत्वपूर्ण है, लार टपकती है। एक के लिए महत्वपूर्ण है, घबड़ाकर आंख बंद हो जाती है। लेकिन दोनों शीर्षासन एक-दूसरे के प्रति कर रहे हैं। लेकिन रुपए के मामले में दोनों का गुणधर्म एक है। दोनों रुपए में बहुत उत्सुक हैं--एक पक्ष में, एक विपक्ष में; एक मित्र की तरह, एक शत्रु की तरह--लेकिन रुपये के प्रति उपेक्षा नहीं है।

एक है, जो स्त्री के पीछे भागता; एक है कि स्त्री दिखी कि भागा। इन दोनों में बुनियादी गुणात्मक फर्क नहीं है। इनके कृत्य में फर्क है दिशा का। इनके चित्त में फर्क नहीं है। इनके चित्त का बिंदु, इनके चित्त का आब्जेक्ट, इनके चित्त का विषय एक ही है, वही कामवासना है। एक पक्ष में, एक विपक्ष में।

अनासक्त का गुणधर्म बदलता है। अनासक्त दोनों काम कर सकता है। जो विरक्त करता है, वह भी कर सकता है; जो आसक्त करता है, वह भी कर सकता है। लेकिन करने वाला चित्त बिलकुल और ढंग का होता है। उस चित्त का क्या फर्क है, वह खयाल में ले लें।

न तो आसक्त साक्षी हो सकता  है, न विरक्त साक्षी हो सकता है, क्योंकि दोनों का राग है। राग शब्द आपने कभी खयाल किया कि इसका क्या मतलब होता है? इसका मतलब होता है, रंग, कलर। राग का मतलब होता है, रंग। दोनों के चित्त रंगे हुए हैं उसी से, जिस पर उनकी नजर है। आसक्त का चित्त रंगा हुआ है रुपए से मित्र की तरह। विरक्त का चित्त रंगा हुआ है रुपए से शत्रु की तरह। अनासक्त का चित्त रंगा हुआ नहीं है। रुपया उस पर कोई प्रतिबिंब ही नहीं बनाता; रुपया उसको रंगता ही नहीं। रुपया वहां और अनासक्त यहां। उन दोनों के बीच डिस्टेंस होता है। अर्थात अनासक्त साक्षी होता है। वह देखता है कि यह स्त्री है, यह रुपया है; बात खतम हो गई। मैं मैं हूं; यह रुपया है; यह मकान है; यह स्त्री है; यह पुरुष है।


अनासक्त का यह गुणधर्म है। अनासक्त देखता है जिंदगी को; न इस तरफ भागता, न उस तरफ भागता। और परमात्मा जो ले आता है जिंदगी में, उसमें से चुपचाप साक्षी की भांति गुजर जाता है। इसलिए कृष्ण ने उल्लेख किया जनक का। और कृष्ण जब उल्लेख करें, तो सोचने जैसा है। कृष्ण ने उल्लेख किया जनक का कि जनक जैसे ज्ञानी। और अर्जुन तू तो इतना ज्ञानी नहीं है। उनका मतलब साफ है। वे यह कह रहे हैं कि तू तो इतना ज्ञानी नहीं है कि तू वैराग्य की बात करे। जनक जैसा ज्ञानी भी छोड़ने को, भागने को आतुर न हुआ! जनक जैसा ज्ञानी चुपचाप वहीं जीए चला गया, जहां था।

तो क्या था सूत्र जनक का? सूत्र था, अनासक्तियोग। सूत्र था, जहां हमें दो दिखाई पड़ते हैं, वहां तीसरा भी दिखाई पड़ने लगे, दि थर्ड फोर्स। दो तो हमें सदा दिखाई पड़ते हैं, तीसरा दिखाई नहीं पड़ता है। विरक्त को भी दो दिखाई पड़ते हैं। आसक्त को भी दो दिखाई पड़ते हैं--मैं, और वह, जिस पर मैं आसक्त हूं। विरक्त को भी दो दिखाई पड़ते हैं--मैं, और वह, जिससे मैं विरक्त हूं। अनासक्त को तीन दिखाई पड़ते हैं--वह जो आकर्षण का केंद्र है या विकर्षण का, और वह जो आकर्षित हो रहा या विकर्षित हो रहा, और एक और भी, जो दोनों को देख रहा है।

