रविवार, 17 सितंबर 2023


अकथ कहानी प्रेम की-(बाबा शेख फरिद)


पहला-प्रवचन


सूत्र

बोलै सेखु फरीदु पियारे अलह लगे।

इहु तन होसी खाक निमाणी गोर घरे।।

आजु मिलावा सेख फरीद टाकिम।

कूंजड़ीआ मनहु मचिंदड़ीआ।।

जे जाणा मरि जाइए घुमि न आईए।

झूठी दुनिया लगी न आपु वआईए।।

बोलिए सचु धरमु न झूठ बोलिए।

जो गुरु दसै वाट मुरीदा जोलिए।।

छैल लघंदे पार गोरी मनु धीरिआ।

कंचन वंने पासे कलवति चीरिआ।।

सेख हैयाती जगि न कोई थिरु रहिआ।

जिसु आसणि हम बैठे केते वैसि गइआ।।

कातिक कूंजां चेति डउ सावणि बिजुलीआं।


सीआले संहंदीआं पिर गलि बाहड़ीआं।।

चले चलणहार विचारा लेइ मनो।

गढ़ेदिआं छिह माह तुरंदिआ हिकु खिनो।।

जिमी पुछै असमान फरीदा खेवट किनी गए।

जारण गोरा नालि उलामे जीअ सहे। ।

हमें इस पद का मर्म समझाने की अनुकंपा करें।

प्रेम और ध्यान..दो शब्द जिसने ठीक से समझ लिए, उसे धर्मों के सारे पथ समझ में आ गए। दो ही मार्ग हैं। एक मार्ग है प्रेम का, हृदय का। एक मार्ग है ध्यान का, बुद्धि का। ध्यान के मार्ग पर बुद्धि को शुद्ध करना है..इतना शुद्ध कि बुद्धि शेष ही न रह जाए, शून्य हो जाए। प्रेम के मार्ग पर हृदय को शुद्ध करना है..इतना शुद्ध कि हृदय खो जाए, प्रेमी खो जाए। दोनों ही मार्ग से शून्य की उपलब्धि करनी है, मिटना है। कोई विचार को काट-काट कर मिटेगा; कोई वासना को काट-काट कर मिटेगा।

प्रेम है वासना से मुक्ति। ध्यान है विचार से मुक्ति। दोनों ही तुम्हें मिटा देंगे। और जहां तुम नहीं हो वहीं परमात्मा है।

ध्यानी ने परमात्मा के लिए अपने शब्द गढ़े हैं..सत्य, मोक्ष, निर्वाण; प्रेमी ने अपने शब्द गढ़े हैं। परमात्मा प्रेमी का शब्द है। सत्य ध्यानी का शब्द है। पर भेद शब्दों का है। इशारा एक ही की तरफ है। जब तक दो हैं तब तक संसार है; जैसे ही एक बचा, संसार खो गया।

शेख फरीद प्रेम के पथिक हैं, और जैसा प्रेम का गीत फरीद ने गाया है वैसा किसी ने नहीं गाया। कबीर भी प्रेम की बात करते हैं, लेकिन ध्यान की भी बात करते हैं। दादू भी प्रेम की बात करते हैं, लेकिन ध्यान की बात को बिल्कुल भूल नहीं जाते। नानक भी प्रेम की बात करते हैं, लेकिन वह ध्यान से मिश्रित है। फरीद ने शुद्ध प्रेम के गीत गाए हैं; ध्यान की बात ही नहीं की है; प्रेम में ही ध्यान जाना है। इसलिए प्रेम की इतनी शुद्ध कहानी कहीं और न मिलेगी। फरीद खालिस प्रेम हैं। प्रेम को समझ लिया तो फरीद को समझ लिया। फरीद को समझ लिया तो प्रेम को समझ लिया।

प्रेम के संबंध में कुछ बातें मार्ग-सूचक होंगी, उन्हें पहले ध्यान में ले लें।

पहली बातः जिसे तुम प्रेम कहते हो, फरीद उसे प्रेम नहीं कहते। तुम्हारा प्रेम तो प्रेम का धोखा है। वह प्रेम है नहीं, सिर्फ प्रेम की नकल है, नकली सिक्का है। और इसलिए तो उस प्रेम से सिवाय दुख के तुमने कुछ और नहीं जाना।

कल ही फ्रांस से आई एक संन्यासिनी मुझे रात पूछती थी कि प्रेम में बड़ा दुख है, आप क्या कहते हैं? जिस प्रेम को तुमने जाना है उसमें बड़ा दुख है, इसमें कोई शक नहीं। लेकिन वह प्रेम के कारण नहीं है, वह तुम्हारे कारण है। तुम ऐसे पात्र हो कि अमृत भी विष हो जाता है। तुम अपात्र हो, इसलिए प्रेम भी विषाक्त हो जाता है। फिर उसे तुम प्रेम कहोगे तो फरीद को समझना बहुत मुश्किल हो जाएगा; क्योंकि फरीद तो प्रेम के आनंद की बातें करेगा; प्रेम का नृत्य और प्रेम की समाधि और प्रेम में ही परमात्मा को पाएगा। और तुमने तो प्रेम में सिर्फ दुख ही जाना है, चिंता, कलह, संघर्ष ही जाना है। प्रेम में तो तुमने एक तरह की विकृत रुग्ण-दशा ही जानी है। प्रेम को तुमने नरक की तरह जाना है। तुम्हारे प्रेम की बात ही नहीं हो रही है।

जिस प्रेम की फरीद बात कर रहा है, वह तो तभी पैदा होता है जब तुम मिट जाते हो। तुम्हारी कब्र पर उगता है फूल उस प्रेम का। तुम्हारी राख से पैदा होता है वह प्रेम। तुम्हारा प्रेम तो अहंकार की सजावट है। तुम प्रेम में दूसरे को वस्तु बना डालते हो। तुम्हारे प्रेम की चेष्टा में दूसरे की मालकियत है। तुम चाहते हो, तुम जिसे प्रेम करो, वह तुम्हारी मुट्ठी में बंद हो, तुम मालिक हो जाओ। दूसरा भी यहीं चाहता है। तुम्हारे प्रेम के नाम पर मालकियत का संघर्ष चलता है।

जिस प्रेम की फरीद बात कर रहा है, वह ऐसा प्रेम है जहां तुम दूसरे को अपनी मालकियत दे देते हो; जहां तुम स्वेच्छा से समर्पित हो जाते हो; जहां तुम कहते होः तेरी मर्जी मेरी मर्जी। संघर्ष का तो कोई सवाल नहीं है।

निश्चित ही ऐसा प्रेम दो व्यक्तियों के बीच नहीं हो सकता। ऐसा प्रेम दो सम स्थिति में खड़ी हुई चेतनाओं के बीच नहीं हो सकता। ऐसे प्रेम की छोटी-मोटी झलक शायद गुरु के पास मिले; पूरी झलक तो परमात्मा के पास ही मिलेगी। ऐसा प्रेम पति-पत्नी का नहीं हो सकता, मित्र-मित्र का नहीं हो सकता। दूसरा जब तुम्हारे ही जैसा है तो तुम कैसे अपने को समर्पित कर पाओगे? संदेह पकड़ेगा मन को। हजार भय पकड़ेंगे मन को। यह दूसरे पर भरोसा हो नहीं सकता कि सब छोड़ दो, कि कह सको कि तेरी मर्जी मेरी मर्जी है। इसकी मर्जी में बहुत भूल-चूक दिखाई पड़ेंगी। यह तो भटकाव हो जाएगा। यह तो अपने हाथ से आंखें फोड़ लेना होगा। ऐसे ही अंधेरा क्या कम है, आंखें फोड़ कर तो और मुश्किल हो जाएगी। यह तो अपने हाथ में जो छोटा-मोटा दीया है बुद्धि का, वह भी बुझा देना हो जाएगा। यह तो निर्बुद्धि में उतरना होगा। यह संभव नहीं है।

मनुष्य और मनुष्य के बीच प्रेम सीमित ही होगा। तुम छोड़ोगे भी तो सशर्त छोड़ोगे। तुम अगर थोड़ी दूसरे को मालकियत भी दोगे तो भी पूरी न दोगे, थोड़ा बचा लोगे..लौटने का उपाय रहे; अगर कल वापस लौटना पड़े, समर्पण को इनकार करना पड़े तो तुम लौट सको; ऐसा न हो कि लौटने की जगह न रह जाए। तुम सीढ़ी को मिटा न दोगे, लगाए रखोगे।

साधारण प्रेम बेशर्त नहीं हो सकता, अनकंडीशनल नहीं हो सकता। और प्रेम जब तक बेशर्त न हो तब तक प्रेम ही नहीं होता। तुमसे ऊपर कोई, जिसे देख कर तुम्हें आकाश के बादलों का स्मरण आए; जिसकी तरफ तुम्हें आंखें उठानी हों तो जैसे सूरज की तरफ कोई आंख उठाए; जिसके बीच और तुम्हारे बीच एक बड़ा फासला हो, एक अलंघ्य खाई हो; जिसमें तुम्हें परमात्मा की थोड़ी सी प्रतीति मिले..उसको ही हमने गुरु कहा है।

गुरु पूरब की अनूठी खोज है। पश्चिम इस रस से वंचित ही रह गया है; उसे गुरु का कोई पता ही नहीं है। वह आयाम जाना ही नहीं पश्चिम ने। पश्चिम को दो मित्रों का पता है, शिक्षक-विद्यार्थी का पता है, पति-पत्नी का पता है, प्रेमी-प्रेयसी का पता है; लेकिन फरीद जिसकी बात करेगा..गुरु और शिष्य..उसका कोई पता नहीं है।

गुरु और शिष्य का अर्थ हैः कोई ऐसा व्यक्ति जिसके भीतर से तुम्हें परमात्मा की झलक मिली; जिसके भीतर तुमने आकाश देखा; जिसकी खिड़की से तुमने विराट में झांका। उसकी खिड़की छोटी ही हो..खिड़की के बड़े होने की कोई जरूरत भी नहीं है; लेकिन खिड़की से जो झांका, वह आकाश था। तब समर्पण हो सकता है। तब तुम पूरा अपने को छोड़ सकते हो।

धर्म की तलाश मूलतः गुरु की तलाश है, क्योंकि और तुम धर्म को कहां देख पाओगे? और तो तुम जहां जाओगे, अपने ही जैसा व्यक्ति पाओगे। तो अगर तुम्हारे जीवन में कभी कोई ऐसा व्यक्ति आ जाए जिसको देख कर तुम्हें अपने से ऊपर आंखें उठानी पड़ती हों; जिसे देख कर तुम्हें दूर के सपने, आकांक्षा, अभीप्सा भर जाती हो; जिसे देख कर तुम्हें दूर आकाश का बुलावा मिलता हो, निमंत्रण मिलता हो..और इसकी कोई फिकर मत करना कि दुनिया उसके संबंध में क्या कहती है, यह सवाल नहीं है..तुम्हें अगर उस खिड़की से कुछ दर्शन हुआ हो तो ऐसे व्यक्ति के पास समर्पण की कला सीख लेना। उसके पास तुम्हें पहले पाठ मिलेंगे, प्राथमिक पाठ मिलेंगे..अपने को छोड़ने के। वे ही पाठ परमात्मा के पास काम आएंगे।

गुरु आखिरी नहीं है; गुरु तो मार्ग है। अंततः तो गुरु हट जाएगा, खिड़की भी हट जाएगी..आकाश ही रह जाएगा। जो खिड़की आग्रह करे, हटे न, वह तो आकाश और तुम्हारे बीच बाधा हो जाएगी; वह तो सेतु न होगी, विघ्न हो जाएगा।

जिस प्रेम की फरीद बात कर रहें हैं, उसकी झलक तुम्हें कभी गुरु के पास मिलेगी। तुम मुझसे पूछोगे की हम कैसे गुरु को पहचानें। मैं तुमसे कहूंगाः जहां तुम्हें ऐसी झलक मिल जाए। उसके अतिरिक्त और कोई कसौटी नहीं है। गुरु की परिभाषा यह है कि जहां तुम्हें विराट की थोड़ी सी झलक मिल जाए; जिस बूंद में तुम्हें सागर का थोड़ा सा स्वाद मिल जाए; जिस बीज में तुम्हें संभावनाओं के फूल खिलते हुए दिखाई पड़ें। फिर ध्यान मत देना कि दुनिया क्या कहती है, क्योंकि दुनिया का कोई सवाल नहीं है। जहां तुम खड़े हो, वहां से हो सकता है, किसी खिड़की से आकाश दिखाई पड़ता हो; जहां दूसरे खड़े हों वहां से उस खिड़की के द्वारा आकाश दिखाई न पड़ता हो। यह भी हो सकता है कि तुम्हारे ही बगल में खड़ा हुआ व्यक्ति खिड़की कि तरफ पीठ करके खड़ा हो, और उसे आकाश न दिखाई पड़े। यह भी हो सकता है कि किन्हीं क्षणों में तुम्हें आकाश दिखाई पड़े और किन्हीं क्षणों में तुम्हें ही आकाश न दिखाई पड़े। क्योंकि जब तुम उंचाई पर होओगे और तुम्हारी आंखें निर्मल होंगी तो ही आकाश दिखाई पड़ेगा। जब तुम्हारी आंखें धूमिल होंगी, आंसुओं से भरी होंगी, पीड़ा, दुख से दबी होंगी..तब खिड़की भी क्या करेगी? अगर आंखें ही धूमिल हों तो खिड़की आकाश न दिखा सकेगीः खिड़की खुली रहेगी, तुम्हारे लिए बंद हो जाएगी। तुम्हें भी आकाश तभी दिखाई पड़ेगा जब आंखें खुली हों; और भीतर होश हो। आंख भी खुली हो और भीतर बेहोशी हो तो भी खिड़की व्यर्थ हो जाएगी।

