गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 3 भाग 2

  

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।

तदेकंवद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्।। २।।


हे कृष्ण, आप मिले हुए वचन से मेरी बुद्धि को मोहित-सी करते हैं। इसलिए उस एक बात को निश्चय करके कहिए कि जिसमें मैं कल्याण को प्राप्त होऊं।



पूछता है अर्जुन, एक बात निश्चित करके कहिए, ताकि मैं इस उलझाव से मुक्त हो जाऊं। लेकिन क्या दूसरे की कही बात निश्चय बन सकती है? और क्या दूसरा कितने ही निश्चय से कहे, तो भी भीतर का अनिश्चय गिर सकता है? कृष्ण ने कम निश्चय से नहीं कही सांख्य की बात। कृष्ण ने पूरे ही निश्चय से कही है कि यही है मार्ग। लेकिन अर्जुन फिर कहता है, निश्चय से कहिए। इसका क्या अर्थ हुआ?

इसका अर्थ हुआ कि कृष्ण ने कितने ही निश्चय से कही हो, अर्जुन के व्यक्तित्व से उसका कोई तालमेल नहीं हो पाया। अर्जुन के लिए वह कहीं भी निश्चय की ध्वनि भी नहीं पैदा कर पाई। 


अर्जुन कह रहा है, निश्चित कहो कि मेरा भ्रम टूटे, मेरा उलझाव मिटे। लेकिन जो चित्त भीतर उलझा हुआ है, वह निश्चित से निश्चित बात में से भी उलझाव निकाल लेता है। कोई बात निश्चित नहीं हो सकती जब तक चित्त उलझा हुआ है, क्योंकि वह हर निश्चय में से अनिश्चय निकाल लेता है। कितनी ही निश्चित बात कही जाए, वह उसमें से नए दस सवाल उठा लेता है। वे सवाल उसके भीतर से आते हैं, उसके अनिश्चय से आते हैं। और अगर निश्चित चित्त हो, तो कितनी ही अनिश्चित बात कही जाए, वह उसमें से निश्चय निकाल लेता है। हम वही निकाल लेते हैं, जो हमारे भीतर की अवस्था होती है। हममें कुछ डाला नहीं जाता; हम वही अपने में आमंत्रित कर लेते हैं, जो हमारे भीतर तालमेल खाता है।

कृष्ण इतनी निश्चित बात कहते हैं। उनका स्टेटमेंट टोटल है, कि सांख्य परम निष्ठा है; ज्ञान पर्याप्त है; स्वयं को जान लेना काफी है, कुछ और करने का कोई अर्थ नहीं है। अर्जुन कहता है, कुछ ऐसी निश्चित बात कहो कि मेरा अनिश्चित मन अनिश्चित न रहे, मेरा विषयों में भागता हुआ यह मन ठहर जाए। अर्जुन यह नहीं समझ पा रहा है कि बातें निश्चित नहीं होतीं, चित्त निश्चित होते हैं। सिद्धांत निश्चित नहीं होते, चेतना निश्चित होती है। निर्णायक तत्व जो हैं, वे सिद्धांतों से नहीं आते, चित्त की स्थिति से आते हैं।

कभी आपने अर्जुन शब्द का अर्थ सोचा है? बड़ा अर्थपूर्ण है। शब्द है एक--ऋजु। ऋजु का अर्थ होता है: सीधा-सादा, स्ट्रेट। अऋजु, अऋजु का अर्थ होता है: टेढ़ा-मेढ़ा, डांवाडोल। अर्जुन शब्द का अर्थ ही होता है, डोलता हुआ।

हम सबके भीतर अर्जुन है। वह जो हमारा चित्त है, वह अर्जुन की हालत में होता है। वह सदैव डोलता रहता है। वह कभी कोई निश्चय नहीं कर पाता। वह काम भी कर लेता है अनिश्चय में। काम भी हो जाता है, फिर भी निश्चय नहीं कर पाता। काम भी कर चुका होता है, फिर भी तय नहीं कर पाता कि करना था कि नहीं करना था। पूरी जिंदगी अनिश्चय है।

वह जो अर्जुन है, वह हमारे मन का प्रतीक है, सिंबालिक है। वह इस बात की खबर है कि मन का यह ढंग है। और मन से आप कितनी ही निश्चित बात कहें, वह उसमें से नए अनिश्चय निकालकर हाजिर हो जाता है। वह कहता है, फिर इसका क्या होगा? फिर इसका क्या होगा?

अर्जुन कहता है, कुछ ऐसा कहें मुझे कि मैं सारे अनिश्चय के पार होकर थिर हो जाऊं। अर्जुन की मांग तो ठीक है; लेकिन साफ-साफ उसे नहीं है कि कारण क्या है। हम सबकी भी यही हालत है। मंदिर में जाते हैं, मस्जिद में जाते हैं, गुरु के पास, साधु के पास--निश्चय खोजने कि कहीं निश्चित हो जाए बात। कहीं निश्चित न होगी। अनिश्चित मन लिए हुए इस जगत में कुछ भी निश्चित नहीं हो सकता। अर्जुन को भीतर लिए हुए इस जगत में कुछ भी निश्चित नहीं हो सकता। और निश्चित, ऋजु मन हो, तो इस जगत में कुछ भी अनिश्चित नहीं, सब निश्चित है। चित्त है आधार--शब्द और सिद्धांत और शास्त्र नहीं, दूसरे के वक्तव्य नहीं।

अब कृष्ण से ज्यादा निश्चित आदमी अर्जुन को कहां मिलेगा! मुश्किल है। जन्मों-जन्मों भी अर्जुन खोजे, तो कृष्ण जैसा आदमी खोज पाना बहुत मुश्किल है। पर उनसे भी वह कह रहा है कि आप कुछ निश्चित बात कहें, तो शायद मेरा मन निश्चित हो जाए! और ध्यान रहे, जो व्यक्ति दूसरे से निर्णय खोजता है, वह अक्सर निर्णय नहीं उपलब्ध कर पाता।

वही फिर नए प्रश्न खड़े कर लेता है। अर्जुन करेगा।

ऐसे उसकी बड़ी कृपा है, अन्यथा गीता पैदा नहीं हो सकती थी। इस अर्थ में भर उसकी कृपा है कि वह उठाता जाएगा प्रश्न और कृष्ण से उत्तर संवेदित होते चले जाएंगे। कृष्ण जैसे लोग कभी कुछ लिखते नहीं। कृष्ण जैसे लोग सिर्फ रिस्पांड करते हैं, प्रतिसंवेदित होते हैं। लिखते तो केवल वे ही लोग हैं, जो किसी को कुछ थोपना चाहते हों। कृष्ण जैसे लोग तो कोई पूछता है, पुकारता है, तो बोल देते हैं।

तो अर्जुन खुद तो परेशानी में है, लेकिन अर्जुन से आगे आने वाले जो और अर्जुन होंगे, उन पर उसकी बड़ी कृपा है। गीता पैदा नहीं हो सकती थी अर्जुन के बिना; अकेले कृष्ण से गीता पैदा नहीं हो सकती थी। अर्जुन पूछता है, तो कृष्ण से उत्तर आता है। कोई नहीं पूछेगा, तो कृष्ण शून्य और मौन रह जाएंगे; कुछ भी उत्तर वहां से आने को नहीं है। उनसे कुछ लिया जा सकता है, उनसे कुछ बुलवाया जा सकता है। और अर्जुन ने वह बुलवाने का काम किया है। उसकी जिज्ञासा, उसके प्रश्न, कृष्ण के भीतर से नए उत्तर का जन्म बनते चले जाते हैं।


(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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