यह जो दोनों को देख रहा है--अर्जुन से कृष्ण कहते हैं--तू इसी में प्रतिष्ठित हो जा। इसमें तेरा हित तो है ही, तेरा मंगल तो है ही, इसमें लोकमंगल भी है। क्यों, इसमें क्या लोकमंगल है? यह तो मेरी समझ में पड़ता है, आपकी भी समझ में पड़ता है कि अर्जुन का मंगल है। अनासक्त कोई हो जाए, तो जीवन के परम आनंद के द्वार खुल जाते हैं। आसक्त भी दुखी होता है, विरक्त भी दुखी होता है। आसक्त भी सुखी होता है, विरक्त भी सुखी होता है। बुद्ध ने कहा है, जिसे हम प्रेम करते हैं, वह आ जाए, तो सुख देता है; जिसे हम घृणा करते हैं, वह चला जाए, तो सुख देता है। जिसे हम घृणा करते हैं, वह आ जाए, तो दुख देता है; जिसे हम प्रेम करते हैं, वह चला जाए, तो दुख देता है। फर्क क्या है? बुद्ध ने पूछा है। दोनों ही दोनों काम करते हैं। हां, किसी के आने से सुख होता है, किसी के जाने से। किसी के जाने से सुख होता है, किसी के आने से--बस इतना ही फर्क है।

मित्र भी सुख देते हैं, मित्र भी दुख देते हैं। शत्रु भी सुख देते हैं, शत्रु भी दुख देते हैं। असल में जो भी सुख देता है, वह दुख भी देगा। और जो भी दुख देता है, वह सुख भी देगा। क्योंकि सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो ऊपर होता है, वह हमें दिखाई पड़ता है; जो नीचे होता है, वह छिप जाता है। थोड़ी देर बाद, जब एक पहलू से ऊब जाते हैं और उलटते हैं, तब दूसरा पहलू दिखाई पड़ता है।

लेकिन कृष्ण कह रहे हैं, तेरा तो मंगल होगा ही, लोकमंगल भी होगा। लोकमंगल क्या होगा? सबका मंगल क्या होगा?

असल में जो आसक्त हैं, वे भी; और जो विरक्त हैं, वे भी, जगत को आनंद के मार्ग पर ले जाने वाले नहीं बनते। नहीं बनते हैं दो कारणों से। एक तो जो स्वयं ही आनंद के मार्ग पर नहीं है, उसके जीवन से किसी को भी आनंद नहीं मिल सकता। क्योंकि हम वही दे सकते हैं, जो हमारे पास है। हम वह नहीं दे सकते, जो हमारे पास नहीं है। दूसरा, जो व्यक्ति जितना आसक्त या विरक्त होकर कर्म में लगता है, उतना ही तनाव, उतना ही टेंस उसका व्यक्तित्व होता है।

और ध्यान रहे, हम करीब-करीब ऐसे ही हैं, जैसे कोई पानी में एक पत्थर फेंके। झील है, एक पत्थर फेंक दिया। तो पत्थर तो झील में थोड़ी देर में नीचे बैठ जाता है तलहटी में, भूमि में बैठ जाता है। लेकिन पत्थर से उठी लहरें फैलती चली जाती हैं; दूर अनंत किनारों तक फैलती चली जाती हैं। ठीक वैसे ही, जब भी हमारे चित्त में जरा-सा तनाव उठता है, तो हम मनुष्य के जीवन के सरोवर में तरंगें पैदा करते हैं। फिर चाहे हमारा तनाव चला भी जाए, वे तरंगें फैलती चली जाती हैं। वे न मालूम कितने लोगों को स्पर्श करती हैं और न मालूम कितने लोगों के जीवन में अमंगल बन जाती हैं।

सिर्फ अनासक्त व्यक्ति के भीतर से तनाव की, चिंता की, दुख की, पीड़ा की विकृत तरंगें नहीं उठती हैं। सिर्फ अनासक्त व्यक्ति से जो तरंगें उठती हैं, वे सदा मंगलकारी हैं। इसलिए लोकमंगल है। लोकमंगल यहां बहुत ही गहरे अर्थों में कहा है।

हम चौबीस घंटे अपने चारों तरफ रेडिएट कर रहे हैं। जो भी हमारे भीतर है, वह रेडिएट हो रहा है, वह विकीर्णित हो रहा है, उसकी किरणें हमारे चारों तरफ फैल रही हैं। हर आदमी अपने चारों ओर प्रतिपल उसी तरह लहरें उठा रहा है, जैसे पत्थर फेंका गया झील में उठाता है। हम कल समाप्त हो जाएंगे। लेकिन हमारे द्वारा उठाई गई लहरें अनंत हैं; वे कभी समाप्त न होंगी; वे चलती ही रहेंगी; वे कभी दूर तारों के निवासियों को भी छुएंगी। अब वैज्ञानिक कहते हैं, कोई पचास हजार तारों पर जीवन है। अभी तक उन्होंने कोई चार अरब तारे खोज निकाले हैं। जीवन वहां समाप्त नहीं होता मालूम पड़ता, हमारी सामर्थ्य चुक जाती है--उसके आगे, उसके आगे, उसके आगे।

एक-एक व्यक्ति से जो तरंग उठती है, वह उठती ही चली जाती है। व्यक्ति कभी का समाप्त हो जाएगा, उसके द्वारा उठाई गई तरंगें अनंतकाल तक उठती रहती हैं--अनादि, अनंत।

