गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 3 भाग 18

  


वर्ण व्यवस्था की वैज्ञानिक पुनर्स्थापना


न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।

नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।। २२।।

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।। २३।।

उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।

संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः।। २४।।


इसलिए हे अर्जुन, यद्यपि मुझे तीनों लोकों में कुछ भी कर्तव्य नहीं है तथा किंचित भी प्राप्त होने योग्य वस्तु अप्राप्त नहीं है, तो भी मैं कर्म में ही बर्तता हूं। क्योंकि यदि मैं सावधान हुआ कर्म में न बर्तूं, तो हे अर्जुन, सब प्रकार से मनुष्य मेरे बर्ताव के अनुसार बर्तने लग जाएं। तथा यदि मैं कर्म न करूं, तो ये सब लोग भ्रष्ट हो जाएं और मैं वर्णसंकर का करने वाला होऊं तथा इस सारी प्रजा का हनन करूं अर्थात इनको मारने वाला बनूं।



कृष्ण जब ऐसा कहते हैं कि मुझे अब कुछ भी ऐसा नहीं है जो पाने योग्य हो, क्योंकि मैंने सब पा लिया; अब कुछ भी ऐसा नहीं है जो मेरे लिए करने योग्य हो, क्योंकि सब किया जा चुका; जो पाना था, वह पा लिया गया; जो करना था, वह कर लिया गया; अब कर्म मेरे लिए कर्तव्य नहीं है; तो यहां कृष्ण नहीं बोल रहे हैं, परमात्मा ही बोल रहा है। और इतने साहस से सिर्फ वही बोल सकता है, जो परमात्मा के साथ बिलकुल एक हो गया है।

 कृष्ण ही इस साहस से बोलते हैं। और इतना बड़ा साहस सिर्फ निरहंकारी को ही उपलब्ध होता है। अहंकारी तो सदा भयभीत रहता है। सच तो यह है कि भय को हम अपने अहंकार से छिपाए रखते हैं। अहंकारी सदा डांवाडोल रहता है। लेकिन कृष्ण जब बोलते हैं, तो वे यह कह रहे हैं कि मैं, कुछ भी करने योग्य नहीं है, फिर भी किए चला जाता हूं; और कुछ भी पाने योग्य नहीं है, फिर भी दौड़ता हूं और चलता हूं। क्यों? इसलिए कि चारों ओर जो लोग हैं, मैं चाहूं तो सब छोड़ सकता हूं करना, मैं चाहूं तो सब छोड़ सकता हूं पाना; लेकिन तब मुझे देखकर वे बहुत से लोग, जिन्हें अभी पाने को बहुत कुछ शेष है, पाना छोड़ देंगे; और जिन्हें अभी करने को बहुत कुछ शेष है, करना छोड़ देंगे।

इस बात को थोड़ा गहरे देखना जरूरी है। असल में जिसे अभी परमात्मा नहीं मिला, उसे बहुत कुछ पाने को शेष है। सच तो यह है कि जिसे परमात्मा नहीं मिला, उसे सभी कुछ पाने को शेष है। उसने अभी जो भी पाया है, उसका कोई भी मूल्य नहीं है। और जिसे अभी मुक्ति नहीं मिली और जिसने आत्मा की स्वतंत्रता को अनुभव नहीं किया, अभी उसे बहुत कुछ करने को शेष है। असल में अभी तक उसने जो कुछ भी किया है, उससे वह कहीं भी नहीं पहुंचा है। लेकिन कृष्ण जैसा व्यक्ति, जिसके पाने की यात्रा पूरी हुई, करने की यात्रा पूरी हुई, जो मंजिल पर खड़ा है, अगर वह भी बैठ जाए, तो हम रास्तों पर ही बैठ जाएंगे।

हम तो बैठना ही चाहते हैं। हम तो उत्सुक हैं कि बैठने के लिए बहाना मिल जाए। हम तो आतुर हैं कि हमें कोई कारण मिल जाए और हम यात्रा बंद कर दें। हम यात्रा बड़े बेमन से कर रहे हैं। हम चल भी रहे हैं तो ऐसे जैसे कि बोझ की भांति चलाए जा रहे हैं। जिंदगी हमारी कोई मौज का गीत नहीं, और जिंदगी हमारा कोई नृत्य नहीं है। जिंदगी हमारी वैसी है, जैसे बैल चलते हैं गाड़ी में जुते हुए, ऐसे हम जिंदगी में जुते हुए चलते हैं। हम तो कभी भी आतुर हैं कि मौका मिले और हम रुकें।


