गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 3 भाग 29

 वासना की धूल, चेतना का दर्पण


धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।

यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।। ३८।।

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।

कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।। ३९।।


जैसे धुएं से अग्नि और मल से दर्पण ढंक जाता है (तथा) जैसे स्निग्ध झिल्ली से गर्भ ढंका हुआ है, वैसे ही उस काम के द्वारा यह ज्ञान ढंका हुआ है।

और हे अर्जुन! इस अग्नि (सदृश) न पूर्ण होने वाले कामरूप ज्ञानियों के नित्य वैरी से ज्ञान ढंका हुआ है।


कृष्ण ने कहा है, जैसे धुएं से अग्नि ढंकी हो, ऐसे ही काम से ज्ञान ढंका है। जैसे बीज अपनी खोल से ढंका होता है, ऐसे ही मनुष्य की चेतना उसकी वासना से ढंकी होती है। जैसे गर्भ झिल्ली में बंद और ढंका होता है, ऐसे ही मनुष्य की आत्मा उसकी कामना से ढंकी होती है। इस सूत्र को ठीक से समझ लेना उपयोगी है


पहले तो यह समझ लेना जरूरी है कि ज्ञान स्वभाव है--मौजूद, अभी और यहीं। ज्ञान कोई उपलब्धि नहीं है, कोई एचीवमेंट नहीं है। ज्ञान कोई ऐसी बात नहीं है, जो आज हमारे पास नहीं है और कल हम पा लेंगे। क्योंकि अध्यात्म मानता है कि जो हमारे पास नहीं है, उसे हम कभी नहीं पा सकेंगे। अध्यात्म की समझ है कि जो हमारे पास है, हम केवल उसे ही पा सकते हैं। यह बड़ी उलटी बात मालूम पड़ती है। जो हमारे पास है, उसे ही हम केवल पा सकते हैं; और जो हमारे पास नहीं है, हम उसे कभी भी नहीं पा सकते हैं। इसे ऐसा कहें कि जो हम हैं, अंततः वही हमें मिलता है; और जो हम नहीं हैं, हमारे लाख उपाय, दौड़-धूप हमें वहां नहीं पहुंचाते, वह नहीं उपलब्ध होता, जो हम नहीं हैं।


जैसे धुएं में आग ढंकी हो, तो आग पाना नहीं होती; केवल धुआं अलग हो जाए, तो आग प्रकट हो जाती है। जैसे सूरज बदलियों से ढंका हो, तो सूरज पाना नहीं होता; सिर्फ बदलियां हट जाएं, तो सूरज प्रकट हो जाता है। जैसे बीज ढंका है, वृक्ष पाना नहीं है। वृक्ष बीज में है ही, अप्रकट है, छिपा है, कल प्रकट हो जाएगा। ऐसे ही ज्ञान सिर्फ अप्रकट है, कल प्रकट हो जाएगा।

इसके दो अर्थ हैं। इसका एक अर्थ तो यह है कि अज्ञानी भी उतने ही ज्ञान से भरा है, जितना परमज्ञानी। फर्क अज्ञानी और ज्ञानी में अगर हम ठीक से समझें, तो अज्ञानी के पास ज्ञानी से कुछ थोड़ा ज्यादा होता है, धुआं ज्यादा होता है। आग तो उतनी ही होती है, जितनी ज्ञानी के पास होती है; अज्ञानी के पास कुछ और ज्यादा भी होता है, धुआं भी होता है। सूरज तो उतना ही होता है जितना ज्ञानी के पास होता है; अज्ञानी के पास काली बदलियां भी होती हैं। अगर इस तरह सोचें, तो अज्ञानी के पास ज्ञानी से कुछ ज्यादा होता है। और जिस दिन ज्ञान उपलब्ध होता है, उस दिन यह जो ज्यादा है, यही खोता है, यही आवरण टूटकर गिर जाता है। और जो भीतर छिपा है, वह प्रकट हो जाता है।

तो पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है कि अज्ञानी से अज्ञानी मनुष्य के भीतर ज्ञान पूरी तरह मौजूद है; अंधेरे से अंधेरे में भी, गहन अंधकार में भी परमात्मा पूरी तरह मौजूद है। कोई कितना ही भटक गया हो, कितना ही भटक जाए, तो भी ज्ञान से नहीं भटक सकता, वह उसके भीतर मौजूद है। हम कहीं भी चले जाएं और हम कैसे भी पापी हो जाएं और कितने भी अज्ञानी और कितना ही अंधेरा और जिंदगी कितने ही धुएं में घिर जाए, तो भी हमारे भीतर जो है, वह नहीं खोता है। उसके खोने का कोई उपाय नहीं है।

 ईश्वर ऐसे तत्व का नाम है, जिसे हम खोना भी चाहें, तो नहीं खो सकते हैं। खोने का जिसे उपाय ही नहीं है, उसका नाम स्वभाव है, उसका नाम स्वरूप है। आग उत्ताप नहीं खो सकती, वह उसका स्वभाव है। मनुष्य ज्ञान नहीं खो सकता, यह उसका स्वभाव है। लेकिन फिर भी अज्ञान तो है। तो अज्ञान को हम क्या समझें?

