बुधवार, 15 सितंबर 2021

 इलेक्‍शन जीतने के बाद एक राजनेता से किसी ने उससे पूछा कि आपके जीतने की जो विधियां आपने उपयोग कीं, उसमें खास बात क्या थी? तो उसने कहा, छोटे आदमियों को आदर देना। उसने दस हजार आदमियों को निजी पत्र लिखे थे। उनमें ऐसे आदमी थे, कि जैसे टैक्सी ड्राइवर था, जिसकी टैक्सी में बैठकर वह स्टेशन से घर तक आया होगा।

राजनेता की आदत थी कि वह टैक्सी ड्राइवर से उसका नाम पूछेगा, पत्नी का नाम पूछेगा, बच्चे का नाम पूछेगा। वह टैक्सी ड्राइवर तो आगे गाड़ी चला रहा है, पीछे देख नहीं रहा है। लेकिन राजनेता नोट करता रहेगा, पत्नी का नाम, बच्चे का नाम; बच्चे की तबियत कैसी है; बच्चा किस क्लास में पढ़ता है। टैक्सी ड्राइवर फूला नहीं समा रहा है। अगर कोई बड़ा नेता आपसे पूछ रहे हों तो...।

और फिर दो साल बाद एक पत्र आएगा टैक्सी ड्राइवर के नाम, कि तुम्हारी पत्नी की तबीयत खराब थी पिछली बार तुम्हारे गांव जब आया था, अब उसकी तबीयत तो ठीक है न? तुम्हारे बच्चे तो ठीक से स्कूल में पढ़ रहे हैं न? और इस बार मैं चुनाव में खड़ा हुआ हूं? थोड़ा खयाल रखना।

वह किसी भी पार्टी का हो, पागल हो गया। अब उसको दल—वल का कोई सवाल नहीं है। अब नेता से निजी संबंध हो गया। अब वह यह कार्ड लेकर घूमेगा।

छोटे आदमी के अहंकार को फुसलाना राजनीतिज्ञ का काम है।

मंगलवार, 14 सितंबर 2021

देव योनि ---मनुष्य योनि

 देव—योनि से मुक्ति संभव नहीं, इसका बड़ा गहरा कारण है। और मनुष्य—योनि से मुक्ति संभव है, बड़ी गहरी बात है। और इससे आप यह मत सोचना कि कोई मनुष्य—योनि का बड़ा गौरव है इसमें। ऐसा मत सोच लेना। कुछ अकड़ मत जाना इससे कि देवताओं से भी ऊंचे हम हुए, क्योंकि इस मनुष्य—योनि से ही मुक्ति हो सकती है।

नहीं; ऊंचे—नीचे का सवाल नहीं है; अकड़ने की कोई बात नहीं है। सच को अगर ठीक से समझें, तो थोड़ा दीन होने की बात है। कारण यह है कि देव—योनि का अर्थ है कि जहां सुख ही सुख है। और जहां सुख ही सुख है, वहां मूर्च्छा घनी हो जाती है। दुख मूर्च्छा को तोड़ता है। दुख मुक्तिदायी है। पीड़ा से छूटने का मन होता है। सुख से छूटने का मन ही नहीं होता।

आप भी संसार से छूटना चाहते हैं, तो क्या इसलिए कि सुख से छूटना चाहते हैं? दुख से छूटना चाहते हैं। दुख से छूटना चाहते हैं, इसलिए संसार से भी छूटना चाहते हैं। अगर कोई आपको तरकीब बता दे कि संसार में भी रहकर और दुख से छूटने का उपाय है, तो आप मोक्ष का नाम भी न लेंगे। आप भूलकर फिर मोक्ष की बात न करेंगे। फिर आप कृष्ण वगैरह को कहेंगे कि आप जाओ मोक्ष। हम यहीं रहेंगे। क्योंकि दुख तो छोड़ा जा सकता है, सुख मिल सकता है, फिर मोक्ष की क्या जरूरत है?