तो ध्यान रखना, जिसको तुमने गुरु जाना है, वह तुम्हें भी चैबीस घंटे गुरु नहीं मालूम होगा। कभी-कभी, किन्हीं ऊंचाइयों के क्षण में, किन्हीं गहराइयों के मौकों पर कभी तुम्हारी आंख, तुम्हारे बोध और खिड़की का तालमेल हो जाएगा, और आकाश की झलक आएगी। पर वही झलक रूपांतरकारी है। तुम उस झलक पर भरोसा रखना। तुम अपनी ऊंचाई पर भरोसा रखना।

अगर ठीक से समझो तो गुरु पर भरोसा अपनी ही जीवन-दशा की ऊंचाई में हुई अनुभूतियों पर भरोसा है। संदेह अपनी ही जीवनदशा की नीचाइयों पर भरोसा है। श्रद्धा अपनी ही प्रतीति के ऊंचाइयों पर भरोसा है। और तुम्हारे भीतर दोनों हैं। तुम कभी इतने नीचे हो जाते हो जैसे पत्थर, बिल्कुल बंद, कहीं कोई रंध्र भी नहीं रह जाती कि तुम्हें अपने से पार की कोई झलक मिले। कभी तुम खुल जाते हो, जैसे खिलता हुआ फूल, और तुम्हारे पंखुरियों पर सूरज नाचता है, और तुम्हारे पराग से आकाश का मेल होता है। लेकिन जहां तुम्हें झलक मिल जाए वहां से सीख लेना परमात्मा के पाठ, क्योंकि प्रेम की पहली खबर वहीं होंगी, वहां तुम झुक सकोगे। जहां तुम झुक सको, वहीं धर्म की शुरुआत है।

लोग कहते है, मंदिर में जाओ और झुको; और मैं तुमसे कहता हूं, जहां तुम्हें झुकना हो जाए वहीं समझ लेना मंदिर है। जिसके पास झुकना सहजता से हो जाए, जरा भी प्रयास न करना पड़े, झुकना आनंदपूर्ण हो जाए, लड़ना न पड़े भीतर..वहां तुम्हें प्रेम की पहली खबर मिलेगी; वहां तुम्हें पहली बार पता चलेगा कि प्रेम दान है..वस्तुओं का नहीं, धन का नहीं, अपना स्वयं का।

प्रेम मांग नहीं है। जहां मांग है वहां प्रेम धोखा है, फिर वहां कलह है। अगर गुरु से भी तुम्हारी कोई मांग हो, कि समाधि मिले, परमात्मा मिले, आत्मज्ञान मिले..अगर ऐसी कोई मांग हो तो तुम वहां भी सौदा कर रहे हो, वहां भी व्यवसाय जारी है; प्रेम की तुम्हें समझ न आई।

गुरु के पास कोई मांग नहीं है। तुम गुरु को धन्यवाद देते हो कि उसने तुम्हारे समर्पण को स्वीकार कर लिया। फिर समाधि तो छाया की तरह चली आती है। जहां समर्पण है वहां समाधि आ ही जाएगी; उसके विचार की कोई जरूरत नहीं है; विचार किया, रुक जाएगी असंभव हो जाएगी। क्योंकि विचार से ही खबर मिल जाएगी कि समर्पण नहीं है। और तुम्हारा मन इतना चालाक है, कानूनी है, गणित से भरा है कि तुम्हें पता ही नहीं रहता कि वह किस तरह का धोखा देता है।

कल मैं, वंदना मराठी में एक पत्रिका मेरे लिए निकालती हैः योगदीप, सुंदर है..उसे देखता था। उसने बड़ी मेहनत वर्षों से की है और पत्रिका को बड़े मापदंड पर उठाया है। लेकिन जबसे उसने निकाली है पत्रिका, तबसे मैं एक छोटा सा वक्तव्य उसमें हमेशा देखता हूं। उस पत्रिका में सिर्फ मेरे ही विचार वह छापती है; लेकिन जहां संपादकों के नाम हैं, वहां उसने एक पंक्ति लिख रखी है कि इस पत्रिका में प्रकाशित विचारों से संपादक की सहमति अनिवार्य नहीं है।

होशियारी है! मेरे ही विचार छापती है, मेरे लिए ही पत्रिका चलाती है; लेकिन मेरे विचारों से भी संपादक की पूरी सहमति अनिवार्य नहीं हैः कोई मुकदमा चले, कोई झंझट हो! समर्पण भी सशर्त है! स्वीकार में भी कानून है! उलझन में पड़ने की किसी की भी हिम्मत नहीं है, साहस नहीं है।

प्रेम दुस्साहस है। वह ऐसी छलांग है जिसमें तुम कल का विचार नहीं करते। जब तुम जाते हो तो तुम पूरे ही साथ जाते हो, या नहीं जाते; क्योंकि आधा आधा क्या जाना! ऐसे तो तुम ही कटोगे और मुश्किल में पड़ोगे। जैसे आधा शरीर तुम्हारा मेरे साथ चला गया और आधा घर रह गया, तो तुम्हीं कष्ट पाओगे। मेरा इसमें कोई हर्ज नहीं है। लेकिन तुम्हीं दुविधा में रहोगे। या तो पूरे घर रह जाओ, या पूरे मेरे साथ चल पड़ो। जरा सी भी मांग हो, खंडित हो गए!

तुमने कभी ख्याल किया? जहां भी मांग आती है वहीं तुम छोटे हो जाते हो; जहां मांग नहीं होती, सिर्फ दान होता है, वहां तुम भी विराट होते हो। जब तुम्हारे मन में कोई मांगने का भाव ही नहीं उठता, तब तुममें और परमात्मा में क्या फासला है? इसलिए तो बुद्धपुरुषों ने निर्वासना को सूत्र माना, कि जब तुम्हारी कोई वासना न होगी, तब परमात्मा तुममें अवतरित हो जाएगा।

परमात्मा तुममें छिपा ही है, केवल वासनाओं के बादलों में घिरा है। सूरज मिट नहीं गया है सिर्फ बादलों में घिरा है। वासना के बादल हट जाएंगेः तुम पाओगे, सूरज सदा-सदा से मौजूद था।

गुरु के पास प्रेम का पहला पाठ सीखना, बेशर्त होना सीखना, झुकना और अपने को मिटाना सीखना। मांगना मत। मन बहुत मांग किए चला जाएगा, क्योंकि मन की, मन की पुरानी आदत है। मन भिखमंगा है। सम्राट का मन भी भिखारी है; वह भी मांगता है।

आत्मा सम्राट है; वह मांगती नहीं। जिस दिन तुम प्रेम में इस भांति अपने को दे डालते हो कि कोई मांग की रेखा भी नहीं होती, उसी क्षण तुम सम्राट हो जाते हो। प्रेम तुम्हें सम्राट बना देता है। प्रेम के बिना तुम भिखारी हो। वही तुम्हारा दुख है।

दूसरी बातः जब फरीद प्रेम की बात करता है, तो प्रेम से उसका अर्थ हैः प्रेम का विचार नहीं, प्रेम का भाव। और उन दोनों में बड़ा फर्क है। तुम जब प्रेम भी करते हो तब तुम सोचते हो कि तुम प्रेम करते हो। यह हृदय का सीधा संबंध नहीं होता; उसमें बीच में बुद्धि खड़ी होती है।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हमारा किसी से प्रेम हो गया है। मैं कहता हूं, ठीक से कहो, सोच कर कहो। वे थोड़े चिंतित हो जाते हैं। वे कहते हैं, हम सोचते हैं कि प्रेम हो गया है; पक्का नहीं, हुआ कि नहीं, लेकिन ऐसा विचार आता है कि प्रेम हो गया है।

प्रेम का कोई विचार आवश्यक है? तुम्हारे पैर में कांटा गड़ता है तो तुम्हारा बोध सीधा होता है कि पैर में पीड़ा हो रही है। ऐसा थोड़े ही तुम कहते हो कि हम सोचते हैैं कि शायद पैर में पीड़ा हो रहीं है। सोच विचार को छेद देता है कांटा, आर-पार निकल जाता है। जब तुम आनंदित होते हो तो क्या तुम सोचते हो कि तुम आनंदित हो रहे हो, या कि तुम सिर्फ आनंदित होते हो? जब तुम दुखी होते हो..कोई प्रियजन चल बसा, छोड़ दी देह, मरघट पर विदा कर आए..जब तुम रोते हो तब तुम सोचते हो कि दुखी हो रहे हो, या कि दुखी होते हो? दोनों में फर्क है। अगर सोचते हो कि दुखी हो रहे हो ही नहीं रहे; शायद दिखावा होगा। समाज के लिए आंसू भी गिराने पड़ते हैं। दूसरों को दिखाने के लिए हंसना भी पड़ता है, प्रसन्न भी होना पड़ता है, दुखी भी होना पड़ता है; लेकिन तुम्हारे भीतर कुछ भी नहीं हो रहा है। लेकिन जब तुम्हारे भीतर दुख हो रहा है तो विचार बीच में माध्यम नहीं होता, यह सीधा होता है।

फरीद जब प्रेम की बात करे तो याद रखना, यह सोच-विचार वाला प्रेम नहीं है; यह पागल प्रेम है, यह भाव का प्रेम है। और जब भाव से तुम्हें कोई बात पकड़ लेती है तो तुम्हारे जड़ों से पकड़ लेती है। विचार तो वृक्षों में लगे पत्तों की भांति है। भाव वृक्ष के नीचे छिपी जड़ों की भांति है। छोटा सा बच्चा भी जन्मते ही भाव में समर्थ होता है, विचार में समर्थ नहीं होता। विचार तो बाद का प्रशिक्षण है; सिखाना पड़ता है..स्कूल, कालेज, युनिवर्सिटी, संसार, अनुभव..तब विचार करना सीखता है; लेकिन भाव, भाव तो पहले क्षण ही से करता है। अभी-अभी पैदा हुए बच्चे को भी गौर से देखो तो तुम पाओगे, भाव से आंदोलित होता है। अगर तुम प्रसन्न हो और आनंद से उसे तुमने छुआ है तो वह भी पुलकित होता है। अगर तुम उपेक्षा से भरे हो और तुम्हारे स्पर्श में प्रेम की ऊष्मा नहीं है, तो वह तुम्हारे हाथ से अलग हट जाना चाहता है, वह तुम्हारे पास नहीं आना चाहता। अभी सोच-विचार कुछ भी नहीं है। अभी मस्तिष्क के तंतु तो निर्मित होंगे, अभी तो ज्ञान स्मृति बनेंगे। तब वह जानेगाः कौन अपना है, कौन पराया है। अभी वह अपना-पराया नहीं जानता। अभी तो जो भाव के निकट है वह अपना है, जो भाव के निकट नहीं वह पराया है। फिर तो वह जो अपना है उसके प्रति भाव दिखाएगा; जो अपना नहीं है उसके प्रति भाव को काट लेगा। अभी स्थिति बिल्कुल उलटी है। इसलिए तो छोटे बच्चे में निर्दोषता का अनुभव होता है। और जीसस जैसे व्यक्तियों ने कहा है कि जो छोटे बच्चों की भांति होंगे, वही मेरे परमात्मा के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे।

फरीद का प्रेम भाव का प्रेम है। और भाव तो तुम बिल्कुल ही भूल गए हो। तुम जो भी करते हो वह मस्तिष्क से चलता है। हृदय से तुम्हारे संबंध खो गए हैं। तो थोड़ा सा प्रशिक्षण जरूरी है हृदय का।

यहां मेरे पास लोग आते हैं। उनसे मैं कहता हूं कि थोड़ा तुम हृदय को भी जगाओ; कभी आकाश में घूमते हुए, गुजरते हुए बादलों को देख कर नाचो भी, जैसा मोर नाचता है। बादल घुमड़-घुमड़ कर आने लगे, ऐसे क्षण में तुम बैठे क्या कर रहे हो? बादलों ने घूंघर बजा दिए, ढोल पर थाप दे दी, तुम बैठे क्या कर रहे हो? नाचो! पक्षी गीत गाते हैंः सुर में सुर मिलाओ! वृक्ष में फूल खिलते हैंः तुम भी प्रफुल्लित होओ! थोड़ा चारों तरफ जो विराट फैला है जिसके हाथ अनेक-अनेक रूपों में तुम्हारे करीब आए हैं..कभी फूल, कभी सूरज की किरण, कभी पानी की लहर..इससे थोड़ा भाव का नाता जोड़ो। बैठे सोचते मत रहो। इंद्रधनुष आकाश में खिले, तो तुम यह मत सोचो कि इंद्रधनुष की फिजिक्स क्या है, कि यह प्रकाश प्रिज्म से गुजर कर सात रंगों में टूट जाता है। ऐसे ही पानी के कणों से गुजर कर सूरज की किरणें सात रंगों में टूट गई हैं..इस मूढ़ता में मत पड़ो। इस पांडित्य से तुम वंचित ही रह जाओगे। इंद्रधनुष का सौंदर्य खो जाएगा; हाथ में फिजिक्स की किताब रह जाएगी, जिसमें कोई भी इंद्रधनुष नहीं है। तुम इसके रहस्य को अनुभव करो। तुम किसी सिद्धांत से इसे समझा मत लो अपने को। इंद्रधनुष आकाश में खिला है, तुम्हारे भीतर भी इंद्रधनुष को खिलने दो! तुम भी ऐसे ही रंग-बिरंगे हो जाओ! थोड़ी देर को तुम्हारी बेरंग जिंदगी में रंग उतरने दो!

