गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 2 भाग 25

  सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ

ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।। ३८।।


यदि तुझे स्वर्ग तथा राज्य की इच्छा न होतो भी सुख-दुखलाभ-हानि और जय-पराजय को समान समझकरउसके उपरांत युद्ध के लिए तैयार हो। इस प्रकार युद्ध को करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा।


सुख और दुख को समान समझकरलाभ और हानि को समान समझकरजय और पराजय को समान समझकरयुद्ध में प्रवृत्त होने पर पाप नहीं लगेगा। कृष्ण का यह वक्तव्य  बहुत निर्णायक है। पाप और पुण्य को थोड़ा समझना पड़े।

साधारणतः हम समझते हैं कि पाप एक कृत्य है और पुण्य भी एक कृत्य है। लेकिन यहां कृष्ण कह रहे हैं कि पाप और पुण्य कृत्य नहीं हैंभाव हैं। अगर पाप और पुण्य कृत्य हैंएक्ट हैंतो इससे क्या फर्क पड़ता है कि मैं लाभ-हानि को बराबर समझूं या न समझूंअगर मैं आपकी हत्या कर दूंलाभ-हानि बराबर समझूं या न समझूंआपकी हत्या के कृत्य में कौन-सा फर्क पड़ जाएगाअगर मैं एक घर में चोरी करूं लाभ-हानि को बराबर समझकरतो यह पाप नहीं होगाऔर लाभ-हानि को बराबर न समझूंतो यह पाप होगातब इसका मतलब यह हुआ कि पाप और पुण्य का कृत्य सेएक्ट से कोई संबंध नहीं हैबल्कि व्यक्ति के भाव से संबंध है। यह तो बहुत विचारने की बात है।

हम सब तो पाप और पुण्य को कृत्य से बांधकर चलते हैं। हम कहते हैंबहुत बुरा काम किया। हम कहते हैंबहुत अच्छा काम किया। कृष्ण तो इस पूरी की पूरी व्यवस्था को तोड़े डालते हैं। वे कहते हैंकाम अच्छे और बुरे होते ही नहींकरने वाला अच्छा और बुरा होता है।  कृत्य नहीं कर्ता! जो होता है वह नहींजिससे होता है वह!

लेकिन मनुष्य की सारी नीति कृत्य पर निर्भर है। कहती हैयह काम बुरा है और यह काम अच्छा है। अच्छे काम करो और बुरे काम मत करो। कौन-सा काम बुरा हैकौन-सा काम अच्छा हैक्योंकि कोई भी काम एटामिक नहीं हैआणविक नहीं हैकाम एक शृंखला है। समझें उदाहरण से।

आप रास्ते से गुजर रहे हैंएक आदमी आत्महत्या कर रहा है। आप उसे बचाएं या न बचाएंस्वभावतःआप कहेंगे कि आत्महत्या करने वाले को बचाना चाहिएकृत्य अच्छा है। लेकिन आप उसे बचा लेते हैं और कल वह पंद्रह आदमियों की हत्या कर देता है। आप नहीं बचातेतो पंद्रह आदमी बचते थे। आपने बचायातो पंद्रह आदमी मरे। कृत्य आपका अच्छा था या बुरा?

कृत्य एक सीरीज है अंतहीन। आप समाप्त हो जाएंगेआपका कृत्य समाप्त नहीं होगावह चलता रहेगा। आप मर जाएंगेऔर आपने जो किया थावह चलता रहेगा।

आपने एक बेटा पैदा किया। यह बेटा पैदा करना अच्छा है या बुरायह बेटा कल हिटलर बन सकता है। यह एक करोड़ आदमियों को मार डाल सकता है। लेकिन यह बेटा कल हिटलर बनकर एक करोड़ आदमियों को मार डालेतो भी कृत्य अच्छा है या बुराक्योंकि वे एक करोड़ आदमी क्या करते अगर बचतेइस पर सब निर्भर होगा। लेकिन यह शृंखला तो अनंत होगी।

कृष्ण इससे उलटी बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं कि यह सवाल नहीं है कि तुमने जो किया हैवह ठीक है या गलत। गहरे में सवाल दूसरा हैऔर वह सवाल यह है कि तुम कौन होतुम क्या होतुम्हारी मनोदशा क्या हैइस पर सब निर्भर है।

मेरे देखे भीकृत्य पर आधारित जो नीति हैबहुत बचकानी  है। लेकिन हम सभी ऐसा सोचते हैं। हम सभी ऐसा सोचते हैं।