संसार को छोड़ने का सवाल ही इसलिए उठता है कि अगर हम दुख को छोड़ना चाहते हैं, तो सुख को भी छोड़ना पड़ेगा। वे दोनों साथ जुड़े हैं।

संसार में सुख और दुख मिश्रित हैं। सब सुखों के साथ दुख जुड़ा हुआ है। सुख पकड़ा नहीं कि दुख भी पकड़ में आ जाता है। आप सुख को लेने गए और दुख की जकड़ में फंस जाते हैं। सुख चाहा और दुख के लिए दरवाजा खुल जाता है।

स्वर्ग या देव—योनि का अर्थ है, जहां सुख ही सुख है। जहां सुख ही सुख है, वहां छोड़ने का खयाल ही न उठेगा। इसलिए देवता गुलाम हो जाते हैं, छोड़ने का खयाल ही नहीं उठता।

नरक से भी मुक्ति नहीं हो सकती और स्वर्ग से भी मुक्ति नहीं हो सकती। जिन्होंने ये वक्तव्य दिए हैं, उन्होंने बड़ी गहरी खोज की है। क्योंकि नरक में दुख ही दुख है, और अगर दुख ही दुख हो, तो आदमी दुख का आदी हो जाता है। यह थोड़ा समझ लें।

अगर दुख ही दुख जीवन में हो, सुख की कोई भी अनुभूति न हो, तो आदमी दुख का आदी हो जाता है। और जहां सुख का कोई अनुभव ही न हो, वहां सुख की आकांक्षा भी धीरे—धीरे तिरोहित हो जाती है। सुख की आकांक्षा वहीं पैदा होती है, जहां आशा हो। इसलिए दुनिया में जितनी सुख की आशा बढ़ती है, उतना दुख बढ़ता जाता है। पांच सौ साल पीछे शूद्र इतने ही दुख में था, जितना आज दुख में है। शायद ज्यादा दुख में था। लेकिन दुखी नहीं था, क्योंकि उसे कभी खयाल ही नहीं था कि शूद्र के अतिरिक्त कुछ होने का उपाय है। अब उसे पता है; अब आशा खुली है। अब उसे पता है कि शूद्र होना जरूरी नहीं है, वह ब्राह्मण भी हो सकता है। शूद्र होना अनिवार्य नहीं है। अब गाव की सड़क ही साफ करना जिंदगी की कोई अनिवार्यता नहीं है; अब वह राष्ट्रपति भी हो सकता है। आशा का द्वार खुल गया है।

अब वह सड़क पर बुहारी तो लगा रहा है, लेकिन बड़े दुख से। वहीं वह पांच सौ साल पहले भी बुहारी लगा रहा था, लेकिन तब कोई दुख नहीं था। क्योंकि दुख इतना मजबूत था, उसके बाहर जाने की कोई आशा नहीं थी, कोई उपाय नहीं था, इसलिए बात ही खतम हो गई थी।

नरक में कोई साधना नहीं करता, और स्वर्ग में भी कोई साधना नहीं करता। क्योंकि नरक में दुख इतना गहन है और आशा का कोई उपाय नहीं है, कि आदमी उस दुख से ही राजी हो जाता है। जब दुख आखिरी हो, तो हम राजी हो जाते हैं। जब तक आशा रहती है, तब तक हम लड़ते हैं।

इसे थोड़ा समझ लें। जब तक आशा रहती है, तब तक हम लडते हैं। और जहां तक आशा रहती है, वहां तक हम लड़ते हैं। और जब आशा टूट जाती है, हम शांत होकर बैठ जाते हैं। लड़ाई खतम हो गई।

स्वर्ग में भी कोई साधना नहीं करता है, क्योंकि सुख से छूटने का खयाल ही नहीं उठता। सुख से छूटने का कोई सवाल ही नहीं है। मनुष्य दोनों के बीच में है। मनुष्य दोनों है, नरक भी और स्वर्ग भी। मनुष्य आधा नरक और आधा स्वर्ग है। और दोनों मिश्रित है। वहां दुख भी सघन है और सुख की आशा भी। और हर सुख के बाद दुख मिलता है, यह अनुभूति भी है। इसलिए मनुष्य चौराहा है, उसके नीचे नरक है, उसके ऊपर स्वर्ग है। स्वर्ग में आदमी सुख से राजी हो जाता है, नरक में दुख से राजी हो जाता है; मनुष्य की अवस्था में किसी चीज से कभी राजी नहीं हो पाता। मनुष्य असंतोष है। वह असंतुष्ट ही रहता है। कुछ भी हो, संतोष नहीं होता। इसलिए साधना का जन्म होता है।

जहां असंतोष अनिवार्य हो, कोई भी स्थिति हो। आप झोपड़े में हों, तो दुखी होंगे; और आप महल में हों, तो दुखी होंगे। आपका होना, मनुष्य का होना ही ऐसा है कि वह तृप्त नहीं हो सकता। अतृप्ति वहां बनी ही रहेगी। उसके होने के ढंग में ही उपद्रव है। वह बीच की कड़ी है। आधा उसमें स्वर्ग भी झांकता है, आधा नरक भी झांकता है।