चारों तरफ से परमात्मा बहुत रूपों में हाथ फैलाता है; लेकिन तुम अपना हाथ फैलाते ही नहीं, नहीं तो मिलन हो जाए। और यहीं प्रशिक्षण होगा। यहीं से तुम जागोगे, और धीरे-धीरे तुम्हें पहली दफे पता चलेगा भेद कि विचार का प्रेम क्या है, भाव का प्रेम क्या है।

विचार का प्रेम सौदा ही बना रहता है, क्योंकि विचार चालाक है। विचार यानी गणित। विचार यानी तर्क। विचार के कारण तुम निर्दोष हो नहीं पाते। विचार ही तो व्यभिचार है। भाव निर्दोष होता है। भाव का कोई व्यभिचार नहीं है। और विचार के कारण तुम कभी सहजता, सरलता, समर्पण..इनका अनुभव नहीं कर पाते, क्योंकि विचार कहता हैः सजग रहो! सावधान, कोई धोखा न दे जाए! चाहे विचार तुम्हें सब धोखों से बचा ले; लेकिन विचार ही अंततः धोखा दे देता है। और भाव के कारण शायद तुम्हें बहुत खोना पड़े; लेकिन जिसने भाव पा लिया उसने सब पा लिया।

फरीद जिस प्रेम की बात करेगा, वह भाव है। और तुम्हें उसकी थोड़ी सी सीख लेनी पड़ेगी। और सीख कठिन नहीं है। किसी विश्वविद्यालय में भर्ती होने की जरूरत नहीं है। अच्छा ही है कि भाव को सिखाने का कोई उपाय नहीं है; नहीं तो संस्थाएं उसको भी सिखा देतीं और खराब कर देतीं। अगर निर्दोषता को सिखाने के लिए भी कोई व्यायामशालाओं जैसी जगह होती तो वहां निर्दोषता भी सिखा दी जाती; तुम उसमें भी पारंगत हो जाते, और तब तुम उससे भी वंचित हो जाते।

भाव को कोई सिखाने का कोई एक उपाय नहीं है; सिर्फ थोड़ा बुद्धि को शिथिल करने की बात है। भाव सदा से मौजूद है; तुम लेकर आए हो। भाव तुम्हारी आत्मा है।

अब फरीद के इन वचनों को समझने की कोशिश करें।

बोलै सेखु फरीदु पियारे अलह लगे।

शेख फरीद कहता हैः मेरे प्यारो, अल्लाह से जोड़ लो अपनी प्रीति।

बोलै सेखु फरीदु पियारे अलह लगे।

ऐसा ही इसका अनुवाद सदा से किया गया है कि फरीद कहता हैः मेरे प्यारो, अल्लाह से जोड़ लो अपनी प्रीति। लेकिन मुझे लगता है, शाब्दिक रूप से तो अर्थ ठीक है, लेकिन फरीद का गहरा इशारा चूक गया है। मैं इसके अनुवाद में थोड़ा फर्क करना चाहता हूं।

बोलै सेखु फरीदु पियारे अलह लगे।

शेख फरीद कहता हैः प्यारो, अल्लाह से लग जाओ। अल्लाह से लग जाना..उसी को मैं कह रहा था भाव का प्रशिक्षण। अल्लाह से अगर तुमने प्रेम करने की कोशिश की तो तुम वही प्रेम करोगे जो तुम अब तक करते रहे हो। तुम्हारी भी मजबूरी है। तुम नया प्रेम कहां से ले आओगे? तुम अल्लाह से भी प्रेम करोगे तो वही प्रेम करोगे जो अब तक करते रहे हो। भक्त वही तो करते हैं, अनेक। कोई राम की मूर्ति सजा कर बैठा है, तो उसने राम की मूर्ति ऐसे सजा ली है जैसा कि कोई प्रेयसी अपने पति को सजाती है; हीरे-जवाहरात लगा दिए हैं, सोने-चांदी का सामान जुटा दिया है; भोग लगा देता है; बिस्तर पर सुला देता है, उठा देता है; मंदिर के पट बंद हो जाते है, खुल जाते।

अगर तुमने परमात्मा को पिता की तरह देखा तो तुम उसकी सेवा में वैसे ही लग जाओगे जैसे तुम्हें अपने पिता की सेवा में लगना चाहिए। अगर तुमने परमात्मा को प्रेयसी के रूप में देखा, जैसा सूफियों ने देखा है, तो तुम उसके गीत वैसे ही गाने लगोगे जैसे लैला ने मजनू के गाए। लेकिन इस सब से तुमने जो प्रेम जाना, उसी को तुम परमात्मा पर आरोपित कर रहे हो; नये प्रेम का आविर्भाव नहीं हो रहा है।

इसीलिए तो हजारों भक्त है, लेकिन कभी कोई एकाध भगवान को उपलब्ध होता है। क्योंकि तुम्हारी भक्ति तुम्हारे ही प्रेम की पुनरुक्ति होती है। अगर तुम्हारे प्रेम से ही परमात्मा मिलता होता तो कभी का मिल गया होता। तुम फिर से परमात्मा से भी वे ही नाते-रिश्ते बना लेते हो जो तुमने आदमियों से बनाए थे। तुम उससे भी वही बातें करने लगते हो जो तुमने आदमियों से की थीं। तुम किसी के प्रेम में पड़ गए थे, तुमने कहा थाः तुझसे सुंदर कोई भी नहीं। अब तुम परमात्मा से यही कहते हो कि तू पतितपावन है, ऐसा है, वैसा है! तुम वही बातें कह रहे हो? शब्द बासे हैं, उधार हैं।

इसलिए मैं फरीद के वचन का अर्थ करता हूंः पियारे अलह लगे..तू अल्लाह से लग जा। अब इसका क्या अर्थ होगा..अल्लाह से लग जाना? वही अर्थ होगा कि चारों तरफ अस्तित्व ने घेरा हुआ है; अल्लाह तुझे घेरे ही हुए है; तू ही अलग-थलग है; अल्लाह तो लगा हुआ ही हैः तू भी लग जा। अल्लाह ने तो तुझे ऐसे ही घेरा है जैसे मछली को सागर ने घेरा हो। अल्लाह तो तुझसे लगा ही हुआ है; क्योंकि अल्लाह न लगा हो तो तू बच ही न सकेगा, एक क्षण न जीएगा, श्वास भी न चलेगी हृदय भी न धड़केगा। वह तो अल्लाह तुझसे लगा हैः इसलिए तू धड़कता है, चलता है, श्वास है, जीवन है। तू गलत भी हो जाए तो भी अल्लाह लगा हुआ है। चोर भी हो जाए, हत्यारा भी हो जाए तो भी अल्लाह लगा हुआ है, क्योंकि अल्लाह के बिना हत्यारा भी श्वास न ले सकेगा, चोर का हृदय भी न धड़केगा। बुरे हो या भले, अल्लाह चिंता नहीं करताः वह लगा ही हुआ है।

असली सवाल अब यह है कि हम भी उससे कैसे लग जाएं जैसे वह हमसे लगा है बेशर्तः कहता नहीं कि तुम अच्छे हो तो ही तुम्हारे भीतर श्वास लूंगा; साधु हो तो हृदय धड़केगा; असाधु तो बंद; कानून के खिलाफ गए, दाएं चले, बाएं नहीं चले सड़क पर, अब श्वास न चलेगी। अल्लाह अगर ऐसा कंजूस होता कि सिर्फ साधुओं में धड़कता, असाधुओं में न धड़कता तो संसार बड़ा बेरौनक हो जाता; तो राम ही राम होते, रावण दिखाई न पड़ते। और तुम सोच सकते हो, राम ही राम हों तो कैसी बेरौनक हो जाए दुनिया! लिए अपना-अपना धनुष खड़े हैं; मारने तक को कोई नहीं जिसको बाण मारें! सीता जी खड़ी हैं, कोई चुराने वाला नहीं है! राम-कथा आगे बढ़ती नहीं!

न, परमात्मा राम में भी श्वास ले रहा है, रावण में भी; और जरा भी पक्षपात नहीं है, दोनों में लगा हुआ है। परमात्मा बेशर्त, बिना शुभ-अशुभ का विचार किए, तुम्हारी योग्यता-अयोग्यता का बिना विचार किए, तुम्हारे साथ है। तुम उसके साथ नहीं हो। सागर तो तुम्हारे साथ है; तुम उससे लड़ रहे हो!

बोलै सेखु फरीदु पियारे अलह लगे।

फरीद कहता हैः प्यारो, अल्लाह से लग जाओ, वैसे ही जैसा अल्लाह तुमसे लगा है।

हिंदू के अल्लाह से मत लगना, मुसलमान के अल्लाह से मत लगना, नहीं तो शर्त हो जाएगी। मंदिर के अल्लाह से मत लगना, मस्जिद के अल्लाह से मत लगना, नहीं तो शर्त हो जाएगी। जैसे वह बेशर्त लगा है..न पूछता है कि तुम हिंदू हो, न पूछता है कि तुम मुसलमान हो, न पूछता है कि तुम जैन हो, कि बौद्ध हो, कि ईसाई, पूछता ही नहीं; न पूछता कि तुम स्त्री कि पुरुष, न पूछता कि काले कि गोरे..कुछ पूछता ही नहीं; बस तुमसे लगा हैः ऐसे ही तुम भी मत पूछो कि तू मस्जिद का कि मंदिर का, कि तू कुरान का कि पुराण का, कि तू गोरे का कि काले का; तुम भी लग जाओ।

मंदिर और मस्जिद के अल्लाह ने मुसीबत खड़ी की है। तुम उस अल्लाह को खोजो जो सब में व्याप्त है, सब तरफ मौजूद है; जिसने सब तरफ अपना मंदिर बनाया हैः कहीं वृक्ष की हरियाली में कहीं झरने के नाद में, कहीं पर्वत के एकांत में, कहीं बाजार के शोरगुल में..जिसने बहुत तरह से अपना मंदिर बनाया है। सारा जगत उसके ही मंदिर के स्तंभ हैं! सारा आकाश उसके ही मंदिर का चंदोवा है! सारा विस्तार उसकी ही भूमि है! तुम इस अल्लाह को पहचानना शुरू करो, इससे लगो।

बोलै सेखु फरीदु पियारे अलह लगे।

इहु तन होसी खाक निमाणी गोर घरे।।

और इस शरीर से बहुत मत लगे रहो, क्योंकि जल्दी ही कब्र में सड़ेगा। यह शरीर तो खाक हो जाएगा और इसका घर निगोड़ी कब्र में जा बनेगा। इससे तुम जरूरत से ज्यादा लग गए हो। जिससे लगना चाहिए उसे भूल गए; जिससे नहीं लगना था उससे चिपट गए। जो तुम्हारे जीवन का जीवन है, उससे तुमने हाथ दूर कर लिए; और जो क्षण भर के लिए तुम्हारा विश्राम-स्थल है, राह पर सराय में रुक गए हो रात भर..सराय को तो पकड़ लिया, अपने को छोड़ दिया है।

यह शरीर..इहु तन होसी खाक..यह शरीर तो जल्दी हीउ खाक हो जाएगा। निमाणी गोर घरे..और किसी निगोड़ी कब्र में इसका घर बन जाएगा। तुम इससे मत जकड़ो। अगर पकड़ना ही है तो जीवन के सूत्र को पकड़ लो। लहरों को क्या पकड़ते हो; पकड़ना ही है तो सागर को पकड़ लो। क्योंकि लहरें तो तुम पकड़ भी न पाओगे और मिट जाएंगी; तुम मुट्ठी बांध भी न पाओगे और विसर्जित हो जाएंगी।

लहरों को पकड़ना शरीर को पकड़ना है। शरीर तरंग है, पांच तत्वों की तरंग है, पांच तत्वों के इस विराट सागर में उठी एक बड़ी लहर है..सत्तर साल तक बनी रहती है, अस्सी साल तक बनी रहती है। पर विराट को देख कर सत्तर-अस्सी साल क्या है, क्षण भर भी नहीं है। जो समय तुमसे पहले हुआ और जो समय तुम्हारे बाद होगा और उसे हिसाब में लो तो तुम जितने समय रहे वह न के बराबर है। यह लहर है। इसको तो तुमने जोर से पकड़ लिया है और जिसमें यह लहर उठी है, उसको तुम भूल ही गए हो। जो आधार है वह भूल गया है, पत्तों पर भटक रहे हो।

इहु तन होसी खाक निमाणी गोर घरे।

आजु मिलावा सेख..यह वचन मुझे बहुत प्यारा रहा है। यह बड़ा अनूठा है! इसे बहुत गौर से जाग कर समझने की कोशिश करना।

‘आज उस प्रीतम से मिलन हो सकता है, शेख, यदि तू भावनाओं को काबू कर ले जो तेरे मन को बेचैन कर रही हैं।’

आजु मिलावा सेख..आज मिलना हो सकता है तेरा। यह बड़ा क्रांतिकारी वचन है। क्योंकि साधारणतः तुम्हारे पंडित-पुरोहित कहते हैं कि जन्मों-जन्मों का पाप है, उसको काटना पड़ेगा, तब मिलन हो सकेगा। और शेख कहता हैः आजु मिलावा सेख..यह आज हो सकती है बात; इसी क्षण हो सकती है। इसको एक क्षण भी टालने की जरूरत नहीं है। क्योंकि परमात्मा उतना ही उपलब्ध है जितना कभी था, और इतना ही सदा उपलब्ध रहेगा। उसकी उपलब्धि में रत्ती भर फर्क नहीं पड़ता। तुमने पाप किए कि पुण्य किए..इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम जिस दिन भी उसके साथ लगने को राजी हो, उसका आलिंगन सदा ही उन्मुक्त था; आमंत्रण सदा ही था। तुम्हारे पाप बाधा न बन सकेंगे। तुम्हारे पाप तुम ही क्या हो, तुम्हारे पापों का कितना मूल्य हो सकता है? लहर ही मिट जाती है, तो लहर का इठलाना कितना टिक सकता है?