अज्ञान से दो मतलब हो सकते हैं। ज्ञान का अभाव मतलब हो सकता है अज्ञान से, एब्सेंस आफ नोइंग। कृष्ण का यह मतलब नहीं है। अज्ञान ज्ञान का अभाव नहीं है, अज्ञान ज्ञान का ढंका होना है। अज्ञान ज्ञान का अभाव नहीं है, अज्ञान सिर्फ ज्ञान का अप्रकट होना है। यह भी बहुत मजे की बात है कि धुआं वहीं प्रकट हो सकता है, जहां आग हो। धुआं वहां प्रकट नहीं हो सकता, जहां आग न हो। अज्ञान भी वहीं प्रकट हो सकता है, जहां ज्ञान हो। अज्ञान भी वहां प्रकट नहीं हो सकता, जहां ज्ञान न हो। इसलिए तर्कशास्त्री से अगर पूछेंगे, नैयायिक से अगर पूछेंगे, तो वह कहेगा, जहां-जहां धुआं है, वहां-वहां आग है। हम धुआं देखकर ही कह देते हैं कि आग जरूर होगी।

दूसरी मजे की बात यह है कि धुआं तो बिना आग के कभी नहीं होता, लेकिन आग कभी बिना धुएं के हो सकती है, होती है। असल में धुएं का संबंध आग से इतना ही है कि आग बिना ईंधन के नहीं होती। और ईंधन अगर गीला है, तो धुआं होता है; और ईंधन अगर सूखा है, तो धुआं नहीं होता। लेकिन धुआं बिना आग के नहीं हो सकता, ईंधन कितना ही गीला हो। ईंधन अगर सूखा हो, तो आग बिना धुएं के हो सकती है, दमकता हुआ अंगारा बिलकुल बिना धुएं के होता है।

अज्ञान के अस्तित्व के लिए पीछे ज्ञान जरूरी है, इसलिए अज्ञान ज्ञान का अभाव नहीं है, अनुपस्थिति नहीं है। अज्ञान भी बताता है कि भीतर ज्ञान मौजूद है। अन्यथा अज्ञान भी संभव नहीं है, अज्ञान भी नहीं हो सकता है। अज्ञान सिर्फ आवरण की खबर देता है। और आवरण सदा उसकी भी खबर देता है, जो भीतर मौजूद है। बीज सिर्फ आवरण की खबर देता है, अंडे के ऊपर की खोल सिर्फ आवरण की खबर देती है। साथ में यह भी खबर देती है कि भीतर वह भी मौजूद है, जो आवरण नहीं है।

इसलिए अज्ञानी को हताश होने की कोई भी जरूरत नहीं है। अज्ञानी को निराश होने की कोई भी जरूरत नहीं है। और ज्ञानी को भी अहंकारी हो जाने की कोई जरूरत नहीं है। अगर हिसाब रखा जाए, तो अज्ञानी के पास ज्ञानी से सदा ज्यादा है। यह ज्ञानी को अहंकारी होने की कोई भी जरूरत नहीं है। अज्ञानी को निराश होने की कोई भी जरूरत नहीं है। जो ज्ञानी में प्रकट हुआ है, वह अज्ञानी में अप्रकट है। जो अप्रकट है, वह प्रकट हो सकता है। वह अप्रकट क्यों है? क्या कारण है? क्या बाधा है?