मनुष्य के पास अपना कोई व्यक्तित्व नहीं है। वह आधा—आधा है; अधूरा—अधूरा है, सीढ़ी पर लटका हुआ है; त्रिशंकु की भांति है। इसलिए जो मनुष्य साधना नहीं करता, वह असाधारण है। जो मनुष्य साधना में नहीं उतरता, वह असाधारण है। नरक में नहीं उतरता, समझ में आती है बात। स्वर्ग में नहीं उतरता, समझ में आती है। अगर आप साधना में नहीं उतरते, तो आप चमत्कारी हैं। क्योंकि आपका होना ही असंतोष है। और अगर आपको इस असंतोष से भी साधना का खयाल पैदा नहीं होता, तो आश्चर्य है।

जगत में बड़े से बड़ा आश्चर्य यह है कि कोई मनुष्य हो और साधक न हो। यह बड़े से बड़ा आश्चर्य है। स्वर्ग में देवता होकर कोई साधक हो, यह आश्चर्य की बात होगी। नरक में होकर कोई साधक हो, यह भी आश्चर्य की बात होगी। मनुष्य होकर कोई साधक न हो, यह बड़े आश्चर्य की बात है। क्योंकि आपके होने में असंतोष है। और असंतोष से कोई कैसे तृप्त हो सकता है! साधना का इतना ही मतलब है कि जैसा मैं हूं उससे मैं राजी नहीं हो सकता, मुझे स्वयं को बदलना है।

इसलिए मनुष्य को चौराहा कहा है ज्ञानियों ने। स्वर्ग से भी लौट आना पड़ेगा। जब पुण्य चुक जाएंगे, तो सुख से लौट आना पड़ेगा। और जब पाप चुक जाएंगे, तो नरक से लौट आना पड़ेगा।

और मनुष्य की योनि से तीन रास्ते निकलते हैं। एक, दुख अर्जित कर लें, तो नरक में गिर जाते हैं; सुख अर्जित कर लें, तो स्वर्ग में चले जाते हैं। लेकिन दोनों ही क्षणिक हैं, और दोनों ही छूट जाएंगे। जो भी अर्जित किया है, वह चुक जाएगा, खर्च हो जाएगा। ऐसी कोई संपदा नहीं होती, जो खर्च न हो। कमाई खर्च हो ही जाएगी।

नरक भी चुक जाएगा, स्वर्ग भी चुक जाएगा, जब तक कि यह खयाल न आ जाए कि एक तीसरा रास्ता और है, जो कमाने का नहीं, कुछ अर्जित करने का नहीं, बल्कि जो भीतर छिपा है, उसको उघाड़ने का है। स्वर्ग भी कमाई है, नरक भी। और आपके भीतर जो परमात्मा छिपा है, वह कमाई नहीं है; वह आपका स्वभाव है। वह मौजूद ही है। जिस दिन आप स्वर्ग और नर्क की तरफ जाना बंद करके स्वयं की तरफ जाना शुरू कर देते हैं, उस दिन फिर लौटने की कोई जरूरत नहीं है।


ओशो रजनीश



रविवार, 12 सितंबर 2021

नास्तिकता

 दुख चाहे कोई भी हो, दुख का कारण  आदमी खुद स्वयं ही होता है। दुख के रूप अलग हैं, लेकिन दुख की जिम्मेवारी सदा ही स्वयं की है।

दुख कहीं से भी आता हुआ मालूम होता हो, दुख स्वयं के ही भीतर से आता है। चाहे कोई किसी परिस्थिति पर थोपना चाहे, चाहे किन्हीं व्यक्तियों पर, संबंधों पर, संसार पर, लेकिन दुख के सभी कारण झूठे हैं। जब तक कि असली कारण का पता न चल जाए। ओर वह असली कारण व्यक्ति स्वयं ही है। पर जब तक यह दिखाई न पड़े कि मेरे दुख का कारण मैं हूं तब तक दुख से छुटकारे का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि ठीक कारण का ही पता न हो,  तो इलाज के होने का कोई उपाय नहीं है। और जब तक मैं भ्रांत कारण खोजता रहूं, तब तक कारण तो मुझे मिल सकते हैं, लेकिन समाधान, दुख से मुक्ति, दुख से छुटकारा नहीं हो सकता।