इसे थोड़ा हम समझें। यह भी मनुष्य का अहंकार है कि मैंने बहुत पाप किए हैं। यह तुम्हें अड़चन लगेगी समझने में। तुम कहोगेः यह कैसा अहंकार है? लेकिन इससे भी ऐसा लगता है इतना मैं कुछ हूं! और इससे ऐसा भी लगता है कि जब तक मैं इन पापों को न काट दूंगा, तब तक परमात्मा न मिलेगा। जैसे परमात्मा का मिलना मेरे किसी कृत्य पर निर्भर है! इसलिए कर्म का सिद्धांत अहंकारियों को खूब जमा, खूब जंचा। अहंकारियों के अहंकार को पुष्टि मिली की हमने ही कर्म किए थे, इसलिए हम भटक रहे हैं; हम ही कर्म जब ठीक करेंगे तो पहुंच जाएंगे। लेकिन हम, मैं छिपा है भीतर।

यहीं फर्क है भक्तों का। भक्त कहते हैं, पहुंचेंगे उसके प्रसाद से। तुम्हारे प्रयास से नहीं पहुंचोगे। तुम्हारा प्रयास ही तो अटका रहा है। यह ख्याल कि मेरे करने से कुछ होगा, यही तो तुम्हें भटका रहा है। कर्म नहीं भटका रहें हैं, कर्ता का भाव भटका रहा है। असली पाप कर्मों में नहीं है, कर्ता के भाव में है। इसलिए कृष्ण ने अर्जुन से गीता में कहाः तू कर्ता का भाव छोड़ दे। तू निमित्तमात्र हो जा। फिर तुझे कुछ भी कर्म न छुएगा। कर्म तू कर, पर ऐसे कर जैसे वही तुझसे कर रहा है, तू बीच में नहीं है। तू बांस की पोंगरी हो जा; उसको ही गाने दे गीत। वह गाए तो ठीक, न गाए तो ठीक। तू बीच में चेष्टा मत कर। तू अपने को बीच में मत ला; अपने को बीच में खड़ा मत कर।

शेख फरीद कहते हैंः आज ही हो सकता है मिलन। यह बड़े हिम्मत के फकीरों ने ऐसी बात कही है। तुम्हारा मन तो खुद भी डरेगा कि यह कैसे हो सकता है आज। वस्तुतः सच्चाई यह है कि तुम आज चाहते भी नहीं। तुम चाहते हो कि कोई समझाए कि कल हो सकता है, आज नहीं; क्योंकि आज और दूसरे काम करने हैं, हजार व्यवसाय पूरे करने हैं। आज ही हो सकता है मिलन! यह जरा जल्दी हो जाएगी। इसमें तो पोस्टपोन करने का, स्थगित करने का उपाय न रहेगा।

तो मैं तुमसे कहता हूं, कर्म का सिद्धांत अहंकारियों को खूब जंचा। और अहंकारियों को यह बात भी खूब जंची कि जब तक हम कर्मों को बदल न देंगे; बुरे को शुभ से मिटा न देंगे; काले को सफेद से पोत न देंगे; अशुभ को शुभ में ढांक न देंगे; जब तक तराजू बराबर संतुलन में न आ जाएगा; शुभ और अशुभ बराबर न हो जाएंगे..तब तक छुटकारा नहीं हो सकता। इसका अर्थ हुआ कि मैंने ही पाप किए, मुझे ही पुण्य करने होंगे; मेरे ही कारण घटना घटेगी, परमात्मा के प्रसाद से नहीं, उसके अनुग्रह से नहीं। और इसमें बड़ी सुविधा है कि जन्मों-जन्मों के कर्म हैं, वे आज तो कट नहीं जाएंगे, जन्म-जन्म लगेंगे। स्वभावतः जितने दिन मिटाया है उतने दिन बनाना पड़ेगा। जितने दिन बिगाड़ा है, उतने दिन सुधारना पड़ेगा। कितनी ही जल्दी करो तो भी जन्मों-जन्म लग जाएंगे। इससे बड़ी सुविधा है। इससे आज कोई झंझट नहीं है। आज दुकान करो, आज चोरी करो; धर्म कल। आज तुम जैसे चलते है चलते रहो, कोई उपाय ही नहीं है; कल परिवर्तन होगा, कल होगा रूपांतरण!

कल के ख्याल ने मनुष्य को अधार्मिक बनाया है। कल बड़ी सुविधा है। उसकी आड़ में हम अपने को छिपा लेते हैं। कल होगा, आज तो कुछ होना नहीं है..तो आज तो हम जो हैं हम रहेंगे! एकदम से तो क्रांति हो न जाएगी! तत्क्षण तो कुछ घट न जाएगा! सिलसिला होगा! क्रमिक विकास होगा! विकास होते-होते समय आएगा, तब कहीं घटना घटेगी! इस जन्म में तो होने वाला नहीं है! तो इस जन्म में जो कर रहे हो, करते रहो; और थोड़ी कुशलता से कर लो! समय जितनी देर मिला है, और भोग लो; कहीं अगले जन्म में मुक्ति हो ही न जाए।

ऐसे पूरब में, जहां कि पुनर्जन्म के सिद्धांत को, कर्म के सिद्धांत को बड़ी स्वीकृति मिली, अधर्म का बड़ा गहरा विस्तार हुआ। होना नहीं चाहिए था। अगर वस्तुतः लोगों ने इसलिए स्वीकार किया था पुनर्जन्म का सिद्धांत कि वे धार्मिक थे, तो पूरब में क्रांति हो जानी चाहिए थी, पूरब में सूर्योदय हो जाता। नहीं हुआ।

पूरब जितना बेईमान है, पश्चिम में भी उतने बेईमान आदमी नहीं पाए जाते। और पूरब जितना अनैतिक है और जितना भ्रष्ट है, वैसा भ्रष्टाचार और वैसी अनैतिकता भी कहीं नहीं पाई जाती। नास्तिक से नास्तिक और भौतिकवादी से भौतिकवादी मुल्कों में भी ऐसी अनीति नहीं है। कारण क्या होगा? पूरब के पास सुविधा है। हम टाल सकते हैं। उनके पास सुविधा नहीं है, यही जीवन सब कुछ है। अच्छे होना है तो यही जीवन है, बुरे होना है तो यही जीवन है। हमारे पास बहुत जीवन हैं। हमें कोई जल्दी नहीं है।

पूरब के मन में जल्दी नहीं है; इसलिए जो चल रहा है चलने दो, जो हो रहा है होने दो। हम किसी त्वरा में नहीं हैं कि क्रांति अभी हो जाए। समय हमारे पास जरूरत से ज्यादा हैः आज नहीं होगा, कल होगा; कल नहीं होगा, परसों होगा। हमें बड़ा धीरज है। धीरज आड़ बन गई है। जहां-जहां धीरज ज्यादा हो जाता है, वहां क्रांति असंभव हो जाती है। अगर तुम्हें आज पता चल जाए कि आज ही हो सकती है यह बात, तो फिर तुम्हें दोष अपने को ही देना पड़ेगा; फिर तुम्हें साफ कर लेना होगा कि अगर टालना है तो तुम टालते हो, स्थगित करना है तो तुम स्थगित करते हो; परमात्मा आज राजी था। तब तुम्हें बड़ी बेचैनी होगी। तब तुम्हें कोई भी सांत्वना का उपाय न रह जाएगा।

इसलिए फरीद का वचन मैं कहता हूं, बड़ा क्रांतिकारी हैः आजु मिलावा सेख..आज हो सकता है मिलना, शेख। देर उसकी तरफ से नहीं है।

हमारे मुल्क में कहावत हैः देर है, अंधेर नहीं। मैं तुमसे कहता हूंः न देर है, न अंधेर है। उसकी तरफ से कुछ भी नहीं हैं; तुम्हारी तरफ से दोनों हैं। उसकी तरफ से न तो देर है और न अंधेर है; तुम्हारी तरफ से देर भी है और इसलिए अंधेर है। देर के आधार से ही अंधेर है। टालने की सुविधा है..तो आज जैसी भी स्थिति है, ठीक है; कल सब ठीक हो जाएगा। कल के स्वप्न के आधार पर तुम आज के गंदे यथार्थ को टालते चले जाते हो; कल की आशा में आज की बीमारी झेल लेते हो। आज का नरक भोग लेते हो; कल स्वर्ग मिलेगा!

आजु मिलावा सेख..आज उस प्रीतम से मिलन हो सकता है। करना क्या है? बस एक छोटी सी बात करनी हैः कूंजड़ीआ मनहु मचिंदड़ीआ..यह जो मन में विचारों और भावों का शोरगुल मचा है, यह भर बंद हो जाए। कर्मों को नहीं बदलना है; सिर्फ विचारों को शांत करना है। कर्मों को बदलना तो असंभव है। कितने जन्म तुम्हारे हुए, कोई हिसाब है? उसमें क्या-क्या तुमने नहीं किया, कोई हिसाब है? उस सबको बदलने बैठोगे तो यह कथा तो अंतहीन हो जाएगी। यह तो फिर कभी हो ही न पाएगा। लेकिन बुद्ध हुए, महावीर हुए, फरीद हुआ, नानक हुए, दादू हुए, कबीर हुए..इनके जीवन में क्रांति घटित होते हमने देखी। यह घटना घटी है, तो इसके घटने का एक ही कारण हो सकता है कि जो हमने समझा है कि कर्म बदलने होंगे, वह भ्रांति है; सिर्फ विचार गिरा देने काफी हैं।

ऐसा समझो कि एक रात एक आदमी रात सपना देखता रहा है कि उसने बड़ी हत्याएं की हैं, बड़ी चोरियां की हैं, बड़े व्यभिचार किए हैं, और वह बड़ा परेशान है अपने सपने में कि अब कैसे छुटकारा होगा; इतना उपद्रव कर लिया है, अब इस सबके विपरीत कैसे शुभ कर्म करूंगा? ..और तब तुम जाते हो, उसे हिला कर जगा देते हो, आंख खुलती हैः सपने खो गए! कर्म नहीं बदलने पड़ते; सपना टूट जाए, बसः फिर वह खुद ही हंसने लगता है कि यह भी मैं क्या-क्या सोच रहा था! यह क्या-क्या हो रहा था! और मैं सोच रहा था कि इससे छुटकारा कैसे होगा लेकिन सपना टूटते ही छुटकारा हो गया!