कृष्ण कह रहे हैंव्यक्ति की भावदशा क्या हैऔर वे एक सूत्र दे रहे हैं कि अगर लाभ और हानि बराबर हैअगर सुख और दुख समान हैंअगर जय और पराजय में कोई अंतर नहींतो तू जो भी करेगाउसमें कोई पाप नहीं है। क्या करेगाइसकी वे कोई शर्त ही नहीं रखते। कहते हैंफिर तू जो भी करेगाउसमें कोई पाप नहीं है।

विचारणीय हैऔर गहरी है बात। क्योंकि कृष्ण यह कह रहे हैं कि दूसरे को चोट पहुंचाने की बात तभी तक होती हैजब तक लाभ और हानि में अंतर होता है। जिसे लाभ और हानि में अंतर ही नहीं है...शर्त बड़ी मुश्किल है। क्योंकि लाभ-हानि में अंतर न होयह बड़ी गहरी से गहरी उपलब्धि है।

ऐसा व्यक्तिजिसे लाभ और हानि में अंतर नहीं हैक्या ऐसा कोई भी कृत्य कर सकता हैजिसे हम पाप कहते हैं! जिसे जय और पराजय समान हो गई होंजिसे असफलता और सफलता खेल हो गए होंजो दोनों को एक-सा स्वागतस्वीकार देता होजिसकी दोनों के प्रति समान उपेक्षा या समान स्वीकृति होक्या ऐसा व्यक्ति गलत कर सकता है?

कृष्ण का जोर व्यक्ति पर हैकृत्य पर नहीं। और व्यक्ति के पीछे जो शर्त हैवह बहुत बड़ी है। वह शर्त यह है कि उसे द्वंद्व समान दिखाई पड़ने लगेउसे प्रकाश और अंधेरा समान दिखाई पड़ने लगे। यह तो बड़ी ही गहरी समाधि की अवस्था में संभव है।

इसलिए ऊपर से तो वक्तव्य ऐसा दिखता है कि कृष्ण अर्जुन को बड़ी स्वच्छंद छूट दे रहे हैंक्योंकि अब वह कुछ भी कर सकता है। ऊपर से ऐसा लगता हैइससे तो स्वच्छंदता फलित होगीअब तुम कुछ भी कर सकते हो। लेकिन कृष्ण अर्जुन को गहरे से गहरे रूपांतरण और ट्रांसफार्मेशन में ले जा रहे हैंस्वच्छंदता में नहीं।

असल में जिस व्यक्ति को जय और पराजय समान हैंवह कभी भी स्वच्छंद नहीं हो सकता है। उपाय नहीं हैजरूरत नहीं हैप्रयोजन नहीं है। लाभ के लिए ही आदमी पाप में प्रवृत्त होता हैहानि से बचने के लिए ही आदमी पाप में प्रवृत्त होता है।

एक आदमी असत्य बोलता है। दुनिया में कोई भी आदमी असत्य के लिए असत्य नहीं बोलता हैलाभ के लिए असत्य बोलता है। अगर दुनिया में सत्य बोलने से लाभ होने लगेतो असत्य बोलने वाला मिलेगा ही नहीं। तब बड़ी मुश्किल से खोजना पड़ेगा। कोई त्यागीमहात्यागी असत्य बोलेबात अलग। कोई बड़ा संकल्पवान तय ही कर ले कि असत्य बोलूंगातो बात अलग। लेकिन अगर सत्य के साथ लाभ होता होतो असत्य बोलने वाला नहीं मिलेगा। तब तो इसका मतलब यह हुआ कि असत्य कोई नहीं बोलतालाभ ही असत्य का मार्ग लेता है। हानि से बचना ही असत्य का मार्ग लेता है। आदमी चोरी के लिए चोरी नहीं करतालाभ के लिए चोरी करता है। कोई दुनिया में चोरी के लिए चोरी नहीं करता।

आज तक दुनिया में किसी ने भी कोई पाप लाभ के अतिरिक्त और किसी कारण से नहीं कियाया हानि से बचने के लिए कियादोनों एक ही बात है। पाप भी--और मजे की बात हैपुण्य भी--पुण्य भी आदमी लाभ के लिए करता है या हानि से बचने के लिए करता है।