लेकिन अगर हम रुक जाएं, तो हम परमात्मा को पाने से ही रुक जाएंगे। क्योंकि अभी जो पाने योग्य है, वह पाया नहीं गया; अभी जो जानने योग्य है, वह जाना नहीं गया। और जानने योग्य क्या है? जानने योग्य वही है, जिसको जान लेने के बाद फिर कुछ जानने को शेष नहीं रह जाता है। और पाने योग्य क्या है? पाने योग्य वही है कि जिसको पा लेने के बाद फिर पाने की आकांक्षा ही तिरोहित हो जाती है। मंजिल वही है, जिसके आगे फिर कोई रास्ता ही नहीं होता। जिस मंजिल के आगे रास्ता है, वह मंजिल नहीं है, पड़ाव है।

हम तो अभी पड़ाव पर भी नहीं हैं, रास्तों पर हैं। शायद ठीक रास्तों पर भी नहीं हैं, गलत रास्तों पर हैं। ऐसे रास्तों पर हैं, जिन पर अगर हम बैठ गए, जिन पर अगर हम रुक गए, जिन पर अगर हम ठहर गए, तो हम पदार्थ के ही घेरे में बंद रह जाएंगे और परमात्मा के प्रकाश को कभी उपलब्ध न हो पाएंगे।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, मैं जिसे कि सब कुछ मिल गया, मैं जिसने कि सब कुछ पा लिया, जिसके लिए अब कोई आकांक्षा शेष नहीं रही, जिसके लिए अब कोई भविष्य नहीं है...। खयाल रहे, भविष्य निर्मित होता है आकांक्षाओं से, कल निर्मित होता है वासनाओं से। कल हम निर्माण करते हैं इसलिए कि आज बहुत कुछ है, जो पाने को शेष रह गया। कृष्ण जैसे व्यक्ति के लिए कोई भविष्य नहीं है। सब कुछ अभी है, यहीं है। रुक जाना चाहिए।

लेकिन बड़े मजे की बात है, कृष्ण जैसा व्यक्ति नहीं रुकता और हम रुक जाते हैं! जिन्हें नहीं रुकना चाहिए, वे रुक जाते हैं; जिसे रुक जाना चाहिए, वह नहीं रुकता है। हम नासमझ रुकने वालों के लिए, ठहर जाने वालों के लिए, पड़ाव को मंजिल, गलत रास्ते को सही रास्ता समझ लेने वालों के लिए कृष्ण जैसे व्यक्ति को करुणा से ही चलते रहना पड़ता है।

इसलिए कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से कि तू रुकेगा, तू ठहरेगा, तो खतरनाक है। खतरनाक दो कारणों से है। खुद अर्जुन के लिए भी खतरनाक है। अर्जुन भी अभी वहां नहीं पहुंच गया है, जो मंजिल है। अभी श्रम अपेक्षित है। अभी संकल्प की जरूरत है। अभी साधना आवश्यक है। अभी कदम उठाने हैं, सीढ़ियां चढ़नी हैं। अभी मंदिर आ नहीं गया और प्रतिमा दूर है। अर्जुन के लिए भी रुक जाना खतरनाक है। और अर्जुन के लिए खतरनाक है ही, पर वह एक ही व्यक्ति के लिए खतरनाक है। अर्जुन को देखकर पीछे चलने वाले बहुत से लोग रुक जाएंगे। जब अर्जुन जैसा व्यक्ति रुके, तो वे रुक जाएंगे।

कृष्ण की सारी सक्रियता करुणा है। करुणा उन पर, जो अभी अपनी मंजिल पर नहीं पहुंच गए हैं। उनके लिए कृष्ण दौड़ते रहेंगे कि उनमें भी गति आती रहे। उनके लिए कृष्ण खोजते रहेंगे उसको, जिसे उन्होंने पा ही लिया है, ताकि वे भी खोज में लगे रहें। उनके लिए कृष्ण श्रम करते रहेंगे उसके लिए, जो कि उनके हाथ में है, ताकि वे भी श्रम करते रहें, जिनके कि हाथ में अभी नहीं है।