और आश्चर्य की बात है कि सभी लोग सुख की खोज करते हैं। और शायद ही कोई कभी सुख को उपलब्ध हो पाता है। इतने लोग खोज करते हैं, इतने लोग श्रम करते हैं, जीवन दाव पर लगाते हैं और परिणाम में दुख के अतिरिक्त हाथ में कुछ भी नहीं आता। जीवन के बीत जाने पर सिर्फ आशाओं की राख ही हाथ में मिलती है। सपने, टूटे हुए; इंद्रधनुष, कुचले हुए; असफलता, विफलता, विषाद! मौत के पहले ही आदमी दुखों से मर जाता है। मौत को मारने की जरूरत नहीं पड़ती; आप बहुत पहले ही मर चुके होते हैं; जिंदगी ही काफी मार देती है। जीवन आनंद का उत्सव तो नहीं बन पाता, दुख का एक तांडव नृत्य जरूर बन जाता है।

और तब स्वाभाविक है कि यह संदेह मन में उठने लगे कि इस दुख से भरे जीवन को क्या परमात्मा ने बनाया होगा? और अगर परमात्मा इस दुख से भरे जीवन को बनाता है, तो परमात्मा कम और शैतान ज्यादा मालूम होता है। और अगर इतना दुख जीवन का फल है, तो परमात्मा सैडिस्ट, दुखवादी मालूम होता है। लोगों को सताने में जैसे उसे कुछ रस आता हो! तो फिर स्वाभाविक ही है कि अधिक लोग दुख के कारण परमात्मा को अस्वीकार कर दें। नास्तिक लोग दुख के कारण हो जाते हैं। तर्क तो पीछे आदमी इकट्ठे कर लेता है।

लेकिन जीवन में इतनी पीड़ा है कि आस्तिक होना मुश्किल है। इतनी पीड़ा को देखते हुए आस्तिक हो जाना असंभव है। या फिर ऐसी आस्तिकता झूठी होगी, ऊपर-ऊपर होगी, रंग-रोगन की गई होगी। ऐसी आस्तिकता का हृदय नहीं हो सकता। आस्तिकता तो सच्ची सिर्फ आनंद की घटना में ही हो सकती है। जब जीवन एक आनंद का उत्सव दिखाई पड़े, अनुभव में आए तो ही कोई आस्तिक हो सकता है।

आस्तिक शब्द का अर्थ है, समग्र जीवन को हां कहने की भावना। लेकिन दुख को कोई कैसे हां कह सके? आनंद को ही कोई हां कह सकता है। दुख के साथ तो संदेह बना ही रहता है। शायद आपने कभी सोचा हो या न सोचा हो, कोई भी नहीं पूछता कि आनंद क्यों है? लेकिन दुख होता है, तो आदमी पूछता है, दुःख क्यों है? दुख के साथ प्रश्न उठते हैं। आनंद तो निष्प्रश्न स्वीकार हो जाता है। अगर आपके जीवन में आनंद ही आनंद हो, तो आप यह न पूछेंगे कि आनंद क्यों है? आप आस्तिक होंगे। क्यों का सवाल ही न उठेगा।

लेकिन जहां जीवन में दुख ही दुख है, वहा आस्तिक होना थोथा मालूम होता है। वहा तो नास्तिक ही ठीक मालूम पड़ता है। क्योंकि वह पूछता है कि दुख क्यों है? और दुख क्यों है, यही सवाल गहरे में उतरकर सवाल बन जाता है कि इतने दुख की मौजूदगी में परमात्मा का होना असंभव है। इस दुख को बनाने वाला परमात्मा हो सके, यह मानना कठिन है। और ऐसा परमात्मा अगर हो भी, तो उसे मानना उचित भी नहीं है।

जीवन में जितना दुख बढ़ता जाता है, उतनी नास्तिकता बढ़ती जाती है। नास्तिकता एक मानसिक, मनोवैज्ञानिक घटना  है तार्किक, बौद्धिक नहीं। कोई तर्क के कारण नास्तिक नहीं होता। यद्यपि जब कोई नास्तिक हो जाता है, तो तर्क खोजता है।

तर्क आप पीछे जुटाते हैं, पहले आप आस्तिक हो जाते हैं या नास्तिक हो जाते हैं। तर्क तो सिर्फ बौद्धिक उपाय है, अपने को समझाने का। क्योंकि मैं जो भी हो जाता हूं, उसके लिए रेशनलाइजेशन, उसके लिए तर्कयुक्त करना जरूरी हो जाता है।