विचार तुम्हारे स्वप्न हैं। कर्म ने नहीं बांधा है; बांधा है विचार ने। कर्म तो विचारों के स्वप्नों के भीतर घट रहे हैं। अगर विचार टूट जाए, स्वप्न टूट जाएः तुम जाग गए। सारे जन्म तुम्हारे जो हुए, वह एक गहरा स्वप्न था, एक दुखस्वप्न था। उसको बदलने का कोई सवाल नहीं है। उसको मिटाने का भी कोई सवाल नहीं है। जागते ही वह नहीं पाया जाता है।

शेख, यदि तू उन भावनाओं को काबू कर ले जो तेरे मन को बेचैन कर रही हैं...! वे जो तेरे भाव, तेरे विचार, और उनकी जो तरंगें, और झंझावात और ऊहापोह तेरे भीतर मचा है..बस उसको तू शांत कर ले।

उसको शांत करने के दो ढंग हैं।

एक ढंग ध्यान है।

ध्यान शुद्ध विज्ञान है कि तुम वैज्ञानिक आधार पर मन की तरंगों को एक के बाद एक शांत करते चले जाते हो। लेकिन ध्यान का रास्ता मरुस्थल का रास्ता है। वहां छायादार वृक्ष नहीं हैं, मरूद्यान नहीं हैं। वहां चारों तरफ फूल नहीं खिलते और हरियाली नहीं है; पक्षियों के गीत नहीं गूंजते; अंतहीन रेत का विस्तार है..तप्त-उत्तप्त! ध्यान का मार्ग सूखा है, गणित का है।

दूसरा मार्ग है प्रेम का, कि तुम इतने प्रेम से भर जाओ कि तुम्हारे जीवन की सारी ऊर्जा प्रेम बन जाए, तो जो ऊर्जा भावना बन रही थी, विचार बन रही थी, तरंगें बन रही थी, वह खिंच आए और सब प्रेम में नियोजित हो जाए। इसलिए तो बड़े वृक्ष के नीचे अगर तुम छोटा वृक्ष लगाओ तो पनपता नहीं है; क्योंकि बड़ा वृक्ष सारे रस को खींच लेता है भूमि से, छोटे वृक्ष को रस नहीं मिलता। जो बहुत बड़े वृक्ष हैं, वे अपने बीजों को दूर भेजने की कोशिश करते हैं, क्योंकि अगर बीज नीचे ही गिर जाएं तो वे कभी वृक्ष न बन पाएंगे।

सेमर का बड़ा वृक्ष अपने बीजों को रुई में लपेट कर भेजता है ताकि हवा में रुई उड़ जाए। वैज्ञानिक कहते हैं कि वह बहुत कुशल और होशियार वृक्ष है, बड़ा चालबाज है! वह तरकीब समझ गया है कि अगर बीज नीचे ही गिर गया तो कभी पनपेगा ही नहीं; उसकी संतति नष्ट हो जाएगी। तो वह उसको रुई में लपेट लेता है। वह रुई तुम्हारे तकियों के लिए नहीं बनता। तुम्हारे तकियों से सेमर को क्या लेना-देना? वह अपने बीजों को पंख लगाता है, रुई में लपेट देता हैः रुई हवा में उड़ जाती है और जब तक ठीक भूमि न मिल जाए तब तक वह उड़ती चली जाती है। जब ऐसी भूमि मिल जाती है, जहां कोई वृक्ष बड़ा नहीं है आसपास, तब वह जमीन को पकड़ लेता है।

बड़े वृक्ष के नीचे छोटा वृक्ष नहीं पनपता। ठीक जब तुम्हारे भीतर प्रेम का बड़ा वृक्ष पैदा होता है तो सब छोटी-मोटी तरंगें खो जाती हैं; सब भूमि में रस एक ही प्रेम में चला आता है; प्रेम अकेली अभीप्सा बन जाता है, सब लपेटों को अपने में समा लेता है।

तो, एक तो ध्यान है कि तुम एक-एक तरंग और एक-एक विचार को क्रमशः शांत करते जाओ। फिर एक प्रेम है कि शांत किसी को मत करो, सब को लपेट लो एक महा अभीप्सा में, एक प्रेम की प्रगाढ़ अभीप्सा मेंः तुम एक महा लपट बन जाओ, सब लपटें उसमें समा जाएं। ये दो उपाय हैं।

प्रेम का रास्ता बड़ा हरा-भरा है। उस पर पक्षी भी गीत गाते हैं, मोर भी नाचते हैं। उस पर नृत्य भी है। उस पर तुम्हें कृष्ण भी मिलेंगे..बांसुरी बजाते। उस पर तुम्हें चैतन्य भी मिलेंगे..गीत गाते। उस पर तुम्हें मीरा भी नाचती मिलेगी।

ध्यान का रास्ता बड़ा सूखा है। उस पर तुम्हें महावीर मिलेंगे, लेकिन मरुस्थल जैसा है रास्ता। उस पर तुम्हें बुद्ध बैठे मिलेंगे, लेकिन कोई पक्षी की गूंज तुम्हें सुनाई न पड़ेगी। तुम्हारी मर्जी। जिसको मरुस्थल से लगाव हो...। ऐसे भी लोग हैं जिनको मरुस्थल में सौंदर्य मिलता है। व्यक्ति-व्यक्ति की बात है।

एक युवक ने मुझे आकर कहा कि जैसा सौंदर्य उसने मरुस्थल में जाना वैसा उसने की नहीं जाना। यह संभव है, क्योंकि मरुस्थल में जो विस्तार है वह कही भी नहीं है। सहारा के मरुस्थल में खड़े होकर ओर-छोर नहीं दिखाई पड़ता; रेत ही रेत का सागर है अंतहीन; कहीं कोई अंत नहीं मालूम होता। इस अनंत में किसी को सौंदर्य मिल सकता है, कोई आश्चर्य नहीं है। और जैसी रात मरुस्थल की होती है वैसी तो कहीं भी नहीं होती। जैसे मरुस्थल की रात में तारे साफ दिखाई पड़ते हैं वैसे कहीं नहीं दिखाई पड़ते; क्योंकि मरुस्थल की हवाओं में कोई भी भाप नहीं होती; हवा बिल्कुल शुद्ध होती है, पारदर्शी होती है; तारे इतने साफ दिखाई पड़ते हैं कि हाथ बढ़ाओ और छू लो।

तो ध्यान का अपना मजा है। ध्यान जिसको ठीक लग जाए वह उस तरफ चल पड़े। प्रेम का अपना मजा है। ध्यान का पूरा मजा तो जब मंजिल मिलेगी तब आएगा। ध्यान का मजा तो पूरा अंत में आएगा; प्रेम का मजा कदम-कदम पर है। प्रेम की मंजिल पूरे रास्ते पर फैली है। ध्यान की मंजिल अंत में है और रास्ता बहुत रूखा-सूखा है। प्रेम की मंजिल अंत में नहीं है, कदम-कदम पर फैली है, पूरे रास्ते पर फैली है मंजिल। तुम जहां रहोगे वहीं आनंदित रहोगे। तुम्हारी मर्जी! व्यक्ति-व्यक्ति को अपना चुनाव कर लेना चाहिए।

आज उस प्रीतम से मिलन हो सकता है, शेख, यदि तू उन विचारों को काबू में कर ले, उन तरंगों को रोक ले जो तुझे बेचैन कर रही हैं।

कूंजड़ीआ मनहू मचिंदड़ीआ।

जिन्होंने तेरे मन में बड़ा उपद्रव मचा रखा है, झंझावात, तूफान..उनको तू सम्हाल ले।

और ध्यान रखना, प्रेम का रास्ता सुगम है; क्योंकि तुम सारे उपद्रव को परमात्मा के चरणों में समा देते हो। तुम कहते होः तू ही सम्हाल! हम तेरे साथ लग लेते हैं, तू फिकर कर!

तुम एक बड़ी नाव में सवार हो जाते हो।

ध्यान का रास्ता छोटी नाव का है।

बुद्ध के जमीन से विदा हो जाने के बाद दो संप्रदाय हो गए उनके अनुयायियों के। एक का नाम हैः हीनयान। हीनयान का अर्थ होता हैः छोटी नाव; छोटी नाव वाले लोग। हीनयान ध्यान का रास्ता है। अपनी अपनी डोंगी, दो भी नहीं बैठ सकते; दो भी बैठ जाए तो उलट जाए; एक ही बैठ सके, और वह भी पूरा सम्हल कर ही चले। और अपने ही हाथ से खेना है, कोई और कोई सहारा नहीं है, और बड़ा तूफान है।

और दूसरे पंथ का नाम हैः महायान। महायान प्रेम का मार्ग है। महायान का अर्थ हैः बड़ी नाव, जिस पर हजारों लोग एक साथ सवार हो जाएं। हीनयान कहता हैः बुद्ध से इशारा ले लो, लेकिन बुद्ध का सहारा मत लो; इशारा ले लो, सहारा मत लो, क्योंकि चलना तुम्हें है। महायान कहता हैः इशारा क्या लेना? सहारा ही ले लेते हैं; बुद्ध के कंधे पर ही सवार हो जाते हैं। जब बुद्ध जा ही रहे हैं, हम उनके साथ लग लेते हैं।

महायान फैला बहुत; हीनयान सिकुड़ गया। क्योंकि हीनयान थोड़े से लोगों का रस हो सकता है; वह मार्ग ही संकीर्ण है। महायान विराट हुआ। जो भी बुद्ध धर्म का विकास हुआ बाद में, वह महायान के कारण हुआ। क्योंकि भक्ति और प्रेम हृदय को छूते हैं, जगाते हैं। क्या जरूरत है रोते हुए जाने की, जब हंसते हुए जाया जा सकता हो? और क्या जरूरत है गंभीर चेहरे बनाने की, जब मुस्कुराते हुए रास्ता कट जाता हो? और क्या जरूरत है अकारण कष्ट पाने की, जब प्रेम की भीनी-भीनी बहार में यात्रा हो सकती हो?

‘आज उस प्रीतम से मिलन हो सकता है, शेख; बस तू मन की सारी तरंगों को समर्पित कर दे।’

जे जाणा मरि जाइए...

शेख कहता हैः अगर पता होता कि मरना ही होगा तो जिंदगी ऐसी न गंवाते। इस जिंदगी में जिसको भी पता हो जाता है कि मृत्यु है, वही बदल जाता है; और जिसको पता नहीं होता कि मृत्यु है वही बर्बाद हो जाता है। धर्म तुम्हारे जीवन में उसी दिन उतरता है जिस दिन तुम्हारे जीवन में मृत्यु का बोध आता है, जिस दिन तुम्हें लगता है कि मौत आती है। मौत का आना, मौत के आने का ख्याल, मौत के पैरों की पगध्वनि, जिसे सुनाई पड़ गई, वह आदमी तत्क्षण रूपांतरित हो जाता है। मौत जब आती हो तो चांदी के ठीकरों में क्या अर्थ रह जाता है? मौत जब आ ही रही हो तो बड़े महल बना लेने से क्या होगा? मौत जब आ ही रही है, चल ही पड़ी है, रास्ते पर ही है, किसी भी क्षण मिलन हो जाएगा, तो दुश्मनी, वैमनस्य, ईष्र्या, इनका क्या मूल्य है?

तुम इस तरह जीते हो जैसे कभी मरना ही नहीं, इसलिए तुम गलत जीते हो। अगर तुम इस तरह जीने लगो कि आज ही मरना हो सकता है, तुम्हारी जिंदगी से गलती विदा हो जाएगी। गलती के लिए समय चाहिए। गलती के लिए सुविधा चाहिए।

थोड़ा सोचो, आज अचानक तुम्हें खबर आ जाए कि बस आज सांझ विदा हो जाओगे, तो आज तुमने सोचा था कि किसी की हत्या कर देने का..क्या करोगे? बजाय हत्या करने पर तुम जाकर उसको गले लगा लोगे; कहोगे कि भाई अब जा रहे हैं, अब कोई सवाल ही न रहा। अब झगड़ा ही क्या! विदा होने का वक्त आ गया! तुम खुश रहो, आबाद रहो; हम तो जाते हैं। किसी की चोरी करने की तैयारी पर ही थे, कि जेब काटने को ही थे..अब क्या जेब काटनी है! अब उलटा तुम, उलटा मन होगा कि अपनी जेब भी उसीको दे दो, क्योंकि अब जाने का वक्त आ गया! इंच-इंच जमीन के लिए लड़ रहे थे..अब कोई अड़चन न रही; क्योंकि जमीन मरे हुए को तो, सम्राट को भी उतनी ही मिलती है, भिखारी को भी उतनी ही मिलती है। छह फीट जमीन काफी हो जाती है।

फरीद कहता हैः यदि मुझे पता ही होता, फरीद की मरना होगा और फिर लौटना नहीं है, तो इस झूठी दुनिया से प्रीति जोड़ कर मैं अपने को बर्बाद न कर बैठता। तब फिर मैंने प्रेम तुझसे ही लगाया होता।

हम व्यर्थ की चीजों से प्रेम लगाते रहे। खुद विदा होना था जहां से वहां हमने प्रेम के बीज बोए। जहां से हमको ही चले जाना था वहां अपना हमने हृदय जोड़ा। तो स्वभावतः हम टूटेंगे, हृदय टूटेगा, दुख और पीड़ा होगी। जे जाणा मरि जाइए..तब तो क्रांति घट जाती।

पशुओं में कोई धर्म पैदा नहीं हुआ। और जिस मनुष्य के जीवन में धर्म की किरण न उतरे वह पशु जैसा है। एक बात में समानता है उसकी और पशु की। पशुओं में धर्म क्यों पैदा न हुआ? क्योंकि पशुओं को मृत्यु का कोई बोध नहीं है। मरते जरूर हैं; लेकिन जब एक कुत्ता दूसरे कुत्ते को मरते देखता है तो वह समझता हैः अच्छा तो तुम मर गए! मगर उसे कभी ख्याल नहीं आता कि मैं मरूंगा। यह आ भी कैसे सकता है? क्योंकि कुत्ता सदा दूसरे को मरते देखता है, अपने को तो कभी मरते देखता नहीं। इसलिए तर्कयुक्त है कि दूसरे मरते हैं, मैं नहीं मरता। हरेक मरते कुत्ते को देख कर उसकी अकड़ और बढ़ती जाती है कि मैं तो मरने वाला नहीं, हरेक मर रहा है, सब मर रहे हैं, मैं अमर हूं।

ऐसी नासमझी मनुष्य के भीतर भी है। तुम दूसरे को मरते देख कर दया करते हो, सहानुभूति करते हो, दो आंसू बहाते हो, कहते होः बहुत बुरा हुआ। लेकिन तुम्हें याद आता है कि उसकी मौत में तुम्हारी मौत ने भी तुम्हें संदेश दिया कि, उसकी मौत तुम्हारी भी मौत है?

