शुक्रवार, 2 जून 2023

 पत्नी सदा मार्ग की बाधा ही नहीं होती । वह सहयात्री है - मार्ग की सहायिका भी हो सकती है । सोच-समझकर ही सह-यात्री चुना जाए तो सहायक होता है, बिना सोचे-समझे चुना जाए तो स्थायी सिर-दर्द । सीता से उन्हें विघ्न की कोई आशंका नहीं है... तो क्या संतान सदा विघ्न स्वरूप ही होती है ?

राम का मन कहता है, संतान मार्ग की बाधा नहीं है, किंतु माता-पिता की पूर्व - व्यस्तता तथा अन्य लक्ष्य सिद्धता अवश्य संतान के मार्ग की बाधा हो जाती है ।" सिद्धाश्रम से मिथिला जाते हुए, मार्ग में पूछा गया ऋषि विश्वामित्र का प्रश्न बहुधा उनके सम्मुख आ खड़ा होता है, 'ऐसा क्यों है, राम ! कि अपना घर फूंके बिना व्यक्ति परमार्थ की राह पर चल ही नहीं सकता ?"

स्वार्थपरक सामाजिक व्यवस्था की इस द्वंद्वात्मकता को राम ने सदा मन में रखा है। इसमें परिवार तथा समाज का स्वार्थ प्रायः विरोधी है, एक के लिए दूसरे का त्याग करना पड़ता है। राम नहीं चाहते कि उनके द्वारा बृहत् सामाजिक दायित्व के पालन के कारण, उनके सगे होने का दंड उनकी संतान को मिले। वे नहीं चाहते कि उनकी संतान बड़ी होकर यह कहे कि उनका दुर्भाग्य यह है कि उनका पिता सामाजिक जीवन में ईमानदारी से मग्न है, या यह कि अपने जननायक पिता की ओर से सदा उन्हें उपेक्षा ही मिली है, या यह कि उनके पिता के पास सब के लिए समय है; केवल अपनी पत्नी और बच्चों के लिए नहीं है।

इसका क्या अर्थ - क्या राम समझते हैं कि जब जीवन में अन्य कोई कार्य नहीं रहेगा, जब वे सब ओर से अवकाश प्राप्त कर लेंगे, तो ही संतान की बात सोचेंगे ? क्या ऐसा समय भी आएगा ? जीवन में कुछ-न-कुछ तो लगा ही रहता है। जब जीवन में इतना कुछ - परस्पर समान और विरोधी साथ-साथ चलता रहता है; तो संतान भी उसी वैविध्यपूर्ण जीवन का एक अंश बनकर क्यों नहीं चल सकती ! ... नहीं, राम जीवन के महत्त्वपूर्ण कामों से अवकाश प्राप्त कर, वृद्धावस्था में संतान को जन्म देने की बात नहीं सोचते । संतान के जन्म का भी उचित समय होता है, ताकि व्यक्ति ठीक समय से उनका पालन-पोषण कर उन्हें उनके अपने पैरों पर खड़ा कर दे।''हां, राम कुछ अधिक मानसिक अनुकूलता तथा परिस्थितियों की स्थिरता की प्रतीक्षा कर रहे हैं। विवाह के पश्चात् पांच-सात वर्ष संतान न हो तो कोई आसमान नहीं गिर पड़ेगा। यदि वे विवाह ही रुककर करते तो ? कई लोग पैंतीस चालीस वर्ष के वय में विवाह करते हैं। वे तो अभी कुल उनतीस वर्ष के हैं। वे संतान के लिए दो-चार वर्ष और प्रतीक्षा कर सकते हैं...

और फिर, संतान को इतना अधिक महत्त्व देने का भी क्या अर्थ कि जीवन के प्रत्येक धर्म से संतान अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाए । मनुष्य का जीवन स्वयं कर्म करने के लिए है अथवा वंश परंपरा को आगे बढ़ाने का माध्यम मात्र ? राम का जीवन कर्म के लिए है ।'' बच्चे उन्हें भी अच्छे लगते हैं- वात्सल्य उनके मन में भी है,

 वे कितना चाहती हैं कि सामाजिक तथा प्रशासनिक कामों में राम का हाथ बंटाएं; पर अभी तक राम की व्यक्तिगत देखभाल के साथ स्त्रियों तथा बच्चों के कल्याण संबंधी कुछ हल्के कामों के अतिरिक्त वे कुछ नहीं कर पायी हैं। इस परिवार का ही नहीं, सारे समाज का ढांचा ही कुछ ऐसा है, कि नारी कहीं शोभा की वस्तु है, कहीं भोग की । कहीं वह अत्यन्त शोषित है, कहीं परजीवी । अमरबेल होकर रह गई है नारी; जो अपने पति के माध्यम से समाज का रस खींचती है। समाज से उसका सीधा कोई संबंध ही नहीं है । घर की व्यवस्था में तो फिर भी उसका स्थान है, सामाजिक उत्पादन में वह एकदम निष्प्रयोजन वस्तु है । निर्धन किसान की पत्नी उसके साथ खेत पर जाकर उसका हाथ बंटाती है, श्रमिक की पत्नी पति के साथ या स्वतंत्र रूप से श्रम करती है; किंतु धनी वर्ग की स्त्रियां मात्र जोंकें हैं। चूसने के लिए उन्हें रक्त चाहिए। उनकी सामाजिक उपयोगिता पूरी तरह शून्य है और उनकी आवश्यकताएं आसमान को छू रही हैं। उन्हें भड़कीले वस्त्र चाहिए, चमकीले आभूषण चाहिए; प्रसाधन के लिए चंदन कस्तूरी के छकड़े भी उनके लिए अपर्याप्त हैं; चर्बी चढ़ाने के लिए दुनिया भर का गरिष्ठ और स्वादिष्ट भोजन चाहिए.

इन निकम्मी, मोटी बुद्धि वाली, निरर्थक वस्तुओं को देखकर, सीता का खून जल उठता था। उनसे घड़ी आधा घड़ी बात कर सीता का दम घुटने लगता था । रानियां, मंत्राणियां, सामंत-पत्नियां, आचार्य-पत्नियां - सब ही पुराने पड़े व्यर्थ के कबाड़ - सी वस्तुएं थीं, जिनकी कोई सामाजिक उपयोगिता नहीं थी ।

पर सीता स्वयं भी सक्रिय होकर अभी तक कोई बहुत महत्त्वपूर्ण काम नहीं कर पायी थीं। इस प्राय - निष्क्रियता में सदा आशंकित रहती थीं कि कहीं वे भी सार्थक परिश्रम के अभाव में उसी चमकीले कबाड़ का अंग न बन जाएं। पिछले चार वर्षो में कितनी बार पति-पत्नी में इस विषय पर कहा सुनी हुई थी। साधारण बातचीत हुई थी, तर्क हुए थे, तनातनी और झगड़े भी हुए थे। पर अंत में दोनों ने यही पाया था कि यह रूढ़ व्यवस्था नारी-शून्य, पुरुष समाज से काम करने की इतनी अभ्यस्त हो चुकी थीं कि नारी को अपने मध्य पाते ही, जैसे उसे पीसने लगती थी । यह व्यवस्था नारी को उसका उचित मानवीय स्थान देने के लिए किंचित् भी इच्छुक नहीं थी । नारी को पुरुष की बराबरी का स्थान दिलाने के लिए लंबा और जोरदार संघर्ष अपेक्षित था ।

नरेंद्र कोहली के उपन्यास अभ्दूय से 

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...