कृष्ण कहते हैं, धुआं जैसे आग को घेरता है, वैसे ही वासना मन को घेरे हुए है।

वासना को समझना जरूरी है, अन्यथा आत्मा को हम न समझ पाएंगे। वासना को समझना जरूरी है, अन्यथा अज्ञान को हम न समझ पाएंगे। वासना को समझना जरूरी है, अन्यथा का ज्ञान प्रकट होना असंभव है। अब अगर हम ठीक से समझें, तो ज्ञान में अज्ञान बाधा नहीं बन रहा है; ठीक से समझें, तो ज्ञान में वासना बाधा बन रही है। क्योंकि वासना ही गीला ईंधन है, जिससे कि धुआं उठता है; वासनामुक्त आदमी सूखे ईंधन की भांति है।


वासना कच्चा ईंधन है। गीली लकड़ी है। क्या मतलब है मेरा? वासना को देखने के दोत्तीन प्रकार हैं। एक तो वासना की मान्यता है कि जो मुझे चाहिए, वह मेरे पास नहीं है। वासना का आधार है कि जो मुझे चाहिए, वह मेरे पास नहीं है; जो भी चाहिए, वह नहीं है। वासना का स्वरूप सदा यही है कि जो भी चाहिए, वह मेरे पास नहीं है। ऐसा नहीं कि कल वह चीज मिल जाएगी तो वासना मर जाएगी, सिर्फ वासना उस चीज से सरककर किसी दूसरी चीज पर लग जाएगी। दस हजार रुपए नहीं हैं, तो वासना कहती है कि दस हजार रुपए चाहिए। दस हजार रुपए होते हैं, तो वासना कहती है कि दस लाख चाहिए। दस लाख होते हैं, तो वासना कहती है कि दस करोड़ चाहिए।


वासना, जो नहीं है, उसकी मांग है। इसलिए एक अर्थ में समझें, तो वासना सदा ही रिक्त है, सदा खाली है। सदा रिक्त, सदा खाली,  कभी भरती नहीं। भर नहीं सकती। उसका स्वभाव यही है कि जो नहीं है, वह। और कुछ तो नहीं होगा ही। कुछ तो नहीं होगा ही। वह, जो नहीं है, वासना वहीं लगी रहती है। और चूंकि वासना जो नहीं है, वहां लगी रहती है, इसलिए आत्मा, जो है, वह हमें प्रकट नहीं हो पाती। हमारा सारा चित्त उस पर अटका रहता है, जो नहीं है। हम उसको कैसे देख पाएं, जो है। आत्मा अभी है, यहीं है; और वासना कल है, कहीं है। वासना सदा भविष्य में है, आत्मा सदा वर्तमान में है। इसलिए जिस आदमी का मन वासना में भटक रहा है, वह आत्मा तक नहीं पहुंच पाता। इसलिए कृष्ण कहते हैं, उसे ज्ञान उपलब्ध नहीं हो पाता।

जैसे आप अपने दरवाजे पर खड़े हैं और रास्ते पर चलते लोगों को देख रहे हैं, तो फिर घर के लोगों को न देखे पाएंगे। सच तो यह है कि अगर रास्ते पर चलते लोगों को देखने में बहुत लीन हो गए, तो अपने को भूल ही जाएंगे। असल में दूसरे को देखने में ध्यान दूसरे पर चला जाता है, स्वयं से हट  जाता है।

वासना पर लगा हुआ ध्यान आत्मा से च्युत हो जाता है। आत्मा भीतर खड़ी है, मौजूद है, सदा तैयार है। आओ कभी भी, द्वार खुले हैं। लेकिन वासना की यात्रा पर निकला आदमी जन्मों-जन्मों भटकता है और वहां नहीं आता है। वह खोजता ही चला जाता है। वह खोजता ही चला जाता है। और जहां तक पहुंचता है, वासना आगे के स्वप्न बना लेती है। क्षितिज की तरह है वासना। हॅराइजन दिखाई पड़ता है आकाश का। लगता है, थोड़ी ही दूर, दस मील दूर आकाश जमीन को छू रहा है। कहीं भी छूता नहीं। मन कहता है, बस पास ही है; जरा दौडूं और पहुंच जाऊं। पहुंचें आप, दौड़ें आप। पहुंच भी जाएंगे दस मील, लेकिन पाएंगे कि आकाश अब भी छूता है, लेकिन अब दस मील आगे छूता है। और दस मील चलें। पहुंच जाएंगे दस मील, फिर भी पाएंगे, आकाश फिर भी छूता है, आगे दस मील छूता है। आकाश सदा ही आगे दस मील छूता है। कहीं छूता नहीं; सिर्फ छूता हुआ प्रतीत होता है। दौड़ते रहें, पूरी पृथ्वी का चक्कर लगा लें, आकाश कहीं छूता हुआ नहीं मिलेगा। लेकिन सदा मालूम पड़ेगा कि बस, जरा और आगे, और छुआ, और छुआ। बस, यह तो छू रहा है! दौड़ाता सदा रहेगा, कभी छूता हुआ मिलेगा नहीं।

