बुधवार, 22 दिसंबर 2021

दान

 दुनिया के सारे धर्मों में चैरिटी पर, दान पर, बहुत जोर दिया गया है। और उसका कारण यह है कि आदमी ने धन के साथ सदा अपराधभाव महसूस किया है। दान का इतना प्रचार इसीलिए किया गया है ताकि मनुष्य कुछ कम अपराध भाव महसूस करे। तुम्हें हैरानी होगी; प्राचीन अंग्रेजी में एक शब्द है गिल्ट जिसका अर्थ है धन। जर्मन भाषा में एक शब्द है गेल्ड जिसका अर्थ धन है। और गोल्ड तो बहुत करीब है ही। गिल्ट, गिल्ट, गोल्ड—किसी ने किसी तरह गहरे में धन के साथ अपराध भाव जुड़ा है।


जब कभी भी तुम्हारे पास धन होता है तुम अपराधी अनुभव करते हो...और यह स्वाभाविक हैं, क्योंकि इतने सारे लोगों के पास धन नहीं है। तुम अपराध भाव से बच कैसे सकते हो? जब कभी भी तुम्हें धन मिलता है, तुम जानते हो कि तुम्हारी वजह से कोई गरीब हो गया है। जब कभी भी तुम्हें धन मिलता है, तुम जानते हो कि कहीं न कहीं कोई न कोई जरूर भूख से मर रहा होगा। और इधर तुम्हारा बैंक बैलेंस बड़ा और बड़ा होता जा रहा है। किसी बच्चे को जीवित रहने के लिए औषधि न मिल सकेगी। किसी स्त्री को दवा न मिल सकेगी, कोई गरीब आदमी मर जाएगा क्योंकि उसके पास भोजन न होगा। इन चीजों से तुम कैसे बच सकते हो? ये तो वहां होगी ही। जितना अधिक धन तुम्हारे पास होगा, उतनी ही अधिक ये चीजें तुम्हारी चेतना में विस्फोटित होती रहेंगी, तुम अपराधी अनुभव करोगे।


 दान तुम्हें तुम्हारे अपराध-भाव से निर्भार करने के लिए है, इसलिए तुम कहते हो, ‘मैं कुछ तो कर रहा हूं: मैं एक अस्पताल खोलने जा रहा हूं, एक कॉलेज खोलने जा रहा हूं। मैं इस दान फंड को रूपया देता हूं, उस ट्रस्ट को रूपया देता हूं।’ तुम थोड़े से आनंदित महसूस करते हो। संसार सदा निर्धनता में जिया है, संसार सदा तंगी में जिया है, निन्यान्वे प्रतिशत लोग निर्धनता का जीवन जिए है। करीब-करीब भूखे रहते है, और मर जाते है। और केवल एक प्रतिशत व्यक्ति समृद्धि के साथ, धन के साथ जिए है। उन्होंने सदैव अपराध-भाव अनुभव किया है। उनकी सहायता करने के लिए धर्मों ने दान की धारणा का विकास किया है। यह उन्हें उनके अपराध-भाव से छुटकारा दिलाने के लिए है।

 दान कोई सदगुण नहीं है—यह बस तुम्हारी स्थिर बुद्धि को सकुशल बनाए रखने के लिए है, वरना तो तुम विक्षिप्त हो जाओगे। दान सद्गुण नहीं है—यह एक पुण्य भी नहीं है। यह नहीं कि जब तुम दान देते हो तो तुम कोई अच्छा काम करते हो। बात कुल यह है कि धन को इकट्ठा करने में तुम जो बुरे काम करते हो, तुम उसके लिए पश्चाताप करते हो।  दान कोई महान गुण नहीं है—यह तो पश्चाताप है, तुम पश्चात्ताप कर रहे होते हो। एक सौ रूपये तुमने कमाये, दस रूपये तुमने दान में दे दिए। यह एक पश्चात्ताप है। तुम थोड़ा सा अच्छा महसूस करते हो; तुम उतना खराब महसूस नहीं करते, तुम्हारे अहंकार थोड़ा सा सुरक्षित महसूस करता है। तुम परमात्मा से कह सकते हो, ‘मैं केवल शोषण ही नहीं कर रहा था, मैं गरीब आदमियों की मदद भी कर रहा था।’ मगर यह किसी तरह की मदद है? एक तरफ तो तुम सौ रूपए छीन लेते हो, और दूसरी और देते हो केवल दस रूपये—ये तो ब्याज तक नहीं?


