सोमवार, 12 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 2 भाग 30

 

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।

निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।। ४५।।

हे अर्जुन, सब वेद तीनों गुणों के कार्य रूप संसार को विषय करने वाले, अर्थात प्रकाश करने वाले हैं,
इसलिए तू असंसारी, अर्थात निष्कामी और सुख-दुःखादि द्वंद्वों से रहित, नित्य वस्तु में स्थित तथा योगक्षेम को
न चाहने वाला और आत्मवान हो।




राग और द्वेष से मुक्त, द्वंद्व से रहित और शून्य। राग और द्वेष से मुक्त, दो में से एक पर होना सदा आसान है। राग में होना आसान है, विराग में भी होना आसान है। विराग द्वेष है। धन को पकड़ना आसान है, धन को त्यागना आसान है। पकड़ना राग है, त्यागना द्वेष है। राग और द्वेष दोनों से मुक्त हो जाओ, शून्य हो जाओ, रिक्त हो जाओ, तो जिसे महावीर ने वीतरागता कहा है, उसे उपलब्ध होता है व्यक्ति।

द्वंद्व में चुनाव आसान है, चुनावरहित होना कठिन है। च्वाइस आसान है, च्वाइसलेसनेस कठिन है। कहें मन को कि इसे चुनते हैं, तो मन कहता है--ठीक। कहें मन को, इसके विपरीत चुनते हैं, तो भी मन कहता है--ठीक। चुनो जरूर! क्योंकि जहां तक चुनाव है, वहां तक मन जी सकता है। चुनाव कोई भी हो, इससे फर्क नहीं पड़ता--घर चुनो, जंगल चुनो; मित्रता चुनो, शत्रुता चुनो; धन चुनो, धन-विरोध चुनो; कुछ भी चुनो, प्रेम चुनो, घृणा चुनो; क्रोध चुनो, क्षमा चुनो; कुछ भी चुनो--च्वाइस हो, तो मन जीता है। लेकिन कुछ भी मत चुनो, तो मन तत्काल--तत्काल--गिर जाता है। मन के आधार गिर जाते हैं। च्वाइस मन का आधार है, चुनाव मन का प्राण है।

इसलिए जब तक चुनाव चलता है जीवन में, तब तक आप कितना ही चुनाव बदलते रहें, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता है। संसार छोड़ें, मोक्ष चुनें; पदार्थ छोड़ें, परमात्मा चुनें; पाप छोड़ें, पुण्य चुनें--कुछ भी चुनें। यह सवाल नहीं है कि आप क्या चुनते हैं, सवाल गहरे में यह है कि क्या आप चुनते हैं? अगर चुनते हैं, अगर च्वाइस है, तो द्वंद्व रहेगा। क्योंकि किसी को छोड़ते हैं और किसी को चुनते हैं।

यह भी समझ लेना जरूरी है कि जिसे छोड़ते हैं, उसे पूरा कभी नहीं छोड़ पा सकते हैं। क्योंकि जिसे छोड़ना पड़ता है, उसकी मन में गहरी पकड़ होती है। नहीं तो छोड़ना क्यों पड़ेगा? अगर एक आदमी के मन में धन की कोई पकड़ न हो, तो वह धन का त्याग कैसे करेगा? त्याग के लिए पकड़ अनिवार्य है। अगर एक आदमी की कामवासना में, सेक्स में रुचि न हो, लगाव न हो, आकर्षण न हो, तो वह ब्रह्मचर्य कैसे चुनेगा? और जिसमें आकर्षण है, लगाव है, उसके खिलाफ हम चुन रहे हैं, तो ज्यादा से ज्यादा हम दमन कर सकते हैं, सप्रेशन कर सकते हैं। और कुछ होने वाला नहीं है; दब जाएगा। जिसे हमने इनकार किया, वह हमारे अचेतन में उतर जाएगा। और जिसे हमने स्वीकार किया, वह हमारा चेतन बन जाएगा।

हमारा मन, जिसे अस्वीकार करता है, उसे अंधेरे में ढकेल देता है। हमारे सबके मन के गोडाउन हैं। घर में जो चीज बेकार हो जाती है, उसे हम कबाड़खाने में डाल देते हैं। ऐसे ही चेतन मन जिसे इनकार कर देता है, उसे अचेतन में डाल देता है। जिसे स्वीकार कर लेता है, उसे चेतन में ले आता है। चेतन मन हमारा बैठकखाना है।