वासना आकाश छूती हुई क्षितिज की रेखा जैसी है। सदा लगती है, बस अब पूरी हुई--एक वर्ष और, दो वर्ष और, दस वर्ष और, यह कारखाना और, यह मकान और, यह दुकान और--बस पूरा हुआ जाता है, क्षितिज की रेखा आई जाती है, आकाश छू लेगा। पहुंच जाते हैं वहां, पाते हैं कि रिक्त, खाली हाथ वैसे ही खड़े हैं, जैसे दस साल पहले थे, पचास साल पहले थे और आकाश अभी भी थोड़े आगे छू रहा है। वासना अभी भी थोड़े आगे कह रही है, थोड़े और चल आओ, तो तृप्ति हो जाएगी।

इसलिए आदमी बढ़ता चला जाता है। और तब एक चीज से वंचित रह जाता है, जो उसे मिली हुई थी, जो उसके पास ही थी, जो कि परमात्मा की उसे भेंट थी, जो कि परमात्मा ने उसे दी थी, उस चीज से भर वंचित रह जाता है। और जो वासनाएं उसे दे नहीं सकतीं, कभी नहीं दे सकतीं, उन्हीं की दौड़ में वह दौड़ता चला जाता है। इस दौड़ के धुएं में खो जाता है ज्ञान; इस दौड़ में छिप जाता है वह, जो है। इस दौड़ में भूल जाता है वह, जो सदा से साथ है; और स्मरण आता है उसका, जो कभी साथ नहीं हो सकता है।

वासना ही अज्ञान है, डिजायरिंग इज़ इग्नोरेंस। ठीक से समझें, तो अज्ञान कुछ और नहीं है। वासना में दौड़ा हुआ चित्त आत्मा को उपलब्ध नहीं हो पाता है। यह विस्मरण बन जाता है। वासना का स्मरण आत्मा का विस्मरण है। इच्छा के पीछे ध्यान का जाना, स्वयं से ध्यान का चूक जाना है। और ध्यान हमेशा वन डायमेंशनल है। ध्यान एक आयामी है। अगर आप इच्छा के पीछे चले गए, तो वह पीछे नहीं लौट सकता। कोई उपाय नहीं है। हां, इच्छा जाए, विदा हो, धुआं न हो, तो वह अपने पर लौट आए। इसलिए कृष्ण इस सूत्र में कहते हैं कि ज्ञान कोई खोता नहीं, लेकिन ज्ञान विस्मरण हो जाता है। खोना नहीं है, सिर्फ विस्मृति है।


परमात्मा पुनःस्मरण है, रिमेंबरिंग है। वह हमारे भीतर बैठा है। हम एक दुर्घटनाग्रस्त स्थिति में हो गए हैं। हमारा एक्सिडेंट, हमारी दुर्घटना यह है कि जो नहीं है, उसने हमें आकर्षित कर लिया है। इसका कारण है कि जो होता है, उसका आकर्षण नहीं होता है; जो नहीं है, उसमें आकर्षण होता है। जो पास है, उसे हम भूल जाते हैं; जो दूर है, उसे हम याद करते हैं। कभी आपने खयाल किया, मित्र पास हो, तो याद नहीं आती; मित्र दूर हो, तो याद आती है। प्रियजन बगल में बैठा हो, तो भूल जाता है; अखबार पढ़ते रहते हैं। और प्रियजन दूर चला जाए, तो अखबार क्या गीता भी नहीं पढ़ी जाती; बंद करके रख देते हैं; उसकी याद आती है। दूर है कोई चीज, तो याद आती है; नहीं है पास, तो याद आती है। पास है, बिलकुल पास है, तो याद भूल जाती है।

और परमात्मा से ज्यादा पास हमारे और कोई भी नहीं है। मोहम्मद ने कहा है, गले की नस--जो कट जाए, तो जीवन चला जाए--उससे भी पास है परमात्मा। श्वास--जो बंद हो जाए, तो प्राण निकल जाएं--मोहम्मद ने कहा है, उससे भी पास है परमात्मा। श्वास से भी जो पास है, उसे अगर हम भूल गए, तो कोई आश्चर्य नहीं, स्वाभाविक है।

अज्ञान बिलकुल स्वाभाविक है, लेकिन तोड़ा जा सकता है, अनिवार्य नहीं है। स्वाभाविक है, अनिवार्य नहीं है। प्राकृतिक है, मंगलदायी नहीं है। भूल गए, यह ठीक, लेकिन इस भूल से सारा जीवन दुख और पीड़ा और नर्क से भर जाता है। हमारी सारी पीड़ा एक ही है बुनियाद में, गहरे में, केंद्र पर कि हम उसे भूल गए हैं, जो हमारे भीतर बैठा है।