यह एक तरकीब है जिसका आविष्कार तथाकथित धार्मिक लागों ने किया था। गरीबों की सहायता करने के लिए नहीं बल्कि धनवालों की सहायता करने के लिए। यदि निर्धन लोगों की सहायता हुई भी, वह तो मात्र इसका परिणाम था, एक उप-उत्पाद, परंतु यह उनका उद्देश्य नहीं था।

मैं दान की बात ही नहीं करता हूं। यह शब्द ही मुझे कुरूप लगता है। मैं तो बांटने की बात करता हूं—और इसमें एक बिलकुल ही भिन्न गुण के साथ बांटना। यदि तुम्हारे पास है, तुम बांट लो। इसलिए नहीं कि बांटने से तुम दूसरों की सहायता करोगे, न; बल्कि बांटने से तुम विकसित होओगे। जितना ज्यादा तुम बांटते हो, उतना ही ज्यादा तुम विकसित होते हो।


और जितना ज्यादा तुम बांटते हो, उतना ही ज्यादा तुम्हें और मिलता है—चाहे जो भी हो। यह केवल धन का ही प्रश्न नहीं है। यदि तुम्हारे पास ज्ञान हो, उसे बांटो। यदि तुम्हारे पास प्रेम हो, उसे भी बांटो। जो भी तुम्हारे पास हो, उसे बांटो, उसे चारों और फैलाओ; हवाओं में उड़ती एक फूल की सुगंध की तरह इसे फैलने दो। इसका विशेष रूप से गरीबों से ही कोई संबंध नहीं है। जो भी उपलब्ध हो उसी के साथ बांट लो...और गरीब भी तरह-तरह के होते है।


एक धनी व्यक्ति भी गरीब हो सकता है क्योंकि उसने कभी कोई प्रेम जाना ही नहीं है। उसके साथ प्रेम बांटो। एक गरीब आदमी ने शायद प्रेम जाना हो पर अच्छा भोजन नहीं—उसके साथ भोजन को बांटो। एक धनी व्यक्ति के पास शायद सब कुछ हो, परंतु समझ न हो, उसे अपनी समझ को बांटो लो, वह भी गरीब है। गरीबी की हजार किस्में है। जो भी तुम्हारे पास हो, उसे भी बांट लो।

लेकिन याद रखना, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि यह पुण्य है, कि परमत्मा इसके लिए स्वर्ग में तुम्हें एक विशेष स्थान देगा, कि तुम्हारे साथ एक विशेष्ट व्यवहार किया जाएगा। कि तुम्हें एक अति विशिष्ट व्यक्ति माना जाएगा। और न ही बांटने से तुम अभी और यही आनंदित हो जाओगे। जमाखोर कभी आनंदित नहीं हो सकता।वह जमा ही किए चला जाता है। वह विश्राम नहीं कर सकता, वह दे नहीं सकता। वह जमा ही किए जाता है, जो कुछ भी उसे मिलता है, वह बस उसी को जमा कर लेता है। वह कभी उसका आनंद नहीं उठा पाता क्योंकि आनंद उठाने के लिए भी तुम्हें बांटना तो पड़ता ही है—क्योंकि सारा आनंद एक तरह का बांटना ही है।


यदि तुम सच में ही अपने भोजन का आनंद उठाना चाहते हो, तुम्हें मित्रों को  बुलाना होगा। यदि तुम सच में ही भोजन का आनंद उठाना चाहते हो, तुम्हें अतिथियों को निमंत्रण देना होगा, वरना तुम इसका आनंद न उठा पाओगे। यदि सच में ही तुम मदिरापान का लुत्फ उठाना चाहते हो, कैसे तुम अकेले अपने कमरे में इसका लुत्फ उठा सकते हो। तुम्हें दोस्त, अपने साथी खोजने ही होगे। तुम्हें बांटना आना ही चाहिए, आनंद बांटने से बढ़ता है।


आनंद सदा बांटना है। आनंद अकेले में नहीं होता। अकेले तुम कैसे आनंदित हो सकते हो? एकदम अकेले—जरा सोचो!  नहीं, आनंद तो एक संबंध है। यह संग-साथ है। सच तो यह है कि जो लोग पहाड़ पर भी चले गए होते हैं, और एकांत जीवन जीते होते हे। वे भी अस्तित्व के साथ बांटते है, वे भी अकेले नहीं होते। वे बांट लेते है, तारों और पहाड़ों, पक्षियों और वृक्षों के साथ—वे भी वहां अकेले नहीं होते।


जरा सोचो! बारह वर्ष तक महावीर जंगल में अकेले खड़े रहे थे—पर वह अकेले नहीं थे। मैं तुमसे कहता हूं, अधिकारता से, कि वह अकेले नहीं थे। पक्षी वहां आते थे, और उनके चारों और खेलते रहते थे। पशु आते थे उनके पास बैठ जाते थे। वृक्ष उन्हें देख कर गद्दगद्द हो कर उन पर फूल बरसाते थे। रात को सितारे जगमगाते थे, सुबह जब सूर्य उदय होता तो उनके तन बदन को छूता था, दिन-रात, सर्दियां-गर्मिया... और सारे वर्ष कुछ न कुछ होता ही रहता था। यह आनंदपूर्ण था। हां, इंसानों से वह दूर थे—उन्हें दूर रहना ही था क्योंकि इन्सानों ने उन्हें इतनी हानि पहुंचाई थी कि स्वस्थ होने के लिए उन्हें दूर रहना ही था। यह तो बस एक निश्चित समय तक इंसानों से दूर रहने के लिए चले गए थे। ताकि वह उन्हें और अधिक कष्ट न पहुंचा सके। यही कारण है कि संन्यासी कभी-कभी एकांत में चला जाता है। बस अपने घाव को भरने के लिए। वरना लोग अपने खंजर तुम्हारे धावों में चुभोते ही रहेंगे, वे उन घावों को हरा ही रखेंगे; वे उन्हें भरने न देंगे, वे तुम्हें जो उन्होंने किया है उसे अनकिया करने का अवसर ही न देंगे।

