गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 26

  संन्यास की नई अवधारणा


सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।

आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते।। 27।।


और दूसरे योगीजन संपूर्ण इंद्रियों की चेष्टाओं को तथा प्राणों के व्यापार को ज्ञान से प्रकाशित हुई परमात्मा में स्थितिरूप योगाग्नि में हवन करते हैं।


अज्ञानी परमात्मा को भेंट भी करे, तो क्या भेंट करे? अज्ञानी न परमात्मा को जानता, न स्वयं को जानता। न उसे उसका पता है, जिसको भेंट करनी है; न उसका पता है, जिसे भेंट करनी है। स्वभावतः, उसे यह भी पता नहीं है कि क्या भेंट करना है।

अज्ञानी जिन चीजों से आसक्त होता है, उन्हीं को परमात्मा को भेंट भी कर आता है। जो उसे प्रीतिकर लगता है, वही वह परमात्मा के चरणों में भी चढ़ाता है। भोग लगता है प्रीतिकर, भोजन लगता है प्रीतिकर, तो परमात्मा के द्वार पर चढ़ा आता है। फूल लगते हैं प्रीतिकर, तो परमात्मा के चरणों में रख आता है। सोचता है, शायद जो उसे प्रीतिकर है, वही परमात्मा को भी प्रीतिकर है।



लेकिन अज्ञान में जो प्रीतिकर है, वह ज्ञान में प्रीतिकर नहीं रह जाता। हमें जो प्रीतिकर है, हमारी स्थिति में जो प्रीतिकर है, उसे परमात्मा के द्वार पर चढ़ाने योग्य समझने की भूल अज्ञान में ही होती है।

कृष्ण कहते हैं इस सूत्र में कि ज्ञानीजन, योगीजन, अपनी इंद्रियों को ही उस परमात्मा की अग्नि में आहुति दे देते हैं।

हम जब भी परमात्मा को कुछ भेंट करते हैं, तो इंद्रियों के विषयों में से कुछ भेंट करते हैं। इंद्रियां जो चाहती हैं, उसे हम परमात्मा को भेंट करते हैं। ज्ञानीजन, योगीजन इंद्रियों को ही उसकी अग्नि में आहुति दे देते हैं। भेद को ठीक से समझ लेना जरूरी है।

फूल लगता है प्रीतिकर; नासापुटों को सुगंध लगती है मधुर; आंखों को रूप लगता है आकर्षक। हम फूल को चढ़ा देते हैं परमात्मा के चरणों पर। ज्ञानीजन सुगंध की इंद्रिय को ही चढ़ा देते हैं, फूल को नहीं। हमें भोजन लगता है प्रीतिकर, स्वाद लगता है मधुर, हम स्वादिष्ट फलों को, मिष्ठानों को परमात्मा के द्वार पर रख देते हैं। ज्ञानीजन, योगीजन स्वाद को ही--स्वादिष्ट को नहीं--स्वाद को ही उसकी अग्नि में समर्पित कर देते हैं। इंद्रियों को ही। जो प्रीतिकर लगता है, वह नहीं; जिसे प्रीतिकर लगता है, उसे ही समर्पित कर देते हैं।

यह समर्पण प्राणों का समर्पण है। यह समर्पण अपना ही समर्पण है। क्योंकि हम जिसे अब तक जानते हैं स्वयं का होना, वह हमारी इंद्रियों के जोड़ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। हम जिसे कहते हैं अपनी अस्मिता, अपना होना, अपना बीइंग, वह हमारी इंद्रियों के जोड़ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। और जब कोई अपनी समस्त इंद्रियों को, अपने समस्त जोड़ को परमात्मा को चढ़ा देता, तो पीछे चढ़ाने वाला और जिसको चढ़ाया गया है वह, वे दोनों एक ही हो जाते हैं। क्योंकि पीछे परमात्मा ही बचता है। अगर हम अपनी सारी इंद्रियां परमात्मा को चढ़ा दें, तो हमारे भीतर सिवाय परमात्मा के फिर और कोई भी नहीं बचता है।

