मंगलवार, 14 सितंबर 2021

देव योनि ---मनुष्य योनि

 देव—योनि से मुक्ति संभव नहीं, इसका बड़ा गहरा कारण है। और मनुष्य—योनि से मुक्ति संभव है, बड़ी गहरी बात है। और इससे आप यह मत सोचना कि कोई मनुष्य—योनि का बड़ा गौरव है इसमें। ऐसा मत सोच लेना। कुछ अकड़ मत जाना इससे कि देवताओं से भी ऊंचे हम हुए, क्योंकि इस मनुष्य—योनि से ही मुक्ति हो सकती है।

नहीं; ऊंचे—नीचे का सवाल नहीं है; अकड़ने की कोई बात नहीं है। सच को अगर ठीक से समझें, तो थोड़ा दीन होने की बात है। कारण यह है कि देव—योनि का अर्थ है कि जहां सुख ही सुख है। और जहां सुख ही सुख है, वहां मूर्च्छा घनी हो जाती है। दुख मूर्च्छा को तोड़ता है। दुख मुक्तिदायी है। पीड़ा से छूटने का मन होता है। सुख से छूटने का मन ही नहीं होता।

आप भी संसार से छूटना चाहते हैं, तो क्या इसलिए कि सुख से छूटना चाहते हैं? दुख से छूटना चाहते हैं। दुख से छूटना चाहते हैं, इसलिए संसार से भी छूटना चाहते हैं। अगर कोई आपको तरकीब बता दे कि संसार में भी रहकर और दुख से छूटने का उपाय है, तो आप मोक्ष का नाम भी न लेंगे। आप भूलकर फिर मोक्ष की बात न करेंगे। फिर आप कृष्ण वगैरह को कहेंगे कि आप जाओ मोक्ष। हम यहीं रहेंगे। क्योंकि दुख तो छोड़ा जा सकता है, सुख मिल सकता है, फिर मोक्ष की क्या जरूरत है?

संसार को छोड़ने का सवाल ही इसलिए उठता है कि अगर हम दुख को छोड़ना चाहते हैं, तो सुख को भी छोड़ना पड़ेगा। वे दोनों साथ जुड़े हैं।

संसार में सुख और दुख मिश्रित हैं। सब सुखों के साथ दुख जुड़ा हुआ है। सुख पकड़ा नहीं कि दुख भी पकड़ में आ जाता है। आप सुख को लेने गए और दुख की जकड़ में फंस जाते हैं। सुख चाहा और दुख के लिए दरवाजा खुल जाता है।

स्वर्ग या देव—योनि का अर्थ है, जहां सुख ही सुख है। जहां सुख ही सुख है, वहां छोड़ने का खयाल ही न उठेगा। इसलिए देवता गुलाम हो जाते हैं, छोड़ने का खयाल ही नहीं उठता।

नरक से भी मुक्ति नहीं हो सकती और स्वर्ग से भी मुक्ति नहीं हो सकती। जिन्होंने ये वक्तव्य दिए हैं, उन्होंने बड़ी गहरी खोज की है। क्योंकि नरक में दुख ही दुख है, और अगर दुख ही दुख हो, तो आदमी दुख का आदी हो जाता है। यह थोड़ा समझ लें।

अगर दुख ही दुख जीवन में हो, सुख की कोई भी अनुभूति न हो, तो आदमी दुख का आदी हो जाता है। और जहां सुख का कोई अनुभव ही न हो, वहां सुख की आकांक्षा भी धीरे—धीरे तिरोहित हो जाती है। सुख की आकांक्षा वहीं पैदा होती है, जहां आशा हो। इसलिए दुनिया में जितनी सुख की आशा बढ़ती है, उतना दुख बढ़ता जाता है। पांच सौ साल पीछे शूद्र इतने ही दुख में था, जितना आज दुख में है। शायद ज्यादा दुख में था। लेकिन दुखी नहीं था, क्योंकि उसे कभी खयाल ही नहीं था कि शूद्र के अतिरिक्त कुछ होने का उपाय है। अब उसे पता है; अब आशा खुली है। अब उसे पता है कि शूद्र होना जरूरी नहीं है, वह ब्राह्मण भी हो सकता है। शूद्र होना अनिवार्य नहीं है। अब गाव की सड़क ही साफ करना जिंदगी की कोई अनिवार्यता नहीं है; अब वह राष्ट्रपति भी हो सकता है। आशा का द्वार खुल गया है।

अब वह सड़क पर बुहारी तो लगा रहा है, लेकिन बड़े दुख से। वहीं वह पांच सौ साल पहले भी बुहारी लगा रहा था, लेकिन तब कोई दुख नहीं था। क्योंकि दुख इतना मजबूत था, उसके बाहर जाने की कोई आशा नहीं थी, कोई उपाय नहीं था, इसलिए बात ही खतम हो गई थी।

नरक में कोई साधना नहीं करता, और स्वर्ग में भी कोई साधना नहीं करता। क्योंकि नरक में दुख इतना गहन है और आशा का कोई उपाय नहीं है, कि आदमी उस दुख से ही राजी हो जाता है। जब दुख आखिरी हो, तो हम राजी हो जाते हैं। जब तक आशा रहती है, तब तक हम लड़ते हैं।