लेकिन किसी भी आदमी का घर बैठकखाने में नहीं होता। बैठकखानों में सिर्फ मेहमानों का स्वागत किया जाता है, उसमें कोई रहता नहीं। असली घर बैठकखाने के बाद शुरू होता है। बैठकखाना घर का हिस्सा नहीं है, तो भी चलेगा। कह सकते हैं कि बैठकखाना घर का हिस्सा नहीं है। क्योंकि घर वाले बैठकखाने में नहीं रहते, बैठकखाने में सिर्फ अतिथियों का स्वागत होता है। बैठकखाना सिर्फ फेस है, बैठकखाना सिर्फ एक चेहरा है, दिखावा है घर का, असली घर नहीं है। बैठकखाना एक डिसेप्शन है, एक धोखा है, जिसमें बाहर से आए लोगों को धोखा दिया जाता है कि यह है हमारा घर। हालांकि उसमें कोई रहता नहीं, न उसमें कोई सोता, न उसमें कोई खाता, न उसमें कोई पीता। उसमें कोई नहीं रहता, वह घर है ही नहीं। वह सिर्फ घर का धोखा है। बैठकखाने के बाद घर शुरू होता है।

चेतन मन हमारा, जगत के दिखावे के लिए बैठकखाना है। उससे हम दूसरों से मिलते-जुलते हैं। लेकिन उसके गहरे में हमारा असली जीवन शुरू होता है। जब भी हम चुनाव करते हैं, तो चुनाव से कोई चीज मिटती नहीं। चुनाव से सिर्फ बैठकखाने की चीजें घर के भीतर चली जाती हैं। चुनाव से, सिर्फ जिसे हम चुनते हैं, उसे बैठकखाने में लगा देते हैं। वह हमारा डेकोरेशन है।

इसलिए दिनभर जो आदमी धन को इनकार करता है, कहता है कि नहीं, मैं त्याग को चुना हूं, रात सपने में धन को इकट्ठा करता है। जो दिनभर कामवासना से लड़ता है, रात सपने में कामवासना से घिर जाता है। जो दिनभर उपवास करता है, रात राजमहलों में निमंत्रित हो जाता है भोजन के लिए।

सपने में एसर्ट करता है वह जो भीतर छिपा है। वह कहता है, बहुत हो गया दिनभर अब चुनाव, अब हम प्रतीक्षा कर रहे हैं दिनभर से भीतर, अब हमसे भी मिलो। वह जाता नहीं है, वह सिर्फ दबा रहता है।

और एक मजे की बात है कि जो भीतर दबा है, वह शक्ति-संपन्न होता जाता है। और जो बैठकखाने में है, वह धीरे-धीरे निर्बल होता जाता है। और जल्दी ही वह वक्त आ जाता है कि जिसे हमने दबाया है, वह अपनी उदघोषणा करता है; विस्फोट होता है। वह निकल पड़ता है बाहर।

अच्छे से अच्छे आदमी को, जिसकी जिंदगी बिलकुल बढ़िया, सुंदर, स्मूथ, समतल भूमि पर चलती है, उसे भी शराब पिला दें, तो पता चलेगा, उसके भीतर क्या-क्या छिपा है! सब निकलने लगेगा। शराब किसी आदमी में कुछ पैदा नहीं करती। शराब सिर्फ बैठकखाने और घर का फासला तोड़ देती है, दरवाजा खोल देती है।

अभी पश्चिम में एक फकीर था गुरजिएफ। उसके पास जो भी साधक आता, तो पंद्रह दिन तो उसको शराब में डुबाता। कैसा पागल आदमी होगा? नहीं, समझदार था। क्योंकि वह यह कहता है कि जब तक मैं उसे न देख लूं, जिसे तुमने दबाया है, तब तक मैं तुम्हारे साथ कुछ भी काम नहीं कर सकता। क्योंकि तुम क्या कह रहे हो, वह भरोसे का नहीं है। तुम्हारे भीतर क्या पड़ा है, वही जान लेना जरूरी है।

तो एकदम शराब पिलाता पंद्रह दिन; इतना डुबा देता शराब में। फिर उस आदमी का असली चेहरा खोजता कि भीतर कौन-कौन छिपा है, किस-किस को दबाया है! तुम्हारी च्वाइस ने क्या-क्या किया है, इसे जानना जरूरी है, तभी रूपांतरण हो सकता है।