एक अंग्रेज कवि ने लिखा है..उसके गांव का नियम है कि जब कोई मर जाता है तो चर्च की घंटियां बजती हैं, तो उसने लिखा है कि पहले मैं भेजता था लोगों को पता लगाने कि देखो, कौन मर गया; अब मैं नहीं भेजता, क्योंकि जब भी चर्च की घंटी बजती हैं तो मैं ही मरता हूं।

हर मनुष्य की मौत मनुष्यता की मौत है। हर मनुष्य की मौत में तुम्हारी मौत घटती है। अगर यह दिखाई पड़ने लगे तो तुम क्या ऐसे ही रहोगे जैसे अब तक रहे हो? इन्हीं खेल-खिलौनों से खेलते रहोगे? इन्हीं व्यर्थ की चीजों को इकट्ठा करते रहोगे या बदलोगे? मौत बदल देगी, झकझोर देगी, सपना तोड़ देगी।

जे जाणा मरि जाइए...

पता होता कि मर जाना है, तो कभी के बदल गए होते। फरीद तुमसे कह रहा है, उसे तो पता ही है। वह तुमसे कह रहा है कि जागो। जिसे तुमने जीवन समझा है वह जीवन नहीं है; वह मरने की लंबी प्रक्रिया है। जीवन कहीं और है, जहां तुमने खोजा ही नहीं। जीवन तो परमात्मा के साथ है।

बोलै सेखु फरीदु पियारे अलह लगे।

उसके साथ मरना कभी नहीं होता। संसार के साथ जो जुड़ता है वह बार-बार मरता है, क्योंकि यह टूटेगा ही संबंध। यह नदी-नाव संयोग है। यह कोई थिर रहने वाली बात नहीं है। नदी बदली जा रही है, प्रति क्षण भागी जा रही है; उसी नदी से उसी नाव का संयोग कैसे रहेगा?

हेराक्लतु ने कहा हैः एक ही नदी में दुबारा उतरना असंभव है। क्योंकि जब तुम दुबारा उतरने जाओगे, वह नदी तो जा चुकी। एक ही आदमी से दुबारा मिलना असंभव है; क्योंकि जब तुम दुबारा मिलने जाओगे, वह आदमी अब कहां रहा! सब बदल चुका, गंगा में कितना पानी बह गया! पहली दफा मिले थे तब तो बड़ा पे्रमपूर्ण था, अब मिले तो बड़ा उदास था, वह आदमी वही नहीं है पहली दफा मिले तो बड़ा क्रुद्ध था; अब मिले तो बड़ा दयावान था। यह आदमी वही नहीं है।

बुद्ध पर एक आदमी थूक गया और दूसरे दिन क्षमा मांगने आया। बुद्ध ने कहाः नासमझी मत कर। तू कर तो कर, मुझसे तो मत करवा। जिस पर तू थूक गया था वह आदमी अब कहां! और जो थूक गया था, वह आदमी अब कहां! वह बात गई..गुजरी हो गई। भूल! जाग! मैं वही नहीं हूं। चैबीस घंटे में गंगा का कितना पानी बह गया! तू वही नहीं है। मेरी तो फिकर छोड़; लेकिन तेरी तो बात साफ हैः कल तू थूक गया था; आज तू क्षमा मांगने आया है! तू वही कैसे हो सकता है? थूकने वाला और क्षमा मांगने वाला दो अलग दुनिया हैं। जाग!

जे जाणा मरि जाइए...

जिसने जाना कि मौत होगी उसने असली जीवन की खोज शुरू कर दी। समय खोने जैसा नहीं है। इसके पहले की समय हाथ से निकल जाए, अवसर खो जाए, जीवन पर जड़ें पहुंच जानी चाहिए।

बोलिए सचु धरमु न झूठ बोलिए।

जो गुरु दसै वाट मुरीदा जोलिए। ।

इसका अनुवाद सदा से किया जा रहा है कि तू धरम से सच बोल, झूठ न बोल। जो रास्ता गुरु दिखा दे, उसी पर चल। इसमें मैं थोड़ा फर्क करता हूं।

बोलिए सचु धरमु...

फरीद का शब्द हैः बोलिए सचु धरमु..सत्य धर्म से बोल, सत्य से बोल। सचु धरमु का अर्थ होता हैः स्वभाव से बोल। जो तेरा वास्तविक स्वभाव है वही धर्म है। अपनी प्रामाणिकता से बोल। अपने अस्तित्व से बोल। धर्म से सच बोल में, बात चली जाती है। धर्म से सच बोल..जैसे की हम किसी को कसम दिलवा रहे हों कि खा धर्म की कसम और सच बोल; खा ईमान की कसम और सच बोल। नहीं, धर्म से सच बोल..ऐसा नहीं; सत्य धर्म से बोल; वह तेरा जो स्वभाव है, वह तेरा जो सच्चा धर्म है..जिसको कृष्ण ने स्वधर्म कहा हैः स्वधर्मे निधनं श्रेयः। तू वहां से बोल जो तू है; तू अपनी वास्तविकता से बोल।

ये दोनों अलग बातें हैं। धर्म से सच बोलने का मतलब यह है कि झूठ मत बोल; जैसा तूने जाना हो वैसा बोल; तथ्य बोल। और जो अनुवाद मैं कर रहा हूं, वह हैः तू अपनी वास्तविकता से बोल; तथ्य कि फिकर मत कर, सत्य बोल। क्योंकि बहुत बार सत्य तथ्य के विपरीत होता है। बहुत बार तथ्य बोलने से सत्य नहीं बोला जाता। बहुत बार तुम बोलते हो, बिल्कुल फैक्चुअल होता है, तथ्यगत होता है; लेकिन सत्य नहीं होता, क्योंकि तुम्हारी वास्तविकता से नहीं बोला गया होता।

ऐसा समझो, हिंदुओं और मुसलमानों का दंगा हो रहा है। एक हिंदू ने भी दंगा देखा है, एक मुसलमान ने भी दंगा देखा है। दोनों अदालत के सामने वक्तव्य देते है। हिंदू कुछ और देखेगा जो मुसलमान ने देखा ही नहीं। मुसलमान कुछ और देखेगा जो हिंदू ने देखा ही नहीं। दोनों तथ्य बोल रहे हैं। न तो हिंदू झूठ बोल रहा हैं, न मुसलमान झूठ बोल रहा हैं। हिंदू भी वही बोल रहा है जो उसने देखा। लेकिन सवाल तो यह है कि देखने में ही व्याख्या हो जाती है। अगर हिंदू देख रहा है तो व्याख्या तो वहीं हो गई। कुछ चीजें हिंदू देख ही नहीं सकता; वे हिंदू होने के कारण असंभव हैं। और कुछ चीजें मुसलमान नहीं देख सकता; वे मुसलमान होने के कारण असंभव हैं।

जैसे समझो कि किसी ने कुरान जला दी, तो मुसलमान के तो प्राण जला दिए; हिंदू के लिए किताब, जो रद्दी बाजार में एक रुपये में बिक सकती थी, वह जला दी..इसमें झगड़ा-झांसा क्या है? इसमें क्या बिगड़ रहा है? दूसरी खरीद लो बाजार से! एक रुपये की रद्दी जलाई है! ..और मुसलमान की आत्मा जला दी!

जब किसी हिंदू की मूर्ति तोड़ी जाती है, तो मुसलमान के लिए पत्थर है, हिंदू के लिए परमात्मा है। तथ्य काफी नहीं है। मुसलमान कहेगाः एक पत्थर को लोगों ने तोड़ा! उसके लिए इतना उपद्रव मचाने की कोई जरूरत न थी। लोगों ने व्यर्थ शोरगुल मचाया, हत्या की। यह सब अकारण है। एक पत्थर तोड़ा था! हिंदू कहेगाः हमारे परमात्मा पर हमला हो गया, हम पर हमला हो गया। हमारे प्राणों को गहरी चोट पहुंचाई गई है। फिर जो भी हुआ वह कुछ भी नहीं है उसके मुकाबले।

तथ्य तो तुम्हारी आंख से तथ्य बनता है; तुम्हारा दृष्टिकोण उसमें सम्मिलित हो गया। मैं किसको कहूंगा सच? मैं दोनों को सच नहीं कहूंगा। क्योंकि जब तक तुम हिंदू हो तुम सच नहीं हो सकते; जब तक तुम मुसलमान हो तुम सच नहीं हो सकते। क्योंकि तुमने कुछ धारणाएं पहले से ही मान लीं जो तुम्हें सच न होने देंगी। तुम जब न हिंदू की तरह बोलोगे न मुसलमान की तरह बोलोगे; जब तुम एक शुद्ध चैतन्य की तरह बोलोगे, तब तुम सच धर्म से बोले। तब तुम अपनी वास्तविकता से बोले। तब तुमने न तो हिंदू के ढंग से कहा, न मुसलमान के ढंग से कहा। तब तुमने शुद्ध चैतन्य के ढंग से कहा। और यह बड़ी अलग बात है। यह बड़ी भिन्न बात है।

तथ्यों की बहुत फिकर मत करना, सत्यों की फिकर करना; क्योंकि तथ्य तो आदमी का मन ही निर्मित करता है। असली सवाल उस सत्य की खोज का है जो आदमी का बनाया हुआ नहीं, जो परमात्मा का बनाया हुआ है। सत्य वह है जो परमात्मा के द्वारा है, तथ्य वह है जो हमारी व्याख्या है। तो व्याख्याएं तो बड़ी बड़ी अलग-अलग होती हैं।

मुल्ला नसरुद्दीन का एक मित्र है..मित्र भी है और शत्रु भी है, क्योंकि दोनों कवि हैं। और बड़ा वैमनस्य है और बड़ी ईष्र्या है। वर्षों बाद मित्र से मिलना हुआ है, या शत्रु से। स्वभावतः जैसा कवियों कि आदत होती है, एक-दूसरे ने डींग मारना शुरू कर दी। मित्र ने कहा कि वर्षों बाद मिले, नसरुद्दीन, तुम्हें पता भी न होगा, मेरी कविताओं को पढ़ने वालों की संख्या दुगुनी हो गई है। नसरुद्दीन ने कहाः हद हो गई, मुझे पता ही न चला कि तुम्हारा विवाह हो गया! वह कह रहा है कि मेरे पढ़ने वालों की संख्या दुगुनी हो गई है और नसरुद्दीन कह रहा है कि मुझे पता ही न चला कि कब तुम्हारा विवाह हो गया। क्योंकि और तो कोई उपाय नहीं की तुम्हारे पढ़ने वाले दुगुने हो जाएं। पहले अकेले तुम पढ़ने वाले थे; अब औरत और पढ़ती होगी! तुम्हारी कविता कोई और पढ़ेगा?

आंकड़े जितना झूठ बोलते हैं उतना दुनिया में कोई चीज नहीं बोलती। सरकारें जानती हैं अच्छी तरह, इसलिए वे आंकड़ों में बात करती हैं। वे झूठ बोलने के ढंग हैं।

उन्नीस सौ सत्रह में रूस में क्रांति हुई। साल भर बाद, एक छोटे गांव के संबंध में अखबार में खबर छपी थी कि वहां शिक्षा दुगुनी हो गई है। अब यह आंकड़ा बड़ा है। लेकिन हुआ कल इतना था कि उस स्कूल में एक मास्टर था और एक ही विद्यार्थी था, अब दो विद्यार्थी हो गए थे। शिक्षा दुगुनी हो गई! सौ प्रतिशत बढ़ गई!

आंकड़े बड़े झूठ बोलते हैं। राजनीतिज्ञ भलीभांति जानते हैं, कैसे आंकड़ों को उपयोग करना। तुम्हें समझ में ही न आएगा। उनके आंकड़े तुम देखो तो मुल्क अमीर होता जाता है, तुम गरीब होते जाते हो। तुम भूखे मरते हो, मुल्क की संपत्ति बढ़ती चली जाती है। उनके आंकड़े अगर तुम देखो तो कुछ और ही दुनिया है उनके आंकड़ों की। और उनके आंकड़ों में घिरे वे बैठे रहते हैं और हिसाब लगाते रहते हैं। नीचे असलियत बड़ी और है। आंकड़े असलियत को छिपाते हैं, उघाड़ते नहीं।

तथ्य तो तुम्हारी व्याख्या है; तुम्हारी धारणा उसमें समाविष्ट हो गई है। सत्य निर्धारणा होकर देखी गई बात है।

फरीद के वचन का मैं अर्थ करता हूंः बोलिए सचु धरमु..तुम्हारी सच्चाई से, तुम्हारे अस्तित्व से, तुम्हारे स्वभाव से, तुम्हारे धर्म से बोलो; अपनी प्रामाणिकता से बोलो, अप्रामाणिकता से नहीं। और तभी यह संभव होगा, तभी यह संभव होगा..जो गुरु दसै वाट मुरीदा जोलिए..तभी यह संभव होगा कि गुरु जो राह दिखाएगा, तुम उस पर चल सकोगे, उसके पहले नहीं। क्योंकि उसके पहले गुरु जो रास्ता बताएगा, उसमें भी तुम अपनी धारणा से हिसाब लगाओगे।

यह मेरा रोज का अनुभव हैः मैं कुछ कहता हूं, लोग करते कुछ हैं। और उनसे मैं पूछता हूं तो वे कहते हैं कि आपने ही तो कहा था! तब मैं गौर करता हूं तो मैं पाता हूं कि उन्होंने कहां होशियारी की। जो मैं कहता हूं उसमें से कुछ चुन लेते हैं वे। कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि वह कुछ पूरे के विपरीत हो।

कुरान में एक वचन है। वचन यह है कि तू शराब पी, नरक में सड़ाया जाएगा। एक मुसलमान शराब पीता था। मौलवी ने उससे कहाः पागल, तू सदा मस्जिद आता है। सदा मेरी बात सुनता है। हजार बार तूने सुना होगा यह वचन कि तू शराब पी और नरक में सड़ाया जाएगा। फिर भी तू पीए चले जा रहा है? तुझे होश नहीं आया?