इस सत्य को अगर हम ठीक से देख पाएं, तभी हम बुद्ध, महावीर, कृष्ण या क्राइस्ट की सक्रियता को समझ पाएंगे। उनकी सक्रियता और हमारी सक्रियता में एक बुनियादी भेद है। वे कुछ पाने के बाद भी सक्रिय हैं और हम कुछ पाने के पहले सक्रिय हैं। एक-सा ही लगेगा। हम और वे रास्ते पर चलते हुए एक-से ही मालूम पड़ेंगे, लेकिन हम एक-से नहीं हैं। इस तरह के व्यक्तियों को ही हमने अवतार कहा है। इसलिए अवतार शब्द के संबंध में दो बातें खयाल में ले लें।

अवतार हम उस व्यक्ति को कहते हैं, जिसे पाने को कुछ भी शेष नहीं रहा, फिर भी पाने वालों के बीच में खड़ा है। अवतार हम उस व्यक्ति को कहते हैं, जिसे जानने को कुछ शेष नहीं रहा, फिर भी जानने वालों की पाठशाला में बैठा हुआ है। अवतार हम उसे कहते हैं, जिसके लिए जिंदगी में अब लेने योग्य कुछ भी नहीं है, फिर भी जिंदगी के घनेपन में खड़ा है। अवतार का कुल अर्थ इतना ही है कि जो पहुंच चुका, वह भी रास्ते पर है।


कृष्ण यही कह रहे हैं। अर्जुन को वे एक बात स्मरण दिलाना चाहते हैं और वह यह कि अपने लिए ही कर्म करना काफी नहीं है। असली कर्म तो उसी दिन शुरू होता है, जिस दिन वह दूसरे के लिए शुरू होता है। अपने लिए ही जीना पर्याप्त नहीं है। असली जिंदगी तो उसी दिन शुरू होती है, जिस दिन वह दूसरे के लिए शुरू होती है।

ध्यान रहे, जो सिर्फ अपने लिए, खुद के कुछ पाने के लिए जीता है, वह बोझ से ही जीएगा, बोझ ही होगी उसकी जिंदगी--एक बोझ, एक भार। लेकिन जिस दिन व्यक्ति अपने लिए सब पा चुका होता, सब जान चुका होता, फिर भी जीता है, तब जिंदगी निर्भार, वेटलेस हो जाती है। तब जिंदगी से ग्रेविटेशन, जमीन की कशिश खो जाती है; और आकाश का प्रसाद, प्रभु की ग्रेस बरसनी शुरू हो जाती है।

हम जमीन से बंधे हुए जीते हैं, हम जिंदगी के बोझ से भरे हुए जीते हैं। जो भी अपने लिए जी रहा है, वह जमीन के बोझ से भरा हुआ जीएगा। अपने लिए जीने से ज्यादा बड़ा कष्ट दूसरा नहीं है। इस साधारण जिंदगी में भी वे ही क्षण हमारे आनंद के होते हैं, जब हम थोड़ी देर के लिए दूसरे के लिए जीते हैं। मां जब अपने बेटे के लिए जी लेती है, तब आनंद से भर जाती है। मित्र जब अपने मित्र के लिए जी लेता है, तो आनंद से भर जाता है। क्षणभर को भी अगर हम दूसरे के लिए जीते हैं, तभी हमारे जीवन में आनंद होता है।

कृष्ण कह रहे हैं, जिसने सब पा लिया, वह दूसरे के लिए ही जीता है, अपने लिए जीने का तो कोई कारण ही शेष नहीं रह जाता। और तब आनंद की अनंत वर्षा उसके ऊपर हो जाती है। अर्जुन को वे कह रहे हैं कि तू अपने लिए ही मत सोच। केवल अपने लिए ही मत सोच--अपने लिए सोच, क्योंकि तेरे लिए भी अभी यात्रा बाकी है--लेकिन उनके लिए भी सोच, जिनके लिए बहुत यात्रा बाकी है और जो अभी जीवन के अंधेरे पथों पर हैं और जिन्हें मंजिल का कोई भी प्रकाश दिखाई नहीं पड़ा है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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