 मुझे खुद को ही समझाना पड़ेगा कि मैं नास्तिक क्यों हूं। तो एक ही उपाय है कि ईश्वर नहीं है, इसलिए मैं नास्तिक हूं।

लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूं कि अगर आप नास्तिक हैं, तो इसलिए नहीं कि ईश्वर नहीं है, बल्कि इसलिए कि आप दुखी हैं। आपकी नास्तिकता आपके दुख से निकलती है। और अगर आप कहते हैं कि मैं दुखी हूं और फिर भी आस्तिक हूं, तो मैं आपसे कहता हूं आपकी आस्तिकता झूठी और ऊपरी होगी। दुख से सच्ची आस्तिकता का जन्म नहीं हो सकता, क्योंकि दुख के लिए कैसे स्वीकार किया जा सकता है! दुख के प्रति तो गहन अस्वीकार बना ही रहता है।  टाल्सटाय ने लिखा है कि हे ईश्वर, मैं तुझे तो स्वीकार करता हूं लेकिन तेरे संसार को बिलकुल नहीं। लेकिन बाद में उसे भी खयाल आया कि अगर मैं ईश्वर को सच में ही स्वीकार करता हूं तो उसके संसार को अस्वीकार कैसे कर सकता हूं? और अगर मैं उसके संसार को अस्वीकार करता हूं तो मेरे ईश्वर को स्वीकार करने की बात में कहीं न कहीं धोखा है।

जब कोई ईश्वर को स्वीकार करता है, तो उसकी समग्रता में ही स्वीकार कर सकता है। यह नहीं कह सकता कि तेरे संसार को मैं अस्वीकार करता हूं। यह आधा काटा नहीं जा सकता है ईश्वर को। क्योंकि ईश्वर का संसार ईश्वर ही है। और जो उसने बनाया है, उसमें वह मौजूद है। और वह जो हमें दिखाई पड़ता है, उसमें वह छिपा है। जो आदमी दुखी है, उसकी आस्तिकता झूठी होगी, वह छिपे में नास्तिक ही होगा। और जो आदमी आनंदित है, अगर वह यह भी कहता हो कि मैं नास्तिक हूं तो उसकी नास्तिकता झूठी होगी; वह छिपे में आस्तिक ही होगा।

बुद्ध ने इनकार किया है ईश्वर से। महावीर ने कहा है कि कोई ईश्वर नहीं है। लेकिन फिर भी महावीर और बुद्ध से बड़े आस्तिक खोजना मुश्किल है। और आप कहते हैं कि ईश्वर है, लेकिन आप जैसे नास्तिक खोजना मुश्किल है। बुद्ध ईश्वर को इनकार करके भी आस्तिक ही होंगे, क्योंकि वह जो आनंद, वह जो नृत्य, वह जो भीतर का संगीत गूंज रहा है, वही आस्तिकता है।

मनुष्य दुखी है, और दुख उसे परमात्मा से तोड़े हुए है। और जब मनुष्य दुखी है, तो उसके सारे मन की एक ही चेष्टा होती है कि दुख के लिए किसी को जिम्मेवार ठहराए। और जब तक आप दुख के लिए किसी को जिम्मेवार ठहराते हैं, तब तक यह मानना मुश्किल है कि आप अंतिम रूप से दुख के लिए परमात्मा को जिम्मेवार नहीं ठहराएंगे। अंततः वही जिम्मेवार होगा।

जब तक मैं कहता हूं कि मैं अपनी पत्नी के कारण दुखी हूं कि अपने बेटे के कारण दुखी हूं, कि गांव के कारण दुखी हूं पड़ोसी के कारण दुखी हूं-जब तक मैं कहता हूं मैं किसी के कारण दुखी हूं-तब तक मुझे खोज करूं तो पता चल जाएगा कि अंततः मैं यह भी कहूंगा कि मैं परमात्मा के कारण दुखी हूं।

दूसरे पर जिम्मा ठहराने वाला बच नहीं सकता परमात्मा को जिम्मेवार ठहराने से। आप हिम्मत न करते हों खोज की, और पहले ही रुक जाते हों, यह बात अलग है। लेकिन अगर आप अपने भीतर खोज करेंगे, तो आप आखिर में पाएंगे कि आपकी शिकायत की अंगुली ईश्वर की तरफ उठी हुई है।