कृष्ण कहते हैं, जैसे धुएं से आग छिपी है, ऐसे ही तुम भी छिपे हो अपनी ही वासना से।

कभी आपने खयाल किया कि यह धुआं बड़ा कीमती शब्द है। कुछ और शब्द भी प्रयोग किया जा सकता था, लेकिन धुआं कितना हवाई है, ठोस नहीं है जरा भी। जरा भी ठोस नहीं है, हाथ हिलाएं, तो चोट भी नहीं लगती धुएं को। तलवार चलाएं, तो धुआं कट भी नहीं सकता। धक्के देकर हटाएं, तो आप ही हट जाएंगे, धुआं वहीं का वहीं रह जाएगा। कितना ना-कुछ, जस्ट लाइक नथिंग। धुएं का इसलिए उपयोग किया है कि बिलकुल ना-कुछ है, सब्सटेंशियल जरा भी नहीं, तत्व कुछ भी नहीं है; धुआं-धुआं है।

वासना भी ऐसी ही धुआं-धुआं है। तत्व कुछ भी नहीं है, सिर्फ धुआं-धुआं है। हाथ से हटाएं, हटती नहीं; तलवार से काटें, कटती नहीं; फिर भी है। और उसे छिपा लेती है, जो बहुत वास्तविक है। अब आग से ज्यादा वास्तविक क्या होगा! आग किसी को भी जला दे और धुएं को नहीं जला पाती! आग किसी को भी राख कर दे, और धुएं को राख नहीं कर पाती। अगर धुआं होता कुछ, तो आग उसको जला देती। वह ना-कुछ है, इसलिए जला भी नहीं पाती। और धुआं उसे घेर लेता है। ऐसे ही मनुष्य के भीतर के ज्ञान को उसकी वासना घेर लेती है। वासना अगर कुछ होती, तो ज्ञान काट भी देता, लेकिन बिलकुल धुआं-धुआं है।

कभी आपने अगर खयाल किया होगा अपने चित्त का, जब वह वासना से भरता है, तो आपको फौरन पता लगेगा कि जैसे धुआं-धुआं चारों ओर घिर गया। कभी कामवासना से जब मन भर जाता है, तो ऐसा ही लगता है, जैसे सुबह, सर्दी की सुबह आप बाहर निकले हों और चारों ओर धुआं-धुआं है। कुछ दिखाई नहीं पड़ता, अंधापन घेर लेता है, फिर भी बढ़े जाते हैं। कोई चीज, जहां नहीं बढ़ना चाहिए, ऐसा भी लगता है, फिर भी बढ़े जाते हैं। कोई भीतर से पुकारता भी है कि अंधेरे में जा रहे हो, गलत में जा रहे हो, फिर भी बढ़े जाते हैं।

कृष्ण ने दूसरा एक प्रतीक लिया है, जैसे दर्पण पर धूल जम जाए, दर्पण पर मल जम जाए। दर्पण है, धूल जम गई है। धूल जमने से दर्पण जरा भी नहीं बिगड़ता है, जरा भी नहीं। दर्पण का कुछ भी नहीं बिगड़ता। और दर्पण इंचभर भी कम दर्पण नहीं होता है धूल के जमने से,  कोई फर्क नहीं पड़ता। धूल कितनी ही पर्त-पर्त जम जाए कि दर्पण बिलकुल खो जाए, तो भी दर्पण नहीं खोता। उसकी मिरर-लाइक क्वालिटी पूरी की पूरी बनी रहती है। उसमें कुछ फर्क नहीं पड़ता। धूल के पहाड़ जमा दें दर्पण के ऊपर, छोटे-से दर्पण पर एवरेस्ट रख दें धूल का, तो भी दर्पण का जो दर्पणपन है, मिरर-लाइक जो उसका गुण है, वह नहीं खोता। वह अपनी जगह है। और जब भी धूल हट जाएगी, दर्पण दर्पण है। और जब धूल थी दर्पण पर, तब भी दर्पण दर्पण था, कुछ खोया नहीं था। इसलिए दूसरा प्रतीक भी कृष्ण का बहुत कीमती है। वे कहते हैं, जैसे धूल जम जाती है दर्पण पर, ऐसे ही वासना जम जाती है आदमी की चेतना पर।