कई लोग तो भाग जाते कि हम यह बरदाश्त नहीं कर सकते। लेकिन गुरजिएफ कहता कि पंद्रह दिन तो जब तक मैं तुम्हें शराब में न डुबा लूं, जब तक मैं तुम्हारे भीतरी घर में न झांक लूं कि तुमने क्या-क्या दबा रखा है, तब तक मैं तुमसे बात भी नहीं करूंगा। क्योंकि तुम जो कहते हो, उसको सुनकर अगर मैं तुम्हारे साथ मेहनत करूं, तो मेहनत व्यर्थ चली जाएगी। क्योंकि तुम जो कहते हो, पक्का नहीं है कि तुम वही हो, भीतर तुम कुछ और हो सकते हो। और अंतिम निष्कर्ष पर, तुम्हारे जो भीतर पड़ा है, वही निर्णायक है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, चुनना मत। क्योंकि चुनाव किया कि भीतर गया वह; जिसे तुमने छोड़ा, दबाया, वह अंदर गया। और जिसे तुमने उभारा और स्वीकारा, वह ऊपर आया। बस, इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। द्वंद्व बना ही रहेगा। और द्वंद्व क्या है? कांफ्लिक्ट क्या है?

द्वंद्व एक ही है, चेतन और अचेतन का द्वंद्व है। आपने कसम ली है, क्रोध नहीं करेंगे। कसम आपकी चेतन मन में, कांशस माइंड में रहेगी। और क्रोध की ताकतें अचेतन मन में रहेंगी। कल कोई गाली देगा, अचेतन मन कहेगा, करो क्रोध! और चेतन मन कहेगा, कसम खाई है कि क्रोध नहीं करना है। और द्वंद्व खड़ा होगा। लड़ोगे भीतर।

और ध्यान रहे, जब भी लड़ाई होगी, तो अचेतन जीतेगा। इमरजेंसी में हमेशा अचेतन जीतेगा। बेकाम समय में चेतन जीतता हुआ दिखाई पड़ेगा, काम के समय में अचेतन जीतेगा। क्यों? क्योंकि मनोविज्ञान की अधिकतम खोजें इस नतीजे पर पहुंची हैं कि चेतन मन हमारे मन का एक हिस्सा है। अगर हम मन के दस हिस्से करें, तो एक हिस्सा चेतन और नौ हिस्सा अचेतन है। नौगुनी ताकत है उसकी।

तो वह जो नौगुनी ताकत वाला मन है, वह प्रतीक्षा करता है कि कोई हर्जा नहीं। सुबह जब गीता का पाठ करते हो तब कोई फिक्र नहीं, कसम खाओ कि क्रोध नहीं करेंगे। मंदिर जब जाते हो, तब कोई फिक्र नहीं, मंदिर कोई जिंदगी है! कहो कि क्रोध नहीं करेंगे। देख लेंगे दुकान पर! देख लेंगे घर में! जब मौका आएगा असली, तब एकदम चेतन हट जाता है और अचेतन हमला बोल देता है।

इसीलिए तो हम कहते हैं, क्रोध करने के बाद आदमी कहता है कि पता नहीं कैसे मैंने क्रोध कर लिया! मेरे बावजूद--इंस्पाइट आफ मी--मेरे बावजूद क्रोध हो गया। लेकिन आपके बावजूद क्रोध कैसे हो सकता है? निश्चित ही, आपने अपने ही किसी गहरे हिस्से को इतना दबाया है कि उसको आप दूसरा समझने लगे हैं, कि वह और है। वह हमला बोल देता है। जब वक्त आता है, वह हमला बोल देता है।

यह जो द्वंद्व है, यह जो कांफ्लिक्ट है, यही मनुष्य का नरक है। द्वंद्व नरक है। कांफ्लिक्ट के अतिरिक्त और कोई नरक नहीं है। और हम इसको बढ़ाए चले जाते हैं। जितना हम चुनते जाते हैं, बढ़ाए चले जाते हैं।

तो कृष्ण इस सूत्र में कहते हैं, राग और द्वेष से--द्वंद्व से, कांफ्लिक्ट से--जो बाहर हो जाता है, जो चुनाव के बाहर हो जाता है, वही जीवन के परम सत्य को जान पाता है। और जो द्वंद्व के भीतर घिरा रहता है, वह सिर्फ जीवन के नरक को ही जान पाता है।
इस द्वंद्व-अतीत वीतरागता में ही निष्काम कर्म का फूल खिल सकता है। या निष्काम कर्म की भूमिका हो, तो यह द्वंद्वरहित, राग-द्वेषरहित, यह शून्य-चेतना फलित हो सकती है।

चेतना जब शून्य होती है, तभी शुद्ध होती है। यह शून्य का कृष्ण का कहना! चेतना जब शून्य होती है, तभी शुद्ध होती है; जब शुद्ध होती है, तब शून्य ही होती है।