कृष्ण नीति को बड़े दूसरे तल पर ले जा रहे हैंबिलकुल अलग डायमेंशन में। वे यह कह रहे हैंयह सवाल ही नहीं है। इसीलिए तो जो शक्तिशाली होता हैवह नीति-अनीति की फिक्र नहीं करता। 

नीति और अनीति के गहरे में लाभ-हानि पकड़ में आती हैं।

दुनिया रोज अनैतिक होती जा रही हैऐसा हमें लगता है। कुल कारण इतना है कि दुनिया में इतने लोग शक्तिशाली कभी नहीं थेजितने आज हैं। कुल कारण इतना है। दुनिया अनैतिक होती हुई दिखाई पड़ती हैक्योंकि दुनिया में इतना धन इतने अधिक लोगों के पास कभी भी नहीं था। जिनके पास थावे सदा अनैतिक थे। दुनिया अनैतिक होती मालूम पड़ती हैक्योंकि अतीत की दुनिया में राजाओं-महाराजाओं के हाथ में ताकत थी। नई दुनिया लोकतंत्र हैवहां एक-एक व्यक्ति के पास शक्ति वितरित कर दी गई है। अब प्रत्येक व्यक्ति शक्ति के मामले में ज्यादा समर्थ हैजितना कभी भी नहीं था। दुनिया अनैतिक होती मालूम पड़ती हैक्योंकि इतने अधिक लोग शिक्षित कभी नहीं थे और शिक्षा एक शक्ति है। जो लोग शिक्षित थेउनके नैतिक होने का कभी भरोसा नहीं था।

जितनी शिक्षा बढ़ेगीउतनी अनीति बढ़ जाएगीजितनी समृद्धि बढ़ेगीउतनी अनीति बढ़ जाएगीजितनी शक्ति बढ़ेगीउतनी अनीति बढ़ जाएगी। मजा यह है कि नीति और अनीति के बहुत गहरे में लाभ-हानि ही बैठी है।

इसलिए कृष्ण का यह वचन बड़े गहरे इंप्लिकेशंस का है। वे अर्जुन से कहते हैं कि जब तक तुझे लाभ और हानि में भेद हैतब तक तू जो भी करेगावह पाप है। और जिस दिन तुझे लाभ-हानि में कोई भेद नहीं हैउस दिन तू निश्चिंत हो। फिर तू जो भी करेगावह पाप नहीं है।

इसलिए सवाल नहीं है यह कि हम चुनें कि क्या करणीय है और क्या करणीय नहीं है। असली सवाल और गहरे में है और वह यह है कि क्या मेरे चित्त में लाभ और हानि का प्रभाव पड़ता हैअगर पड़ता हैतो मैं मंदिर भी बनाऊं तो पाप होगाउसके बहुत गहरे में लाभ-हानि ही होगी। अगर मैं पुण्य भी करूंतो सिर्फ दिखाई पड़ेगापुण्य हो रहा हैपीछे पाप ही होगा। और सब पुण्य करने के लिए पहले पाप करना जरूरी होता है। मंदिर भी बनाना होतो भी मंदिर बनाने के लायक तो धन इकट्ठा करना ही होता है।


सब पुण्यों के लिए पाप करना जरूरी होता हैक्योंकि कोई पुण्य बिना लाभ के नहीं हो सकते। दान के पहले भी चोरी करनी पड़ती है। असल में जितना बड़ा चोरउतना बड़ा दानी हो सकता है। असल में बड़ा दानी सिर्फ अतीत का चोर है। आज का चोर कल का दानी हो सकता है। क्योंकि चोरी करके भी करिएगा क्याएक सीमा आ जाती है सेच्युरेशन कीजहां चोरी से फिर कोई लाभ नहीं मिलता। फिर उसके बाद दान करने से लाभ मिलना शुरू होता है।

कृष्ण का वक्तव्य बहुत अदभुत है। वे यह कहते हैं कि तू लाभ और हानि का जब तक भेद कर पा रहा हैतब तक तू कितने ही पुण्य की बातें करलेकिन तू जो भी करेगा वह पाप है। और अगर तू यह समझ ले कि लाभ-हानि में कोई फर्क नहींजय-पराजय में कोई फर्क नहींजीवन-मृत्यु में कोई फर्क नहींतो फिर तू जो भी करेवह पुण्य है।

यह पुण्य और पाप का बहुत ही नया आयाम है। कृत्य से नहींव्यक्ति के अंतस्तल में हुई क्रांति से संबंधित है।
(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...