इंद्रियों के द्वारा हम संसार से जुड़ते हैं। इंद्रियां हमारे उपकरण हैं संसार से संयुक्त होने के। आंख से हम रूप से जुड़ते हैं, आंख से हम प्रकाश से जुड़ते हैं। कान से हम स्वर से, ध्वनि से जुड़ते हैं। ऐसे हमारी पांचों इंद्रियों के द्वार से हम संसार से जुड़ते हैं। इंद्रियों से जाएं, तो संसार में पहुंच जाएंगे। इंद्रियों को छोड़कर जाएं, तो परमात्मा में पहुंच जाएंगे। इंद्रियां द्वार हैं संसार की तरफ। अगर इंद्रियों से लौट आएं पीछे, तो परमात्मा में पहुंच जाएंगे।

जो सीढ़ी मकान के नीचे लाती है, वही सीढ़ी मकान के ऊपर भी ले जाती है। जो रास्ता आपको यहां तक ले आया, वही रास्ता आपको वापस आपके घर तक भी ले जाएगा। लेकिन यहां आते समय और घर लौटते समय, रास्ता भी वही होगा, आप भी वही होंगे। फर्क क्या पड़ेगा? फर्क इतना ही पड़ेगा, आपका रुख, आपका चेहरा बदल जाएगा। इधर आते हुए चेहरा इस तरफ होगा, पीठ घर की तरफ होगी; घर जाते समय चेहरा घर की तरफ होगा, पीठ इस तरफ होगी।

संसार में जाते समय इंद्रियों की तरफ उन्मुख होकर, मुंह करके संसार में जाना पड़ता है। परमात्मा की तरफ, स्वयं की तरफ आते समय, इंद्रियों की तरफ पीठ कर लेनी पड़ती है और लौटना पड़ता है।

इंद्रियां ही द्वार हैं संसार में ले जाने के, इंद्रियां ही द्वार बनती हैं परमात्मा में आने के। इंद्रियां एंट्रेंस हैं संसार में और एक्जिट हैं परमात्मा में।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, ज्ञानीजन अपनी इंद्रियों को ही उसके हवन में, उसके यज्ञ की अग्नि में, उस परमात्मा में समर्पित कर देते हैं। उनका ही होम लगा देते हैं। तब जो पीछे शेष रह जाता है वह, और जिसे होम दिया है वह, दो नहीं रह जाते। फिर यज्ञ करने वाला, यज्ञ, यज्ञ जिसकी प्रार्थना में किया गया वह, सब एक ही हो जाते हैं।

इंद्रियों से छूटते ही व्यक्ति में और समष्टि में कोई भेद नहीं। इंद्रियों से छूटते ही दृश्य विदा हो जाता, अदृश्य से मिलन हो जाता। इंद्रियों के छूटते ही रूप विदा हो जाता, अरूप से मिलन हो जाता। इंद्रियों के छूटते ही आकार खो जाता, निराकार में निमज्जन हो जाता है। इंद्रियां ही हमारे आकार की जन्मदात्री, रूप की निर्माता, संसार की व्यवस्थापक हैं। इंद्रियों के तिरोहित होते ही सब खो जाता है विराट में, निराकार में।

इसलिए ज्ञानीजन इंद्रियों को ही--इंद्रियों के उपभोगों को नहीं, इंद्रियों को ही--जिनसे सब उपभोग किए, उनको ही, परमात्मा को समर्पित कर देते हैं।

यह समर्पण ही समर्पण है, बाकी सब धोखा है। ऐसा त्याग ही त्याग है, बाकी सब त्याग प्रवंचना है। ऐसा अपने को ही खो देने की सामर्थ्य ही समर्पण है। बाकी सब अपने को बचा लेने का उपाय है।