उसने कहाः अभी मैं आधे वचन को ही पूरा करने में समर्थ हूं..तू शराब पी; अभी बाकी वचन की सामथ्र्य नहीं; धीरे-धीरे...।

कभी-कभी अंश पूरे के विपरीत हो सकता है। कभी-कभी खंड समग्र के विपरीत हो सकता है; क्योंकि समग्र बड़ी और बात है। तो मैं देखता हूं कि कहूं कुछ, परिणाम कुछ हो जाता है। वह चुनने वाला वह बैठा है। जब तक तुम अपनी प्रामाणिकता से ही बदलने को नहीं राजी हो तब तक कोई तुम्हें बदल न सकेगा। क्योंकि तुम्हें कोई कैसे बदलेगा, जब तुम ही बदलना न चाहते होओ? अगर तुम ही अपने साथ खेल खेल रहे हो, अपने को ही धोखा देने में लगे हो, तो तुम्हें कोई भी नहीं जगा सकता। सोए को कोई जगा दे; और जागा हुआ कोई आंख बंद किए पड़ा है, उसको तुम कैसे जगाओगे? वह जागना ही नहीं चाहता।

बोलिए सचु धरमु न झूठ बोलिए।

जो गुरु दसै वाट मुरीदा जोलिए।।

और फिर जो गुरु राह बता दे, उसे सुनना अपनी वास्तविकता में। उसे सुनना अपनी धारणाओं को हटा कर। उसके इशारे को पहचानने की कोशिश करना उसकी तरफ से, अपनी तरफ से नहीं; क्योंकि तुम तो कुछ गलत ही समझोगे। तुम गलत होः तुम जो व्याख्या करोगे वह गलत होगी, तुम जो मतलब निकालोगे वह तुम्हारा अपना होगा। वह जो कहता है उसे ठीक से सुन लेना..अपने मन को अलग हटा कर, किनारे रख कर।

‘प्रेमी के रास्ता पार कर लेने पर प्रियतमा को हिम्मत बंध जाती है।’

और जैसे-जैसे तुम गुरु की बात मान कर चलोगे, गुरु की आंखों में तुम्हें दिखाई पड़ने लगेगा कि तुम्हारे संबंध में आस्था और आश्वासन आने लगा। तुम अपनी फिकर मत करना; तुम गुरु की आंख में देखना। तुम यह मत सोचना अपनी तरफ से कि मैं खूब बढ़ रहा हूं, खूब कर रहा हूं और ठीक विकास हो रहा है। यह सवाल नहीं है। तुम इस बात को देखना कि गुरु तुम्हारे प्रति आश्वस्त हो रहा है या नहीं।

अभी कल रात मैं एक जर्मन विचारक, हैरीगेल, की किताब पढ़ रहा था। उसने छह वर्ष तक जापान में एक गुरु के पास धनुर्विद्या सीखी। धनुर्विद्या के माध्यम से जापान में ध्यान सिखाया जाता है। वह झेन फकीरों का एक रास्ता है। और धनुर्विद्या में ध्यान बड़ी सुविधा से फलित होता है; मगर बड़ा कठिन भी है। छह साल! और हैरीगेल पहले से ही धनुर्विद्या में कुशल व्यक्ति था। तो उसने सोचा था कि साल छह महीने में सब सीख कर लौट आऊंगा। तीन साल बीत गए, कुछ भी हल नहीं होता, और गुरु कुछ असंभव मालूम होता है; क्योंकि वह बातें ऐसी कहता है जो हैरीगेल की पकड़ में नहीं आतीं। पहली बात वह यह कहता है कि लक्ष्य-भेद हमारा लक्ष्य नहीं है। तीर तुम्हारा ठीक जगह पर लग गया, इससे हमें कुछ लेना देना नहीं है..लग गया, ठीक; नहीं लगा, ठीक। असली सवाल तुम्हारे हृदय से, तुम्हारे भीतर से जब तीर छूटा तब ठीक छूटा की नहीं, वह सवाल है। ठीक तो कभी-कभी ऐसे भी लग जाता है, अंधेरे में भी लग जाता है। ठीक तो तकनीकी ढंग से भी लग जाता है। अगर किसी आदमी ने तकनीक सीख ली तो तीर लग जाता है। यह सवाल नहीं है। ध्यान कहां घटित होगा? तुम्हारे भीतर जब तीर छूटता है, उस क्षण का सवाल है। उस क्षण ध्यान में छूटता है तो लगा। लगे या न लगे, अगर ध्यान में न छूटा; विचारणा में छूटा तो लग भी जाए तो बेकार।

तीन साल बाद हैरीगेल को लगा कि मैं सिर पचा रहा हूं इस आदमी के साथ; क्योंकि तीर का मतलब होता है कि लगना चाहिए। पश्चिम का सोचने का ढंग यह है कि जब तुम तीर सीख रहे हो तो उसका कुल अर्थ इतना है कि कितनी बार निशाने पर लगता है; अगर सौ प्रतिशत लगने लगा तो तुम पूरे कलाकार हो गए। और यह आदमी पागल हैः सौ प्रतिशत तीर लगे तो भी वह सिर हिलाए जाता है; वह कहता है कि नहीं।

और दूसरी बात गुरु ने कही कि जब तुम तीर चलाओ तो तुम्हें नहीं चलाना चाहिए; वह चलाए..परमात्मा! तुम सिर्फ तीर लेकर खड़े रहो। उसने कहाः यह बिल्कुल पागलपन हो गया। वह कौन है? वह कहां से चलाएगा? मैं नहीं चलाऊंगा तो तीर कैसे चलेगा?

और गुरु कहता हैः चलेगा। और गुरु जब चलाता है तो हैरीगेल भी देखता है कि बात तो ठीक कहता है। जब वह तीर खींचता है तो हैरीगेल ने जाकर उसकी मसल टटोल कर देखी, उसकी मसल पर जोर नहीं है, जो कि होना चाहिए। इतनी बड़ी प्रत्यंचा को वह खींच रहा है, मसल ऐसे है जैसे छोटे बच्चे की हों! उसमें मसल है ही नहीं! कहीं कोई खींचने का तनाव ही नहीं है। चेहरे पर कोई तनाव नहीं है। और वह खड़ा रहता है तीर खींच कर, और जब तीर छूटता है तो ऐसे ही छूटता है जैसे कि वह गुरु उसको जिस ढंग से समझाता है। वह प्रतीक उसको भी ठीक लगता है।

जापान में बांसों का बड़ा प्रेम है। और गुरु कहता हैः जैसे बांस की शाखा पर बर्फ पड़ जाती है तो बांस उसे झकझोरता थोड़े ही है; बांस वजन में झुक जाता है; झुकता जाता है, झुकता जाता है। एक घड़ी आती है, बर्फ खुद ही सरक जाती है। फिर बांस अपनी जगह उठ कर खड़ा हो जाता है। ऐसा ही तीर तुम खींच कर खड़े रहो, एक घड़ी आती है, तीर अपने से छूट जाता है, जैसे बरफ सरक जाती है।

वह उसकी समझ में नहीं आता। उसने बड़े उपाय किए। वह एक महीने भर की छुट्टी लेकर दूर समुद्र के तट पर चला गया। वह आदमी कुशल है, होशियार है। उसने सोचा, कोई तरकीब होगी इसमें, क्योंकि गुरु का हाथ भी छूट जाता है। तो उसने तरकीब साध ली। एक महीना उसने कई तरह के उपाय किए। उसने एक तरकीब खोज ली। वह तरकीब उसने यह खोज ली कि तीर को खींच कर वह खड़ा हो जाए और हाथ को इतने धीमे से छोड़े, इतने आहिस्ता से छोड़े कि छोड़ने का पता न चले; धीमे से छोड़ दे और तीर छूट जाए। वह महीने भर में निष्णात हो गया। उसने कहा कि अरे, इतनी सी बात थी और मैं नाहक परेशान हो रहा था!

वह आया। उसने तीर चला कर गुरु को दिखाया। गुरु एकदम चैंका, इतना कभी नहीं चैंका था। वह पास आया और उसने कहाः वंस अगेन प्लीज, एक बार फिर। यह भी डरा, हैरीगेल भी डरा कि शायद उसमें कुछ गड़बड़ हो गई है या क्या? तीर बिल्कुल छूटा तो सही है। गुरु को भरोसा न आया कि यह छूट नहीं सकता; क्योंकि यह छूट ही तब सकता है जब ध्यानस्थ चित्त हो, यह तो ध्यानस्थ तो चित्त है नहीं अभी! यह तीर छूटा कैसे? इसने कोई तरकीब सीख ली।

दुबारा इसने तीर छोड़ कर बताया। गुरु ने उसके हाथ से प्रत्यंचा ले ली और उसकी तरफ पीठ करके बैठ गया..जो कि जापान में बड़े से बड़ा अपमान है जो गुरु शिष्य का कर सकता हैः पीठ करके बैठ जाना। उसने कहा कि बात खत्म हो गई। पंद्रह दिन तक बड़ी मिन्नतें की गुरु की, आदमियों से खबरें पहुंचाईं; उसने कहा कि नहीं। जब शिष्य गुरु को धोखा दे तो फिर कोई उपाय नहीं।

हैरीगेल ने लिखा हैः मैंने धोखा दिया नहीं था। यह पश्चिमी और पूर्वीय बुद्धि का भेद है। मैंने तो कोई धोखा दिया नहीं था। मैंने तो सोचा था कि मैंने कोई तरकीब खोज ली है। मगर गुरु ने उसको ऐसा लिया कि धोखा दिया गया है। बामुश्किल गुरु राजी हुआ और उसने कहाः दुबारा ऐसी भूल न हो, अन्यथा मैं तुम्हारी शक्ल न देखूंगा।

वह जो पीठ फेर कर बैठ जाना है..छैल लघंदे पार, गोरी मनु धीरिआ..जैसे कि प्रेमी नदी पार करके आ रहा है और प्रेयसी इस किनारे खड़ी है और प्रेमी उस पार से आ रहा है; नदी तेज है, भयंकर उसका प्रवाह है, या वर्षा की बाढ़ है, उत्तुंग तरंगें हैं और गोरी का डर, और गोरी का मन कंप रहा है कि पता नहीं प्रेमी पार कर पाएगा, नहीं कर पाएगा, नदी बहा तो न ले जाएगी। वह शंकित है। वह आश्वस्त नहीं है। पर जैसे-जैसे प्रेमी पास आने लगता है इस किनारे के, गोरी आश्वस्त हो जाती है, प्रेयसी को धीरज बंधता जाता हैः अब, अब डर नहीं है!

गुरु किनारे खड़े शिष्य को ऐसे ही देखता है। तुम गुरु की नजरों पर नजर रखना। जब तुम उसमें पाओ कि आश्वासन आ गया; जब तुम पाओ कि गुरु प्रसन्न है; जब तुम पाओ कि वह मुस्कुरा रहा है; जब तुम पाओ कि आशीष बरसते हैं उससे; जब तुम पाओ कि अब वह आश्वस्त है..तभी तुम आश्वस्त होना। अपनी तरफ से आश्वस्त मत हो जाना, नहीं तो तुम खुद धोखा दे लोगे अपने को। तुम्हारी धोखा देने की इतनी संभावना है कि जिसका कोई हिसाब नहीं। तुम अपने पर भरोसा मत कर लेना।

छैल लघंदे पार गोरी मनु धीरिआ।

कि प्रेमी पास आ गया, अब ज्यादा दूर न रही; हाथ दो हाथ मारने की बात है, किनारा लग जाएगा। गोरी के मन धीरज आ गया।

प्रेमी के नदी पार कर लेने पर जैसे प्रियतमा को हिम्मत बंध जाती है, ऐसे ही जिस दिन तुम गुरु की आंख में हिम्मत बंधी देखो तुम्हारे बाबत, आश्वस्त देखो गुरु को, उसी दिन आश्वस्त होना, उसके पूर्व नहीं।

‘तू करौत से चीर दिया जाएगा यदि तू कंचन की तरफ लुभाएगा।’

कंचन वंने पासे कलवति चीरिआ।

और प्रेम के जगत में एकमात्र ही भटकाव है वह है धन है। यह बड़ी मनोवैज्ञानिक और बड़ी गहरी बात है। फरीद कह रहा है कि प्रेम से चूकने का एक ही उपाय है और वह है कि कंचन में उत्सुक हो जाए। तू धन में उत्सुक हो जाए। अब यह नाजुक है। यह ख्याल बड़ा गहरा है। और मनोविज्ञान अब इसकी खोज कर रहा है धीरे-धीरे। और मनोविज्ञान कहता है कि जो आदमी धन में उत्सुक है वह आदमी प्रेम में उत्सुक नहीं होता। ये दोनों बात एक साथ होती ही नहीं..ऐसे ही जैसे जो आदमी पूरब चल रहा है, वह पश्चिम की तरफ नहीं चल रहा है।

क्यों धन और प्रेम में इतना विरोध है?