इसे थोड़ा समझ लें। जब तक आशा रहती है, तब तक हम लडते हैं। और जहां तक आशा रहती है, वहां तक हम लड़ते हैं। और जब आशा टूट जाती है, हम शांत होकर बैठ जाते हैं। लड़ाई खतम हो गई।

स्वर्ग में भी कोई साधना नहीं करता है, क्योंकि सुख से छूटने का खयाल ही नहीं उठता। सुख से छूटने का कोई सवाल ही नहीं है। मनुष्य दोनों के बीच में है। मनुष्य दोनों है, नरक भी और स्वर्ग भी। मनुष्य आधा नरक और आधा स्वर्ग है। और दोनों मिश्रित है। वहां दुख भी सघन है और सुख की आशा भी। और हर सुख के बाद दुख मिलता है, यह अनुभूति भी है। इसलिए मनुष्य चौराहा है, उसके नीचे नरक है, उसके ऊपर स्वर्ग है। स्वर्ग में आदमी सुख से राजी हो जाता है, नरक में दुख से राजी हो जाता है; मनुष्य की अवस्था में किसी चीज से कभी राजी नहीं हो पाता। मनुष्य असंतोष है। वह असंतुष्ट ही रहता है। कुछ भी हो, संतोष नहीं होता। इसलिए साधना का जन्म होता है।

जहां असंतोष अनिवार्य हो, कोई भी स्थिति हो। आप झोपड़े में हों, तो दुखी होंगे; और आप महल में हों, तो दुखी होंगे। आपका होना, मनुष्य का होना ही ऐसा है कि वह तृप्त नहीं हो सकता। अतृप्ति वहां बनी ही रहेगी। उसके होने के ढंग में ही उपद्रव है। वह बीच की कड़ी है। आधा उसमें स्वर्ग भी झांकता है, आधा नरक भी झांकता है।

मनुष्य के पास अपना कोई व्यक्तित्व नहीं है। वह आधा—आधा है; अधूरा—अधूरा है, सीढ़ी पर लटका हुआ है; त्रिशंकु की भांति है। इसलिए जो मनुष्य साधना नहीं करता, वह असाधारण है। जो मनुष्य साधना में नहीं उतरता, वह असाधारण है। नरक में नहीं उतरता, समझ में आती है बात। स्वर्ग में नहीं उतरता, समझ में आती है। अगर आप साधना में नहीं उतरते, तो आप चमत्कारी हैं। क्योंकि आपका होना ही असंतोष है। और अगर आपको इस असंतोष से भी साधना का खयाल पैदा नहीं होता, तो आश्चर्य है।

जगत में बड़े से बड़ा आश्चर्य यह है कि कोई मनुष्य हो और साधक न हो। यह बड़े से बड़ा आश्चर्य है। स्वर्ग में देवता होकर कोई साधक हो, यह आश्चर्य की बात होगी। नरक में होकर कोई साधक हो, यह भी आश्चर्य की बात होगी। मनुष्य होकर कोई साधक न हो, यह बड़े आश्चर्य की बात है। क्योंकि आपके होने में असंतोष है। और असंतोष से कोई कैसे तृप्त हो सकता है! साधना का इतना ही मतलब है कि जैसा मैं हूं उससे मैं राजी नहीं हो सकता, मुझे स्वयं को बदलना है।

इसलिए मनुष्य को चौराहा कहा है ज्ञानियों ने। स्वर्ग से भी लौट आना पड़ेगा। जब पुण्य चुक जाएंगे, तो सुख से लौट आना पड़ेगा। और जब पाप चुक जाएंगे, तो नरक से लौट आना पड़ेगा।

और मनुष्य की योनि से तीन रास्ते निकलते हैं। एक, दुख अर्जित कर लें, तो नरक में गिर जाते हैं; सुख अर्जित कर लें, तो स्वर्ग में चले जाते हैं। लेकिन दोनों ही क्षणिक हैं, और दोनों ही छूट जाएंगे। जो भी अर्जित किया है, वह चुक जाएगा, खर्च हो जाएगा। ऐसी कोई संपदा नहीं होती, जो खर्च न हो। कमाई खर्च हो ही जाएगी।

नरक भी चुक जाएगा, स्वर्ग भी चुक जाएगा, जब तक कि यह खयाल न आ जाए कि एक तीसरा रास्ता और है, जो कमाने का नहीं, कुछ अर्जित करने का नहीं, बल्कि जो भीतर छिपा है, उसको उघाड़ने का है। स्वर्ग भी कमाई है, नरक भी। और आपके भीतर जो परमात्मा छिपा है, वह कमाई नहीं है; वह आपका स्वभाव है। वह मौजूद ही है। जिस दिन आप स्वर्ग और नर्क की तरफ जाना बंद करके स्वयं की तरफ जाना शुरू कर देते हैं, उस दिन फिर लौटने की कोई जरूरत नहीं है।


ओशो रजनीश



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