फूल को चढ़ाकर हम कुछ भी तो नहीं चढ़ाते। फूल तो परमात्मा को चढ़े ही हुए हैं। आप तोड़कर सिर्फ उनके प्राणों को नष्ट करते हैं। पौधों पर चढ़े हुए भी फूल परमात्मा की ही गौरव-गाथा गाते हैं। आप उनको तोड़कर सिर्फ मार डालते हैं, हत्या करते हैं, और कुछ नहीं करते। और यहां वे विराट परमात्मा को समर्पित थे ही, आप तोड़कर अपने घर में हाथ से बनाए हुए, होममेड परमात्मा पर जाकर उनको चढ़ाते हैं!

नहीं, इससे कुछ न होगा। और परमात्मा के सामने मिठाइयों के थाल रखने से कुछ न होगा। क्योंकि सभी कुछ उसके सामने सदा रखा ही हुआ है। सभी कुछ उसकी मौजूदगी में सदा है। सारा विश्व ही उसके सामने है। आपकी थाली बहुत अर्थ न लाएगी।

चढ़ाना ही हो, तो चढ़ाने की चीज स्वयं के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। हमारे पास अपने अतिरिक्त और कुछ भी तो नहीं है। इसे गणित समझें। इसे गणित समझें कि मौत के समय आपसे जो छीना जाएगा, वही यज्ञ में चढ़ाया जाए, तो ही यज्ञ पूरा होता है। मौत के समय जो आपसे छीना जाएगा, अगर आप उसी को स्वेच्छा से समर्पित करते हैं, तो ही परमात्मा के चरणों तक आपकी पुकार और प्रार्थना पहुंच पाती है। मृत्यु में जो जबर्दस्ती घटित होगा, साधक, भक्त, योगी, उसे सहज अपनी ही ओर से परमात्मा के चरणों में रख देता है।

इसलिए फिर उसकी मृत्यु नहीं आती, क्योंकि उसके पास छीने जाने को भी कुछ नहीं बचता। इंद्रियां उसने दे दीं, जो छिन सकती थीं। और शरीर इंद्रियों का जोड़ है; शरीर भी दे दिया उसने, जो छिन सकता था। और अहंकार सारे इंद्रियों के अनुभव का संघट है। इंद्रियों के साथ वह भी गया।

इंद्रियों के साथ ही सब कुछ चला जाता है, जो मौत में छीना जाता है। जो साधारणजन मौत में छोड़ते हैं, छुड़ाया जाता है, वह असाधारणजन स्वयं ही परमात्मा के चरणों में समर्पित कर देते हैं। यही है यज्ञ, यही है हवन, यही है होम। इसके अतिरिक्त सब धोखे हैं।

धोखे देने में हम कुशल हैं। दूसरों को, अपने को, परमात्मा को भी हम धोखा देने से बचते नहीं।

अनेक-अनेक प्रकार के हम धोखे अपने आस-पास खड़े कर लेते हैं। और धर्म के नाम पर हमने हजार धोखे खड़े कर लिए हैं। इस सूत्र को पढ़ते रहेंगे हम रोज, और फिर भी सूत्र को पढ़कर हम फूल ही चढ़ाते रहेंगे। इस सूत्र को पढ़ते रहेंगे रोज, फिर भी मिठाइयां चढ़ाते रहेंगे। इस सूत्र को पढ़ते रहेंगे रोज, लेकिन इंद्रियां हम से न चढ़ाई जाएंगी। स्वाद नहीं, सुवास का उपकरण नहीं; हम अपने को बचाकर और सब चढ़ाते रहे हैं। शायद, अपने को बचाने के लिए ही हम कुछ और चढ़ा रहे हैं। हमने परमात्मा को कोई बच्चा समझा है, जिसे हम खिलौने पकड़ा देते हैं! इन खिलौनों से नहीं हो सकता है कुछ।

कृष्ण कहते हैं, जो ऐसा कर पाता है, वही परम सत्य को, परम आनंद को, परम आशीष को उपलब्ध होता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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