करीब-करीब ऐसा समझें कि एक दर्पण है। दर्पण कब शुद्धतम होता है? जब दर्पण में कुछ भी नहीं प्रतिफलित होता, जब दर्पण में कोई तस्वीर नहीं बनती। जब तक दर्पण में तस्वीर बनती है, तब तक कुछ फारेन, कुछ विजातीय दर्पण पर छाया रहता है। जब तक दर्पण पर कोई तस्वीर बनती है, तब तक दर्पण सिर्फ दर्पण नहीं होता, कुछ और भी होता है। एक तस्वीर निकलती है, दूसरी बन जाती है। दूसरी निकलती है, तीसरी बन जाती है। दर्पण पर कुछ बहता रहता है। लेकिन जब कोई तस्वीर नहीं बनती, जब दर्पण सिर्फ दर्पण ही होता है, तब शून्य होता है।

चेतना सिर्फ दर्पण है। जब तक उस पर कोई तस्वीर बनती रहती है--कभी राग की, कभी विराग की; कभी मित्रता की, कभी शत्रुता की; कभी बाएं की, कभी दाएं की--कोई न कोई तस्वीर बनती रहती है, तो चेतना अशुद्ध होती है। लेकिन अगर कोई तस्वीर नहीं बनती, चेतना द्वंद्व के बाहर, चुनाव के बाहर होती है, तो शून्य हो जाती है। शून्य चेतना में क्या बनता है? जब दर्पण शून्य होता है, तब दर्पण ही रह जाता है। जब चेतना शून्य होती है, तो सिर्फ चैतन्य ही रह जाती है।

वह जो चैतन्य की शून्य प्रतीति है, वही ब्रह्म का अनुभव है। वह जो शुद्ध चैतन्य की अनुभूति है, वही मुक्ति का अनुभव है। शून्य और ब्रह्म, एक ही अनुभव के दो छोर हैं। इधर शून्य हुए, उधर ब्रह्म हुए। इधर दर्पण पर तस्वीरें बननी बंद हुईं कि उधर भीतर से ब्रह्म का उदय हुआ। ब्रह्म के दर्पण पर तस्वीरों का जमाव ही संसार है।

हम असल में दर्पण की तरह व्यवहार ही नहीं करते। हम तो कैमरे की फिल्म की तरह व्यवहार करते हैं। कैमरे की फिल्म प्रतिबिंब को ऐसा पकड़ लेती है कि छोड़ती ही नहीं। फिल्म मिट जाती है, तस्वीर ही हो जाती है।

अगर हम कोई ऐसा कैमरा बना सकें, बना सकते हैं, जिसमें कि एक तस्वीर के ऊपर दूसरी और दूसरी के ऊपर तीसरी ली जा सके; एक फिल्म पर अगर हजार तस्वीरें, लाख तस्वीरें ली जा सकें, तो जो स्थिति उस फिल्म की होगी, वैसी स्थिति हमारे चित्त की है। तस्वीरों पर तस्वीरें, तस्वीरों पर तस्वीरें इकट्ठी हो जाती हैं। कनफ्यूजन के सिवाय कुछ नहीं शेष रहता। कोई शकल पहचान में भी नहीं आती है कि किसकी तस्वीर है। कुछ पता भी नहीं चलता कि क्या है। एक नाइटमेयरिश, एक दुख-स्वप्न जैसा चित्त हो जाता है।

दर्पण तो फिर भी बेहतर है। एक तस्वीर बनती है, मिट जाती है, तब दूसरी बनती है। हमारा चित्त ऐसा दर्पण है, जो तस्वीरों को पकड़ता ही चला जाता है; इकट्ठा करता चला जाता है; तस्वीरें ही तस्वीरें रह जाती हैं।

उर्दू के किसी कवि की एक पंक्ति है, जिसमें उसने कहा है कि मरने के बाद घर से बस कुछ तस्वीरें ही निकली हैं। मरने के बाद हमारे घर से भी कुछ तस्वीरों के सिवाय निकलने को कुछ और नहीं है। जिंदगीभर तस्वीरों के संग्रह के अतिरिक्त हमारा कोई और कृत्य नहीं है।

कृष्ण कहते हैं, शून्य, निर्द्वंद्व चित्त...। छोड़ो तस्वीरों को, जानो दर्पण को। मत करो चुनाव, क्योंकि चुनाव किया कि पकड़ा। पकड़ो ही मत, नो क्लिंगिंग। रह जाओ वही, जो हो। उस शून्य क्षण में जो जाना जाता है, वही जीवन का परम सत्य है, परम ज्ञान है।

                                                            (भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल


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