कृष्ण कह रहे हैं कि जो अनासक्त चित्त है, उसके भीतर जो गुण परिवर्तन होता है, उससे जो तरंगें उठती हैं, वे बिलकुल बिना जाने, परोक्ष, चुपचाप लोगों के जीवन में मंगल की वर्षा कर जाती हैं। तो तू लोकमंगल के लिए भी अनासक्त हो जा। अपने लिए तो अनासक्त होना उचित ही है, आनंदपूर्ण ही है, औरों के लिए भी आनंदपूर्ण है। इसलिए जैसे जनक और सब जानने वालों ने जीवन से भागने की कोई चेष्टा न की, तू भी मत भाग। भागने से कभी कोई कहीं पहुंचा भी नहीं है। भागने से कभी कोई रूपांतरित भी नहीं हुआ है। भागने से कभी कोई क्रांति भी घटित नहीं होती। क्योंकि भागते केवल वे ही हैं, जो नहीं जानते हैं। जो जानते हैं, वे भागते नहीं हैं, रूपांतरित करते हैं, स्वयं को बदल डालते हैं। विरक्ति भागना है आसक्ति से।

और एक बात और इस संबंध में।

जो आदमी आसक्ति में जीएगा, उसके मन में सदा ही विरक्ति के खयाल आते रहेंगे, आते ही रहेंगे। क्योंकि जिंदगी पोलर है, ध्रुवीय है। यहां हर चीज का दूसरा ध्रुव है। यहां बिजली का अगर पाजिटिव पोल है, तो निगेटिव पोल भी है। यहां अगर अंधेरा है, तो उजाला भी है। यहां अगर सर्दी है, तो गर्मी भी है। यहां अगर जन्म है, तो मृत्यु भी है। यहां जीवन में हर चीज का दूसरा विरोधी हिस्सा है। तो जो व्यक्ति आसक्ति में जीएगा, उसको जिंदगी में हजारों बार विरक्ति के दौरे पड़ते रहेंगे, उसको विरक्ति का फिट आता रहेगा। आप सबको आता है। कभी ऐसा लगता है, सब बेकार है, सब छोड़ दो। घड़ीभर बाद दौरा चला जाता है, सब सार्थक, फिर सबमें लग जाता है।

जो लोग विरक्त हो जाते हैं, उनको आसक्ति के दौरे पड़ते रहते हैं, उनको भी पड़ते रहते हैं, उनको भी फिट आते हैं। जो आश्रम में बैठ जाते हैं, उनको भी एकदम से खयाल आ जाता है, सारी दुनिया सिनेमागृह में बैठी होगी और हम यहां बैठे हैं! जो मंदिर में बैठते हैं, उनको भी खयाल आ जाता है कि पड़ोसी दुकान पर पहुंच गया होगा, हम यहां क्या कर रहे हैं?

जो आसक्त है, उसकी जिंदगी में विरक्ति बीच-बीच में प्रवेश करती रहेगी। जो विरक्त है, उसकी जिंदगी में आसक्ति बीच-बीच में प्रवेश करती रहेगी। असल में जिस हिस्से को हमने दबाया और छोड़ा है, वह असर्ट करता रहेगा, वह हमला करता रहेगा। वह कहेगा, मैं भी हूं, मुझे भी थोड़ा ध्यान दो। लेकिन सिर्फ अनासक्त व्यक्ति ऐसा है, जिसकी जिंदगी में दौरे नहीं पड़ते। क्योंकि न वहां विरक्ति है, न वहां आसक्ति है, इसलिए दौरे पड़ने का कोई उपाय नहीं है। दौरा विपरीत का पड़ता है। वहां अब कोई विपरीत ही नहीं है; नान-पोलर है।

अब इसको समझ लेना आप। अनासक्ति जो है, नान-पोलर है, अध्रुवीय है। इसलिए अनासक्त जो हुआ, वह ध्रुवीय जगत के बाहर हो जाता है--जहां ऋण और धन चलता है, जहां स्त्री और पुरुष चलते हैं, जहां हानि और लाभ चलता है। वे जितने द्वंद्व हैं, सब ध्रुवीय हैं, पोलर हैं। जो व्यक्ति अनासक्त हुआ, वह अद्वैत में प्रवेश कर जाता है; क्योंकि अनासक्ति नान-पोलर है।

ब्रह्म में केवल वे ही प्रवेश करते हैं, जो अनासक्त हैं। जो आसक्त हैं या विरक्त हैं, वे द्वैत में ही भटकते रहते हैं। असल में जिसने भी पक्ष लिया, विपक्ष लिया, वह पोलर में गया, वह ध्रुवीय जगत में प्रवेश कर गया; वह ब्रह्म को कभी स्पर्श नहीं कर पाता। ब्रह्म को वही स्पर्श करता है, जो दो की जगह एक में उठता है।

आसक्ति और विरक्ति दोनों से उठना पड़े। और इन दोनों से उठने की जो स्थिति है, वह कर्म में साक्षी बन जाना है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...