धार्मिक व्यक्ति का जन्म ही इस विचार से होता है, इस आत्म- अनुसंधान से कि दुख के लिए कोई दूसरा जिम्मेवार नहीं, दुख के लिए मैं जिम्मेवार हूं। और जैसे ही यह दृष्टि साफ होने लगती है कि दुख के लिए मैं जिम्मेवार हूं? वैसे ही दुख से मुक्त हुआ जा सकता है। और मुक्त होने का कोई मार्ग भी नहीं है।

अगर मैं ही जिम्मेवार हूं, तो ही जीवन में क्रांति हो सकती है। अगर कोई और मुझे दुख दे रहा है, तो मैं दुख से कैसे छूट सकता हूं? क्योंकि जिम्मेवारी दूसरे के हाथ में है। ताकत किसी और के हाथ में है। मालिक कोई और है। मैं तो केवल झेल रहा हूं। और जब तक यह सारी दुनिया न बदल जाए जो मुझे दुख दे रही है, तब तक मैं सुखी नहीं हो सकता।

लेकिन धर्म का सारा अनुसंधान यह है कि दूसरा मेरे दुख का कारण है, यही समझ दुख है। दूसरा मुझे दुख दे सकता है, इसलिए मैं दुख पाता हूं इस खयाल से, इस विचार से। और तब मैं अनंत काल तक दुख पा सकता हूं दूसरा बदल जाए तो भी। क्योंकि मेरी जो दृष्टि है दुख पाने की, वह कायम रहेगी।

समाज बदल जाए.. .समाज बहुत बार बदल गया। आर्थिक व्यवस्था बहुत बार बदल गई। कितनी क्रांतिया नहीं हो चुकी हैं! और फिर भी कोई क्रांति नहीं हुई। आदमी वैसा का वैसा दुखी है। सब कुछ बदल गया। अगर आज से दस हजार साल पीछे लौटे, तो क्या बचा है? सब बदल गया है। एक ही चीज बची है, दुख वैसा का वैसा बचा है, शायद और भी ज्यादा बढ़ गया है।

बहुत कठिन मालूम होता है अपने आप को जिम्मेवार ठहराना। क्योंकि तब बचाव नहीं रह जाता कोई। जब मैं यह सोचता हूं कि मैं ही कारण हूं अपने दुखों का, तो फिर शिकायत भी नहीं बचती। किससे शिकायत करूं! किस पर दोष डालूं! और जब मैं ही जिम्मेवार हूं तो फिर यह भी कहना उचित नहीं मालूम होता कि मैं दुखी क्यों हूं? क्योंकि मैं अपने को दुखी बना रहा हूं इसलिए। और मैं न बनाऊं, तो दुनिया की कोई ताकत मुझे दुखी नहीं बना सकती। बहुत कठिन मालूम पड़ता है। क्योंकि तब मैं अकेला खड़ा हो जाता हूं और पलायन का, छिपने का, अपने को धोखा देने का, प्रवंचना का कोई रास्ता नहीं बचता। जैसे ही यह खयाल में आ जाता है कि मैं जिम्मेवार हूं वैसे ही क्रांति शुरू हो जाती है।

ज्ञान क्रांति है। और ज्ञान का पहला सूत्र है कि जो कुछ भी मेरे जीवन में घटित हो रहा है, उसे कोई परमात्मा घटित नहीं कर रहा है, उसे कोई समाज घटित नहीं कर रहा है, उसे मैं घटित कर रहा हूं चाहे मैं जानूं और चाहे मैं न जानूं।

मैं जिस कारागृह में कैद हो जाता हूं वह मेरा ही बनाया हुआ है। और जिन जंजीरों में मैं अपने को पाता हूं वे मैंने ही ढाली हैं। और जिन काटो पर मैं पाता हूं कि मैं पड़ा हूं वे मेरे ही निर्मित किए हुए हैं। जो गड्डे मुझे उलझा लेते हैं, वे मेरे ही खोदे हुए हैं। जो भी मैं काट रहा हूं वह मेरा बोया हुआ है, मुझे दिखाई पड़ता हो या न दिखाई पड़ता हो।

अगर यह मुझे दिखाई पड़ने लगे, तो दुख-विसर्जन शुरू हो जाता है। और यह मुझे दिखाई पड़ने लगे, तो आनंद की किरण भी फूटनी शुरू हो जाती है। और आनंद की किरण के साथ ही तत्व का बोध, तत्व का ज्ञान; वह जो सत्य है, उसकी प्रतीति के निकट मैं पहुंचता हूं।

ओशो रजनीश



कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...