प्रेम बड़े से बड़ा धन है। जिसने प्रेम को पा लिया, उसे धन मिल गया। वह अपनी गरीबी में भी हीरे-जवाहरातों का मालिक है। लेकिन जिसने प्रेम नहीं पाया, उसके लिए तो फिर एक ही रास्ता है कि वह धन इकट्ठा करे, ताकि थोड़ा सा आश्वासन तो मिले कि मेरे पास भी कुछ है। धन प्रेम का सब्स्टीट्यूट है, परिपूरक है। इसलिए कृपण आदमी प्रेमी नहीं होता। कंजूस प्रेमी नहीं होता..हो नहीं सकता। नहीं तो वह कंजूस नहीं हो सकता। ये दोनों बातें एक साथ नहीं घट सकतीं; ये विपरीत हैं। जितना तुम धन को इकट्ठा करते हो उतना ही तुम्हारा प्रेम पर भरोसा कम है। तुम कहते होः कल क्या होगा? बुढ़ापे में क्या होगा? आर्थिक हालत बिगड़ जाएगी तो परिस्थिति कैसे सम्हालूंगा?

प्रेमी कहता हैः क्या करेंगे; जो प्रेम आज करता है वह कल भी करेगा। जिसने आज प्रेम दिया है और भरपूर किया है वह कल भी फिकर लेगा।

अगर तुम किसी को पाते हो जो तुम्हें प्रेम कर रहा है तो बुढ़ापे की चिंता न होगी। लेकिन अगर तुम्हारा कोई नहीं प्रेमी, तुमने किसी को इतना प्रेम नहीं दिया, न कभी किसी से इतना प्रेम लिया, तो तिजोड़ी ही सहारा है बुढ़ापे में। और फिर तुम्हें डर है, प्रेमी तो धोखा दे जाए; तिजोड़ी कभी धोखा नहीं देती। प्रेमी का क्या भरोसा, आज साथ है, कल अलग हो जाए! धन ज्यादा सुरक्षित मालूम पड़ता है। प्रेमी माने न माने, धन तो सदा तुम्हारी मान कर चलेगा। धन तो कोई अड़चन खड़ी नहीं करता, मालकियत पूरी स्वीकार करता है। फिर धन का तुम जैसा उपयोग करना चाहो, जब करना चाहो, वैसा कर सकते हो। प्रेमी का तुम उपयोग नहीं कर सकते। प्रेमी प्रेम में कुछ करे, ठीक; प्रेमी के साथ जबरदस्ती नहीं की जा सकती।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं, छोटा बच्चा जब पैदा होता है तो अगर मां उसको प्रेम करती हो तो वह ज्यादा दूध नहीं पीता। आपको भी अनुभव होगा, अगर मां बच्चे को ठीक प्रेम करती हो तो मां सदा परेशान रहती है उसको जितना दूध पीना चाहिए, वह नहीं पी रहा है; जितना खाना खाना चाहिए, वह नहीं खा रहा है। वह उसके पीछे लगी है चैबीस घंटे कि और खा। क्यों? क्योंकि बच्चा जानता है, जिस स्तन से दूध अभी बहा प्रेम से भरा हुआ, जब भूख लगेगी फिर बहेगा। भरोसा है। लेकिन अगर मां बच्चे को प्रेम न करती हो; नर्स हो, मां न हो तो बच्चा छोड़ता ही नहीं स्तन। क्योंकि बच्चे को डर हैः तीन घंटे बाद जब भूख लगेगी, नर्स उपलब्ध रहेगी नहीं रहेगी, इसका कुछ पक्का नहीं है। भविष्य अंधकारपूर्ण है। इसलिए तुम देखोगे, जिन बच्चों को प्रेम नहीं मिला उनके पेट बड़े पाओगे; जिन बच्चों को प्रेम मिला उनके पेट बड़े नहीं पाओगे। पेट बड़ा, मां की तरफ से प्रेम नहीं मिला, इसका सबूत है। बड़ा पेट यह कह रहा है कि थोड़ा भोजन हम इकट्ठा कर लें वक्त-बेवक्त के लिए, क्योंकि कुछ भरोसा तो है नहीं। नर्स क्या भरोसा? मां का, अगर वह सिर्फ शरीर की ही मां हो और हृदय से प्रेम न बहता हो, और भरोसा न हो तो बच्चा बेचारा अपनी सुरक्षा कर रहा है। वह यह कह रहा है, थोड़ा अतिरिक्त हमेशा रखना चाहिएः कभी रात भूख लगेगी, कोई उठाने वाला न होगा, तो पेट भरा होना चाहिए।

तुम ध्यान रखना, गरीब लोग ज्यादा खाते हैं, क्योंकि कल का भरोसा नहीं। अमीर की भूख ही मिट जाती है, क्योंकि जब चाहिए तब मिल जाएगा। अमीरों के पेट बड़े होने चाहिए वस्तुतः। लेकिन तुम पाओगे, अकालग्रस्त क्षेत्रों में लोगों के पेट बहुत बड़े हो जाते है; सारा शरीर सूख जाता है, पेट बड़ा हो जाता है। क्योंकि जब मिल जाता है तब वे पूरा खा लेते हैं, जरूरत से ज्यादा खा लेते हैं; क्योंकि दो-चार-पांच दिन चलना पड़ेगा, क्या पता बिना खाने के चलना पड़ेगा!

मां के स्तन पर बेटे को दो रास्ते खुलते हैंः एक प्रेम का रास्ता है। एक पेट का रास्ता है। पेट यानी धन, पेट यानी तिजोड़ी। एक प्रेम का रास्ता है। प्रेम यानी प्राण, प्रेम यानी आत्मा। तिजोड़ी यानी शरीर; प्रेम यानी परमात्मा। तो जिनके जीवन में प्रेम की कमी है, वे धन पर भरोसा रखेंगे।

इसलिए फरीद कहता हैः कंचन वंने पासे कलवति चीरिआ।

और ध्यान रखना, प्रेम के रास्ते में धन के अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। अगर धन की तरफ झुका, लुभाया तो, आरे से चीर दिया जाएगा। इसका कुछ मतलब ऐसा नहीं है कि कोई आरे से किसी को चीर देगा। लेकिन जब प्रेम कट जाता है तो प्राण ऐसे ही कट जाते हैं जैसे आरे से चीर दिए गए हों।

सेख हैयाती जगि न कोई थिरु रहिआ।

‘शेख, इस दुनिया में कोई हमेशा रहने वाला नहीं हैं। जिस पीढ़े पर हम बैठे हैं, उस पर कितने ही बैठ चुके हैं।’

वैज्ञानिक कहते हैं कि जिस जगह तुम बैठे हो वहां कम से कम दस आदमियों की लाशें दफनाई जा चुकी हैं। इंच-इंच जमीन पर करोड़ों-करोड़ों लोग दफनाए जा चुके हैं। तुम भी थोड़े दिन बाद जमीन के भीतर होओगे, कोई और तुम्हारे ऊपर बैठा होगा। पर्त-दर-पर्त मुर्दे दबते जाते हैं।

शेख, इस दुनिया में कोई भी हमेशा रहने वाला नहीं हैं।

बुद्ध का बड़ा प्रसिद्ध वचन हैः सब्बे संघार अनिच्चा..इस संसार में सभी कुछ बहावमान है, बहता जा रहा है, परिवर्तनशील है। इसमें कहीं भी कोई किनारा नहीं है। लहरों को किनारे मत समझ लेना और उनको पकड़ कर मत रुक जाना। और जिस जगह तुम बैठे हो, बैठे-बैठे अकड़ मत जाना, उसको सिंहासन मत समझ लेना। सब सिंहासनों के नीचे कब्रें दबी हैं।

जैसे कुलंग पक्षी कार्तिक में आते हैं, चैत में दावानल और सावन में बिजलियां आती हैं और जाड़े में जैसे कामिनी अपने प्रीतम के गले में बांहें डाल देती हैं..ऐसे ही सब क्षण भर को आता है और चला जाता है। इस सत्य पर तू अपने मन में विचार कर कि यहां सब क्षणभंगुर है।’ शाश्वत के सपने मत सजा। शाश्वत के सपने सजाएगा तो भटकेगा। क्षणभंगुर के सत्य को देख। इस पर तू अपने मन में विचार कर।

‘मनुष्य के गढ़े जाने में महीनों लगते हैं, टूट जाने में क्षण भी नहीं लगता।’

फरीद कहते हैंः जमीन ने आसमान से पूछा, कितने खेने वाले चले गए। श्मशान और कब्रों में उनकी रूहें झिड़कियां झेल रही हैं!

चले चलणहार विचारा लेइ मनो।

चलती हुई हालत है; चल ही रहे हैं मौत की तरफ। चले चलनहार..चल ही पड़े हैं। जन्म के साथ ही आदमी मरने की तरफ चल पड़ा है।

चले चलणहार विचारा लेइ मनो।

ठीक से सोच ले। यहां घर बनाने की कोई जगह नहीं है। यहां रात रुक जा, ठीक; मंजिल यहां नहीं है। पड़ाव हो, बस; सुबह उठे और डेरा उठा लेना है।

चले चलणहार विचारा लेइ मनो।

गंढ़ेदिआ छिअ माह तुरंदिआ हिकु खिनो।।

छह महीने लग जाते हैं बच्चे के गढ़ने में, क्षण भर में मिट जाता है। मरने में क्षण भर नहीं लगता।

जिमी पुछै असमान फरीदा खेवट किनी गए।

जमीन आसमान से पूछती है, फरीद कितने खेने वाले, नावें चलाने वाले मांझी आए और चले गए।

जारण गोरा नालि उलामे जीअ सहे।

और वे सब कहां हैं जो बड़ा मस्तक उठा कर मांझी बने थेः जो नाव पर अकड़ कर बैठे थे; जिन्होंने सिंहासनों को शोभायमान किया था..वे अब सब कहां हैं? वे सब बड़े खेने वाले लोग कहां खो गए?

श्मशान और कब्रों में उनकी रूहें झिड़कियां झेल रही हैं।

अब वे अपने लिए ही पछता रहे हैं कि उन्होंने जीवन व्यर्थ खोया। अब वे रो रहे हैं कि उन्होंने कुछ न किया, जो करने योग्य था! और वह सब कमाया जो मिट्टी था! हीरे गंवाए, कंकड़ इकट्ठे किए! कूड़ा-करकट सम्हाला, संपदा खोई। अब वे झिड़कियां झेल रहें हैं; खुद पछता रहे हैं।

जीवन, जिसे तुम जीवन कहते हो, जीवन नहीं हैं; वह तो केवल मरने की प्रतीक्षा है; मृत्यु के द्वार पर लगा क्यू हैः अब मेरे, तब मेरे! एक और जीवन है, एक महाजीवन है। धर्म उसी का द्वार है। लेकिन जो इस जीवन को मृत्यु जान लेगा वही उस महाजीवन की खोज में निकलता है। इस पर ठीक से सोचना।

फरीद ठीक कहता हैः खूब मन ठीक से विचार कर ले। यही जीवन हो सकता है, यह क्षणभंगुर, जो अभी है और अभी गया; हवा के झोंके में कंपते हुए पत्ते की भांति, जो प्रतिपल मरने के लिए कंप रहा है? सुबह के उगते हुए सूरज में जैसे ओस समा जाती हैं, विलीन हो जाती है, खो जाती है, ऐसा मौत किसी भी दिन तुझे तिरोहित कर देगी। यह तेरा होना कोई होना है? इस पर ठीक से विचार कर ले। जिन्होंने भी ठीक से विचार किया वे ही नये अस्तित्व की खोज में लग गए।

बुद्ध ने देखा मरे हुए आदमी को, पूछा अपने सारथी कोः क्या हो गया है इसे?

सारथी ने कहाः सभी को हो जाता है..अंत में सभी मर जाते हैं।

बुद्ध ने कहाः रथ वापस लौटा ले।

सारथी ने कहाः लेकिन हम युवक महोत्सव में भाग लेने जा रहे थे। वे आपकी प्रतीक्षा करते होंगे, क्योंकि राजकुमार गौतम ही युवक महोत्सव का उदघाटन करने को था।

गौतम बुद्ध ने कहाः अब मैं युवक न रहा। जब मौत आती है, और मौत आ रही है..कैसा यौवन? कैसा उत्सव? वापस लौटा ले। मैं मर गया। इस आदमी को मरा हुआ देख कर मैं जिसे अब तक जीवन समझता था, वह मिट गया; अब मुझे किसी और जीवन की तलाश में जाना है।

उस जीवन की खोज ही धर्म है।


आज इतना ही।


कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...