चेतना को दर्पण कहना बहुत सार्थक है। चेतना है ही दर्पण। लेकिन हमारे पास चेतना दर्पण की तरह काम नहीं करती। धूल बहुत है। कुछ नहीं दिखाई पड़ता। अपनी ही शक्ल नहीं दिखाई पड़ती अपनी ही चेतना में, तो और क्या दिखाई पड़ेगा! कुछ नहीं दिखाई पड़ता। अंधे की तरह टटोलकर चलना पड़ता है। वह दर्पण, जिसमें सत्य दिखाई पड़ सकता है, जिसमें परमात्मा दिखाई पड़ सकता है, जिसमें स्वयं की झलक का प्रतिबिंब बन जाता, कुछ नहीं दिखाई पड़ता, सिर्फ धूल ही धूल है। और हम उस धूल को बढ़ाए चले जाते हैं। धीरे-धीरे हम बिलकुल अंधे हो जाते हैं, एक स्प्रिचुअल ब्लाइंडनेस।

एक अंधापन तो आंख का है। जरूरी नहीं कि आंख का अंधा आदमी भीतर से अंधा हो। जरूरी नहीं कि आंख का ठीक आदमी भीतर से अंधा न हो। एक और अंधापन भी है, जो भीतर के दर्पण पर धूल के जम जाने से पैदा हो जाता है। हम तो दर्पण की तरह व्यवहार ही नहीं करते। एक तो हमें पता ही नहीं चलता कि हमारे भीतर कोई दर्पण है, जिसमें सत्य का प्रतिफलन हो सके! दर्पण का पता कब चलता है? जब दर्पण रिफ्लेक्ट करता है, तभी पता चलता है। अगर आपके पास दर्पण है, उसमें तस्वीर नहीं बनती, प्रतिबिंब नहीं बनता, तो उसे कौन दर्पण कहेगा?

आपने कभी खयाल किया कि आपके भीतर सत्य का आज तक कोई प्रतिबिंब नहीं बना! जरूर कहीं न कहीं आपके भीतर दर्पण जैसी चीज खो गई है। वे जो जानते हैं, वे तो कहते हैं, वे तो कहते हैं कि दिल के आईने में है तस्वीरे-यार, वह तो यहां हृदय के दर्पण में उस प्रेमी की तस्वीर है; जब जरा गरदन झुकाई देख ली। बाकी हम कितनी ही गरदन झुकाएं, कुछ दिखाई नहीं पड़ता। अपनी गरदन भी नहीं दिखाई पड़ती, तस्वीरे-यार तो बहुत मुश्किल है। उस प्रेमी की तस्वीर दिखाई पड़नी तो बहुत मुश्किल है। धूल है।

धूल क्यों कहते हैं? धुआं क्यों कहते हैं, मैंने कहा। धूल क्यों कहते हैं? और कृष्ण जैसा आदमी जब एक भी शब्द का प्रयोग करता है, तो यों ही नहीं करता। कृष्ण जैसे लोग टेलीग्राफिक होते हैं; एक-एक शब्द बड़ी मुश्किल से उपयोग करते हैं।

जब वे कहते हैं धूल की भांति वासना को, तो कुछ बात है। उन्होंने तो ठीक शब्द मल प्रयोग किया है। मल और भी, धूल से भी कठिन शब्द है। मल में गंदी धूल का भाव है, सिर्फ धूल का नहीं। गंदगी से भर गया। धूल ही नहीं सिर्फ, गंदगी भी।

वासना में गंदगी क्या है? दुर्गंध क्या है? बहुत दुर्गंध है। और वह दुर्गंध इस बात से आती है कि एक तो वासना कभी भी दूसरे का गुलाम हुए बिना पूरी नहीं होती और जीवन में सारी दुर्गंध परतंत्रता से आती है। जीवन की सारी दुर्गंध परतंत्रता से आती है और जिंदगी की सारी सुगंध स्वतंत्रता से आती है। जितना स्वतंत्र मन, उतना ही सुवास से भरा होता है। और जितना परतंत्र मन, उतनी दुर्गंध से भर जाता है। और वासना परतंत्र बनाती है।

अगर आप एक स्त्री पर मोहित हैं, तो एक गुलामी आ जाएगी। अगर आप एक पुरुष पर मोहित हैं, तो एक गुलामी आ जाएगी। अगर आप धन के दीवाने हैं, तो धन की गुलामी आ जाएगी। अगर आप पद के दीवाने हैं,  तो आदमी ऐसा गुलाम हो जाता है, ऐसा गिड़गिड़ाता है, ऐसी लार टपकाता है, ऐसे हाथ जोड़ता है, ऐसे पैर पड़ता है, और क्या-क्या नहीं करता--वह सब करने को राजी हो जाता है। एक गुलामी है, एक दासता है।