बारह वर्ष तक महावीर मौन थे: चट्टानों और वृक्षों के पास खड़े, बैठे, पर वह अकेले न थे—सारे अस्तित्व ने उनके आसपास भीड़ लगा रखी थी। सारा अस्तित्व उनके ऊपर समाविष्ट हो रहा था। फिर एक दिन वह आया जब वह स्वस्थ्य हो गए। उनके घाव भर गए। और अब वह जान गए थे कि कोई उन्हें हानि नहीं पहुंचा सकता है। वह पार जा चुके थे। अब कोई भी इंसान उन्हें चोट नहीं पहुंचा सकता था। वह इंसानों से संबंधित होने के लिए, उस आनंद को बांटने के लिए जो उन्हें वहां जंगल में प्राप्त हुआ था, वापस लौट आना ही पड़ा।


जैन धर्मग्रंथ केवल इतना ही कहते है कि वह इस संसार को छोड़ कर चले गए थे। वे उस दूसरे तथ्य की बात ही नहीं करते...वह संसार में वापस क्यों लोट कर आ गए? कौन सा कारण है जो उन्हें संसार में धकेल रहा था, वह आनंद जो उनके भीतर घटा था वह बहने को तत्पर हो रहा था। यह तो आधी ही बात हुई कि वह संसार को छोड़ कर जंगलों में चले गए, यह पूरी कथा नहीं है।


बुद्ध जंगल में चले गए थे, पर वह वापस भी लौट आये थे। कैसे तुम वहां जंगल में बने रह सकते हो जब कि तुम्हें ‘वह’ मिल गया हो? तुम्हें वापस आना होगा और इस बांटना होगा। हां, वृक्षों के साथ बांट लेना अच्छा है, पहाड़ो के साथ बाटा जा सकता है, पक्षियों के साथ बांट सकते हो। परंतु वृक्ष इतना तो नहीं समझ पाते। वे तो बड़े ही र्निबुद्धि हैं। पशुओं के साथ बांट लेना अच्छा है; वे सुंदर है—पर मानवीय आदान-प्रदान की सुंदरता ही कुछ और होती है। उस सम्पूर्णता की पूर्णता मनुष्य के पास बांटना ही प्रत्युत्तर हो सकता है। उन सबको वापस लौटना ही पड़ा, संसार में, मनुष्य के बीच में, अपनी उत्फुल्लता, अपने आनंद, अपनी समाधि को बांटने के लिए।


‘दान’ कोई अच्छा शब्द नहीं है,  यह बड़ा ही भारी शब्द है। मैं तो बांटने की बात करता हूं। अपने संन्यासियों से मैं कहता हूं कि बांटो। ‘दान’ शब्द में कुछ कुरूपता भी है; ऐसा लगता है कि तुम तो ऊंचे हो और दूसरा तुमसे नीचे है; कि दूसरा एक भिखारी है। कि तुम दूसरे की मदद कर रहे हो, कि वह जरूरत में है। यह अच्छी बात नहीं है। दूसरों को ऐसे देखना मानो कि वह तुमसे नीचा हो—तुम्हारे पास है और उसके पास नहीं है—अच्छी बात नहीं है। यह अमानवीय है।


बांटना एक बिल्कुल ही भिन्न दृष्टि की बात है। इस बात का प्रश्न ही नहीं है कि उसके पास है अथवा नहीं है। प्रश्न तो बस यह है कि तुम्हारे पास बहुत अधिक है—तुम्हें बांटना ही है। जब तुम दान देते हो, तुम दूसरे से तुम्हें धन्यवाद देने की अपेक्षा करते हो। जब तुम बांटते हो, तुम उसे धन्यवाद देते हो कि उसने तुम्हें ऊर्जा उडेलने का अवसर दिया—जो कि तुम पर बहुत एकत्रित हो गई थी। यह भारी होने लगी थी। तुम कृतज्ञ अनुभव करते हो।


बांटना तुम्हारी प्रचुरता से है। दान दूसरे की गरीबी के लिए है। वरना तुम्हारी समृद्धि से है। उनमें गुणात्मक भेद है।


नहीं, मैं दान की बात ही नहीं करता, मैं तो बांटने की बात करता हूं...और यह बढ़ेगा। यह एक आधारभूत नियम है। जितना अधिक तुम देते हो, उतना ही अधिक तुम्हें मिलता है। देने में कभी कंजूस न बनो।

ओशो रजनीश

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...