जहां भी वासना है, वहां गुलामी होगी। जो पैसे का पागल है, उसको देखा है आपने कि रुपए को कैसा, कैसा मोहित, कैसा मंत्रमुग्ध देखता है! रात सपने में भी गिनता रहता है। पैसा छिन जाए, तो उसके प्राण चले जाएं। उसका प्राण पैसे में होता है। पैसा बच जाए, तो उसकी आत्मा बच जाती है। वासना दुर्गंध लाती है, क्योंकि वासना परतंत्रता लाती है। और इसलिए वासना से भरा हुआ आदमी कभी सुगंधित नहीं होता। उसके चारों तरफ वह सुगंध नहीं दिखाई पड़ती, जो किसी महावीर, किसी बुद्ध, किसी कृष्ण के आस-पास दिखाई पड़ती है।

और बड़े मजे की बात है कि वासना तृप्त न हो, तो भी चित्त पीड़ित और परेशान होता है; और जो चाहा था वह मिल जाए, तो भी चित्त फ्रस्ट्रेट होता है, तो भी पीछे विषाद छूट जाता है। कामवासना तृप्त न हो, तो मन कामवासना के चित्रों की दुर्गंध से भर जाता है। और कामवासना तृप्त होने का मौका आ जाए, तो पीछे सिवाय हारे हुए, दुर्गंध से पराजित व्यक्तित्व के कुछ भी नहीं छूटता। दोनों ही स्थितियों में चेतना धूमिल होती है और चेतना पर गंदगी की पर्त जम जाती है।

लेकिन गंदगी की पर्त पता नहीं चलती, क्योंकि धीरे-धीरे हम गंदगी के आदी हो जाते हैं। दुर्गंध मालूम नहीं पड़ती! नासापुट राजी हो जाते हैं, कंडीशनिंग हो जाती है। तो ऐसा भी हो सकता है कि हमें दुर्गंध नहीं, सुगंध मालूम पड़ने लगे। ऐसा भी हो जाता है। ऐसा भी हो जाता है कि जो दुर्गंध निरंतर हम उसके आदी हो गए हैं, कंडीशनिंग हो गई है, तो हमें लगता है कि बड़ी सुगंध आ रही है। ऐसा ही हो भी गया है। और जिस दिन दुर्गंध सुगंध मालूम होने लगती है, उस दिन तो जैसे फिर छुटकारा बहुत मुश्किल है। जिस आदमी को कारागृह निवास मालूम पड़ने लगे, घर मालूम पड़ने लगे, फिर तो छुटकारा बहुत मुश्किल है। जिस आदमी को सूली सिंहासन मालूम पड़ने लगे, आप उसे उतारना भी चाहें सूली से, तो वह नाराज हो कि भाई हम सिंहासन पर बैठे हैं, आप हमें उतारने की बात करते हैं! तुम भी आ जाओ।

तो अगर हम जीसस पर, कृष्ण और क्राइस्ट पर, और बुद्ध और मोहम्मद पर अगर नाराज हो जाते हैं, तो नाराज होने का कारण है। हम अपनी दुर्गंध में बड़े मस्त हैं, तुम नाहक हमें बेचैन करते हो, डिस्टर्ब करते हो। हम बड़े मजे में हैं। गोबर का कीड़ा है, वह गोबर में ही मजे में है। आप उसे गोबर से हटाएं, तो वह बड़ी नाराजगी से फिर गोबर की तरफ चला जाता है। उसके लिए गोबर नहीं है, उसके लिए जीवन है!

खयाल शायद हमें न आए कि जहां हम जी रहे हैं, वह दुर्गंध है। लेकिन दुर्गंध तो है ही, चाहे हम कितने ही कंडीशंड हो जाएं। फिर हम कैसे पहचानें कि वह दुर्गंध है? हम एक ही बात पहचान सकते हैं, जिससे दुख मिलता हो, हम उसे पहचान सकते हैं। अगर सुगंध है वासना, तो दुख नहीं मिलना चाहिए। लेकिन दुख मिलता है, दुख ही दुख मिलता है, फिर भी हम कहे चले जाते हैं, सुगंध।

कृष्ण कहते हैं, दुर्गंधयुक्त मल से ढंक जाए जैसे दर्पण। दर्पण कहते हैं।

दर्पण के साथ एक और बात समझ लेनी जरूरी है। दर्पण पर, आपने कभी खयाल किया कि दर्पण के सामने आइए, तो आपकी तस्वीर बन जाती है; और हट जाइए, तो तस्वीर मिट जाती है। यह दर्पण की खूबी है। यही उसकी क्वालिटी है, यही उसका गुण है। फोटो कैमरे के भीतर भी फिल्म होती है। वह उस पर भी तस्वीर बनती है, लेकिन मिटती नहीं; बन गई, तो बन गई। एक्सपोजर हो गया, तो हो गया। एक दफे बनती है, फिर तस्वीर को पकड़ लेती है कैमरे की फिल्म, फिर छोड़ती नहीं।

दर्पण जैसा कहने का कारण है। सिर्फ जो व्यक्ति धुएं से और दुर्गंधयुक्त मल से मुक्त होता है और जिसका चित्त शुद्ध दर्पण हो जाता है, उसकी स्थिति ऐसी हो जाती है--उसके सामने जो आता है, उसकी तस्वीर बन जाती है; जो हट जाता है, दर्पण कोरा और खाली और मुक्त हो जाता है। मित्र आया, तो खुशी; और चला गया, तो भूल गए। परिवार के लोग रहे, तो आनंद; नहीं रहे, तो बात समाप्त--दर्पण जैसा। फिर कोई चीज पकड़ती नहीं, एक्सपोजर होता ही नहीं। चीजें आती हैं, चली जाती हैं, और दर्पण अपनी शुद्धता में जीता है।

दर्पण को अशुद्ध नहीं किया जा सकता। फोटो के कैमरे की जो फिल्म है, उसको अशुद्ध किया जा सकता है, वह अशुद्ध होने के लिए ही है। वही उसकी खूबी है कि वह फौरन तस्वीर को पकड़ लेती है और बेकार हो जाती है। दर्पण बेकार नहीं होता। लेकिन हम जिस चित्त से जीते हैं, उसमें हमारी हालत दर्पण जैसी कम और फोटो की फिल्म जैसी ज्यादा है। जो भी पकड़ जाता है, वह पकड़ जाता है, फिर वह छूटता नहीं। एक्सपोजर हो जाता है, छूटता ही नहीं। कल किसी ने गाली दी थी, वह अभी तक नहीं छूटी; चौबीस घंटे बीत गए, वह गूंज रही है, वह चल रही है। देने वाला हो सकता है, भूल गया हो; देने वाला हो सकता है, अब माफी मांग रहा हो मन में; देने वाला हो सकता है, अब हो ही न इस दुनिया में--लेकिन वह गाली गूंजती है। हो सकता है वह आज गूंजे, कल गूंजे; हो सकता है कब्र में आप उसे अपने साथ ले जाएं और वह गूंजती ही रहे। एक्सपोजर हो गया, दर्पण जैसा नहीं रहा आपका चित्त।

यहां कोई हम में दर्पण जैसा नहीं है। दर्पण जैसा व्यक्ति ही अनासक्त हो सकता है, क्योंकि तब चीजें आती हैं और चली जाती हैं।

वही कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि तू दर्पण जैसे ज्ञान को उपलब्ध हो जा। हटा धूल को, जिस धूल के कारण चित्र पकड़ जाते हैं। हटा धुएं को, जिस धुएं के कारण तुझे दिखाई नहीं पड़ता कि तेरे भीतर जो ज्योति है ज्ञान की, वह क्या है। अपने दर्पण को उसकी पूरी शुद्धता में, पूरी प्योरिटी में ले आ, ताकि चीजें आएं और मिटें और जाएं और तेरे ऊपर कोई प्रभाव न छूट जाए, कोई इंप्रेशन, कोई प्रभाव तेरे ऊपर पकड़ न जाए, तू खाली...।

लेकिन शुद्धता दर्पण की तो तब हो न, जब उसके ऊपर धूल अशुद्धि की न जमे। दर्पण शुद्ध तो तब हो न, जब मैं स्वयं रहूं, मेरे ऊपर दूसरे न जम जाएं। दर्पण तो शुद्ध तब हो न, जब मैं जो हूं, वही रहूं; उसकी आकांक्षा न करूं, जो मैं नहीं हूं। दर्पण तो शुद्ध तभी हो सकता है न, जब वर्तमान का क्षण पर्याप्त हो और जब भविष्य की कामनाएं न पकड़ें और अतीत की स्मृतियां न पकड़ें, तभी मन का दर्पण शुद्ध हो सकता है।

ऐसे शुद्ध दर्पण को कृष्ण कहते हैं, ज्ञान। और ऐसा ज्ञान मुक्ति है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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